आज थ्री इडियट्स देख ली। अच्छा हुआ कि सुबह के शो में नब्बे रुपये दे के ही देख ली। शाम के शो में देखता तो १३५ रुपये और मेरी जेब से निकलकर विनोद चोपड़ा की जेब में पहुँच जाते। पहले ही कामयाबी के सारे रिकाड तोड़ती फ़िल्म १३५ रुपये और कामयाबतर हो जाती।
वैसे तो थ्री इडियट्स बहुत ही कामयाब फ़िल्म है। कैसे है जी कामयाब? फ़िल्म पैसे बटोर रही है और शुहरत भी बटोर रही है। इतनी कि चेतन भगत जी को शिकायत है कि जो शुहरत उनके हिस्से की थी वो भी हीरानी जी, चोपड़ा जी और जोशी जो बटोर रहे हैं। और फ़िल्म ने इसी की कामना की थी जो उन्हे प्राप्त हो गया, सो हैं वो कामयाब (कामना-प्राप्ति)।
जैसे की आम हिट फ़िल्में होती हैं वैसे ही हिट फ़िल्म हैं। लेकिन कुछ यार लोग गदगद हैं और अभिभूत हुए जा रहे हैं कि बड़ी साहसी फ़िल्म है और न जाने क्या-क्या। मेरी समझ में तो ये एक बेईमान और नक़ली फ़िल्म है। क्यों? फ़िल्म उपदेश तो ये देती है हमारी शिक्षा पद्धति ऐसी हो कि छात्र ए़क्सेलेन्स को पर्स्यू करे सक्सेज़ को नहीं। सक्सेज़ से यहाँ माएने पैसा और गाड़ी है, जो चतुर नाम के चरित्र के ज़रिये बार-बार हैमर किया जाता है। लेकिन ख़ुद फ़िल्म एक्सेलेन्स को नहीं सक्सेज़ के (मुन्नाभाई) समीकरण को लागू करती है। ये उस तरह के नक़ली बाबाओं के चरित्र जैसे है जो प्रवचन तो वैराग्य और त्याग का देते हैं, लेकिन खुद लोभ, और लालच के वासनाई दलदल में लसे रहते हैं।
जिस तरह के मोटे चरित्र बनाए गए हैं, जिस तरह की सड़कछाप बैकग्राउन्ड स्कोर तैयार किया गया है, जिस तरह की छिछोरी, चवन्नीछाप, सैक्रीन स्वीट सिचुएशन फ़िल्म में हर दस मिनट बाद टांकी गई है, जिस तरह से ‘आल इज वेल’ के अश्लील इस्तेमाल में एक बच्चे तक का शोषण किया गया है, वो सब इसी ओर इशारा करते हैं। मैं ये नहीं मान सकता कि एफ़ टी आई आई में तीन साल तक वर्ल्ड सिनेमा का आस्वादन करने और उसके बाद लगातार करते रहने के बाद राजकुमार हीरानी और विनोद चोपड़ा का मानसिक स्तर इसी फ़िल्म का है। निश्चित ही यह फ़िल्म उन्होने एक दर्शकवर्ग को खयाल में रखकर बनाई है। ये है बेईमानी नम्बर वन। यानी आप श्रेष्ठता के अपने पैमाने से इसलिए नीचे उतर आएं क्योंकि आप के पैमाने पर बनी एक्सेलेन्ट फ़िल्म को देखने और समझने वाले की संख्या बहुत सीमित होगी।
इसके जवाब में यह दलील आएगी कि जी नहीं हमने तो यह फ़िल्म दर्शक तक एक नोबेल मैसेज ले जाने के लिए बनाई है। सचमुच? अगर ऐसा है तो वो दर्शक आप की बात सुनते ही उसको लोक कैसे ले रहा है? यानी जिस बात को आप कम्यूनिकेट करने की कोशिश कर रहे हैं, उस बात से देखने वाले पहले से सहमत है; वो अपनी ही बात परदे पर देखकर ताली बजा रहा है। इसे राजनीति में पॉपुलिस्ट पॉलिटिक्स कहा जाता है, और लोकभाषा में ठकुर सुहाती। अगर कोई ये समझता है कि ये किसी की मानसिकता बदलने की कोई कोशिश है तो ग़लत समझता है, यह स्थापित मानसिकता को समर्पित फ़िल्म है, जिसे कॅनफ़ॉर्मिस्ट कहा जा सकता है।
जिस सच्चाई को फ़िल्म में दिखलाया गया है अगर वो आज से बीस साल पहले दिखाई गई होती तो मैं फिर भी मान लेता कि फ़िल्म में कुछ वास्तविकता है, और कुछ ईमानदारी भी है। ये तब होता था कि पेशे के नाम पर दो ही पेशों का ख़्याल आता था, इंजीनियर और डॉक्टर। ये सच्चाई तो कब की बदल चुकी। वाइल्डलाइफ़ फोटोग्राफ़र कितने पैसे कमा सकते हैं, वो एक इंजीनियर कभी नहीं कमा सकता। मुझे लगता कि ईमानदारी की बात हो रही है अगर आज कल के कॉल सेन्टर कल्चर में पैसा कमाने वाले बच्चों में ज्ञानार्जन को लेकर जो उदासीनता है उस की बात की जाती।
