क्या आप ने कभी सोचा है कि पुरुष को ही क्यों सर्वशक्तिशाली ईश्वर ने श्मश्रु से पुरस्कृत किया है? क्या यह इसलिए है ईश्वर स्वयं एक नर है और चूंकि पुरुष उस विराट कालपुरुष का सूक्ष्म संस्करण है इसलिए उसके दाढ़ी-मूंछ होना स्वाभाविक है? ये दीगर बात है कि बीसवीं सदी के आरम्भ में जनमी कैलेण्डर आर्ट के अनुसार क्षीर सागर में शयन करने वाला वह वैकुण्ठी विष्णु सदैव श्मश्रुहीन अवस्था में ही पाया जाता है। वैसे सोचने की बात तो ये भी है कि किन कलात्मक आग्रहों और दबावों के चलते आर्टिस्ट ने ऐसा चुनाव किया होगा कि सभी अवतारी पुरुषों से उनकी पुरुषत्व का सबसे सहज प्रतीक छीन लिया होगा?
प्रकृति में भी कुछ अन्य भी उदाहरण ऐसे हैं जिनमें नर और मादा का स्वरूप अलग-अलग होता है। अब जैसे नर बाघ और मादा बाघ के स्वरूप में कोई अन्तर नहीं है जबकि नर सिंह और मादा सिंह के रूप में में बड़ा गरु अन्तर है। वही दाढ़ी!
वैज्ञानिक मानते हैं कि यह कभी संयोग भले रहा हो लेकिन बाद में इन संयोगो के निमित्त बने प्राणी अपनी वंशवृद्धि में अधिक सफल होने के कारण ये बदलाव रूढ़ हो गए। ऐसे कुछ अन्य भी प्राणी हैं जिन्होने अपनी हिंसा और आक्रामक वृत्ति की पहचान को दूर से ही बतला देने के लिए इस प्रकार की आकृति का चुनाव किया है। दूसरी तरफ़ कुछ प्राणियों की मादाओं ने भी अपने विभिन्न अंगो को रंगों और आकृति से नर के लिए आकर्षक बनाया है। कुछ प्राणियों में आकर्षण का यह काम नर करते हुए मिलते हैं विशेषकर पक्षियों में। कौन आकर्षण कर रहा है, यह इस बात पर भी निर्भर करता है कि समागम के चुनाव का अधिकार किस के पास है। अगर नर के पास है तो मादा आकर्षण का काम सम्हालती है, और जिन प्राणियों में मादा चुनाव करती है तो नर आकर्षक बनाता हैं स्वयं को।
मनुष्य में, सिंह की ही तरह, गर्भाधान का चुनाव नर के पास है। वह अपनी हिंसक और आक्रामक वृत्ति से यह फ़ैसला करता रहा है कि कौन पुरुष गर्भाधान करेगा। क्या आश्चर्य है कि कृष्ण भगवान की १६००८ रानियां थीं; कि लम्बे समय तक एकपत्नीव्रत का पालन करने वाले मुहम्मद साहब की पत्नियों की संख्या, विजयी होने के बाद अल्पकाल में ही ग्यारह हो गईं थी, ग़नीमत में मिली दासियां अलग से; कि दुनिया में इस समय सबसे अधिक वंशज विश्वविजेता चंगेज़ खां के हैं, जिसने मंगोलिया से लेकर योरोप तक अनेक उपजाऊ धरतियों को रौंदा था? कोई आश्चर्य नहीं, यह संसार का नियम रहा है! मगर क्यों? क्यों कि विजेता के जीत ने उसके सर्वोत्तम जीन का मालिक होने पर मोहर लगा दी है, और इसलिए प्रकृति ने उसे अपने जीन के प्रसार का अधिकार दिया है। सरवाइवल औफ़ द फ़िटेस्ट का सिद्धान्त यही है।
अपने आत्मप्रसार के लिए हिंसक और आक्रामक वृत्ति की बाहिरी अभिव्यक्ति बनी रही है दाढ़ी। और सर्वोत्तम जीन को आकर्षित करने के लिए स्त्रियों ने अपने स्वरूप में से इस दाढ़ी का पूरी तरह से परित्याग किया और चिकने, सौम्य और सुडौल स्वरूप का वरण किया ताकि इस चुनाव में वह स्वयं भी एक भूमिका निभा सके। याद रहे मित्रो कि पहले एक अवस्था यह थी, वैज्ञानिकों के अनुसार (कुछ लोग उसे नहीं भी मानते हैं), जबकि आदमी और औरत दोनों का शरीर बालों से भरा हुआ था, अन्य सभी थलीय प्राणियों की तरह।
