बुधवार, 23 सितंबर 2009

ई रजा कासी हॅ - लंगोट सर्ग

वैसे तो बनारस में और भी तमाम रंग देखे, सब का ज़िक्र करना यहाँ मुमकिन नहीं लेकिन लंगोट की चर्चा के बिना यह विवरण अधूरा रह जाएगा। अपनी काशी डायरी का अंत इसी लंगोट को समर्पित करता हूँ।

जहाँ बाकी देश में खासकर बड़े शहरों में ब्रीफ़्स और अण्डरवियर्स का चलन है, बनारस में लंगोट अभी भी लोकप्रिय है, घाट पर नहाते पुरुषों में अधिकतर लोग आप को ब्राण्डेड अण्डरवीयर में ज़रूर दिखेंगे मगर एक अच्छी संख्या लंगोटधारियों की भी मिलेगी। और नगरों में लंगोट को लोगों ने पके करेले की तरह त्याग दिया है। करेला तो वो पहले भी था क्योंकि जो लोग लंगोट के योग्य अपने को नहीं पाते थे उन्होने पिछली पीढ़ी में ही पटरे वाले जांघिये का आविष्कार करवा लिया था। अब तो खैर! ये भी बात होने लगी है कि लंगोट पहनने से आदमी नपुंसक हो जाला।

आधुनिक विज्ञान के फ़ैड्स पर यक़ीन करना ख़तरे से खाली नहीं। साठ के दशक में पूरे योरोप और अमरीका के वैज्ञानिकों ने मिल्क फ़ूड कम्पनियों को यह प्रमाण पत्र दे दिया है कि माँ का दूध बच्चे के लिए पर्याप्त नहीं। साठ, सत्तर और अस्सी, और नब्बे के दशक में पैदा होने वाले बच्चे डिब्बा बन्द पाउडर के दूध पर पले। आज बिना किसी माफ़ी, किसी अपराध स्वीकरोक्ति के ये फ़िर से स्थापित कर दिया गया है कि माँ का दूध ही सर्वश्रेष्ठ है। तो आज का कॉमन सेन्स है कि लंगोट पहनने से आदमी नपूंसक हो जाता है।


अगर सचमुच ऐसा होता तो काशी में आबादी की वृद्धि दर में कमी ज़रूर नोटिस की जाती। काशी में लंगोट कितना आम है इसका अन्दाज़ा आप को कपड़ों की कुछ दुकानों के आगे फ़हराते रंगीन पताकाओं से मिलेगी। अगर आप भूल न गए हों तो आप पहचान जाएंगे कि ये झण्डा-पताका नहीं छापे वाले रंगीन लंगोट हैं।

लंगोट पहनना कोई कला नहीं है। आप को बस गाँठ मारना और हाथ घुमा के सिरा खोंसना आना चाहिये। लेकिन घाट पर लंगोट पहनना एक हुनर ज़रूर है। इस हुनर में पहले लंगोट का एक सिरा मुँह में दबा कर शेष तिकोना भाग लटका लिया जाता है। फिर पहने हुए लंगोट/अंगौछे को गिरने के लिए आज़ाद छोड़कर फ़ुर्ती से तिकोने को पृष्ठ भाग पर जमा लिया जाता है। दोनों तरफ़ ओट हो जाने के बाद फिर नाड़े को कस लिया। सारा हुनर इस फ़ुर्ती में ही है। अनाड़ी लोग चूक जाते हैं तो उनके पृष्ठ भाग आम दर्शन के लिए सर्व सुलभ हो जाता है। और हुनरमन्द हाथ की सफ़ाई से नज़रबन्दी कर देते हैं और एक पल में ही सब कुछ खुल कर वापस ओट में हो जाता है। जय लिंगोट।

मेरे हिसाब से लंगोट से बेहतर अन्डरवियर मिलना असम्भव है। एक प्रकार के मॉर्डन अण्डरवियर की टैग लाइन है कि फ़िट इतना मस्त कि नो एडजस्ट। बात मार्के की है। हर आदमी अण्डी पहन के एडजस्ट का हाजतमन्द हो जाता है। मुश्किल ये है कि सारी अण्डीज़ प्रि फ़िटेड आती है वो आप के लिए कस्टम मेड नहीं है। ९० हो सकता है आप के लिए ढीला हो, और ८५ टाइट। आप सर पटक कर मर जाइये आप के लिए कोई ८७ या ८८ साइज़ का अण्डरवियर नहीं बनाएगा। और किसी ने बना भी दिया तो आप का साइज़ सर्वदा ८७ ही रहेगा इस की क्या गारन्टी है हो सकता है सुबह ८४ हो शाम ९१ हो जाय और रात को ८१।

झख मार कर आप ८५ या ९० का साइज़ लेंगे और फिर आप कितना भी एडजस्ट करें कुछ एडजस्ट नहीं होगा। इसके विपरीत लंगोट है। इसके ठीक विपरीत लंगोट कस्टम मेड है। जितना चाहे एडजस्ट। टाइट पहनना हो सिरा खींच कर टाइट कर लीजिये। और नपुंसक हो जाने के अफ़वाह से बचाव करना हो तो ढील दे कर लंगोट का वातायन बना लीजिये।


जय बनारस! जय लंगोट!!

(बनारस यात्रा के दौरान लिखी गई डायरी से)

ई रजा कासी हॅ ! - ६

किन्ही लाल साहब का मक़बरा है राजघाट के पुल के पास। आरकेयोलॉजिकल सर्वे ऑफ़ इन्डिया के संरक्षण में है वो खूबसूरत इमारत। हम ने चाहा कि देखें मगर पन्द्रह अगस्त के दिन छुट्टी है और उस दिन किसी को काम करने की इजाज़त नहीं है। शायद घूम-फिर कर ऐसे ऐतिहासिक स्थलों को देखने की आज़ादी भी नहीं। हमें ये लाभ देने के लिए जो व्यक्ति उस के देखरेख करता होगा उसे काम करना पड़ता शायद इसीलिए वहाँ प्रवेश बन्द था मगर सुरक्षाकर्मी फिर भी नौकरी बजा रहे थे।

हम यह सोच ही रहे थे कि वहाँ मुसलमानों के एक जत्थे की आमद हुई। हमें लगा कि शायद इन लोगों से इस इमारत की तारीख़ का कुछ पता चले सो दीनी पहनाव में पैबस्त एक मोटी-ताजी शख्सियत से हम ने पूछा कि क्या वो जानते हैं कि इस ऐतिहासिक इमारत की क्या अहमियत है। पर वे शायद खुद परिचित नहीं थे और सम्भवतः बाहर से आए थे। उनके साथ एक स्थानीय से लगने वाले जनाब उस पुलिस वाले से बहस में उलझ गए कि ये लोग बाहर से आए हैं और इनका मक़बरा देखना ज़रूरी है। हम ने उनसे भी अपनी जिज्ञासा ज़ाहिर की तो बासित जमाल नामधारी इन साहब ने इमारत की ऐतिहासिकता पर हमारी पुर्सिश को बुरी तरह से नज़र अंदाज़ कर दिया और अपने दुख भरे आक्रोश को प्रगट करने लगे कि मुसलमानों की जगह और उन्हे ही नहीं घुसने दे रहे।

बाहर से आए अपने रिश्तेदारों या दोस्तों को वो हिन्दू बनारस में मुस्लिम परम्परा के नाम पर जो कुछ है उसका मुज़ाहिरा करने में अपने को बेबस पा कर वे ये भी नहीं देख पा रहे थे कि सुरक्षाकर्मी हमें भी नहीं घुसने दे रहे। फिर भी मैंने उन के दुख को समझने की कोशिश करते हुए कहा कि आज पन्द्रह अगस्त है आज आज़ादी की छुट्टी है। तो भी उनका मानना था कि उस से क्या। उन्हे तो ये आज़ादी नहीं मिली कि वे अपने बुज़ुर्ग की जगह जा कर जो करना चाहें कर सके। शायद उन्हे बाबा विश्वनाथ के श्रद्धालुओं से ईर्ष्या हो जो संडे, मंडे, बैंक हॉलीडे सभी दिन अपने श्रद्धा-सुमन अर्पित कर सकते हैं।

बाद में जमाल साहब की शिकायत पर सोचते हुए मैंने पाया कि मजारों को तो सरकार हस्तगत नही करती, सिर्फ़ ऐतिहासिक स्थलों को। अजमेर शरीफ़, निज़ामुद्दीन औलिया की मजार आदि तो जनता के ही अधिकार में रहती हैं बावजूद इसके कि वो ऐतिहासिक रूप से भी महत्वपूर्ण हैं। तो क्या जमाल साहब मुसलमानों के पुरानी हुक़ूमत के सभी स्थानों पर अधिकार न मिलने से दुखी थे। अगर ऐसा है तो ये बहुत बड़ी शिकायत है क्योंकि मुसलमानों के अधिकार में तो एक वक़्त पूरे का पूरा हिन्दुस्तान था।