लेकिन वो करने की हिम्मत फ़िल्ममेकर में नहीं थी क्योंकि अपने दर्शक को संशय में डालना मतलब बहुत बड़ा ख़तरा मोल लेना। और ये वैसी फ़िल्म है जिसने एक जगह भी ख़तरा नहीं उठाया। मुन्नाभाई फ़ार्मूले को जमकर इस्तेमाल किया। मेरे ज़ेहन में इस फ़िल्म को डिफ़ाइन करने के लिए जो सबसे उपयुक्त शब्द आता है वो है पैथेटिक।
मेरी अपनी राय में यह फ़िल्म न सिर्फ़ फूहड़ और बेईमान है बल्कि शर्मनाक भी है मेरे लिए। राजकुमार हीरानी और विनोद चोपड़ा तो धंधे वाले लोग है, और कामयाब धंधेवाले हैं; मेरे धंधे वाले लोग हैं, उनको मेरी बधाईयां हैं। अफ़सोस और शर्म तो अपनी पीढ़ी और नौजवान पीढ़ी के लोगों से है जो अभी तक इस तरह के नौटंकीछाप सिनेमा को एक्सेलेंस समझ लेने की बकलोली कर सकते हैं।
हमारे समाज का एक बड़ा वर्ग ग़रीबी रेखा के नीचे हैं उस से आप किसी तरह की नई ऊँचाईयों को छूने की उम्मीद नहीं कर सकते। पन्द्रह बीस प्रतिशत लोग मध्यम वर्ग हैं, उसमें से अधिकतर लोग नौकरी मिलते ही किताब को रद्दी में बेच कर नमक खरीद लेते हैं। जो चुटकी भर नमक जितने रह जाते हैं वे भी अगर समवेत स्वर से आल इज वेल गाने लगें तो समझ लीजिये कि अभी देश सुसुप्तावस्था में ही है, नेहरू जी को धोखा हुआ था कि इन्डिया विल अवेक टु लाइफ़ एन्ड फ़्रीडम, एट दि स्ट्रोक ऑफ़ मिडनाईट आवर, व्हेन दि वर्ल्ड स्लीप्स। मैं उम्मीद करता हूँ कि इस चुटकी के एक अच्छे हिस्से को फ़िल्म नहीं जंची है लेकिन वो चुप है।
अगर हम इसी तरह की लैयापट्टी में कला की नफ़ासत खोजते रहे तो भारतीय महापुरुष के लिए काल्सेन्टर से अधिक उम्मीद नहीं है। जो दक्षिणभारतीय चतुर और रामलिंगम जो अमरीकादि में सफल हो गए हैं वही अपनी हद है और ये बांगडू और चाचड एक दिवास्वप्न से अधिक कुछ नहीं। जब मैं ने जामिया के एम सी आर सी में (हिन्दी फ़िल्मों) पर पेपर तैयार किया था तो उसकी आख़िरी लाइन थी, "हिन्दी फ़िल्में उसके दर्शक को अपनी आंकाक्षाओं के साथ हस्तमैथुन का खुला आमंत्रण है। तब से अब तक कुछ भी नहीं बदला है|"
फ़िल्म के आख़िर में माधवन की आवाज़ आती है – काबिल बन जाओ कामयाबी अपने आप ही मिल जाएगी। ये धोखा देने वाला बयान है। इसी तरह का धोखा ‘तारे ज़मीन पर’ में भी दिया गया था। जो बच्चा सब से अलग, अनोखा है, उसे अपने अनोखेपन में ही स्वीकार किया जाना चाहिये, मगर उस फ़िल्म में अनोखे बच्चे को पेंटिग प्रतिस्पर्धा में जितवाया जाता है, उसे मुख्यधारा में कामयाबी दिलाई जाती है।
यानी मुख्यधारा में कामयाबी ही असली पैमाना है। इस फ़िल्म में भी चतुर नाम का चरित आमिर के आग चूतिया सिद्ध हो जाता है क्योंकि आमिर को दुनियावी कामयाबी भी मिल जाती है। तो माधवन का संवाद आता है - काबिल बन जाओ कामयाबी अपने आप ही मिल जाएगी। ये भुलावा है, धोखा है। असली एक्सेलेन्स खोजने वाले के लिए काबिलियत ही कामयाबी है।
हालांकि फ़िल्म तमाम सिनेमैटिक पैमानो से बेहद घटिया है फिर भी अगर उसे तमाम फ़िल्मी अवार्ड्स में कई सारे अवार्ड्स मिल जायं तो मुझे कोई हैरत नहीं होगी- पैसा पीटने वाली फ़िल्म ही कामयाबी और एक्सलेंस का असली पैमाना है।