रविवार, 6 जून 2010

छविभंजक एडवर्ड सईद

एडवर्ड सईद की किताब ओरयण्टलिज़्म, प्राच्यविद्या (ओरयण्टलिज़्म) की आधुनिक व जनतांत्रिक आलोचना समझी जाती है। ऐसा बताते हैं कि इस किताब के प्रकाशन ने जमे हुए विद्वानों की पोल में से असली रंगत उजागर करने की पद्धति और साहस, नए विद्यार्थियों को दिया। उस दृष्टि से इस किताब को नवसाम्राज्यवाद को चुनौती देती हुई चेतना की प्रतिनिधि किताब माना जाता है।

सईद बड़े विद्वान है इसमें कोई शक़ नहीं; प्राच्यविद्या के इतिहास, उसके समकालीन साहित्य, और विषय से सम्बन्धित या असम्बन्धित सभी दार्शनिक और वैचारिक पद्धतियों से न सिर्फ़ वे परिचित हैं बल्कि उन पद्धतियों के भीतर मज़े से रमण करते हैं। उनमें पर्याप्त तर्क शक्ति व पाठ के भीतर मौजूद सूक्ष्मताओं को पकड़ कर बाहर खींच लाने की ख़ूब प्रवीणता है। उनका मानना है कि मध्यकाल से आधुनिक काल तक पश्चिम का नज़रिया प्राच्य के प्रति पूर्वाग्रह से भरा हुआ रहा है और प्राची के विषय में लिखे गए सभी साहित्य को उन्होने प्राच्यविद्या नाम से एक विषय के भीतर समेट दिया; एक बड़े भौगोलिक विस्तार को और उसकी अनगिनत विविधताओं और सूक्ष्मताओं को एक साथ पटक दिया; चीन से लेकर अरब तक की सभी मुख़्तलिफ़ संस्कृतियों को एक गाढ़े रंग में, एक मोटे आकार में ठूँस दिया।

पश्चिम श्रेष्ठ है, प्राची हीन है; पश्चिम और पूर्व एक दूसरे के बिलकुल विपरीत हैं; पश्चिम पौरुष से परिपूर्ण है और पूर्व स्त्रैण है, और भेदन योग्य है; पश्चिम उत्कृष्ट है, नैतिक है, बौद्धिक है, तार्किक है, जब कि पूर्व इसके उलट अक्षम है, अतार्किक है, भ्रष्ट है, वासनाओ में लिप्त है। पूर्व अपने बारे में ख़ुद आकलन करने और ख़ुदमुख़्तार होने में असमर्थ हैं, और इसीलिए ये दोनों काम पश्चिम पूर्व के प्रति अपनी ज़िम्मेदारी मानकर ले लेता है, एक एहसान के जैसे। पहली प्रवृत्ति प्राच्यविद्या के बतौर विकसित होती है और दूसरी प्रवृत्ति प्राच्यविद्या को आधार बना कर पश्चिम को पूर्वी सभ्यताओं पर शासन करने का नैतिक अधिकार देती है। ये सईद साहब की मूल प्रस्थापना है और मोटे तौर पर सही भी है।

