शंख नाद के साथ बाबा विश्वनाथ की अर्चना समाप्त करके टोली दशाश्वमेध घाट की ओर स्नान के लिए चली गई। पाठ का स्वर बदल कर मद्धम हो गया पर जारी रहा। चाय वाले ने बताया कि यह बहुत पुराना नहीं है। पाँच साल से ही चालू हुआ है। चार टोली आती हैं। एक कबीरचौरा से, एक चेतगंज से, एक चौक से और एक अन्यत्र से। पास खड़े एक बाबा ने कामना की कि अब एक टोली सोनारपुरा से आनी चाहिये। चायवाले ने सहमति जतायी। एक सभ्रान्त पुरुष जिसके कपड़े काफ़ी मलिन हो चुके थे मुझसे आग्रह किया कि बाबू एक चाय पिलाइये। उसके आग्रह में विनय़ था, दैन्यता न थी। ऐसे आग्रह को टालना असम्भव था।
चाय वाले के हाथ में तुलसी और पुदीने के रस मिश्रित काली चाय बनाने का हुनर था, मैं उसका मुरीद हो कर सुबह तीन चार चाय पी जाता हूँ। तीन चार इसलिए भी क्योंकि बढ़ती महँगाई में दाम बढ़ाने के अलावा कुल्हड़ का आकार भी मध्यम से छोटा और छोटे से नन्हा होता जा रहा है। पर अफ़सोस यह था कि उसकी सड़क पर स्थित अस्थायी दुकान, स्थायी दुकानों के खुलते ही बन्द हो जाती है। चाय का आनन्द लेते हुए मैं ने देखा कि कि एक बड़ी गाड़ी टयोटा इनोवा आकर विश्वनाथ गली के दूसरी तरफ़ रुकी। आगे के दरवाजे से एक सुथरे स्वरूप के सिल्क के कुर्ता-धोती डांटे एक धनिक सज्जन उतरे। ड्राइवर गाड़ी रोके रहे। पीछे एक प्रौढ़ महिला थीं। वे नहीं उतरी। फिर हमने देखा कि एक मोटरसायकिल सवार पुलिस वाला ऊँचे स्वर में कुछ अपशब्द हकाल रहा था- साले एक गाड़ी से पूरा रस्तवा जाम कर दिया है.. बढ़ा भोसड़ी वाले। गाड़ी का ड्रायवर उतर कर दूसरी तरफ़ का दरवाजा खोल रहा था। गाड़ी से एक प्रौढ़ महिला का अवतरण हुआ। ड्रायवर बहुत हड़का नहीं मगर वापस आकर अपनी गद्दी सम्हाली और गाड़ी जब तक आगे नहीं बढ़ी, पुलिसवाले की प्रेरणा जारी रही।
अचानक मुझे कल शाम की एक घटना याद हो आई। यही सड़क थी, और गाड़ी भी इनोवा ही थी। ठीक ऐसे ही चिल्ल-पों करती सड़क पर एक इनोवा रुक गई थी और उसके पीछे का सारा ट्रैफ़िक जड़वत हो गया था। अजीब दृश्य था, न तो कोई इनोवा के अगल-बगल की जगह से अपने वाहन को रगड़ते हुए निकालने की कोशिश कर रहा था और न ही पीछे खड़े वाहनसवारों में से कोई बेचैन आत्मा अपने स्वरयंत्र के ज़रिये इनोवावासियों को धकेलने जैसी प्रतिक्रिया कर रहा था। बड़े अचरज का नज़ारा था, ग़ौर से देखने पर समझ आया कि इनोवा के आगे एक पुलिस की जीप भी खड़ी है जिसके वर्दीधारी सरकारी कर्मचारी इनोवा से उतरने वाली सभ्रान्त महिलाओं के लिए गाड़ी का दरवाज़ा खोलने से लेकर उन्हे दुकान के भीतर छोड़ आने तक जैसी सेवा-टहल कर की स्वयं को सार्थक सिद्ध कर रहे हैं। निश्चित ही ये महिलाएं किसी कुलीन अफ़सर के परिवार की थीं। दो-तीन मिनट तक गौदौलिया से दशाश्वमेघ जाने वाली सड़क का संसार एक सम्मोहक जड़ता में स्तम्भित रहा। और ये सब एक सरकारी अफ़सर के रौब-दाब के भौकाल में।
