सोमवार, 23 मई 2011

एक पुरानी गाँठ


चलते-चलते पैर पत्थर से हो गए। फिर सर में एक सुन्नता छा गई। आँखों के आगे से उजाला अंधेरे में घुलने लगा। और शांति दरवाज़े के बाहर निकलने के पहले ही लहरा के गिर पड़ी। जब आँख खुली तो वो बिस्तर पर थी। और सासू माँ उसके सामने खड़ी उसे घूर रही थीं। शांति को एक पल को समझ नहीं आया कि हुआ क्या है। फिर अचानक समय का ख़्याल आया तो झपट कर घड़ी देखी। साढ़े दस बज रहे थे। दस बजे तो उसे दफ़्तर में होना था। वो अभी तक बिस्तर पर क्या कर रही है? शांति फ़ुर्ती से बिस्तर से उठ कर खड़ी हो गई और दरवाज़े की तरफ़ लपकी। सासू माँ ने उसका हाथ पकड़ कर रोकना चाहा। मगर शांति उनके रोके से नहीं रुकी। तभी रुकी जब एक बार फिर सर में एक विचित्र सा हलकापन छा गया और सभी दायित्वों के दबाव और तनाव एकाएक ढीले पड़ गए। शांति एक बार फिर से वहीं ढेर हो जाती। मगर उसी क्षण अजय ने आकर उसे संभाल लिया। और वापस बिस्तर की निष्क्रियता में सहेज दिया।
**

बिस्तर पर पड़े-पड़े सवा घंटे बीत चुके हैं। अजय दफ़्तर जा चुका है। और सासू माँ भी अपने कमरे में लौट गई हैं। बच्चे तो अचानक आई इस विपदा के पहले ही स्कूल रवाना हो गए थे। उन्हे तो पता भी नहीं कि सुबह तक उनकी भली-चंगी माँ बिस्तर के हवाले हो गई है। तीसरे माले पर रहने वाले डाक्टर मण्डल आकर ब्लडप्रेशर नाप गए हैं। और तमाम दूसरे टैस्ट कराने का मशविरा भी दे गए हैं। दफ़्तर में अजय ने फोन करके उसका हाल बयान कर दिया है और बोल दिया है कि वो नहीं आ सकेगी। शांति के पास  कुछ करने को नहीं है। दफ़्तर में होती तो इस वक़्त कई दिशाओं में उसकी ऊर्जाओं का विसर्जन हो रहा होता। पर इस तरह दिन में बिस्तर पर पड़े रहने की आदत नहीं है शांति को। लेटे-लेटे जी घबराने लगा। तीन बार सिरहाने रखी अधूरी किताब के आधे-आधे पन्ने पढ़कर परे हटा चुकी है। घबराहट के मारे किताब में भी मन नहीं लग रहा। क्या करे? बच्चे भी तीन बजे से पहले नहीं आने वाले। सोचा कि डाक्टर ने आराम करने की सलाह दी है तो सोकर ही गुज़ार दे यह पहाड़ सा कठिन दिन। तो आँख बंद की और लेटी रही।

मगर आँखों में नींद कहाँ। तरह-तरह के विचार और आशंकाएं सर में घुमड़ने लगीं। क्या हुआ है उसे। अभी उमर ही क्या है उसकी? अगर हृदय रोग हुआ तो? दिल की बीमारी दुनिया के सबसे जानलेवा रोगों में से है। तो क्या वो मरने वाली है? तीस-चालीस साल बाद तो वैसे भी मर जाना है। लेकिन उस मृत्यु की आहट इतनी जल्दी आ जायेगी ये शांति ने सोचा न था। मृत्यु के इस विचार के साथ जैसे एक धूमिल कुँए में गिरती चली गई और बहुत नीचे जाकर बीते हुए जीवन से कुछ चेहरे झलकने लगे। चेहरे जिनसे तमाम तरह के खट्टे-मीठे और चटपटे रिश्ते रहे। उन्ही में से एक चेहरा गीतू का भी नज़र आया। गीतू पूरे ग्यारह साल जो उसके साथ रोज़ स्कूल जाती रही और स्कूल से साथ आती रही। न जाने किस मोड़ पर और किस बात पर गीतू और उसमें ऐसी कट्टी हुई कि न वो गीतू की शादी में गई और न गीतू उसके ब्याह में आई। शांति ने बहुत याद करने की कोशिश की मगर ठीक-ठीक कुछ भी याद न आया। गीतू से मनमुटाव से अधिक पीर देने वाली बात ये थी कि वो बात जिसने दो पक्की सहेलियों के बीच फाड़ कर दी.. वो बात अब उसे याद तक नहीं। क्या बात रही होगी वो? शांति ने दिल में कसकने लगी बरसों पुरानी गीतू की दोस्ती और दुश्मनी को फिर से भुला देने की बहुत कोशिश की। मगर वो किसी ज़िद्दी भुनगे की तरह बार-बार उसके ज़ेहन में मंडलाती रही। हारकर शांति ने शब्बो को फोन लगाया बस यही पूछने के लिए- क्या उसे याद है कि गीतू और उसका किस बात को लेकर झगड़ा हुआ था? शब्बो को भी याद कुछ नहीं था। अलबत्ता उसे हैरत हुई कि अचानक गीतू की याद कैसे हो आई उसे?
तेरी बात होती है उससे?, शांति ने पूछा।
साल-दो साल में कभी हो जाती है.., शब्बो बोली।
कहाँ है आजकल?
मेरठ में। पढ़ा रही है।
अच्छा!
नम्बर दूँ उसका?
नम्बर लेके क्या करूंगी..
बात कर ले! जब इतनी याद आ रही है उसकी?
मुझे नहीं करनी बात..