जमाल बासित हमें बहुत देर तक अरझा कर नहीं रख पाए और हम आगे निकल गए। वरूणा और गंगा के संगम पर लगा वाराणसी का पहला घाट है आदि केशव घाट। गंगा के प्रवाह की दिशा से देखेंगे तो आखिरी घाट मगर न जाने क्यों इसे पहला घाट ही कहते हैं। वाराणसी में भी पहले वरुणा आती है और असी बाद में। घाट पर लिखा है काशी पहले विष्णु की नगरी है बाद में शिव की। मन्दिर जीर्ण है और प्राचीन मूर्ति के बारे में उघारे बदन, अगोंछे में अधोभाग का आच्छादन किए पुजारी जी ने बताया कि वह स्वयं विष्णु जी के द्वारा स्थापित है।

दो बकरी और एक गाय के अलावा घाट लगभग सुन्न पड़ा है। मन्दिर के चारों ओर लोगों ने अपना घर बना लिया है। आप मन्दिर में घुसते हैं तो आप को लगता है कि आप किसी के घर की सीमा का उल्लंघन कर रहे हैं। चौसट्ठी घाट पर चतुर्षष्ठेश्वर मन्दिर में भी इसी संकोच के चलते मैं बाहर ही रह गया। यह केवल आदिकेशव की नहीं सम्पूर्ण बनारस का चरित्र है यहां लोग मन्दिर में घुस कर रहते ही नहीं, वहां से दुकान धंधा भी संचलित करते हैं। विश्वनाथ गली में भी कई प्राचीन मन्दिर ऐसे हैं जो लोगों के घरों और दुकानों के बीच पिस कर महीन हो कर विलीन होते जा रहे हैं। कुछ एक ने तो मन्दिरवे में ही होटल खोल दिया है। खाओ रजा इडली डोसा!

मैंने पाया कि काशी का कुछ अलग रंग नहीं है। ऊ पी का ही रंग है जो यहाँ कुछ खिल कर निकलता है। आदमी नंगा है कुछ नहीं है उसके पास। फिर भी मस्त है। जैसे उसे दुनिया जहान से कोई मतलब ही नहीं। कहते हैं जो आनन्द यहाँ हैं कहीं नहीं। यहाँ एक अजब मिठास है। गमछा लपेटे हैं, दो रुपये की सब्जी खरीदें हैं, जेब खाली है, पर कोई परिचित दिख जाय तो आवा एक ठ पान हो जाए, चाय हो जाए। ये चरित्र पूरे प्रदेश का है- खास तौर पर आगरा से दक्षिण-पूर्व का- लेकिन काशी तो जैसे एक सुरूर में रहता है हमेशा। जैसे नशा यहाँ की भंग में नहीं गंगा के पानी में हो। जिसने डुबकी लगायी वो गया, सुरूर में। मन लागो यार फ़कीरी में। दूसरी तरफ़ कुछ लोगों का मानना है कि बनारस एक लद्धड़ शहर है जो अपनी निरुद्देश्यता को बनारसी मस्ती का नाम देकर आँखें मूंदे पड़ा है।


ऐसी ही निरुद्देश्य मस्ती में शाम को घाट पर टहलते हुए अचानक बारिश होने लगी। दौड़ कर एक चाय की दुकान पर लगे तिरपाल में घुस गए। तमाम श्रद्धालुओं के बीच गीता वचन उवाचते मिले झक्क कुर्ता पैजामा धारी सज्जन जो आपस के राग-द्वेष से चिंतित थे। कानों में पड़ा कि उनकी दृष्टि में कोई अपना-पराया नहीं, सब आत्मा है। और आत्मा आत्मा में क्या भेद। यह कहते हुए उनके मुख कमल से मदिरा की गन्ध मन्द-मन्द आ रही है। धीरे से बात खेत के पट्टो और फ़ौजदारी पर लौट गई। ये एक और विषेशता है। लम्पट सबसे बढकर साधु की भाषा बोलता है। लेकिन उसके हाव-भाव और कर्म उसका राज़ खोल देते हैं। कभी भाषा मंत्र थी। उसमें इतनी शक्ति थी कि उच्चारण मात्र ही वरदान और शाप हो जाता था। पर आज की भाषा वास्तव में धोखा है। अकेले भाषा से साधु और शैतान का भेद करना बहुत मुश्किल है। हर लंगोटधारी ब्रह्मचारी हो ये ज़रूरी नहीं।


(बनारस यात्रा की दौरान लिखी डायरी से)

मंगलवार, 22 सितंबर 2009

ई रजा कासी हॅ ! - ५

ओम नमो शिवाय! ओम नमो शिवाय!! सुबह सुबह पाँच साढ़े पांच बजे होटल गैंजेस के नीचे से इस मंत्र जाप के साथ भक्तो की टोली खड़ताल खड़काते निकलती हैं। शिव मंत्र का यह सस्वर पाठ बड़ा ऊर्जावान जागृति देने वाला मालूम हुआ मुझे। होटल के छज्जे पर खड़े होकर उन्हे देखा और फटाफट नीचे उतर आया। उनके पीछे चलते हुए मुझे भी मन हुआ कि मैं भी उस टोली का हिस्सा होकर ओम नमो शिवाय का जाप करने लगूं। लेकिन अपनी स्वाभाविक झिझक और लज्जा के चलते मैं चुप ही रहा। विश्वनाथ गली के अन्दर मुड़कर वे वहीं खड़े होकर कुछ देर तक माहौल बनाते रहते। उनके इस जादू से कुत्ते भी मुग्ध हो गए। पास आकर पूँछ हिलाते शामिल हो गए। एक ने तो अपना स्वरदान भी किया; भौं-भौं, कूं-कूं नहीं, अजब आह्लाद से भरा हुआ। जैसे किसी उसमें भी किसी सुसुप्त स्मृति का जागरण हो गया हो।

शंख नाद के साथ बाबा विश्वनाथ की अर्चना समाप्त करके टोली दशाश्वमेध घाट की ओर स्नान के लिए चली गई। पाठ का स्वर बदल कर मद्धम हो गया पर जारी रहा। चाय वाले ने बताया कि यह बहुत पुराना नहीं है। पाँच साल से ही चालू हुआ है। चार टोली आती हैं। एक कबीरचौरा से, एक चेतगंज से, एक चौक से और एक अन्यत्र से। पास खड़े एक बाबा ने कामना की कि अब एक टोली सोनारपुरा से आनी चाहिये। चायवाले ने सहमति जतायी। एक सभ्रान्त पुरुष जिसके कपड़े काफ़ी मलिन हो चुके थे मुझसे आग्रह किया कि बाबू एक चाय पिलाइये। उसके आग्रह में विनय़ था, दैन्यता न थी। ऐसे आग्रह को टालना असम्भव था।

चाय वाले के हाथ में तुलसी और पुदीने के रस मिश्रित काली चाय बनाने का हुनर था, मैं उसका मुरीद हो कर सुबह तीन चार चाय पी जाता हूँ। तीन चार इसलिए भी क्योंकि बढ़ती महँगाई में दाम बढ़ाने के अलावा कुल्हड़ का आकार भी मध्यम से छोटा और छोटे से नन्हा होता जा रहा है। पर अफ़सोस यह था कि उसकी सड़क पर स्थित अस्थायी दुकान, स्थायी दुकानों के खुलते ही बन्द हो जाती है। चाय का आनन्द लेते हुए मैं ने देखा कि कि एक बड़ी गाड़ी टयोटा इनोवा आकर विश्वनाथ गली के दूसरी तरफ़ रुकी। आगे के दरवाजे से एक सुथरे स्वरूप के सिल्क के कुर्ता-धोती डांटे एक धनिक सज्जन उतरे। ड्राइवर गाड़ी रोके रहे। पीछे एक प्रौढ़ महिला थीं। वे नहीं उतरी। फिर हमने देखा कि एक मोटरसायकिल सवार पुलिस वाला ऊँचे स्वर में कुछ अपशब्द हकाल रहा था- साले एक गाड़ी से पूरा रस्तवा जाम कर दिया है.. बढ़ा भोसड़ी वाले। गाड़ी का ड्रायवर उतर कर दूसरी तरफ़ का दरवाजा खोल रहा था। गाड़ी से एक प्रौढ़ महिला का अवतरण हुआ। ड्रायवर बहुत हड़का नहीं मगर वापस आकर अपनी गद्दी सम्हाली और गाड़ी जब तक आगे नहीं बढ़ी, पुलिसवाले की प्रेरणा जारी रही।

बनारस प्रवास की शुरुआत ही यहाँ के यातायात की अराजक रोमांच से हुई थी। तभी समझ गया था कि यह सड़क पर दृश्यमान ये स्वच्छन्द गतियां बनारसी मानस का निछन्दम प्रवृत्ति का प्रतिबिम्ब हैं। कोई किसी के लिए रुकने को तैयार नहीं है। एक दूसरे को रास्ता देने की न्यूनतम विनम्रता भी नहीं है, जिसे इंगलिश ऐटीकेट या ‘पहले आप’ वाली लखनवी तहज़ीब में देखा जाता है। यहाँ तो बस उन दो प्राचीन राजाओं की अदम्य ऊर्जा है जो संकरे पुल पर आमने सामने होकर अपने रथ पीछे हटाने से इन्कार कर देते हैं। और जो अपनी सुविधा के लिए पूरे जगत की गतियों को अवरुद्ध करने में भी नहीं संकोच करते।