किताब की शुरुआत में सईद सहब पश्चिम में मौजूद प्राच्यविद्या के दायरे में आने वाली सभी संस्कृतियों की चर्चा करते हैं मगर बहुत जल्दी अपने सरोकारों को अरब जन और इस्लाम धर्म से जुड़े पूर्वाग्रहों तक सीमित कर लेते हैं। और अपनी तीखी नज़र से वे भाँप लेते हैं कि जहाँ पश्चिमी विद्वान भारत की आर्य भाषाओं को लेकर उत्साहित दिखते हैं और उस संस्कृति में पश्चिम के उद्धार तक की सम्भावना खोजते हैं, वहीं अरब जन और इस्लाम के प्रति उनकी नफ़रत और हिकारत है। उसका कारण सईद ये तो समझते हैं कि जिस तरह भारत ने अंग्रेज़ों के आगे समर्पण कर दिया उसके उलट अरब और इस्लाम पश्चिम के लिए एक ख़तरा बना रहा है जिसके बीज इस्लाम की आरम्भिक आक्रामक विस्तार और योरोपीय क्रूसेड्स में पाए जा सकते हैं। लेकिन सईद इस विशेष अन्तर के संदर्भ में और किताब में अन्य सन्दर्भों में भी, 'आर्य' सभ्यता और इस्लामी सभ्यता की विशिष्ट स्वभावों का ज़िक़्र करना ज़रूरी नहीं समझते। चूंकि दोनों सभ्यताएं साम्राज्यवाद का शिकार बनीं तो क्या इसलिए उनके आपसी अन्तर महत्वपूर्ण नहीं रहते? ऐसा कर के सईद साहब वही अपराध कर बैठते हैं जिस का वह पश्चिम पर आरोप लगाते हैं। पश्चिम का अपराध यह है कि वह ओरियण्ट की अन्तर्निहित सूक्ष्मताओं को नकारता है। पश्चिम से दो संस्कृतियों केर प्रति एक से व्यवहार की उम्मीद कर के सईद न सिर्फ़ उन संस्कृतियों की बल्कि पश्चिम की भी सूक्ष्मताओं को नकार देते हैं।

 

सईद की किताब का संगठन कुछ इस तरह का है कि पहला खण्ड उपनिवेशों के पहले का काल से सम्बन्धित है, दूसरा उपनिवेशों के दौरान, और तीसरा उतर-औपनिवेशिक काल। हालांकि किताब में इसका उल्लेख इतने सरल रूप में नहीं है चूंकि ये विभाजन भी इतना साफ़-साफ़ नहीं है। तर्क, दलील और निष्कर्षों के प्रति सईद नियंत्रण नहीं रखते हैं, वे शुरु से लेकर आख़िर तक कुदरतन प्रगट होते रहते हैं। और उनमें इतना अधिक दोहराव (और दोहराव) है कि आप बोर होने लगते हैं, यूँ लगता है कि सईद, प्राच्यविदों के नाम और उद्धरण बदल-बदल कर वही निष्कष निकाले जा रहे हैं, वही बातें किए जा रहे हैं। लेकिन सईद इतने विद्वान, इतने पण्डित और राजनैतिक रूप से इतने सजग व्यक्ति हैं कि वे बार-बार पाठक को चेताते जाते हैं कि उनका आशय ये नहीं है कि पूरे पश्चिम को गरियाया जाय और उन्हे पश्चिम विरोधी समझा जाय मगर दूसरी ही पैरा में वो कुछ ऐसी बात करते नज़र आते हैं जिस का दूसरा ख़ुलासा (सार-संक्षेप) मुमकिन नहीं है।

इस दोहराव के गुण के चलते यदि मैं सईद की ओरियण्टलिज़्म की तुलना 'क़ुरान' के दोहराव से करूँ तो क्या यह मेरा पूर्वाग्रह होगा? यक़ीन मानिये सईद अगर आज जीवित होते और ओरियण्टलिज़्म लिखते समय की मानसिकता में होते तो मेरी इस बात को ओरियण्टलिस्ट डिसकोर्स का हिस्सा घोषित कर देते। इस बात को नज़र‌अंदाज़ कर देते कि क़ुरान में दोहराव की ये बात कोई नई नहीं है, ये आरोप तो क़ुरान पर शुरुआत से ही लगता रहा था, और जिसका बचाव मुसलमानों ने उस में मौजूद एक ईश्वरीय विधान की दलील दे कर किया था, ऐसा ईश्वरीय विधान जो तब तक दिखाई नहीं देगा जब तक आप उसमें 'समर्पण' (इस्लाम) का अंजन ना लगायें।

