रविवार, 15 मई 2011

पार्क में प्यार



शांति की शादी को पन्द्रह बरस हो गए । एक ज़माना था जब वो रोज़ घूमने जाते थे। फिर जैसे-जैसे गृहस्थी का पसारा फैलता गया, घूमना घटता गया। और फ़ुरसत का अधिक से अधिक समय घर में ही कटने लगा। अब तो ऐसा हाल है कि शांति और अजय दिल से दिल जोड़कर कुछ समय बैठना भी मुहाल है। ऐसी सूरत में जब इतवार की तीसरी पहर को अचानक अजय ने आकर घूमने चलने के लिए कहा तो शांति अचकचा सी गई। बीस चीज़ें हैं जिन्हे देखना है, करना है। मगर अजय ने उसके हाथ को अपने दोनों हथेलियों के बीच क़ैद करके धीरे से कहा- थोड़ी देर सब कुछ को यहीं छोड़ दो और चलो मेरे साथ।
 कहाँ?
कहीं दूर नहीं.. सामने पार्क में थोड़ी देर हवाख़ोरी करके आते हैं
अच्छा रुको कपड़े मशीन में डाल देती हूँ फिर चलते हैं..
छोड़ दो थोड़ी देर.. चलो.. लौट के करेंगे
“बच्चे?”
“बच्चे नहीं.. बस मैं और तुम..”
शांति ने एक पल इधर-उधर देखा और फिर हाथ के कपड़े वहीं बिछौने पर ही छोड़ दिए और अजय के साथ बाहर आ गई। हालांकि पुराने दिनों जैसी मन में कोई गुदगुदी नहीं थी मगर उसकी स्मृति की आहट ज़रूर थी।   

शांति के घर के पास जो पार्क है। वो कई सालों तक उजाड़ पड़ा रहा। फिर सरकार ने न जाने किस रहम के असर में उसका पुनरुद्धार करवा दिया। जब से पार्क को नया चेहरा मिला है। इलाक़े में नई रौनक़ आ गई है। आस-पड़ोस के बच्चे जो पहले तारकोल की सड़क पर क्रिकेटबाल और फ़ुटबाल के पीछे इधर-उधर दौड़ा करते, वो अभी भी सड़क पर ही खेल रहे हैं। क्योंकि पार्क खेलने के लिए नहीं है। शहर के ईंट-पत्थर से जब आप घबरा जायें तो पार्क की सजाई हुई हरियाली से दो घड़ी जी बहलायें-इसी सोच पर पार्क की तामीर हुई है। और जो रौनक़ बरास्ते पार्क के मुहल्ले में आई है वो मुहल्ले के नहीं बल्कि पूरे शहर के नौजवानों ने लाई है। वो सारे प्रेमी जो अपने समाज और परिवार की तंगदिली से बचने के लिए एक ख़ुलापन खोजते हैं। और फिर उसे खुलेपन में आकर एक कोना एकान्त का टटोलते हैं, वो सब इस पार्क में आसरा पाते हैं।

जब शांति और अजय पहुँचे तो पार्क के तमाम कोनों में प्रेमी युगलों का क़ब्ज़ा था। बैठने की सारी अच्छी जगहें पहले ही ली जा चुकी थीं। बीच में बिना किसी छाँह के घास के जो टुकड़े शेष थे उन्ही में से एक पर बैठ गए पुराने प्रेमी और प्रकृति में एक दूसरे की उपस्थिति का एहसास करने लगे। एक-दूसरे की शरीर के प्रति उत्सुकता और उसके रहस्य को जान लेने की अधीरता जो नौजवान जोड़ों में होती है, उस से दूर निकल आए शर्मा दम्पत्ति हवा-आसमान और फूल-पत्तो का जायज़ा लेने लगे। मगर जिधर भी निगाह जाती किसी आशिक़ और माशूक़ की चेष्टाओं से टकराती। थोड़ी ही देर में उन्हे शरम सी आने लगी जैसे वो किसी के प्रणयलीला में अपनी नज़रों की बाधा डाल रहे हों। दोनों ने एक दूसरे को देखा मानो पूछ रहे हों कि घर चलें या कहीं और चल के बैठें?

वो उठने ही लगे थे कि तभी किसी एक दूसरी ओर से कुछ गहमा-गहमी के सुर आने लगे। अजय तो बच निकलने की नीयत रखता था मगर शांति के कारण ऐसा हो न सका। शांति ने सोचा कि प्रेमियों का रमणस्थल है कहीं कोई उन्हे सता न रहा हो। और मामला कुछ-कुछ वैसा ही निकला मगर एकदम वैसा नहीं।

देखा तो चार लड़के-लड़कियां एक पचपन-साठ के बुज़ुर्ग को घेरे खड़े हैं। और ऊँची आवाज़ में उसे कुछ धमका रहे हैं। शांति ने पूछा कि बात क्या है? पता चला कि वो जनाब रोज़ाना वहाँ अकेले बैठकर जवान जोड़ों को ताड़ते हैं। और उनकी इस बेशर्म हरकत पर प्रेमी युगलों को सख़्त एतराज़ है। उनका आरोप है कि बुड्ढा एक विकृत मानसिकता का आदमी है जो अपने मैली निगाहों से पार्क का माहौल मैला कर रहा है। शांति ने उस बुज़ुर्ग से कड़क पर पूछा कि क्या वो वाक़ई ऐसा करता है। पहले तो जोड़ों के हमले और फिर शांति के आक्रामक तेवर से वो आदमी पूरी तरह मुरझा सा गया और हकलाने लगा। और बार-बार माफ़ी माँगने लगा। कहने लगा कि उसका कोई गन्दा इरादा नहीं है और वो कितने दिनों से उस पार्क में आता है, कभी उसने कुछ भी नहीं किया, किसी से कुछ भी बोला भी नहीं।