अचानक मुझे कल शाम की एक घटना याद हो आई। यही सड़क थी, और गाड़ी भी इनोवा ही थी। ठीक ऐसे ही चिल्ल-पों करती सड़क पर एक इनोवा रुक गई थी और उसके पीछे का सारा ट्रैफ़िक जड़वत हो गया था। अजीब दृश्य था, न तो कोई इनोवा के अगल-बगल की जगह से अपने वाहन को रगड़ते हुए निकालने की कोशिश कर रहा था और न ही पीछे खड़े वाहनसवारों में से कोई बेचैन आत्मा अपने स्वरयंत्र के ज़रिये इनोवावासियों को धकेलने जैसी प्रतिक्रिया कर रहा था। बड़े अचरज का नज़ारा था, ग़ौर से देखने पर समझ आया कि इनोवा के आगे एक पुलिस की जीप भी खड़ी है जिसके वर्दीधारी सरकारी कर्मचारी इनोवा से उतरने वाली सभ्रान्त महिलाओं के लिए गाड़ी का दरवाज़ा खोलने से लेकर उन्हे दुकान के भीतर छोड़ आने तक जैसी सेवा-टहल कर की स्वयं को सार्थक सिद्ध कर रहे हैं। निश्चित ही ये महिलाएं किसी कुलीन अफ़सर के परिवार की थीं। दो-तीन मिनट तक गौदौलिया से दशाश्वमेघ जाने वाली सड़क का संसार एक सम्मोहक जड़ता में स्तम्भित रहा। और ये सब एक सरकारी अफ़सर के रौब-दाब के भौकाल में।

यह विचार ही रहा था कि देखा कि सुबह से बानारस के यातायात को सुधार देने के लिए तत्पर एक लम्बोदर पुलिसवाला अपनी टांग उठाकर रिक्शेवाले के पृष्ठभाग वो अंकन कर रहा था जिसे आम चलन में गाँड़ पर लात कहा जाता है। गाँड़ पर लात मुहावरे का प्रयोग आजकल जी पी एल के रूप में एम टी वी पर भी लोकप्रिय हो चला है लेकिन उसके सार्वजनिक प्रयोग का साक्षात दर्शन आप को काशी या काशी जैसी दिव्यनगरी में ही सम्भव है।

इस अनुभव के बाद मन पर जो बनारस की अराजकता को जो अभिराम बिम्ब बना था, ऐसे खण्डित होने लगा कि नई बनी छवि का कुछ स्पष्ट अर्थ निकालना कठिन हो गया। क्या इसका अर्थ यह था कि बनारसी अराजकता और स्वच्छन्दता तभी तक है जब तक कि राज्य का डण्डा पिछवाड़े पर अंकित होने की सम्भावना क्षितिज पर दूर हो? कुछ चाह कर भी इस मुद्रांकन से बच नहीं पाते और कुछ ऐसी सम्भावना के उपजते ही अपनी निर्दोषता का सबूत, बुत बन पेश करने लगते हैं।

बनारस का अन्तिम घाट है राजघाट। लोगों ने बताया कि वो एकदम ‘गँवार’ है। उसे देखने की इच्छा इसलिए बलवती हुई कि वो सम्भवतः बनारस का पूर्ववर्ती रूप है। पिछली सदियों का जिसे अभी देखा जा सकता है। वहाँ पहुँचे तो समझ आया कि उसे गँवार क्यों कहा गया.. घाट पर पत्थर की सीढ़िया तो हैं मगर मिट्टी का साम्राज्य कहीं अधिक है।

वहाँ पहुँचने के पहले ही दर्शन हुए भैंसासुर मन्दिर के। थोड़ा चौंका। भैंसासुर यानी महिषासुर - देवी माँ द्वारा जिसके मर्दन का उत्सव हर वर्ष हम करते ही हैं- उसका मन्दिर? आगे घाट पर देखा कि घाट का नाम भैंसासुर राज घाट लिखा है। फिर ऊपर देखा तो एक भव्य संत रविदास मन्दिर निर्माणाधीन दिखा। उसके नीचे लिखा था – संत रविदास घाट। ये थोड़ा उलझाने वाला लगा। एक घाट के तीन-तीन नाम कैसे। पूछा तो मल्लाहों ने बताया कि घाट का नाम भैंसासुर राजघाट है। संत रविदास बोलेंगे तो दूसरी छोर पर अस्सी के आगे भेज दिये जायेंगे। फिर एक स्त्री ने बताया कि इस घाट का असली नाम कुलकुल घाट है। इसकी क्या कहानी है उसने नहीं बताई बस यही कहा कि कुलकुल ही पुराना नाम है।

अपने मातृपक्ष और श्वश्रूपक्ष की पूरी कहानी बताने के बात उसने हमें दस-दस रुपये की माला बेच दी और कहा कि जाइये भैंसासुर बाबा पर चढ़ा आइये। वो जागता बाबा है। हैजा फैलता है तो हम बाबा से कहते हैं कि बाबा हैजा रोक दो तो बाबा रोक देता है। बेटी मर गई थी तो बाबा के पास जा के लिटा दिया। बोला कि बाब इसे जिला दो- बाबा ने जिला दिया। जागता बाबा है। ऐसे जागते बाबे कितने हैं देश में। शायद हजारों, शायद लाखों। मगर भैंसासुर बाबा पूरे वर्ल्ड में एक ही है। ऐसा एक अन्य भक्त ने बताया। हम अपराजित/नीलकण्ठ की माला ले के गए। बाबा का केवल धड़ था और बाबा की सहधर्मिणी सायरा माता की पूरी आकृति। और अन्दर भैंसासुर बाबा के बगल में बाबा की सवारी भैंसा या उनका कोई बन्धु ही- पता नहीं कह नहीं सकते! न विष्णु थे, न राम, न कृष्ण, न गणेश और न ही कोई अन्य देवी देवता। ये देवालय नहीं एक असुरालय था जहाँ महिषासुरमर्दिनी दुर्गा के होने का तो प्रश्न ही नहीं उठता। लेकिन बाहर शंकर जी के नन्दी थे। और मन्दिर के भीतर ही बाजू में भोले बाबा भी उपस्थित थे। इस प्राचीन गँवार घाट पर असुर संस्कृति के चिह्न आज भी जीवित हैं और उन्हे भोले बाबा का समर्थन और संरक्षण दोनों प्राप्त है।


(बनारस यात्रा के दौरान लिखी डायरी से)

सोमवार, 14 सितंबर 2009

ई रजा कासी हॅ ! - ४

घाट पर मुझे कुछ मुसलमान भी दिखाई दिए। अपने सफ़ेद कुर्ते, टखने के ऊपर पैजामे और नमाज़ी टोपी पहने हुए। दाढ़ी करीने से कटी हुई। मोटे तौर पर एक साफ़-सुथरा रूप। मुझे जिज्ञासा हुई कि मुसलमानी इलाक़ो का हाल कैसा होगा। मैं और मेजर दोनों मदनपुरा से होकर रेवडी बाज़ार की गलियों में घुस गए। गलियाँ वैसी ही संकरी और अंधेरी थी। ज़्यादातर मर्द दाढ़ी, और औरतें बुरक़े के पैरहन में क़ैद थे। गलियों में यहाँ भी थोड़े-थोड़े अन्तराल पर कूड़े के ढेर नमूदार हो रहे थे। दुकाने अलग क़िसम की थी। लेकिन शुचिता में कोई खास अन्तर नहीं मिला और न ही भाषा में। औरतें भी रहल-गयल कर रही थीं।

मुझे ऐसा लगा कि हिन्दू और मुसलमान दोनों शुचिता को अपने-अपने निजी नियम तक सीमित कर के ही देख रहे हैं। सामाजिक शुचिता का किसी के पास कोई दृष्टिकोण नहीं है। कहीं-कहीं तो यह मन्दिर-मस्जिद तक महदूद है और कहीं-कहीं वहाँ भी नहीं मिलती। प्राचीनता के नाम पर जो ढोया जा रहा है, वहाँ नहीं है, लेकिन आधुनिक संरचनाओं में है। बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय के भीतर स्थित भव्य विश्वनाथ मन्दिर में है। और रेवड़ी बाज़ार के अंत पर स्थित अल्जामिया अलतु्स्सलफ़िया में भी है जिस की खूबसूरत इमारत देखकर भीतर जाने की इच्छा ज़ाहिर की थी। और जहाँ गेरुआ गमछा गले में डाल कर और अपना नाम पता उर्दू में लिखकर मैं ने चौकीदार को थोड़ा चौंकाया और अपनी इस नाटकीयता पर प्रसन्न रहा।