ऐसी तमाम दूसरी विशिष्टताओं को, जो प्राच्यविदों ने अपने अध्ययनो में उजागर कीं, उन सब को सईद इस आधार पर ख़ारिज कर देते हैं कि वे द्वेष या ईर्ष्या या दूसरी नकारात्मक भावनाओं से प्रेरित और आधारित हैं। क्यों? क्योंकि उस में आलोचना का पुट है, उसमें इस्लाम का वैसा स्वीकार नहीं है जैसा सईद अपनी कल्पना में चाहते हैं। तो क्या सिर्फ़ सईद के दुहराव की, क़ुरान के दुहराव से इस तुलना के आधार पर कहा ज सकता है कि मैं इस्लाम विरोधी हूँ? मैं कहता हूँ यह सच नहीं है। और इसका विपरीत भी सच नहीं है। क्योंकि सच बाइनरी नहीं है, द्वैत में नहीं है। जबकि न-ना करते भी सईद, पूर्व और पश्चिम विरोध के इसी बाइनरीज़्म के शिकार हो जाते हैं।

सवाल है कि सईद पश्चिम से क्या उम्मीद करते हैं? क्या चाहते हैं? जब वे अलग-अलग विद्वानों के चुन-चुन कर वही उद्धरण अपने किताब में लाते हैं जो इस्लाम या अरब जनों की निन्दा या आलोचना करते हों, तो आपके उनके चुनाव पर शंका होती है। जब वे अर्न्स्ट रेनान, एडवर्ड लेन, रिचर्ड बर्टन और विलियम म्योर की चीर-फाड़ करते हैं तो ऐसा लगता है कि वे आलोचना नहीं छिद्रान्वषेण कर रहे हों। आलोचना में एक संतुलन की अपेक्षा होती है मगर सईद सिर्फ़ मज़म्मत करते हैं। और जिस बिन्दु पर चर्चा कर रहे होते हैं, तो वह किस आधार पर अनुचित है इस की दलील भी नहीं देते। उसे बस इस अंदाज़ में पेश करते हैं कि उसका अस्तित्व ही अनैतिक है। जैसे कि फ़्लाबे‌र ने अपनी किताब में एक फ़क़ीर की चर्चा की है जिसके पास आने वाली हर मुस्लिम स्त्रियाँ उसे हस्तमैथुन का रतिदान देती, अंत में वह थकान से मर गया..तो सईद ऐसे फ़क़ीर के होने-न होने पर वो सवाल खड़ा नहीं करते, उनके लिए यह उद्धरण ही काफ़ी है यह दर्शाने के लिए कि फ़्लाबेर मिस्र को विद्रूप विचित्रताओं के एक देश के बतौर चित्रित कर रहे हैं। और जो अपराध है, सईद की नज़रों में। भले ही ऐसी तमाम विद्रूपताएं मिस्र, भारत, और चीन में भरी पड़ीं हो जिसे प्राच्यविद्‌ देखकर कौतूहल से अंगुलियाँ चबा लेंगे, मगर उनकी मौजूदगी को सईद ग़ैर-ज़रूरी समझते हैं और ये मानते हैं कि उनकी उपस्थिति को जस का तस स्वीकार कर ले, कोई 'निर्णय' ना सुनाये जिस से हीनता की बू आती हो।