लेकिन प्रगति ने देखिये कैसे बदल दिया है संसार का रंग-ढंग। जैसे-जैसे सभ्यता ने क़दम बढ़ाये, आदमी ने कपड़े पहने और सामाजिक संरचनाओं के ज़रिये व्यक्ति की हिंसा को नियंत्रित करने के लिए क़ानून बनाये, तो प्राकृतिक नियमों से उसकी दूरी बढ़ती गई। और मनुष्य प्रकृति के नियमों से अलग मनुष्यता के मूल्यों, जिन्हे अक्सर धर्म की संरचना में भी परिभाषित किया जाता है, संचालित होने लगा। तो दया, करुणा, सहानुभूति आदि जैसे मूल्यों के चलते जिन्हे पहले सिर्फ़ स्त्रैण माना जाता था, पौरुष के दायरे में प्रबलता पाने लगे। और तमाम संस्कृतियों में दाढ़ी की भूमिका घटती गई। कैलेण्डर आर्ट में हिन्दू भगवानों की दाढ़ी-विहीन मुखाकृतियों को इसी प्रकाश में देखा जा सकता है- ताकि उनके भीतर के करुणा और सौम्यता के गुणों को रेखांकित किया जा सके।
सभ्य होते-होते आज तो हालत ये है कि आधुनिक संस्कृति में दाढ़ी बढ़ाये रखना प्रमाद का प्रतीक समझा जाता है। लेकिन सभी संस्कृतियों में दाढ़ी परम्परावादियों की पसन्द बनी रहती है। लेकिन इस दाढ़ी हट जाने से, अधिक वीर्यवान पुरुषों को गर्भाधान में जो वरीयता मिलती थी, वह कम नहीं हुई। युद्ध में विजयी सैनिक और शहरों में गुण्डे और बदमाश आज भी वैसे ही बलात्कारी वृत्ति का पालन करते हैं। साथ ही बल का जो आर्थिक स्वरूप सामने आया है, उस का उपयोग करके लक्ष्मीवान जिसे चाहे ख़रीद कर अपनी क्षुधातृप्ति करते हैं। तो क्या प्रगति के इस दौर में स्त्री को इस विषय में कोई अधिकार नहीं प्राप्त हुआ? हुआ है.. खिलाड़ी, रौकस्टार्स, फ़िल्म अभिनेता आदि दुनिया भर में लड़कियों के साथ सोने का जो लाभ उठाते हैं, उन मामलों में उनका अपना चुनाव गौण और लड़कियों का चुनाव प्रमुख होता है। वे लड़कियां तय करती हैं कि वे सोना चाहती हैं उन सितारों के साथ।
और सबसे अधिक बढ़ कर, गन्धर्वविवाह की पुरानी परम्परा को जो आधुनिक प्रेमविवाह का स्वरूप मिला है, उस में स्त्री को अपने आप को आकर्षक बनाने और सर्वोत्तम साथी को चुन सकने की बड़ी भूमिका है। वे अपने आकर्षण का इस्तेमाल गर्भाधान के लिए करें या सिर्फ़ यौनानन्द के लिए यह बात यहाँ महत्वपूर्ण नहीं है। [क्योंकि गर्भनिरोधक ने स्त्रियों को सम्भोग के आनन्द को पुरुषो के ही स्तर पर ले सकने के आज़ादी दे दी है] शुद्ध गर्भाधान हो या यौनान्द, उसका लाभ वे तभी उठा सकती हैं जब कि उन्हे प्रकृति प्रदत्त सौम्यता और सुडौलता को प्रदर्शित कर के पुरुषों को आकर्षित करने का अवसर मिल सके।
लेकिन कुछ संस्कृतियां ऐसी भी हैं जो स्त्री को यह आज़ादी देने के नाम से ही भड़क जाती हैं। वे भले ये मानती हों कि ईश्वर सर्वगुण सम्पन्न हो और सम्पूर्ण हो मगर उसकी कृति व प्रकृति, जैसी ईश्वर ने बनाई वैसी स्वीकार्य नहीं है; उसे काटने-छाँटने और ढकने-छिपाने की ज़रूरत है। और इसीलिए वे स्त्री को छिपा कर रखना चाहते हैं। जबकि मेरी समझ में ऐसा करना, स्त्री ने हज़ारो बरस में प्राकृतिक चुनाव के ज़रिये जो गुण व सौन्दर्य विकसित किया है, उस पर डाका डालना है।