बनारस के घाटों का वर्तमान रूप बहुत पुराना नहीं हैं। कहते हैं कि मुगल काल और उसके बाद ही सारे घाटों को आधुनिक शक्ल मिली। साफ़ देखा भी जा सकता है। घाटों की सीढियों और मन्दिरों के लाल- भूरे पत्त्थर पर इसी मुगल-राजपूत शैली का प्रभाव है। लेकिन काशी और उसकी संस्कृति का अस्तित्व तो बहुत प्राचीन है। हज़ारों सालों की ग्रामीण सभ्यता का संस्कार रहा है – खुले मैदान में , नदियों के किनारे तक में निबटना, कहीं भी थूक देना और मूत्र विसर्जित करना। यहाँ तक कि इनका रोकना स्वास्थ्य के विरुद्ध माना जाता है।

ग्रामीण सभ्यता जिसमें कि आप कभी भी खेत, मैदान और जंगल से बहुत दूर नहीं होते, इस स्वास्थ्य सम्बन्धी संस्कार का पालन कोई कठिन नहीं और शालीनता के विरुद्ध भी नहीं। लेकिन शहरी समाज एक अलग संस्कार की माँग करता है। घाट का पत्थर मिट्टी की तरह मल, मूत्र, थूक को जज़्ब कर के फिर से एकरस नहीं बन जाता। ये बात हम ही नहीं वे भी समझते हैं जो घाट पर बैठ कर हगते हैं। लेकिन उसका विकल्प क्या है। कहाँ घाटो के आस-पास बसी सघन आबादी के लिए सार्वजनिक शौचालय?

इस वर्ष को सार्थक करने के लिए जन्माष्टमी तक भी वर्षा नहीं हुई है। पारम्परिक ज्ञान बताता है कि जिस काली अँधियारी मूसलाधार बारिश की रात में कृष्ण जी का अवतरण हुआ था, हर बरस उस रात बरखा ज़रूर होती है। आसाढ़ गया, सावन भी गया, भादों भी सूखा निकला ज़ा रहा था, भगवान ने ज्ञानियों की लाज रख ली, जन्माष्टमी के दिन से ही बारिश शुरु हो गई।

अगले दिन घाट पर गंगा का स्तर देखकर मुझे लगा कि कल की बर्षा के बाद कुछ बढ़ोत्तरी हुई है। मैंने एक पण्डे से यही कहा तो बोले कि पानी एक सीढ़ी उतर गया है। अभी आप खड़े रहिये तो जिस पत्थर पर लहर आती दिख रही है, एक ही घण्टे में एक इंच उतर जाएगी। मैं इस विरोधाभास पर हैरान हुआ मगर गंगा के जल को देखता हुआ आगे बढ़ गया।

एक मल्लाह ने पूछा कि नौका लेंगे। अपनी रजा बताने के बाद मैंने कहा कि पानी घट रहा है। जैसे मैंने उसकी दुखती रग़ पर हाथ रख दिया हो। “भगवान जाने क्या होगा। पानी घटता ही जा रहा है। गंगा जी रहेंगी या नहीं अब तो यही प्रश्न खड़ा हो गया है।”...वैसे ये बात सभी जानते हैं कि गंगा सदा से इस धरती पर नहीं है। भगीरथ के प्रयत्नों से सगर-पुत्रों के उद्धार के लिए स्वर्ग से गंगावतरण हुआ है, पर एक अन्य पौराणिक कथा से कम लोग परिचित है जिसके अनुसार कालान्तर में गंगा का लोप हो जाएगा... आजकल पूरा बनारस तो नहीं पर असी और वरुणा के बीच घाट के आस-पास रहने वाले काशी निवासी इसी एक चिंता के द्वारा पकड़े गए हैं। पानी घटता जा रहा है- गंगा जी बचेंगी या नहीं। घाट के पण्डों, मल्लाहों के अलावा घाट के आस-पास का पूरा कार्य-व्यापार गंगा जी पर ही निर्भर है। चिंता स्वाभाविक है।



कुछ सोचकर मैंने कहा कि गंगा जी का सफ़ाई अभियान चल रहा है। जैसे बीमार आदमी इलाज के दौरान कमज़ोर बना रहता है लेकिन बाद में स्वस्थ होकर बलवान हो जाता है, वैसे ही गंगा जी भी.. । “कहाँ सफ़ाई, कितनी गंदगी बढ़ गई है। घाट पर एकदम नरक हो गया है।“ जिस कचरे के ढेर पर कल तक लोग पेशाब कर रहे थे और जिसे देखकर मैं विचलित हो रहा था. उसने बताया कि कल करपात्री जी के आश्रम के विद्यार्थियों ने उस पूरे कचरे को सफ़ा किया और कचरा बड़ी नौका पर डालकर उस पार गाड़ आए।

मैं इस बात से बड़ा खुश हुआ कि शुचिता का भाव अभी पूरी तरह मरा नहीं है। पर मल्लाह दुखी था कि ब्राह्मण सफ़ाई कर रहे हैं, कचरा ढो रहे हैं। बाद में सोचते हुए मैं ने पाया कि शायद शुचिता की पुनर्स्थापना के लिए अब ब्राह्मणों को ही सफ़ाई की ज़िम्मेदारी ढोनी होगी.. अन्य शब्दों में अब वो काल है कि अब उन्हे कचरा ढोना होगा।


प्रकृति में दिव्यता और पवित्रता के आरोपण का एक खतरा यह भी बन जाता है कि हम उसे शुचिता और पवित्रता का ऐसा स्वयंभू स्रोत मान लेते हैं जो हमें निरन्तर पवित्र करता चलती है/ चलता है। और चूंकि वह हमें पवित्र करता है तो उसके दूषित होने और भ्रष्ट होने की किसी भी सम्भावना पर हम विचार करते ही नहीं। और इसलिए पवित्र नदियों व कुण्डादि की साफ़-सफ़ाई के प्रति एक आम उदासीनता हमें देखते हैं। उसमें माला, फूल, चन्दन, रोली के अलावा मूर्ति आदि भी फेंके जाते हैं। आजकल लोग साबुन लगा के कपड़ा धो आते हैं, प्लास्टिक बहाते हैं, घर की नाली भी उसी में खोल देते हैं। उद्योगपति तो मनुष्य से कुछ ऊपर के जीव हैं, वे मानवीय नैतिकता के द्वन्द्वों से अछूते रहते हैं और अपना औद्योगिक कचड़ा गंगा की पवित्रता के हवाले कर के निर्द्वन्द्व हो जाते हैं।

इन्ही सब चिन्ताओ को माथे पर ढोकर टहलते-टहलते तुलसी घाट पहुँचा। तुलसी बाबा ने असी घाट पर पर ही बैठ कर रामचरितमानस की रचना की थी, ऐसा बताया जाता है। उनकी झोपड़ी जहाँ रही होगी कभी, वहाँ एक बड़ी इमारत है। बडी इमारत में एक छोटा मन्दिर बाबा के नाम पर है। मैंने तस्वीर लेना चाही तो पुजारी ने आकर डाँटना शुरु कर दिया। फोटो पर इस तरह के ऐतराज़ पर मेरी हैरानी के जवाब में उन्होने कहा कि हर स्थान की एक मर्यादा होती है। पुजारी जी को उठने बैठने में तक़्लीफ़ है यह दिखाई दे रहा था, लेकिन भूमि पर ही आसन था उनका। उन्होने अपने बैठने के लिए किसी मोढ़े आदि का इन्तज़ाम भी नहीं किया था, । ऐसा करना भी सम्भवतः मर्यादा के विरुद्ध जाता होगा- मर्यादा के मापदण्ड अपने ऊपर भी लागू करते हैं यह पा कर मुझे पुजारी जी पर श्रद्धा हो आई।

कोने में एक जोड़ा खड़ाऊँ और एक कठवत नुमा लकड़ी का पुराना टुकड़ा पड़ा हुआ था। पूछने पर बताया कि दोनों आईटम तुलसी बाबा के ही हैं। लकड़ी का टुकड़ा दर असल उनकी नाव का अवशेष है जिसे लेकर वो उस पार के 'मगहर' में जाया करते थे; वह काशी में कोई काम नहीं करते थे। ‘कोई काम’ का अर्थ पुजारी जी ने बताया कि मल-मूत्र त्याग। काशी दिव्य नगरी है, पूरी सृष्टि नष्ट हो जाएगी पर काशी बनी रहेगी। ऐसी नगरी को अपने मल-मूत्र से दूषित करने की सोच, संस्कार विरुद्ध थी।

इस जानकारी के बाद यह तो तय हो गया कि शुचिता के अभाव की इस दूषित नैतिकता का स्रोत तुलसी दास की भक्ति परम्परा से नहीं आ रहा है। और शुद्ध अंग्रेज़ी संस्कार भी नाक छिड़क कर रूमाल जेब में रखने में विश्वास करता है। तब शायद ये भ्रष्ट आचार अलग संस्कृतियों के संयोग हो जाने से ही हुआ है। एक तत्व का गुण दूसरे से मिल जाने को ही भाषिक अर्थों में भ्रष्ट होना कहते हैं। इस्लाम के साथ एक स्वच्छ संयोजन संघर्ष और एकता की राह से बन—बिगड़ ही रहा था कि योरोपीय संस्कारों ने आकर सब माठा कर दिया। अब पीछे वाली स्थिति में जाने का कोई रास्ता नहीं है। संस्कृति की नदियों का संगम हो चुका है, अब पानी अलग-अलग करने का कोई उपाय नहीं है। नए संस्कार गढ़ना ही शायद अकेला विकल्प है।