यह विचार ही रहा था कि देखा कि सुबह से बानारस के यातायात को सुधार देने के लिए तत्पर एक लम्बोदर पुलिसवाला अपनी टांग उठाकर रिक्शेवाले के पृष्ठभाग वो अंकन कर रहा था जिसे आम चलन में गाँड़ पर लात कहा जाता है। गाँड़ पर लात मुहावरे का प्रयोग आजकल जी पी एल के रूप में एम टी वी पर भी लोकप्रिय हो चला है लेकिन उसके सार्वजनिक प्रयोग का साक्षात दर्शन आप को काशी या काशी जैसी दिव्यनगरी में ही सम्भव है।
इस अनुभव के बाद मन पर जो बनारस की अराजकता को जो अभिराम बिम्ब बना था, ऐसे खण्डित होने लगा कि नई बनी छवि का कुछ स्पष्ट अर्थ निकालना कठिन हो गया। क्या इसका अर्थ यह था कि बनारसी अराजकता और स्वच्छन्दता तभी तक है जब तक कि राज्य का डण्डा पिछवाड़े पर अंकित होने की सम्भावना क्षितिज पर दूर हो? कुछ चाह कर भी इस मुद्रांकन से बच नहीं पाते और कुछ ऐसी सम्भावना के उपजते ही अपनी निर्दोषता का सबूत, बुत बन पेश करने लगते हैं।
बनारस का अन्तिम घाट है राजघाट। लोगों ने बताया कि वो एकदम ‘गँवार’ है। उसे देखने की इच्छा इसलिए बलवती हुई कि वो सम्भवतः बनारस का पूर्ववर्ती रूप है। पिछली सदियों का जिसे अभी देखा जा सकता है। वहाँ पहुँचे तो समझ आया कि उसे गँवार क्यों कहा गया.. घाट पर पत्थर की सीढ़िया तो हैं मगर मिट्टी का साम्राज्य कहीं अधिक है।
वहाँ पहुँचने के पहले ही दर्शन हुए भैंसासुर मन्दिर के। थोड़ा चौंका। भैंसासुर यानी महिषासुर - देवी माँ द्वारा जिसके मर्दन का उत्सव हर वर्ष हम करते ही हैं- उसका मन्दिर? आगे घाट पर देखा कि घाट का नाम भैंसासुर राज घाट लिखा है। फिर ऊपर देखा तो एक भव्य संत रविदास मन्दिर निर्माणाधीन दिखा। उसके नीचे लिखा था – संत रविदास घाट। ये थोड़ा उलझाने वाला लगा। एक घाट के तीन-तीन नाम कैसे। पूछा तो मल्लाहों ने बताया कि घाट का नाम भैंसासुर राजघाट है। संत रविदास बोलेंगे तो दूसरी छोर पर अस्सी के आगे भेज दिये जायेंगे। फिर एक स्त्री ने बताया कि इस घाट का असली नाम कुलकुल घाट है। इसकी क्या कहानी है उसने नहीं बताई बस यही कहा कि कुलकुल ही पुराना नाम है।
(बनारस यात्रा के दौरान लिखी डायरी से)
6 टिप्पणियां:
सजीव चित्रण बहुत रोचक लगा आभार्
आप काशी के दर्शन करा रहे हैं, जिस का जिक्र कोई नहीं करता। जिस काशी की संस्कृति का आप वर्णन कर रहे हैं उस के रुप उत्तर भारत के हर नगर में मिल जाएंगे।
दिनेश भाई @
सौ आने सच है आप की बात.. इसीलिए तो काशी का महत्व भी है.. भारतीय संस्कृति, अच्छी, बुरी, जैसी भी, यहाँ अपने उदात्त स्वरूप में मिलती है..
aap ki diary lagayi hai...ummid hai pathako ki vaha aayi pratikriya ko aap tavajjo denge..
मुझे समझ में नहीं आया की एक बार पहले भी जब आप विश्वनाथ गली जा चुके थे तो फिर दुबारा क्यों गए ?महज डायरी का यह हिस्सा पूरा करने ?
बहरहाल हिन्दू होने का जमकर फायदा उठा लीजिये और हिन्दू दैनदिनी पर खूब अड़सैली बोल लीजिये -लेकिन यहाँ पहले से ही आप जैसे लोगों का ख्याल रखा गया है -जाकी रही भावना जैसी !
वैसे मजा आ रहा है जारी रखिये .......
रोचक ! स्थान विशेष पर लात पड़ने का रोचक विवरण!
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