सोचिये अगर संयोग से, अपना मुँह छिपाये रहने वाली इन स्त्रियों में से किसी के दाढ़ी उग आई, जोकि म्यूटेशन के चलते होता ही रहता है गाहे-बगाहे, तो उस जीन को हताश भी नहीं कर सकेगी प्रकृति। और सम्भव है कि लगातार मुँह छिपाये घूमते रहने से बेहतर विकल्प उनको यही मालूम दे कि जिस जीन को प्रकृति ने इतने हज़ारों बरसों में संजोया है उसे त्याग कर, फिर से दाढ़ी-मूँछ का 'प्राकृतिक बुर्क़ा' अपने चेहरे पर कर लिया जाय।
एक आक्रामक, हिंसक और असुरक्षित समाज में स्त्रियाँ स्वयं अपने प्रकृतिप्रदत्त सौन्दर्य को छुपाना चाहेंगी लेकिन एक सुरक्षित व स्वस्थ समाज में भी कोई स्त्री स्वयं बुरक़े के अंधेरों में बन्द होने का चुनाव कर सकती है। जैसा कि देखा जा रहा है, उस स्थिति में स्त्री सम्भवतः उस स्वस्थ समाज से, किन्ही कारणों से भी, अपने आपको जोड़ कर देख पाने में अक्षम है। लेकिन उस के इस चुनाव से बुरक़े का मूल स्त्रीविरोधी चरित्र रद्द नहीं हो जाता।
16 टिप्पणियां:
कोई प्रबुद्ध महिला आपके इस पोस्ट पर अपनी विस्तृत राय रखती तो हमें और ज्ञान लाभ होता।
मेरे उत्तम (?) विचार में तो प्रकृति ने दाढ़ी को पुरुषों के कुरूप चेहरे को छुपाने की असफल कोशिश के रूप में ईजाद किया है. आफ्टर आल, मेन, बेसिकली इज ए पिग इन डिस्गा
ईज़ ! :)
‘ उसे काटने-छाँटने और ढकने-छिपाने की ज़रूरत है।’
ऐसा उस समाज को करना पड़ता है जो अपनी कामेच्छा को काबू में नहीं रख सकता :)
यह दाढ़ी मूँछ वाला विकल्प मुझे बेहतर लग रहा है। यदि स्त्रियों के चेहरे पर हटाई ना जा सकने वाली दाढ़ी मूँछ उग आती तो कितना सही होता। तब फ्राँस को भी इस ढकाव को सहना ही पड़ता और बहुत से ढकावपक्षी पुरुष भी स्त्री के चेहरे को देखने की दुआ करने लगते। संसार में बुराई का नामोनिशान ही न रहता!
वैसे मैंने एक >लेख में यह भी लिखा था कि यदि तथाकथित भगवान ढकावपक्षी होता तो कम से कम फर से तो स्त्री शरीर ढक ही देता। किन्तु आप भगवान को एक और विकल्प दाढ़ी मूँछ का भी दे रहे हैं, सही है, शायद वह इसपर फिर से विचार करे।
घुघूती बासूती
आज कल आप ने दाढ़ी रखी है या सफाचट्ट हैं?
:)
आज के इंडियन एक्सप्रेस में काबुल के संसदीय चुनावों में महिला पोलिंग एजेंटों का चित्र पहले पृष्ठ पर छपा है। सभी सिर से पैर तक ढकी हुई हैं। नील परिधान पहनी कुल 13 महिलाओं में केवल दो हाथ और दो पैर नज़र आ रहे हैं।
मुझे प्रसाद की रचना 'नील परिधान बीच खिल रहा सुकुमार अंग' याद आ गई।
लेख पढ़ कर और चिंतनग्रस्त हो गया हूँ।
कुछ प्राणियों में ईश्वर ने एक ओर शक्ति दी है जिसमे मादा सम्भोग के बाद पुरुष को मार देती है......वैसे स्त्री को कपडे में ढकने वाला ईश्वर नहीं है ....सो उसे इस ऑप्शन की जरुरत नहीं है.दूसरी बात अब पढ़े लिखे लोग भी मसलो पर लाभ हानि तौल कर बोलते है .....ऐसी समझदारी भरी चुप्पिया ही किसी समाज का नाश कर रही है ....वैसे कोई हैरानी की बात नहीं धर्म की अफीम की मेंटल कंडिशनिंग की हुई कई औरते दाढ़ी उगाने को तैयार हो जाए पर बुरका छोड़ने को नहीं
शुक्रिया घुघूती जी, आप की इस टिप्पणी और लेख के लिंक से प्रिय रंगनाथ की ज्ञानवर्धन की आंकाक्षा का भी समाधान हो गया..
राव साहेब, प्रमाद ग्रस्त रहता हूँ.. दाढ़ी में :)
गुणों का सम्यक विवेचन।
अब जो नही हो सका है उसके लिए क्या कह सकते है ?