(बनारस यात्रा के दौरान लिखी डायरी से)

शनिवार, 12 सितंबर 2009

ई रजा कासी हॅ ! – ३

मुख्य मन्दिर से बाहर निकला तो कोई ऊँचे स्वर में कुछ गा रहा था। गेरुए कुर्ते और लुंगी में, गले में तुलसी की पत्तियों की माला डाले, माथे पर चन्दन, तीन दिन की दाढ़ी और दाँत लम्बे समय तक पान चर्वन से काले हो चुके। वो गा रहा था ऊँचे प्रभावशाली स्वर में लिंगाष्टक। उसकी वाणी में ओज, श्रद्धा और भक्ति का अद्भुत मिश्रण था। लिंगाष्टक गाते-गाते ही उसके गिर्द एक छोटी भीड़ इकठ्ठा हो गई। पहले से ही उसकी प्रतिभा से परिचित कुछ लोगों ने अनुनय किया कि बहुत दिन हुए उनके स्वर में रावण कृत शिव स्तोत्र सुने हुए। थोड़े मनव्वुअल के बाद वो गाने लगे। और उनकी वाणी में मुझे असली ईश्वरत्व के आभास होने लगे। मन्दिर के भीतर चालू पूरे ठग-विसर्ग में एक वही अकेले धर्म-प्राण मुझे नज़र आए। पत्थर के मन्दिर और पण्डो के बीच एक जीवित भाव बस वही थे।

बाहर जाने से पहले ज्ञानवापी मस्जिद की ओर निकल गया। मन्दिर और मस्जिद के बीच एक अस्थायी प्रांगण है जिसके बीच में एक कुँआ है। भीतर झांकने पर दिखा कि कुँए के मुँह पर चादर पड़ी है और उसके ऊपर फूलमाला का एक लिंग बना दिया गया है। एक साथी भक्त ने बताया कि जब औरंगज़ेब मन्दिर तुड़वाने लगा तो शंकर भगवान इसी कुँए में कूद गए- प्राचीन मन्दिर के लिंग को कुँए में फेंक दिया गया इस तथ्य को बताने का ये शायद एक मिथकीय रूप था। कुँए के पास कुछ पण्डे भक्तो को जेब ढीली करने के लिए प्रेरित कर रहे थे। उनसे बचने के लिए मैं दूर हट गया और कुँए के पीछे मस्जिद की ओर मुख करके बैठे सुन्दर नन्दी से आकर्षित हो गया। नन्दी के पास एक बीस-बाईस बरस का युवक पण्डा विराजमान था। उसके इकहरे बदन और चेहरे की युवा मृदुलता ने मुझे कुछ आश्वस्त रखा।

पास पहुँचते ही उसने बोलना शुरु कर दिया, मस्जिद की ओर इशारा करते हुए, “ये पुराना मन्दिर है। मन्दिर में इक्कीस फ़ुट का लिंग था। शुद्ध पन्ने का, जो दिन में घटता और रात को बढ़ता था। औरंगज़ेब ने मन्दिर तोड़ दिया। १६६५ में। जब नन्दी तोड़ने लगे तो उसमें से भौरें निकल कर मुसलमानों को काटने लगे। इसलिए नन्दी बच गए। यह नन्दी तब नौ फ़ुट के थे, फिर पाँच फ़ुट के रह गए थे, अब छै फ़ुट के हो गए हैं। विश्वनाथ जी के अभाव में काशी में धर्म को नन्दी जी और गंगा जी ने बचाए रखा”।

उसकी बातें दिलचस्प मालूम दे रही थीं। लिंग का घटना-बढ़ना तो तब भी समझा जा सकता है मगर नन्दी क्यों घट-बढ़ गए हैं? क्या वे धर्म रूपी वृषभ यही नन्दी हैं? मुझे अधिक सोचने का अवसर दिए बिना युवा पण्डा बोलता रहा। “फिर १०० साल बाद अहल्या बाई होलकर को सपना आया। तो उनकी गोद में तीन शिव लिंग प्रगट हुए, एक को सोमनाथ में, दूसरे को उज्जैन के ओंकारेश्वर, और तीसरे को काशी के विश्वनाथ मन्दिर में स्थापित किया गया। तुलसी दास जी ने यहीं बैठ कर, और अस्सी पर बैठ कर रामचरितमानस लिखी। तुलसीदास जी रोज़ नन्दी को लड्डू खिलाते थे। ढाई सौ मन लड्डू खिलाया। बाएं हाथ के ऊपर दहिना हाथ रखकर इनका गोड़ पूजने से तीन फल की प्राप्ति होती है। भक्ति, ज्ञान और मोक्ष। गोड़ पकड़ कर आशीर्वाद लीजिये!”

इतने सुदर्शन नन्दी के गोड़ पकड़ने का उपक्रम करने में मुझे कोई आपत्ति नहीं थी। गोड़ पकड़ने के लिए मेरा शरीर कमर से झुक गया। पण्डे ने बतलाया कि मैंने उलटा हाथ नीचे रखा है। मैंने हाथ उलट लिए। मैं झुका हुआ था। फिर उसने मेरे सर के ऊपर अपना हाथ रख कर हलके से दबा दिया। अब मैं पूरी तरह से उसके वश में था, समर्पण कर चुका था। कहानी सुनने के लालच ने मुझे असावधान कर दिया था। अब वो टूटी-फूटी संस्कृत में कुछ वाक्यांश बोल कर मुझे दुहराने का आदेश दे रहा था।

मेरी स्थिति आपत्ति करने वाली नहीं थी। शरीर कमर से झुका हुआ था, सर नन्दी के पैरों में था, दोनों हाथ सर के नीचे दबे थे, और पण्डे का हाथ मेरे सर को दबा रहा था। स्वयं को इतनी दबी हुई स्थिति में मैंने कभी नहीं पाया। कोई टंटा खड़ा करने की कोई मंशा न होने से मैंने बेमन से हलकी आवाज़ में उसके आधी-संस्कृत आधी हिन्दी के वाक्यों को दुहरा दिया। इस अस्फुट अपभ्रंश मंत्रोच्चार के बीच उसने मुझसे मेरे पिता, पत्नी और अन्य सम्बन्धियों की जानकारी लेनी शुरु कर दी। ये जानकर कि मेरे कोई सन्तान नहीं है और ये मानकर कि वो मेरी दुखती रग़ होगी, वो मुझसे पुत्रकामना के लिए संकल्प कराने लगा। बताने लगा कि ये वह विशेष स्थान है जहाँ दोये सौ रुपये में गौदान हो जाता है।

रुपये पैसे की बात सुनकर मेरे मस्तक के हथियार जाग गए। रुपये का चला जाना स्वीकार है, रुपया क्या है हाथ का मैल है, मगर किसी धूर्त पण्डे द्वारा ठग लिए जाना स्वीकार नहीं है। अपने अस्वीकार को मैंने मस्तक में मज़बूत किया और ज़ोर लगा कर अपने सर को ऊपर की ओर धकेला और उसके हाथों के दबाव से आज़ाद किया। मैंने उसे बताया कि मुझे न तो कोई पुत्रकामना है और न ही कोई संकल्प करना है। उसे नमस्कार कर के मैं उस के पाश से दूर चलने लगा। वह नरम हो कर पुकारने लगा कि खाली हाथ नहीं जाते हैं, कुछ चढा के जाते हैं। लेकिन लेकिन मैं रुका नहीं, खाली हाथ झुलाते हुए निकल आया।

इस तरह के संकल्प कराने वाले पण्डे मन्दिर के हर कोने में मौजूद रहते हैं। मैंने देखा है कि उनकी भाषा एक जादूगर की भाषा सी होती है। दोनों लोग का सम्मोहन इस बात पर निर्भर करता है कि आप उनके सामने कितना समर्पण करते हैं। इसलिए वो शुरुआत किसी बेहद मामूली आदेश से करते है। बाज़ीगर कहते हैं- हाथ की मुठ्ठियां खोल दें! बच्चों बजाओ ताली! पण्डे कहते हैं –फूल दहिने हाथ में लें लें! हाथ के ऊपर सर रखकर गोड़ पकड़ लें! एक बार आदेश मान लिया तो मस्तक समर्पण की स्थिति में चला जाता है। तब तक, जब तक कि आप सचेत रूप से विद्रोह की मुद्रा न पकड़ें।

(बनारस यात्रा के दौरान लिखी डायरी से)