सईद की कल्पना में अरब जन और इस्लाम की एक शुद्ध सच्चाई है, प्राच्यविद्‌ जिसका फिर-फिर उल्लंघन करते हैं और उसे अपने पूर्वाग्रह से दूषित करते हैं। एक नज़रिये से देखें तो एक शुद्ध-सच्चाई के अस्तित्व की जड़ सईद की इस्लामिक पृष्ठभूमि में है। इस्लाम तौहीद पर बल देता है; अल्लाह जिसका एक नाम हक़ भी है, एक है, और उस हक़ का दूसरा अर्थ सच्चाई भी है। सईद इस बात से इंकार करते हैं कि उनके मन में कोई अरब जन या इस्लाम की कोई सही छवि है जिसे वे ग़लत छवि के स्थान पर पेश कर सकते हैं। तो ये कहा जा सकता है कि सईद की चिंता सही या ग़लत छवि नहीं बल्कि 'छवि' ही है-' इस्लाम की छवि'। यह बात दिलचस्प मालूम हुई मुझे। सईद अपनी पूरी किताब में प्राच्यविदों द्वारा रचित छवियों का छवि-भंजन करते हैं। तो क्या यह कहना अनुचित होगा कि सईद एक क़िस्म के आधुनिक, बौद्धिक मूर्तिभंजक हैं? यहाँ पर यह याद कर लेना भी व्यर्थ नहीं होगा कि उनकी किताब दुनिया भर के इस्लामी कट्टरपंथियों के बीच पश्चिम के विरुद्ध इस्लाम की दलील बन कर उभरी। इस बात को लेकर सईद ख़ुद, जो नैतिक रूप से एक सेकुलर ज़ेहन के व्यक्ति हैं, व्यथित रहे थे, और अपनी उस व्यथा का ज़िक़्र उन्होने १९९५ में लिखे किताब के पश्चलेख में भी किया।

हालांकि सईद की मूल अवधारणा में पूर्वाग्रह और साम्राज्यवाद का सम्बन्ध है लेकिन किताब में पूर्वाग्रह की उपस्थिति मात्र के प्रति भी काफ़ी ग़ुस्सा झलकता है। ईश्वर की एकता से इंकार नहीं है, और पश्चिम के पूर्वाग्रहों से इंकार भी नहीं है लेकिन सईद ख़ुद लिखते हैं कि हर समाज, अन्य समाजों के प्रति पूर्व-कल्पित आग्रहों से ग्रस्त होता है। तो फिर उनका इस तरह का ग़ुस्सा सोचने पर मजबूर करता है? ऐसा लगता है कि वे पश्चिमी विद्वत्‌ परम्परा में, जहाँ इस्लाम-विरोध का एक लम्बा इतिहास रहा हो, अपनी जड़ों की स्वीकृति खोज रहे हों! उल्लेखनीय है कि सईद अरब परम्परा के विद्वान नहीं, बल्कि पश्चिमी परम्परा में शिक्षित-दीक्षित विद्वान हैं।

ये कैसे मुमकिन है कि आप को जस का तस स्वीकार कर लिया जाय? क्या हम पश्चिम की, गोरों की आलोचना नहीं करते? उन के प्रति पूर्वाग्रह नहीं रखते? या फिर पंजाबियों के प्रति, गुजरातियों के प्रति, मद्रासियों के प्रति, कायस्थों के प्रति, बाभनों के प्रति, अहिरों के प्रति? और उनके मौलिक रूप में दोष होने के बावजूद उन में एक क़िस्म की मोटी सच्चाई भी होती है। जो व्यापक समूह पर आंशिक रूप से सच होती है, लेकिन व्यक्ति के स्तर पर ये सारे पूर्वाग्रह धराशायी हो जाते हैं। नयी राजनैतिक नैतिकता यह कहती है कि ऐसे पूर्वाग्रह रखना और उनके प्रेरित होकर सोचना पाप है। मैं इसे पूरी तरह से पाप नहीं समझता। मेरा मानना है कि समूहों की उपस्थिति आदमी के भीतर एक छाप, एक भावना पैदा करेगी ही। उसे नकारना विविधता को नकारना, विविध पाठों को नकारना है (और इस का मतलब यह नहीं है कि पश्चिम का पूर्व के प्रति आकलन सटीक है, बस इतना सबब है कि उस पर तिलमिलाने की नहीं सहिष्णुता बरतने की ज़रूरत है)।