सम्यक, विस्तृत, गंभीर और सुविचारित लेखन।
आपकी दाढ़ी से कोई शिकायत नहीं पर ज्यादातार दाढ़ीवाले अपनी दाढ़ी को ढाल बनाकर जी रहे होते हैं। सच्ची में। ज़िंदगी में ज्यादातर फ़र्ज़ी लोगों को दाढ़ीवाला ही पाया।
चेहरा क्या छुपाना?
ख़ूबसूरती बढ़ाने के लिए अलबत्ता पुरुषों को दाढ़ी बढ़ाने का पूरा हक़ है। हर उस धर्म को ख़ारिज़ करता हूं जो दाढ़ी-मूछ जैसी प्राकृतिक पैदावार को बढ़ाने या काटने को पाबंद करता है:)
दाढ़ी अपने आप में एक मज़हब है जिससे हिन्दू, सिख, ईसाई या इस्लाम का लेना देना नहीं है। दाढ़ी का अपना दर्शन है जो ज्यादातर लुभावना पर अंत में खोखला ही साबित होता है। बावजूद इसके कि दाढ़ी के रंग से फ़र्क़ नहीं पड़ता, दाढ़ी की रंगत अक्सर कूटनीतिक होती है। दाढ़ी चाहे जितनी आकर्षक हो, लड़कियों को हमेशा या तो ज़ेब या फिर ज़ेहन ही प्रभावित करते हैं। बारहा लोग दाढ़ी को हैवानियत का सुबुत भी मानते हैं क्योंकि इन्सान दाढ़ी रख भी सकता है और क्लीनशेव भी हो सकता है जबकि जानवर के पास यह सहूलियत नहीं है सो दाढ़ीवालों से बचने की सलाहियत भी इसी नज़रिये से दी जाती है कि वह हैवान भी हो सकता है। ये अलक बात है कि हमारे मज़हबों में सुधारक भी दाढ़ीवाले ही होते हैं।
दाढ़ी की क़िस्मत में हमेशा इज़्जत होती है और पकी दाढ़ी की लोग कभी बेइज्ज़ती नहीं करते। दाढ़ियों की कई शक्ल होती हैं और ज्यादातर उन शख्सियतों से कतई मेल नहीं खाती जिनके चेहरों पर वे उगी होती हैं।
दाढ़ी महिमा और दाढ़ी पुराण अपरम्पार है। फिलहाल इतना ही।
जैजै।
इस राय पर कायम रहूंगा कि दाढी बढ़ आने पर भी बुर्के से निजात नहीं मिल सकेगी !
श्मश्रु... बिलकुल नया नाम जाना...
आभार ...
मूंछें भले न हों पर दाढी कुछ हद तक कठोरता का प्रतीक अवश्य मानी जाती हैं...सत्य कहा आपने,संभवतः इसी कारण करुणामय ईश्वर के स्वरुप में इसका स्थान नहीं छोड़ा गया है..
सहमत हूँ...
एक आक्रामक, हिंसक और असुरक्षित समाज में स्त्रियाँ स्वयं अपने प्रकृतिप्रदत्त सौन्दर्य को छुपाना चाहेंगी लेकिन एक सुरक्षित व स्वस्थ समाज में भी कोई स्त्री स्वयं बुरक़े के अंधेरों में बन्द होने का चुनाव शायद ही करेगी....
जै जै...भाई....अभी कुछ कह नहीं पा रहा हूँ...
@ अजित वडनेरकर : ज्यादातार दाढ़ीवाले अपनी दाढ़ी को ढाल बनाकर जी रहे होते हैं।
अजित भाई, मूछों के बारे में क्या खयाल है :)
घुघूती जी का लेख मैंने पढ़ा। अच्छा भी लगा लेकिन वहां विषय का केन्द्र थोड़ा सा हट कर लगा।
अभय जी आपने लिखा है उससे मुझे ओशो का दाढ़ी-मूंछ पर बोला याद आ गया। मुझे संदर्भ याद होता तो मैं कोट करता। आपने पढ़ा ही होगा। वह भी इसी तरह जीव जगत में नर-मादा के प्राकृतिक सामान्य व्यवहार के तर्ज पर स्त्री-पुरुष को परिभाषित करते हैं।
व्यक्तिगत तौर पर मैंने कभी इस पर सुचिंतित तरीके से विचार नहीं किया फिर भी लगता है कि यह मामला सौन्दर्य चेतना के विकास से ज्यादा जुड़ा हुआ है।
सोच रहा हूँ अब कम से कम मूँछ तो रखी ही जाय :)
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