इतना कहकर शांति ने बात पलट दी। शब्बो से बात करने के बाद शांति फिर से कमरे के सन्नाटे में पंखे की फरफर के बीच अपनी सांसो की आवाज़ सुनने लगी। बच्चों के आने में अभी भी पौना घंटा था। सासू माँ का समय कैसे कटता है अकेले घर में। शायद इसीलिए वो दिन भर बैठकर टीवी देखती हैं। यह सोचते हुए ही फोन पर एसएमएस आने की घंटी बजी। देखा तो शब्बो ने मना करने पर भी गीतू का नम्बर भेज दिया था।
**

घंटी जा रही थी। शांति का मन किया कि फोन काट दे। लेकिन इसके पहले कि वो मन की आवाज़ पर पहल करती, उधर से गीतू की पहचानी हुई आवाज़ की मिठास उसके कानों में घुल गई।
हलो..!? शांति को अपनी ही आवाज़ अनजानी सी लगी।
मगर गीतू उसकी आवाज़ पहचान गई, शैन?!
शांति की सारी हिचक अगले तीस सेकेण्ड में हवा हो गई। फिर तो दोनों ने जी भर कर पुराने दिनों को याद किया। और ख़ूब हँसी। वही लड़कियों वाली अर्थहीन ही-ही ठी-ठी जिसे सुनकर माँएं चिड़चिड़ाने लगती हैं। ऐसा लग रहा था कि शांति अपने उस कमरे में लेटे-लेटे समय में पीछे लौट गई हो। आम तौर पर ऐसी हँसी हँसते हुए उन दिनों शर्म भी बहुत आया करती थी। मगर उस अकेले कमरे की दोपहर में किसी से शर्माने की कोई वजह नहीं थी शांति को। तब तक तो बिलकुल ही नहीं जब तक पाखी और अचरज दरवाजे पर खड़े होकर उसे हैरत से घूरने नहीं लगे। उन्हे देखते ही शांति को फिर वही बचपन वाली शर्म का सा एहसास होने लगा। लगा जैसे बर्नी में से अचार चुराते हुए पकड़ ली गई हो। अपनी अपराधभावना पर क़ाबू पाने के साथ ही शांति ने गीतू से विदा ली और फोन रख दिया।

पाखी के चेहरे पर अजीब मिला-जुला भाव था। थोड़ी चिंता और थोड़ी हैरानी।
दादी कह रही थीं कि तुम्हारी तबियत बहुत ख़राब है.. तुम दफ़्तर नहीं गईं आज?  
हाँ ख़राब है.. डाक्टर ने आराम करने को कहा है..
पाखी और अचरज ने उसे ऐसे देखा जैसे उन्हे बिलकुल भी भरोसा न हो उसकी बात पर।
चलो खाना खाते है..मुझे भी भूख लगी है.. कहकर शांति बिस्तर से उठ गई।
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बच्चों के लौट आने के बाद शांति को समय के उस आतंक से छुटकारा मिल गया जो सुबह से त्रास रहा था। शाम को अजय के साथ जाकर सारे टैस्ट भी करवा आई। लौट कर आई तो अजय कहने लगा, अभी तो लग ही नहीं रहा कि सुबह बेहोश होकर गिर पड़ी थीं.. लगता है दिन भर आराम से काफ़ी असर पड़ा है
अच्छा!? उस आराम को किस तरह झेला है, मैं ही जानती हूँ.. पूरा दिन घर साँय-साँय करता है.. बुरी तरह बोर हो गई..
बस गीतू से बात हो गई यही अच्छा रहा, शांति ने मन में सोचा। मगर ये नहीं सोचा कि ज़िम्मेदारियों के शोर के नीचे दबी एक गाँठ को उसी सन्नाटे ने खोला जिस से वो इतना पीड़ित रही। चेहरे पर क्रीम लगाकर शांति जब लेटी तो अचानक उसे याद आया कि गीतू से वो बात तो पूछनी रह ही गई जिस पर उनकी कट्टी हो गई थी।
***

(२२ मई को दैनिक भास्कर में छपी) 




3 टिप्‍पणियां:

रंजना ने कहा…

कहानी तो बहुत अच्छी लगी...पर जिज्ञासा का समाधान नहीं हो पाया कि नायिका जो बेहोश हुई,उसे हुआ क्या था....????

कुछ कुछ अधूरी सी लगी कहानी...शायद तनिक और विस्तार पा यह पूर्णता पाती...

प्रवीण पाण्डेय ने कहा…

जीवन की दैनिक उलझनों में जूझती जिन्दगी।

Unknown ने कहा…

ये बेकार कहानी है
इस से भी अच्छी बुक मेरे पास है
कॉल करे 7023070737

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