इन पूर्वाग्रहों को तभी मिटाया जा सकता है जब दुनिया में केवल एक समूह रह जाए- मनुष्यता। जब तक अलग-अलग समूह बने हुए हैं उनके प्रति उनके विशिष्ट गुणों पर आधारित छापे या पूर्वाग्रह बने रहेंगे, उन्हें राजनैतिक नैतिकता की फूंक मारकर बिलाया नहीं जा सकता। सईद ऐसी ही उम्मीद रखते हैं; वे मानव और मानवीय अनुभव, सामाजिक व आर्थिक बदलाव से पैदा हुए अनुभव आदि की बात लिखते हैं और उसे आधार बनाने के बजाय प्रजाति व धर्म की श्रेणियों के ज़रिये किसी क्षेत्र के वासियों का आकलन करने की बात को पतनशील मानते हैं। यह ठीक बात है, ऐसा ही होना चाहिये। लेकिन जब तक स्वयं लोगों के बीच इन श्रेणियों में ख़ुद को सीमाबद्ध करने की वृत्ति और उस के प्रति एक प्रबल चेतना मौजूद हो, उन्हे कैसे नज़र‌अंदाज़ किया जा सकता है? उन 'पतनशील' श्रेणियों का इस्तेमाल किए बिना आप कैसे मानवीय अनुभव को समझ सकते है? भारतीय सन्दर्भ में यदि हम सामाजिक अध्ययन करते हुए जाति की श्रेणी को पूरी तरह से त्याग दें तो क्या दलितों के साथ न्याय हो सकेगा? जैसा कि आज समाज का एक वर्ग ज़िद कर रहा है कि जनसंख्या में जाति का आधार लेना पतनशील है? ऐसा लगता है कि सईद के साथ मामला उलटा है वे अपनी हीनता को जैसे छिपाने के लिए इस श्रेणी को छोड़ने की बात कर रहे हों!

अगर सईद की पश्चिम के पूर्वाग्रह को लेकर नज़रिये आप एक पूर्वाग्रह से ग्रस्त है तो साम्राज्यवाद से उसके सम्बन्ध की विवेचना भी पूरी तरह से तार्किक नहीं मालूम देती। प्राच्यविदों का साम्राज्य से सम्बन्ध तो ज़ाहिर है वे पश्चिमी समाज से थे और पश्चिमी साम्राज्य की नौकरी भी कर रहे थे, लेकिन सईद मान लेते हैं कि इतने भर से यह सिद्ध हो जाता है कि प्राच्यविद्या साम्राज्य के विस्तार का मूल पोषक तत्व था। यह बात मेरे गले नहीं उतरती। प्राची में पश्चिमी विद्वानों, घुमक्कड़ों, लेखकों व विचारकों की रुचि तो साम्राज्य से पहले से बनी हुई थी। और ऐसे तमाम विद्वानों ने पूर्वी समाजों व संस्कृतियों पर अपने लेखनी चलाई जिनका देश, उस पूर्वी समाज से कहीं से भी सम्बद्ध नहीं था? टी ई लारेन्स एक अनोखी मिसाल है जिसमें साम्राज्य ने लारेन्स की सूचना-सम्पदा का इस्तेमाल अपने साम्राज्य के हित में किया। लेकिन इस मिसाल के एक दूसरे पहलू की सईद अनदेखी कर देते हैं जिसमें अरब जन भी तुर्की शासकों से अपनी मुक्ति के लिए लारेन्स और ब्रिटिश सेना का इस्तेमाल करना चाहते हैं। सईद इस समीकरण को पूरी तरह इकतरफ़ा बना देते हैं। रिचर्ड बर्टन और एडवर्ड लेन जैसे विलक्षण व्यक्तियों को भी वे पश्चिमी पूर्वाग्रह का एक प्रतिनिधि भर बना देते हैं। इस्लाम, अरब, और फ़िलीस्तीनियों की आज़ादी के प्रबल समर्थक मासिगनन जैसे विद्वानों की भी सारी विशिष्टताओं की बात करने के बावजूद बल वो सिर्फ़ उसी एकल सोच पर देते हैं जिसमें अरब जन व इस्लाम की गरिमा पर आँच आती हो।