तो आते क्यों हो यहाँ?”, एक लड़के ने हड़का के पूछा।
क्या तुम सिर्फ़ जवान जोड़ों को देखने यहाँ नहीं आते हो?”, उसकी साथ की लड़की तड़प कर बोली।
इस तरह के चुभते हुए सवाल और पूछने वाली की आवाज़ की धमक के असर में उस आदमी ने सर झुका लिया और मान लिया कि वो उस पार्क में जवान जोड़ों को देखने ही आता है।

बस उसका ये स्वीकार करना था कि जोड़ों और उनमें भी विशेषकर लड़कों ने उसे दो चार धक्के दिए। एक ने तो लगभग हाथ भी छोड़ दिया था मगर अजय ने बुज़ुर्ग की उमर का लिहाज़ करते हुए बीच-बचाव किया। लड़कों ने उसे बार-बार चेताया कि फिर कभी उस पार्क में दिखाई दिया तो उसकी हड्डी पसली बराबर कर दी जाएगी। शांति को कुछ अपनी तरफ़ से पहल करने की ज़रूरत ही नहीं पड़ी। वो नौजवानों के तेवर देखती रही बस। और उस बेशर्म बुज़ुर्ग को भी जो अब बुरी तरह जलील होने के बाद पार्क से रुख़सत होने लगा था। अपनी पानी की बोतल, कैप और झोले को लेकर जलालत भरे क़दमों से वो पार्क के गेट की तरफ़ बढ़ने लगा। अजय और शांति को भी अब वहाँ बने रहने का औचित्य समझ न आया वो भी वापस अपने घास के टुकड़े की तरफ़ लौटने लगे। यूँ लौटते हुए उन्होने न चाहते हुए भी कुछ क़दम उस बेशर्म बुज़ुर्ग के साथ चले। नौजवानों के उस सहज आक्रोश के बीच अकेली निरपेक्ष आवाज़ उसे अजय की ही समझ आई होगी, इसीलिए उससे मुख़ातिब होकर अपने दिल के दर्द का बयान करने लगा।

मैं सच कह रहा हूँ भाईसाब.. मैंने कुछ नहीं किया.. कोई ग़लत काम नहीं किया..
तो भैया काहे ताड़ते हो लड़कियों को.., अजय ने कहा।
लड़कियों को नहीं ताड़ता..
लो अभी तो कहा तुमने कि इसीलिए आते हो यहाँ..
एक पल को चुप रहा वो बेशर्म बुज़ुर्ग फिर कहने लगा, मैं कोई लुच्चा लफ़ंगा नहीं हूँ, भाईसाब.. मैं भी शरीफ़ आदमी हूँ.. मेरे भी बीवी-बच्चे हैं.. मैंने भी प्यार किया है.. मैं जानता हूँ प्यार क्या होता है.. बहुत ख़ूबसूरत चीज़ है प्यार.. फूलों की तरह.. ये जो प्यार है न.. फूलों की तरह ये भी हमेशा नहीं रहता.. फिर चेहरे न जाने कैसे हो जाते हैं..

इतना कह कर उस आदमी ने अपनी कैप पहनी और अपमान से बोझिल वही चाल चलता हुआ पार्क के गेट से बाहर निकल गया। शांति और अजय देर तक उसे देखते रहे जब तक वो अपने स्कूटर पर बैठकर चला नहीं गया। बाद में वे दोनों भी धीरे-धीरे चलकर अपने घर चले गए। और इस पूरे दौरान पार्क में प्यार करने वाले अपने उस प्यार में खो रहे जो बाद में जीवन की आपाधापी में उनसे खो जाने वाला है।   

***

(इसी इतवार दैनिक भास्कर में शाया हुई)  




6 टिप्‍पणियां:

Manoj K ने कहा…

कहानी बेहद उम्दा है. यहाँ उस बूढ़े से थोड़ा सा लगाव सा हों जाता है, थोड़ा और उसके बारे में जानने को मन करता है...

मनोज

Udan Tashtari ने कहा…

अच्छा लगा पढ़कर. मुझे भी लगा था कि उस बुजुर्ग की कुछ सच्चाई पता चलेगी...

प्रवीण पाण्डेय ने कहा…

किसी की असमय उपस्थिति उसे समाज अपनी पूर्वधारणाओं से ही देखता है।

शोभा ने कहा…

इस कहानी को पढ़ कर मेरे मन में ये प्रश्न उठे कि वो जवान जोड़े पार्क में क्या करने आते है? क्या कोई बुजुर्ग अकेला पार्क में नहीं बैठ सकता है ?

रंजना ने कहा…

मन बोझिल हो गया...सारे शब्द चुके से लग रहे हैं,क्या कहूँ...

मन को छूती,झकझोरती अत्यंत प्रभावशाली कथा...

बेनामी ने कहा…

जनसत्ता के वे दिन से होकर भी नहीं होना से होते हुए यहां अपने एक दोस्त निर्मल आनंद (कोमा, राजिम)को देखने पहुंचा तो दूसरा ही निर्मल आनंद प्राप्त हुआ। पार्क में प्यार बहुत अच्छा है। कहने की आपकी शैली प्रभावित करती है।

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