शुक्रवार, 11 फ़रवरी 2011

मिस्र की ‘आज़ादी’



मिस्र ‘आज़ाद’ हो गया। यह एक ऐतिहासिक लम्हा है। अरब देशों के इतिहास में यह पहला मौक़ा है जब जनता के दबाव में शासक को झुकना पड़ा हो। बहुत सारे लोग इस क्षण में क्रांति की अनन्त सम्भावनाएं देख सकते हैं। पर मेरा नज़रिया हमेशा की तरह थोड़ा संशयपूर्ण है। ये कोई समाजवादी क्रांति नहीं है। ये सर्वहारा का जयघोष भी नहीं है। ये व्यवस्था में आमूलचूल परिवर्तन की लड़ाई भी नहीं है। इस आन्दोलन में पहले से बने-बनाए समीकरण आरोपित करने के बजाए इसको इसकी सीमाओं में पहचानने की ज़रूरत है। ये कैसी आज़ादी है? किस से आज़ादी है? होस्नी मुबारक ने गद्दी छोड़ दी है लेकिन सत्ता अभी भी सेना के हाथ में है। अब ये सेना की सदाशयता होगी कि वह मिस्र में निष्पक्ष चुनाव कराये और जनता के चुने हुए प्रतिनिधियों को जनता की आकांक्षाओं की अभिव्यक्ति करने का अवसर दे। ये मान लीजिये कि चुनाव करवा भी दिये तो उसके बाद क्या सेना अपनी अपरिमित ताक़त को अपने हाथों से दूसरे हाथों में सौंप देगी?

ये भी याद रखने की ज़रूरत है कि मिस्र की सेना पूरी तरह से अमरीका की साझीदार है। मुबारक को सत्ता से बाहर कर के ‘जनता की आंकाक्षाओं’ के एहतराम करने का जो सराहनीय काम सेना ने किया है वह भी अमरीकी सलाह या दबाव पर किया गया है। तो उस सेना से अमरीकी हितों के विरुद्ध कोई क्रांतिकारी सूरत उभरने में सहयोग की उम्मीद रखना भूल होगी। फिर भी यह देखना दिलचस्प होगा कि जनता के अरमानों और सेना की विधानों का अन्तरविरोध मिस्र में किस शकल में विकसित होता है। और यह भी कि इस पूरी परिघटना का असर बाक़ी अरब देशों में क्या होता है?

मिस्र और दूसरे अरब देशों की जनता का एक बड़ा तबक़ा इख़्वानुल मुस्लमीन में आस्था रखता है और देश में शरिया लागू करने का पक्षधर है। इस सन्दर्भ में यह बात भी उल्लेखनीय है कि अरब देशों के शासकों की अलोकप्रियता का एक कारण उनकी तानाशाही तो है ही मगर अधिक बड़ी वजह उनकी अमरीकापरस्ती है। जनान्दोलन की इस लहर से मिस्र में आम आदमी के जीवन में कोई क्रांतिकारी परिवर्तन आएगा, मुझे नहीं लगता मगर इस लहर से पश्चिम एशिया के मौजूदा राजनैतिक समीकरण बुनियादी तौर पर बदलने वाले हैं, ये तय है। उम्मीद ये की जाय कि एक बेहतर सूरत पेश आएगी क्योंकि अभी जो गतिरोध है वह सिर्फ़ असंतोष और हिंसा को ही पोसता रहा है।

16 टिप्‍पणियां:

Neeraj Rohilla ने कहा…

जो भी हो, ईमानदारी से १५ दिन पहले हमने नहीं सोचा था कि ऐसा हो पायेगा, सो बडी खुशी है।

नई सहर के बोहत लोग मुन्तज़िर हैं मगर
नई सहर भी कजला गई तो क्या होगा ?

अनूप शुक्ल ने कहा…

संशय अपनी जगह लेकिन यह बदलाव सुखद है। आगे का इंतजार किया जाये।

L.Goswami ने कहा…

सहमत...पर आशान्वित भी हूँ..शायद यह पूंजीवादी जनक्रांति सर्वहारा क्रांति में बदल जाये ....अगर आर्थिक मोर्चा बदहाल बना रहा तो....