अगर यह मान भी लिया जाय कि एक मक़ाम के बाद प्राच्यविद्या का मक़सद साम्राज्य का विस्तार और निरन्तरता था, तो भारतीय सन्दर्भ में मैक्समुलर, मोनियर-विलियम्स, फ़ैलन के संस्कृत और हिन्दुस्तानी भाषा में अपना जीवन नष्ट करने का क्या मतलब बनता है जबकि १८३५ में मैकाले के विचार को अमली जामा पहनाया जा चुका था जिसमें अंग्रेज़ी को ही शासितों की सोच का ताना-बाना बुनना था? उनके इस योगदान से साम्राज्य को क्या हासिल हुआ?

सईद साहब ने सारे भाषाविदों, सारे अनुवादकों, सारे घुमक्कड़ों को साम्राज्यवादियों का अग्रदूत बताकर उन्होने दूसरी सभ्यताओं के ज्ञानार्जन पर प्रश्नचिह्न लगा दिया है। अगर यह सारा कर्म धत्‌कर्म था तो श्रेयकर्म क्या था? किसी क्षेत्र में पहले से मौजूद संस्कृति और उसके जनों को रौंद देने और उन्हे नष्ट कर देने की जो वृत्ति दोनों अमरीका में ईसाई प्रचारकों ने दिखाई या आरम्भिक इस्लामी प्रचारकों या वहाबी/तालिबानी संस्करण का इस्लाम जो स्थानीय विशिष्टताओं को नकार कर अरब संस्कृति की ही स्थापना को श्रेयस मानता है, क्या वो सही थी? निश्चित ही सईद उसका अनुमोदन नहीं करते मगर प्राच्यविद्या के विविधता को पहचानने व अंगीकार करने के इस प्रगतिशील पहलू को नज़र‌अंदाज़ करते हैं।

और अगर प्राच्यविद्या में कुछ साम्राज्यवादी पहलू रहे भी तो प्राच्यविद्या के योगदान को नकारना ठीक नहीं। कोई भी संस्था या वस्तु इस लिए त्याज्य नहीं हो जाती कि उसका जन्म मैले इरादे से किया गया था। एके-४७ और इन्टनेट क्या इस्लाम की रक्षा के लिए पैदा किए गए थे? इसी तरह रिचर्ड बर्टन की ज्ञान-सम्पदा इसीलिए ख़ारिज की जानी चाहिये कि एक समय में उसने साम्राज्य के लिए जासूसी करने का काम किया था?
असल में जिस सरलीकरण का आरोप सईद पश्चिमी प्राच्यविदों पर लगाते हैं वे स्वयं उसी का शिकार हैं। यदि आज भी पश्चिम और अमरीकी साम्राज्यवाद, विद्वानों द्वारा चलाए जा रहे पूर्वाग्रहों का इस्तेमाल अपनी निरन्तरता के लिए कर रहा है तो सईद अपने अध्ययन को कैसे परिभाषित करेंगे जिसे उन्होने अमरीकी समाज में रहते हुए, अमरीकी विद्वत्‌ परम्परा में, अमरीकी अनुदान के तहत, अमरीकी -अंग्रेज़ी भाषा में सम्पादित किया था?

7 टिप्‍पणियां:

Smart Indian ने कहा…

उन्होने अमरीकी समाज में रहते हुए, अमरीकी विद्वत्‌ परम्परा में, अमरीकी अनुदान के तहत, अमरीकी अंग्रेज़ी भाषा में अपने इस अध्ययन को सम्पादित किया था?

बहुत सुन्दर विश्लेषण है. यह सब होते हुए भी पूर्वाग्रह दिखते हैं क्योंकि यह किताब सत्यान्वेषण के लिए किया गया शोध/अध्ययन न होकर एक क्रुद्ध प्रतिक्रया मात्र है. जिस प्रकाश(?) में यह लिखी गयी है उसमें पूर्वाग्रहों से निपटने की गुंजाइश भी नहीं है.

