पिछले दिनों ख़बर थी कि सरकार कॉपीराइट क़ानून में बदलाव का मन बना रही है ताकि कलाकारों के अधिकारों की रक्षा हो सके, दुनिया भर में सिनेमा और संगीत आदि के तैयार हो जाने के बाद भी कॉपीराइट के मूल अधिकार लेखक/ कलाकार के पास सुरक्षित रहते हैं मगर भारत में निर्माता ही सब का मालिक है। एक बार पैसा देकर वह सब कुछ ख़रीद लेता है। पिछले दिनों इस सम्भावित बदलाव के आने की ख़ुशी में जावेद अख़्तर, शुभा मुद्गल, रवि शंकर और शंकर महादेवन के खिले हुए चेहरे अख़बारों में देखने को मिले।
आज ख़बर है कि 'थ्री ईडियट्स' के निर्माता विनोद चोपड़ा ने एक पत्रकार को चिल्ला कर और आँखें तरेर कर कहा कि 'शट अप!' वे पूरी फ़िल्म की कास्ट और क्रू के साथ एक पत्रकार सम्मेलन में थे। लोग उनसे 'फ़ाइव प्वायंट समवन' उपन्यास के लेखक चेतन भगत के आरोपों का जवाब चाह रहे थे, जिन्होने कहा है कि उनके साथ न्याय नहीं हुआ है। उनका नाम आया ज़रूर है मगर फ़िल्म के अन्त में रोलिंग क्रेडिट्स में। जबकि फ़िल्म की शुरुआत में कहानी लेखक के रूप में अभिजात जोशी और राजकुमार हीरानी का नाम आया है। उन्हे इस पर ऐतराज़ है, मुझे भी है थोड़ा-थोड़ा। उनका मानना है कि मूल कहानी उनकी है और शेष उसका रूपान्तरण है।
एच टी में वीर संघवी लिखते हैं कि इट्स ऑल एबाउट ग्रेस; 'स्लमडॉग मिलयनेर' भी विकास स्वरूप के नॉवेल 'क्यू एन्ड ए'से काफ़ी जुदा थी, मगर उनके भीतर इतनी गरिमा थी कि उनका नाम फ़िल्म क्रेडिट्स में निर्देशक के नाम के ठीक बाद आता है, और निर्देशक डैनी बॉयल उन्हे अपनी सफलता में शामिल करने के लिए आस्कर लेते वक़्त उनको मंच तक साथ ले जाते हैं।
फ़िल्मी दुनिया में लेखक सबसे निरीह जानवर रहा है। सबसे पहले डाका उसके पैसों और नाम पर ही पड़ता है। यहाँ हर निर्देशक को अपने नाम के पहले 'रिटेन एन्ड डाइरेक्टेड बाइ' देखने का शौक़ है। इस दुनिया ने तो बड़े-बड़े फ़िल्मों, बड़ी-बड़ी किताबों पर डाके डाले और किसी को कोई आभार तक नहीं दिया, छोटे-मोटे लेखक तो रोज़ ही मारे जाते हैं। चोपड़ा जी ने कम से कम किताब के अधिकार खरीदे, पैसे भी दिये, और भले आख़िर में, पर नाम दे तो दिया। चेतन भगत को उन के पैर छू कर धन्यवाद देना चाहिये, उन्होने धन्यवाद नहीं दिया इसीलिए चोपड़ा जी को क्रोध आ गया, नहीं तो वो देवता आदमी हैं।
18 टिप्पणियां:
बहुत विचित्र दुनिया है। फिर भी लेखक उस तरफ भागता है। यहाँ चौराहे पर एक मोची जूता पालिश करता है। उस के झोले में चार पाँच उपन्यास हैं। कैसे हैं? यह तो पता नहीं है। लेकिन वह कभी उन्हें छपवाने और उन पर एक फिल्म देखने का सपना संजोए है। मैं समझता हूँ। यह सपना संजोए ही वह पूरा जीवन जी लेगा।
लेखक का शोषण कोई नई बात नहीं है, पुरानी परिपाटी है, मौलिक लेख चुरा लो और बेचारा लेखक साबित करने के लिये मरा जाता है, कि मेरी मौलिक प्रति है। और ऐसे ही किसी अच्छे लेखक की मौत हो जाती है, पर चेतन के विषय में ऐसा नहीं है, उन्हें लेखक के बतौर सारी दुनिया जानती है, और युवाओं के प्रिय लेखक हैं, जो कि इन फ़िल्मकारों को बहुत महंगा पड़ सकता है, क्योंकि युवा ही किसी भी चीज को सुपर डुपर हिट करते हैं भले ही वो कोई भी फ़ील्ड हो ....
आप एक महीना पचीस दिनन के बाद लेख ले कर आए हैं । इस आलस पर मेरा 'सख्त विरोध' दर्ज किया जाय।
बाकी 'बौद्धिक बकवाद' बाद में करेंगे। ;)
सारी बातो की एक बात .......वाकई बात नीयत की है ....
सच है ..आपका आक्रोश साफ झलक रहा है.