शुक्रवार, 11 सितंबर 2009

ई रजा कासी हॅ ! - २


बनारस बेहद गंदा शहर है। खासकर घाट और घाट के आस-पास की गलियाँ- जो कि प्राचीन मन्दिरों, मठों और आश्रमो का आश्रय हैं। गलियों में पत्ते, दोने, प्लास्टिक, सब्जी के छिलके, कुल्हड़, पान की पीक, गाय का गोबर, थूक, मूत और कुत्ते का मल सब एक साथ पड़ा रहता है। लोग अपने घरों से अन्दर, बाहर होते रहते हैं एक अनुष्ठान के बतौर अपनी देहरी भी साफ़ कर देते हैं। मगर उनकी आदतों में कोई सुधार नहीं होता। वे जहाँ रहते हैं, वही थूकते हैं, वहीं मूतते हैं, और अगर कोई न देख रहा हो तो वहीं हग भी लेते हैं। बच्चो के लिए ये दोष तो माफ़ है ही। उन्हे माताएं, पिता, बड़े भैया, दीदी दरवाजे के सामने ही बैठा देते हैं। मगर बड़े.. कुछ तो ऐसे पहुँचे हुए भी हैं जो गंगा-तीर के लिए अपने मल को सुरक्षित रखते हैं और ठीक घाट की पथरीली पावनता पर अपना उत्सर्जन करते हैं।


दशाश्वमेघ घाट की बड़ी महिमा है। ब्रह्मा जी के प्रताप से बना है। मगर सब कहीं ऐसा थूक खखार, हगा-मूता पड़ा रहता है कि आप को पाँव रखने में भी घिन आए। मगर बनारसियों को नहीं आती। वे वहीं विचरण करते हुए काशी की धर्म की धुरी होने की गौरवपूर्ण निश्चिंताताओं में रमे रहते हैं।


दशाश्वमेघ के बगल के घाट राजेन्द्रप्रसाद घाट की दीवार से लग कर शहर के सीवर के दो बड़े नाले खुलते हैं। वहीं कुछ मलबा भी पड़ा है। यूँ तो कुल घा गंदा है मगर ये कोना कुछ अधिक गंदा है। ये जान कर लोग-बाग अपनी लघु शंका का समाधान यहीं करने आते रहते हैं। दीवार के उस पार गंगा की महाआरती चल रही है। इधर मूत्र की धार चल रही है। और उसके साथ सीवर का धारा चल रहा है जिसका प्रवाह गंगा से भी तेज है।


शुचिता का ऐसा अभाव देखकर मन उदास हो गया। याद आया कि श्रीमद भागवत में धर्म के चार पैर बताए गए हैं। तप, शुचिता, दया, और सत्य। खेद के साथ लिखना पड़ रहा है कि बनारस में मुझे किसी के भी दर्शन नहीं हुए। धर्म रूपी वृषभ के तप रूपी पैर का लोप कृतयुग के अंत से ही हो चुका है, शुचिता और दया का भी बाद के युगों में; और अब धर्म केवल सत्यरूपी पैर पर खड़ा है। रूपक बहुत मोहक और रोचक है पर विश्वास करना इस पर कठिन है। सत्य अगर बचा है कलियुग में तो कहाँ? कहाँ है सत्य?


फिर भी एक समान्तर व्याख्या मानती है कि समय का बोध सब के लिए एक सा नहीं होता सम्भव है कि कोई पहुँची हुई विभूति कृतयुग में अस्तित्वमान हो। दधीचि की परम्परा में हाड़ गला कर तप करने वाले ऐसी किसी विभूति को काशी के घाटों पर देखने की उम्मीद मैं कर भी नहीं रहा था। पर दया और शुचिता तो न्यूनतम योग्यता है.. धर्म छोड़िये.. मनुष्यता की।


एक अनुभव बताता हूँ- मन्दिर ठीक है, ईश्वर भी ठीक है, मन्दिर में क़ैद ईश्वर पर मेरी कोई श्रद्धा नहीं है। काशी विश्वनाथ के शिवलिंग पर मदार की माला चढ़ा देने से अन्तर्जगत में कोई विशेष घटित हो जाएगा, यह सोचकर नहीं बस एक जिज्ञासावश ज्ञानवापी मस्जिद और काशी विश्वनाथ के सह-अस्तित्व का प्रत्यक्ष दर्शन करने की इच्छा हुई। लम्बी लाइन का हिस्सा बन गया।


इस प्रपंच में मेरी अश्रद्धा साफ़ अलग दिखाई देने से किसी को कोई तक़लीफ़ न हो तो दस रुपये का दूध-फूल-माला आदि भी ले ली। मन्दिर के कीच भरे पथ पर रेंगते हुए फिर शुचिता का प्रश्न महत्वपूर्ण हो गया पर अब भक्तों की भीड़ का हिस्सा हो चुकने के बाद निजता की गली में खिसक चलने का विकल्प बचा नहीं था।


मुख्य शिवलिंग को तमाम अन्य भगवान मूर्ति रूप में उपस्थित हो कर घेरे हुए हैं और हर मूर्ति से लगकर खड़ा पण्डा बाहर मूर्ति में और भीतर भक्त के हृदय में भगवत उपस्थिति इस संयोजन के शोषण का कोई अवसर जाने नहीं देना चाह रहा, भक्तों को कोंच-कोंच कर मूर्ति के आगे झुकने और फिर दान पेटी में अपनी कमाई का अंश गिरा देने के लिए प्रेरित कर रहा।


भक्त सरल होता है। ईश्वर के आगे आत्म समर्पण के लिए आया भक्त निरीह होता है। इसलिए पण्डों के आगे लाचार होता है। मैं लेकिन सरल होकर नहीं पहुँचा था। फूल हाथ में अवश्य थे पर मेरे हथियार मस्तक में सजग थे। पण्डो के हर आक्रमण को मैं झेल गया और कहीं नहीं रुका, कहीं नहीं झुका, जेब में जो थोड़े पैसे थे उन को इस धार्मिक डाके से बचा ले गया।


लाइन बहुत देर रुकने के बाद धीरे से आगे बढ़ी। बाबा विश्वनाथ के दर्शन हुए। कहीं मेरी तमाम बौद्धिक विवेचनाएं मिथ्या हों और इस शिवलिंग का आशीर्वाद ही जगत का अन्तिम सत्य हो, इस संशय से ग्रसित हो कर मैंने बाबा के चरण चाँप लिए। तीस सेकेण्ड बाद ही लेकिन धर्मप्राण समझे जा सकने वाले काशी विश्वनाथ मंदिर के पुजारी मेरे ऊपर चिल्लाने लगे क्योंकि साधारण लोगों की लाइन में खड़ा मैं उस पूरे मन्दिर में सिर्फ़ एक चीज़ से आकर्षित हुआ भक्तों के माथे पर एक मोटे हाथ से लगा देने वाला पीला चन्दन। सोचा माथे पर लगकर सर पर ठण्डक देगा। चन्दन लगाना उनके पुजारी अनुष्ठान का अंग था लेकिन पुजारी जी भक्तों की लाइन रोककर एक विशेष पूजा में व्यस्त थे। चन्दन लगा देने के मेरे अनुरोध से बिफ़र पड़े और दयालु होकर चीखने लगे कि देख नहीं रहे हो बिजी हैं? क्या-क्या करें? फट के आठ हो जायं? और इसी बहाने भक्त और ईश्वर के बीच की कड़ी होने की अपनी पारम्परिक सत्ता के प्रति अपनी सत्यनिष्ठा का प्रदर्शन कर बैठे।


अन्य पैरों के बारे में तो आप यह कर सन्तोष कर सकते हैं कि उनका सहज दर्शन नहीं हो सकता, वे तो छिपे रह सकते हैं, यहाँ नहीं कहीं और हो सकते हैं, लेकिन शुचिता का क्या करेंगे? वो भी क्या छिपा कर रखने की चीज़ है?


(बनारस यात्रा के दौरान लिखी डायरी से)

बुधवार, 9 सितंबर 2009

ई रजा कासी हॅ !