अमेरिका में अक्सर ऐसे समूह दिखते हैं जो इस्लामी साम्राज्यवाद द्वारा प्रताड़ित होकर बाकायदा "शरणार्थी" श्रेणी में यहाँ आये हैं मगर आने के बाद जिस तरह अपने परिजनों को जबरन शरिया के बुर्के में लपेटते हैं उससे यही साबित होता है कि उनके चश्मे से वह स्वतन्त्रता भी नहीं दिख सकती जिसकी तलाश में वे यहाँ आये थे.

आचार्य उदय ने कहा…

आईये जानें .... मन क्या है!

आचार्य जी

भारतीय नागरिक - Indian Citizen ने कहा…

कोई तो आचार्य जी का मन जान लो... भाई..
एक शब्द में कहूं तो जो भी इस्लाम श्रेष्ठ है का चश्मा पहन कर बोलेगा तो उससे फिर न्याय और समता की तथा निरपेक्षता की उम्मीद ही बेकार है और एडवर्ड सईद ने यही परम्परा निभाई है...
आपने बहुत, बहुत, बहुत ही बढ़िया विश्लेषण किया है..
बधाई..

अजित वडनेरकर ने कहा…
इस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.
आशुतोष कुमार ने कहा…

सब से पहले तो तो तुम्हारी गद्य भाषा के लिए मुबारकबाद दूँ. '' सुन्दर सुगठित गद्य , सहृदय के हाथों लिखा''. बातें अफलातूनी , लेकिन अंदाज़ कुछ ऐसा की लगे पान की दुकान पर यारबाशी की बातें होरहीं हैं. इसी अंदाज़ के लिए कुछ लोग{मसलन एक तो जनसत्ता वाले अज़दक भी हैं, और दूसरे भी होंगे .. } भाषा में इमरतियाँ बनाने लगते हैं , लेकिन लेकिन बाखुदा इमरतियाँ मैदे से बनती हैं ,शब्दों से नहीं.

तुम ने सईद को संजीदगी से पढ़ा है. जिन गफलतों और सरलीकरणों की तरफ तुम्हारा इशारा है , वे हैं ही शायद.

comman sense के खिलाफ जो पहले पहल सोचता है , वो इन से बच भी नहीं सकता शायद .

लेकिन सईद के पहले किस ने सोचा था की प्राच्य विद्या का उपनिवेशवाद से भी कुछ लेना देना हो सकता है.

ये नहीं की मैकाले ने मैक्समूलर को रिश्वत दी थी की तुम मेरी बात कुछ इस अंदाज़ में कहो की हमें अपमानजनक लगने की जगह सम्मान पूर्ण लगने लगे, की हमें वही सब अमृत लगने लगे जो उस के अंदाज़े बयां की वजह से ज़हर मालूम देता है .

लेकिन अमृत और विष का जो भाई भतीजावाद है , उसे आधुनिक हमारे युग के सन्दर्भ में पहले पहल सईद ने ही EXPOSE किया.

इस एक अनमोल काम के लिए मैं तो उन के सौ खून माफ़ करने को तैयार हूँ .

क्योंकि वे सौ खून हमें उन के इस काम के बदौलत ही दीखतें हैं .

भूखों के लिए अन्न ले जारहे जहाज़ पर हमले को भी दुनिया माफ़ कर रही है. सईद को माफ़ करना इस की तुलना में हज़ार गुने छोटा पाप है.

अनामदास ने कहा…

बहुत अच्छी समीक्षा, मैं सईद से काफ़ी प्रभावित हुआ था जब पहली बार दसेक साल पहले पढ़ा था लेकिन आप सही कह रहे हैं कि उनके अपने झोल-पोल हैं, वैसे अपने आपमें यह बड़ा काम था कि उन्होंने शक्तिशाली विद्वान परंपरा की स्थापित अवधारणा को ठोस चुनौती दी.

सोनू ने कहा…

Orientalism —पूरी किताब

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