अनुराग जी से सहमत। यहां पर नीयत पर प्रश्नचिन्ह जरूर है। भले ही स्टोरी को पैसे देकर पूरी तरह खरीद लिया गया हो, लेकिन मूल लेखक जिसने इस कहानी के बीज को अंकुरित किया उसे तो इसका क्रेडिट भले ही नेमिंग रोल के लिये ही सही, दिया जाना चाहिये।
कल ही यह सिनेमा देख कर आया हूं, और चेतन भगत के पक्ष में मैं भी हूं.. साथ में यह भी जोड़ूंगा की किताबों में जो भी हेर-फेर करके सिनेमा बनाई गई है वो है बहुत ही बकवास.. चेतन के द्वारा रचित हर कैरेक्टर बहुत ही आम होता है.. जबकी सिनेमा में वह एक सुपर हीरो टाईप है जिसके लिये कुछ भी असंभव नहीं है..
एक उदाहरण देना चाहता हूं, अगर यथार्थ में कोई लड़का रैगिंग के दौरान सिनीयर के साथ वैसी हरकत करे तो सिनीयर उसके साथ क्या करेंगे यह सभी जानते हैं..
चेतन भगत जाने माने लेखक हैं। यदि उनके साथ यह व्यवहार किया जा रहा है तो कम नाम वालों के साथ क्या होता होगा?
घुघूती बासूती
अनजाने में चेतन भगत का भला तो कर ही गए ये लोग....उन्हें पैसे भी मिल गए और जम कर पब्लिसिटी भी....वरना शरतचंद्र की पुस्तकों पर इतनी फिल्मे बनी हैं...उनके परिवारजनों को कुछ मिला भी या नहीं..हमें नहीं पता..
इस बार काफी दिनों बाद आर्टिकल आया है |
इस वाकये पर आपसे पूरी तरह सहमत हैं |
Hollywood के पक्ष में,
... इस तुलनात्मक अध्ययन से एक बार फिर पता चला कि Hollywood में वाकई script बहुत बड़ी प्रोपर्टी है और उसको और उसके writer को सबसे ऊपर तवज्जो मिलती है |
Bollywood के विपक्ष में,
अपनी नीयत के बारे में क्या कहें साहब, director तो नहीं पर कहीं एक बार पढ़ा था, कि देश के महान राष्ट्रपति सर्वपल्ली राधाकृष्णन ने कभी एक गरीब विद्यार्थी का Ph. D का शोधपत्र दबा लिया था और उसे अपने लिए इस्तेमाल कर लिया था | मुझे पता नहीं ये बात कितनी सच है, लेकिन डाक्टर जी देश के काफी महान चिंतकों में गिने जाते हैं | गिनती राजकुमार हिरानी की भी आजकल होने लगी है, लेकिन बड़ा आदमी होने से क्या है कि आदमी कि महत्वाकांक्षा कम नहीं हो जाती, बल्कि अहंकार इतना सूक्ष्म होता जाता है कि दिखाई देना या पकड़ना मुश्किल हो जाता है | जैसे अभय जी ने बताया कि "...........रिटेन एन्ड डाइरेक्टेड बाइ........." देखने शौक है |
बस महत्वाकांक्षा की ही तो ताकत है कि ये इतना सा लालच भी आपको आपके ज़मीर के सामने गिराने की कुव्वत रखता है, फिर आप चाहे राष्ट्रपति हों या डाइरेक्टर |
बिल्कुल सही मुद्दा है आपका। लेखक को और क्या चाहिए! बस उसका नाम...।
pata nahin chetan ki bat kitani sahi hai lekin ek bat aapki satik hai usimen aage jod raha hoon. filmi duniya hi nahin ad se lekar newsrooms tak lekhak sabse zaroori hokar bhi sabse dayniy haal men rehta hai.
कौन सही है कौन गलत...पता नहीं लेकिन फिल्म देखने अद्भुत भीड़ उमड़ रही है और बुक स्टोर्स पर एक बार फिर फाइव पॉइंट समवन सबसे ऊपर दिखाई देने लगी है! दोनों ही फायदे में हैं!
बिल्कुल सही लिखा है आपने. भगत जी को वाकई शुक्रगुज़ार होना चाहिये निर्माताओ का कि इन्होने पैसे भी दिये और चलते फ़िरते रूप मे नाम भी. अरे जब मुन्शी प्रेमचन्द की नही चली बम्बई मे तो भगत जी कौन होते है?
हिरानी अपना और जोशी का नाम लेखक के रूप में देना ही चाह्ते थे तो कम से कम अपने नाम के नी्चे ही चेतन को और उनकी किताब को क्रेडिट देना चाहिए था। घुघूती जी एकदम सही कह रही हैं
16 aane sachchi baat...vakai lekhak ek nirih jaanwar hota hai...jisne jitna khana de dia ...meharvani samjhni chahiye.
मामला चाहे, जो भी हो, लेकिन ये इस बात को इंगित करता है कि विवादों का फिल्मों की पब्लिसिटी से लेना-देना होता है। फिल्में जारी होने से पहले केस हो जाता है। और अब स्क्रिप्ट को लेकर विवाद। बेवकूफ आम दर्शक और लोग बनते हैं। क्योंकि विवाद के चक्कर में वे फिल्में देखेंगे और अब किताब पढ़ेंगे भी। दोनों के ही बल्ले-बल्ले हैं। जहां तक लेखन की बात है, तो कोई भी किरदार या कहानी एकदम समान नहीं हो सकता है। अगर चेतन भगत दावा कर रहे हैं, तो इसमें सच्चाई जरूर होगी। क्योंकि सकारात्मक काम या लेखन ज्यादा मेहनत मांगती है। नकल तो कोई भी कर सकता है।
लेखक की पूछ परख होनी चाहिए...भला क्यो? भला क्यों ? वो होता कौन है?
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