लोगों को यह दुहराते बहुत सुना था। मगर प्रत्यक्ष समझा न था। आज अनुभव हो गया कि इसकी क्या घात है, क्या मार है। बनारस कैण्ट पर हमें लेने आए हमारे पुराने मित्र संजय मेजर का बटुआ किसी बदमुआश ने मार दिया। पहली बात बनारस के बारे में उन्होने हमें यही बताई कि बनारस में पैंतीस प्रतिशत लुच्चे हैं। मेरा ख्याल था कि हम रिक्शे-ऑटो से अपने मक़ाम तक पहुँचेंगे मगर उन्होने इसरार किया कि बैग लेके बाइक पर सवार हो जाया जाय। मैं घबराया किसी भी तरह उनके पीछे मोटरसाइकिल पर सवारी करने को तैयार न था। मगर उनके बेहद ज़ोर देने पर मुझे पिछली सीट पर बैग समेत क़ाबिज़ होना ही पड़ा।

हमारे अज़ीज़ ने अपनी गाड़ी को विपरीत दिशा से आने वाले ट्रैफ़िक की लेन में डाल दिया। मैंने प्रतिवाद किया कि ये क्या करते हो। उन्होने बताया कि रस्ता यही सही है। पूरा दृश्य तेज़ धूप से प्रकाशमान था। सड़क पर गाड़ी, मोटर, ठेला, रिक्शा, साइकिल, मोबाइक, स्कूटर से गँजा हुआ था। ऐसे बहुत मौके आए कि अब गिरे कि तब गिरे। हर वाहन एक दुर्घटना की सम्भावना की तरह से सामने से आता और अगल बगल से, और जाने कितनी बार तो छू कर निकल जाता; हमारा बाल भी बांका न होता। धन्य हैं मेरे मित्र संजय मेजर जिनके भीतर तमाम अन्य सौन्दर्यबोधों के अलावा बनारसी का ठेठ अबोध भी स्वयंभू रूप में अस्तित्वमान है। सारे वाहन हम पर चढ़े आते रहे मगर हम बने रहे अपनी जगह। जैसे बनारस इतनी अराजकता के बावजूद बना हुआ है।

बनारस और बनारसी किसी नियम-क़ानून की मर्यादा का पालन करते नहीं दिखते। अपनी सहूलियत के लिए वे जिस तरफ़ निकल पड़ें वही मार्ग होता है। बनारस का जीवन एक बेतरतीबी के सौन्दर्य(!) से आच्छादित है। कहीं पढ़ा था कि रैन्डमनेस इज़ वेरी डिफ़ीकल्ट टु अचीव, दि इन्स्टिन्क्ट ऑफ़ ऑर्गेनाइज़ेशन कीप्स स्पॉइलिंग इट। शायद काशी का महत्व इस बात में भी है कि वे इस दुर्गम पथ पर चौड़े होकर चलते हैं। बल्कि नहीं चलते हैं, पथ से उतर के चलते हैं, पथ के चारों ओर चलते हैं, पथ से उलट कर चलते हैं, और पथ को उलट कर चलते हैं।

सबसे ग़ौर करने लायक बात ये है कि जहाँ मुम्बई, दिल्ली, कानपुर आदि बाक़ी के शहर एक खास तौर के रोड-रेज से ग्रस्त होते जा रहे हैं, बनारस में हर व्यक्ति दूसरे व्यक्ति की सम्भावित मार्ग पर निरन्तर डाका डालता रहता है, फिर भी कोई क्रोधित नहीं होता। सभी एक विचित्र वैराग्य से सब कुछ सहते रहते हैं और दूसरे के मार्ग पर डाका डालते हुए आगे बढ़ते रहते हैं। सम्भवतः यही वह फ़्री ट्रेड की असली आत्मा है जिसे पश्चिम ने भुला दिया और जिसे बनारस ने न जाने कब से अपनी संस्कृति में जिलाए रखा है?

या फिर प्राचीन 'आनन्दवन' पर यह गौ, गंगा, और गौरीपति शंकर का प्रभाव है?

(बनारस यात्रा के दौरान लिखी गई डायरी से)

रविवार, 6 सितंबर 2009

मैजिक लैन्टर्न में सरपत

मेरी छोटी सी फ़िल्म को कोई मुम्बईया डिस्ट्रीब्यूटर किसी थियेटर, सिनेमा हॉल में तो रिलीज़ करने से रहा। अधिक से अधिक उसकी कि़स्मत छोटे-मोटे समूहों में प्रदर्शन की है- चाहे वे मंच किसी फ़िल्मोत्सव के हों या अन्य किसी संगठन के।

पिछले सालों में इस देश में डाक्यूमेन्टरी वितरित करने के लिए एक संस्था का विकास हुआ है जिसका नाम है अन्डर कन्स्ट्रक्शन जो मैजिक लैन्टर्न फ़ाउन्डेशन के तहत यह कार्य सम्पादित कर रही है। भारत के लगभग सभी स्वतंत्र डाक्यूमेन्टरी फ़िल्म मेकर्स की फ़िल्में अन्डर कन्सट्रक्शन ही वितरित कर रहे हैं, जिनमें मधुश्री दत्ता, पारोमिता वोहरा, अमर कँवर, पंकज बुटालिया, रीना मोहन, संजय काक, सुप्रियो सेन, अरुण खोपकर ओर्घ्यो बोसु, राजुला शाह जैसे नाम शामिल हैं। और विदेशों के भी तमाम ख्यातिलब्ध फ़िल्ममेकर्स की फ़िल्में उनके अधिकार में हैं।

अच्छी बात ये हुई है कि पहली बार उन्होने एक शॉर्ट फ़िक्शन का वितरण अपने हाथ में लिया है – मेरी फ़िल्म सरपत का।

वे सभी दोस्त जो मेरी फ़िल्म देखना चाहते हैं मगर मैं अभी तक उन तक पहुँचने में असमर्थ रहा हूँ, अब मैजिक लैन्टर्न के माध्यम से वे मेरी फ़िल्म की प्रति हासिल कर सकते हैं। यह सौदा एक आर्थिक प्रतिदान के बदले होगा। यूँ तो यह आर्थिक विनिमय मेरी तबियत के बहुत माकूल नहीं है - मैं अभी तक अपनी फ़िल्म की प्रतियाँ दोस्तो- परिचितों को मुफ़्त ही बाँटता आया हूँ- मगर एक फ़िल्ममेकर के अस्तित्व के लिए यह आदत बेजा है। उम्मीद है मित्रगण इस योगदान को लेकर एक अनुकूल राय रखेंगे क्योंकि इस धन राशि का एक हिस्सा मुझ तक आएगा और जो मुझे आगे इस तरह के स्वतंत्र काम करने के लिए हिम्मत बढ़ाएगा।

फ़िल्म मँगाने के लिए इस पते पर लिखें –

मैजिक लैन्टर्न फ़ाउन्डेशन
जे १८८१, चित्तरंजन पार्क, नई दिल्ली – ११००१९
फोन: +९१ ११ ४१६०५२३९, २६२७३२४४
ईमेल: underconstruction@magiclanternfoundation.org / magiclantern.foundation@gmail.com / magiclf@vsnl.com
वेब पेज: http://www.magiclanternfoundation.org

मूल्य:
भारत


व्यक्तिगत
वी सी डी: २५० रुपये
डी वी डी: ४०० रुपये
संस्थागत:
डी वी डी: ७०० रुपये
(४% वैट व डाक शुल्क अतिरिक्त)

अन्तर्राष्ट्रीय

व्यक्तिगत:
डी वी डी: २० य़ूएस डॉलर
संस्थागत:
डी वी डी: ३२० यू एस डॉलर
(डाक शुल्क अतिरिक्त)


मुम्बई के मित्रो के लिए एक अन्य सूचना यह भी है कि ९ सितम्बर, बुधवार को सरपत, कमला रहेजा इन्स्टीट्यूट ऑफ़ आर्कीटेक्चर, जुहु में दिखाई जा रही है। सुबह पौने ग्यारह बजे। यह संस्थान अपने विद्यार्थियों के लाभार्थ हर बुधवार को एनकाउन्टर नाम से एक लेक्चर सीरीज़ चलाते हैं उसी के तहत इस फ़िल्म का भी आयोजन है। फ़िल्म के बाद कुछ वार्तालाप की भी गुंज़ाईश होगी। जो मित्र आना चाहें स्वागत है। फ़िल्म की अवधि है अठारह मिनट।

शनिवार, 5 सितंबर 2009

गुरु का स्वाभाविक स्वरूप

शिक्षक सब जगह होते हैं पर भारत के शिक्षक मात्र शिक्षक नहीं गुरु होते हैं। गुरु एक ऐसा भारी शब्द है कि अंग्रेज़ इसका अर्थ अपनी भाषा के किसी शब्द के आवरण में उठा के नहीं ले जा सके - गुरु का एक अन्य अर्थ भारी होता ही है – समूचे शब्द को ज्यों का त्यों स्वीकार करना पड़ा।

गुरु का नाम लेते ही मन में एक छवि उभरती है जिसकी काली-सफ़ेद, लम्बी दाढ़ी हृदय प्रदेश तक लहरा रही है, शिर के केश जटाओं में गुम्फित हैं, गले में रुद्राक्ष या तुलसी की माला है, बाएं कंधे से कमर में दाईं तरफ़ तक जनेऊ पड़ा हुआ है, अधोभाग सूती धोती से आवृत्त है, मुखमण्डल पर सौम्यता, गाम्भीर्य और ज्ञान की आभा है और साथ में कम से कम दो चार शिष्य तो हैं ही। कुछ लोगों को यह छवि पुरातन पंथी मालूम देगी वे एक मोटे चश्मे और खिचड़ी दाढ़ी वाले, पतलून-कमीज़ में अपने गुरु की कल्पना कर सकते हैं जो ब्लैक-बोर्ड पर गणित की एक दुरुह प्रमेय का पथ सरल कर रहा हो।

