बहुत-बहुत पहले सोचा हुआ होता था सत्य
फिर बोला हुआ हो जाता था सत्य
अभी हाल तक लिखा हुआ तो निश्चित होता था सत्य
अब समय ये है
कि सोचा हुआ सत्य नहीं
कहा हुआ सत्य नहीं
लिखा हुआ भी सत्य नहीं
तो क्या है सत्य?
मेधा के नए प्रवीण कहते हैं कि सत्य बँटा हुआ है
सब में सब जगह थोड़ा-थोड़ा
...
क्या सत्य भी बँट सकता है?
17 टिप्पणियां:
जो मान लिया स्वीकार लिया वही सत्य होता है अब तक यही सत्य है आगे परिभाषा बदल जाए इस बात की संभावना छोड़ कर रखी है ताकि बाद में पीड़ा न हो भ्रम में जीते रहने की....
जी अपना अपना सच ही तो है यह सब
वाह भैया !
सही कहत हौ सत्य छौंकी घुघरी नाय है कि सभै आपस मां
बाँट लिहिन , डकार लगाइन अउर करै लगे किलकटो - किलकटो !
कुछ तौ वस्तुनिष्ठता होए न !
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पर पहले जिसपर बहस होती थी आज वहां पर ' भेड़िया-धसान ' की
चाल है , कौन सोचे .. मनी के आगे सत्य - चिंतन बहुत छोटा है !
सोचना तो ब्रेन - ट्यूमर को न्योतना है न ! ---- इसलिए पहले की तुलना में
आज का सच है कि --- '' मेधा के नए प्रवीण कहते हैं कि सत्य बँटा हुआ है/
सब में सब जगह थोड़ा-थोड़ा ''
पर ज्ञानी गुनी तो यह कवायद जारी ही रखें -- '' क्या सत्य भी बँट सकता है? ''
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आज पता चला कि आप कविता में भी दखलियाते हैं , अच्छा लगा भैया !
हाँ , कल ''थ्री ईदियेट '' देखा , आपकी समीक्षा से काफी सहमत हूँ , आभार ,,,
अमरेन्दर भइया हम तो खुदे कविता के बड़े विरोधी हैं.. कवि को देख कर ही हमारा खून खौलने लगता है.. आज पता नहीं सुसरी कहाँ से निकल गई... आगे से इ भूल नहीं होगी.. इस बारी छिमा..
कवि को देख खून खौलने लगता है! आज का दिन बिना शीशे के सामने जाकर बिताइए।
घुघूती बासूती
अभय भैया !
हम जानते हैं कहाँ से /कैसे निकली यह कविता ... एक खास
ताप पर लोहा भी बहने लगता है .. कविता जटिल विषयों को
वहन करने में पीछे नहीं है , अपितु अव्वल ही है ; ज्यादा असरदार और अनुभूतिजन्य !
औ' भैया , '' इस बारी छिमा..'' कै कौनौ बात नाय न , ई हसीन भूल
आगे जरूर करत रहौ .. हमरी - सबकी खुसी के खातिर ...
सुन्दर अभिव्यक्ति, बधाई.
अमरेन्द्र जी की टिप्पणियां महत्वपूर्ण है. कविता को एक नया आयाम देती टिप्पणियां हैं उनकी. कवि और कविता, दोनों के सन्दर्भ में.
सवाल अच्छा भी है और सच्चा भी!
सत्य तभी तक सत्य है जब तक उसको सत्य माने वाले हैं ........... कर कोई अपने अपने हिस्से का सत्य मानता है आज कल ...... नही तो सब झूंठ .......... गहरी सोच से उपजी रचना ...........
मेधा के नए प्रवीण कह रहे हैं तो बँटता ही होगा..हमें तो कोई इस तरह का ज्ञान नहीं है..
ek sooraj, ek chand, kuchh taare...
akashganga bhi banTi hui hai kya?
zoom hata kar...
wide angle se dekhiye...
shayad poora sach capture ho jaaye....
मन को कवितायेँ अच्छी तो लगती हैं, मानो मन में फूल खिल गए हों, पर जोड़-तोड़ और विश्लेषण वाली बुद्धि कविता में भी अपना असर दिखाए बिना नहीं मानती |
गीता में उस तरफ जाने वाला एक रास्ता 'ज्ञान यज्ञ' भी बताया गया, हम उसी रास्ते वाले प्राणी हैं | अभय सर जी, ये कविता-वविता को हम ज्यादा grip नहीं कर पाएंगे | जब हमारे मन को कविता का फूल सूंघने का जी करता है तो सीधे अनुराग जी के ब्लॉग पर ही पहुँचते है | उनका तो गद्य भी ऐसा है कि समझ में आता है और मन को लगता है, जैसे अन्टार्कटिका कि ठंडी और शांत बर्फ पर लेते हों और आसमान से कभी इक्का-दुक्का चमेली का फूल किसी ने बरसा दिया हो |
अभय भाई
आप की कविता अब पढी -
पसंद आयी है :)
अभय भाई
आप का लेखन
मेरा पसंदीदा लेखन है ....
और आप चाहें कुछ भी कहें ,
हमने तो आज ही कुछ पुरानी
दिल से निकलीं बातें ,
नयी पोस्ट में ,
मय चित्र लगा लीं हैं :)
अब इस ले कारण
आत्म मुग्धता वाले ब्लोगरों की जमात में
हमें बिठाल दिया जाए
तब भी कोइ , दुःख नहीं ...
" हम तो भी ऐसे हैं,
ऐसे ही रहेंगें "
आपके कार्यक्षेत्र से सम्बंधित बातें
पढ़ना हमेशा अच्छा लगता है
ठण्ड कैसी है ?
स स्नेह,
- लावण्या
यह कविता हो न हो सच तो यही है जो आप कह रहे हैं....
भाई मैं इसीलिए अपने घर के सभी आइने हटा चुका हूँ। मैं तो मन के दर्पन में भी अपना चेहरा नहीं देखता। क्योंकि कवि का चेहरा देख कर मेरा भी खून खौलता है।
Aapki hi soch ki dhaara me soch bahi chali ja rahi hai bahut samay se....
उत्तर-आधुकनिकता ने भ्रम पैदा कर दिये हैं...और यह भ्रम भी कि भ्रमों का होना ही असल प्रगतिशीलता है... :-)
*उत्तर आधुकनिकता = उत्तर आधुनिकता
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