Neeraj ने कहा…

अभय, मैं अमेरिका का फैन नहीं हूँ , लेकिन फिर भी तानाशाही से तो अमेरिका भला | इसलिए हर चीज़ में अमेरिका का घुस जाना पसंद नहीं , वैसे ही हर जगह उसे घुसा के कोसना भी तो ठीक नहीं |

और आम आदमी जैसा शब्द बहुत भ्रष्ट हो चुका है, खासकर हमारे देश में |

प्रवीण पाण्डेय ने कहा…

यदि बेहतरी आये तभी स्वागत योग्य। स्वागत वन्दनाओं को भविष्य के लिये सुरक्षित रखा जाये, श्रम बचेगा।

iqbal abhimanyu ने कहा…

सकारात्मक बदलाव की आशा लिए हुए मिस्र की जनता को सलाम...

रंजना ने कहा…

बहुत सही कहा...

ऊपरी तौर पर यह जनता की जीत और तानाशाही का खात्मा लग रहा है..जबकि यदि अमेरिका का दवाब न रहता तो यह संभव ही न था..

फिर भी यदि व्यवस्था में वह परिवर्तन आया जिसकी आकांक्षा वहां की आम जनता को है,तो मन जाएगा की यह जीत जनता की हुई.... और तब शायद विश्व के बाकी देश भी इसे उदहारण के रूप में ले अपने लिए प्रयोग में लायें..

rashmi ravija ने कहा…

बदलाव स्वागत योग्य है....जनता में आत्मविश्वास आया है...उन्हें अपनी ताकत का अंदाजा हो गया है.

पर संशय भी है...आने वाले दिनों में वहाँ, किस तरह का शासन....कितनी आज़ादी....कैसा माहौल देखने को मिलता है...इस पर सबकी नज़रें लगी होंगी.

शरद कोकास ने कहा…

चलिये हम बेहतर की कामना करें ।

डॉ. मनोज मिश्र ने कहा…

सही कह रहे हैं.

Kavita Krishnapallavi ने कहा…

ओ नौजवान, आज का दिन है तुम्‍हारे नाम
उठाओ आवाज़, अब न थकान हो, न गहरी नींद
ये वक्‍़त है तुम्‍हारा, तुम्‍हारी है ये जगह
न्‍योछावर करो हम पर अपना हुनर, अपनी जद्दोजहद
हम चाहते हैं कि मिस्र के नौजवान डटे रहें
हमालावरों और अत्‍याचारियों के हर हमले का मुक़ाबला करें...
- मिस्र के कवि इब्राहीम नाजी (1898-1953)

Kavita Krishnapallavi ने कहा…

अरब धरती से उठा जन विद्रोहों का चक्रवात साम्राज्यवाद-पूँजीवाद विरोधी उभार है। यह आने वाले दिनों का पूर्व संकेत है और भारत जैसे तमाम देशों के भ्रष्ट, लुटेरे शासकों के लिए एक संदेश है, जिनके लोकतंत्र का प्रहसन एकदम वीभत्स रूप में जनता की नज़रों के सामने ज़ारी है। ट्यूनीशिया और मिस्र के जनउभार जनक्रान्ति नहीं है, क्योंकि इनके पास पूँजीवाद का सुस्पष्ट विकल्प नहीं है या यूँ कहें कि ऐसा विकल्प प्रस्तुत करने वाला नेतृत्व नहीं है। फिर भी यह इतिहास का एक अग्रवर्ती कदम है। अरब जगत अब वैसा ही नहीं रह जायेगा। साम्राज्यवाद-पूँजीवाद को कुछ कदम हटना पड़ेगा और जनता को कुछ जनवादी अधिकार देने पड़ेंगे। फिलिस्तीनी जनता के संघर्ष को भी इससे नयी गति मिलेगी। इतिहास का रंगमंच फिर अगले दौर के वर्ग संघर्ष के लिए तैयार होने लगेगा और उसकी वाहक शक्तियाँ भी अपनी भूमिका निभाने के लिए उस रंगमंच पर उपस्थित हो जायेंगी।

Satish Saxena ने कहा…

बढ़िया और पढने योग्य लेख ! आप अच्छा लिखते हैं , शुभकामनायें !

सिद्धार्थ शंकर त्रिपाठी ने कहा…

सर्वहारा क्रांति?

इसका अस्तित्व अब किताबों की चर्चा में ही बचा है।
दुनिया तो अब कहीं और देख रही है।

चंद्रमौलेश्वर प्रसाद ने कहा…

आज़ादी या सेना का शिकंजा? हमे देखना है और हम देखेंगे.... :)

Rahul Singh ने कहा…

sir its a nice starting .well began is half done.apki chintaye sahi hai par samay ke sath sab change ho jayega.itne kam samay me janta ne itna bada change laya.aage bhi wo jarurat padi to khadi hogi.

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