मुझे ये दोनों छवियां समस्यामूलक लगतीं हैं। क्योंकि ये दोनों ही एक पुरुष की छवि है। मेरा मानना है कि स्त्री स्वाभाविक गुरु होती है जबकि परिपाटी ने यह दरजा पुरुष पर आरोपित कर दिया है। इस मान्यता के पीछे के पुरुषवादी नज़रिया छुपा हुआ है। मैं यह नहीं कहता कि पुरुष गुरु होता ही नहीं। सभी मनुष्य सभी ग्रहों और राशियों का समावेश हैं। समष्टि में सब एक ही तत्व है। और वो इतना विराट है कि उसे उसकी विराटता में एक साथ विचार कर पाना दूभर है। इसलिए इस सब को अलग-अलग खानों में बाँटना ही तो व्यष्टि है।

और जब इस पूरे प्रपंच को समझने के लिए इस तरह के विभाजन करने की बारी आई तो पुरुष ने राशियों में तो क्रम से एक को पुरुष और एक स्त्री के रूप से चिह्नित किया। लेकिन ग्रहों को गुणधर्मिता तय करते हुए एक चन्द्रमा और दूसरे शुक्र को ही स्त्रीत्व के योग्य माना। चन्द्रमा यानी मन और कल्पना के दायरे के तमाम तत्व। और शुक्र यानी सजने-सँवरने, कला और विलास के सभी विषय। देखा जाय तो सूक्ष्मतम चीज़ों का सम्बन्ध शुक्र से है जैसे घी और इत्र और शुक्राणु। हालांकि शुक्राणु किन अर्थों में स्त्रीलिंग माना जाएगा यह संशय के घेरे में है।

चन्द्रमा बावजूद सूर्य का प्रतिबिम्ब होने के सभी इच्छाओं, अस्थिरता और विचलन का कारक होने के कारण और शुक्र भोग-विलास के विभाग का स्वामी होने के कारण भारतीय दार्शनिक परम्परा के अनुसार प्रतिगामी ग्रह हो जाते हैं। योग भोग-शुक्र पर संयम और मन-चन्द्रमा-स्त्री- पर नियंत्रण रखने का निर्देश देता है और धर्म बताता है कि स्त्री नरक का द्वार है।

आत्मा का प्रतीक सूर्य, पुरुष है। सामर्थ्य का प्रतीक मंगल, पुरुष है। बुद्धि का प्रतीक बुध और दुख और वैराग्य का प्रतीक शनि, नपुंसक हैं। गुरु आनन्द और ज्ञान का कारक है और पुरुष है। सूर्य, मंगल, बुध और शनि की श्रेणियों के लिंग निर्धारण पर सवाल किए जा सकते हैं। लेकिन वे अपनी दार्शनिक परम्परा में अतार्किक नहीं है। परन्तु उन पर चर्चा करने से बात फैल जाएगी। बात अभी गुरु की है, उसी तक सीमित रखते हैं। गुरु को पुरुष घोषित ज़रूर किया गया है मगर मुझे वह इस अनुशासन के आन्तरिक तर्क पर सही बैठता नहीं दिखता। इस परम्परा के आन्तरिक तर्क के अनुसार ही देखें कैसे-

१] सूर्य, मंगल आदि क्रूर हैं गुरु सौम्य है, कोमल है, मृदु है। कोमलता स्त्री स्वभाव है।

२] किसी को वश में करने के लिए सूर्य और मंगल दण्ड की नीति अपनाते हैं, चन्द्रमा दान की, बुध और शनि भेद की और गुरु और शुक्र साम की। यह भी स्त्री स्वभाव है।

३] जन्म कुण्डली में विवाह, परिवार, बच्चों और बुज़ुर्गों का कारक गुरु ही होता है। किसी भी सामान्य स्त्री का जीवन इन्ही विषयों के इर्द-गिर्द घूमता है। पुरुष विवाह करता है पर उसकी मर्यादा की रक्षा स्त्री उस से अधिक करती प्रतीत होती है। बच्चे विशेष रूप से स्त्री की ही ज़िम्मेदारी होते हैं। परिवार में सब का ख्याल और बुज़ुर्गों की देखभाल भी स्त्री का ही विभाग है।

पुरुष एक गर्भाधान को लेकर लालायित रहता है लेकिन वह सम्पन्न होते ही उसे जीवन के उद्देश्य की चिंता सताने लगती है। स्त्रियां आम तौर पर जीवन के उद्देश्य को लेकर व्यथित नहीं होती। वे अपने दैनिक पारिवारिक जीवन से सार्थकता पाती रहती हैं। ऐसी स्त्री की उपेक्षा करके परिवार से इतर जीवन की सार्थकता खोजने वाला पुरुष क्या स्वाभाविक गुरु हो सकता है?

४] गुरु शरीर में स्थूलता का कारक भी होता है। आम तौर पर गुरु मोटा होगा ही। और गुरु जनित मोटापे के बारे में राय है कि वह शरीर में चारों ओर से मोटा होगा मगर विशेषकर मध्यभाग यानी कि पेट, कमर, नितम्ब और जंघा से मोटा होगा। कोई अंधा भी देख सकता है कि ये स्त्री के आकार का विवरण है।

जन्मकुण्डली में पाँचवे स्थान का कारक है गुरु। पाँचवे स्थान से पेट, भूख, बुद्धि, पुत्र आदि देखते हैं। पेट, भूख और बुद्धि तो स्त्री व पुरुष दोनों में होती है लेकिन पुत्र(!) को पेट में रखकर पालना तो स्त्री ही करती है।

५] गुरु का स्वाभाविक स्थान कोषागार है। स्त्री स्वाभाविक खंजाची है। उड़ाना पुरुष का स्वभाव है, बचाना स्त्री का।

६] बिन घरनी घर भूतों का डेरा। यदि पुरुष स्वभावतः गुरु है तो इस तरह की कहावत बेमानी हो जाती जबकि ये कहावत परखी हुई बात पर आधारित है। दूसरी तरफ़ बिना पुरुष के गृहस्थी कमज़ोर ज़रूर पड़ती है पर चुड़ैलों का अड्डा नहीं बनती।

७] गुरु मध्यमार्गी होता है। और स्त्री न तो पैसे की इतनी भूखी होती है कि अरबों—खरबों की सम्पत्ति जुटाना ही अपना मक़सद बना ले और न ही इतनी वैरागी कि सब कुछ को लात मार के शरीर पर भभूत मल कर भिखारी हो जाय। पुरुष इन्ही दो अतिवादों में फंसा रहता है।

८] धर्म जो कि गुरु का मुख्य विभाग है वह भी स्त्रैण मालूम देता है। यह सही है कि दुनिया के सारे धर्म पुरुषों ने अन्वेषित किए और उनके नियम ग्रंथ में सूची बद्ध किए पर धर्म का विभाग भी पुरुष से अधिक स्त्री के दायरे में आता है। मेरे विवाह के अवसर पर संस्कार सम्पन्न करा रहे पण्डित जी ने कहा कि चार में से तीन पुरुषार्थ- काम, अर्थ और मोक्ष में तो आप आगे रहेंगे लेकिन धर्म में आप अपनी पत्नी के पीछे रहेंगे। ये अनायास नहीं है कि ईश्वर में आस्था और तीज त्योहारों क पालन पुरुष से अधिक स्त्रियां करती हैं।

धर्म का मूल समर्पण है और समर्पण यदि स्त्रैण नहीं तो क्या है?

९] गुरु, शिष्य के बिना अधूरा है। पुरुष, बच्चे के बिना अधूरा नहीं है। लेकिन स्त्री माँ के रूप में बच्चे के बिना अधूरी है।

१०] नियम है कि गुरु जिस स्थान में बैठता है वहाँ की हानि करता है लेकिन जहाँ देखता है वहाँ की वृद्धि करता है। अपना नुक़्सान करके बच्चे पर सब न्योछावर करने की आत्म बलिदान की भावना को माँ से बेहतर कौन जानता है?

इतना कुछ सोचने के बाद मैंने पाया कि गुरु का स्वाभाविक स्वरूप स्त्री का है। और वह भी एक बच्चे के साथ या बच्चों से घिरी स्त्री का। हर स्त्री माँ हो यह ज़रूरी नहीं लेकिन हर माँ गुरु ज़रूर होती है। अपने बच्चे की प्रथम गुरु और सम्भवतः सबसे महत्वपूर्ण गुरु भी। माँ स्वाभाविक गुरु है, बच्चा स्वाभाविक शिष्य है। आज शिक्षक दिवस के दिन मैं अपनी प्रथम और सबसे महत्वपूर्ण गुरु अपनी माँ को नमन करता हूँ और धन्यवाद करता हूँ।



पुनश्च : प्रत्येक व्यक्ति ग्रहों और राशियों का समावेश है। सब में सब गुण मौजूद हैं। यहाँ प्रयोग की गई श्रेणियां का उद्देश्य स्त्री या पुरुष पर कोई विशेष चरित्र आरोपित करना नहीं बल्कि पहले किए जा चुके ऐसे आरोपण से पीछा छुड़ाना है।

मानव डी एन ए के एक्स क्रोमोज़ोम में बमुश्किल २०-३० वाक्य हैं जो स्त्री को हासिल नहीं होते। वरना मानव के सभी गुण स्त्री में मौजूद हैं - हिंसा भी।
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