रविवार, 17 मई 2009

जनादेश क्या है?

कल शाम को एन डी टी वी पर चुनाव के नतीजे का विश्लेषण करने बैठे बुद्धिजीवियों और राजनेताओं के एक समूह में इन्डियन एक्सप्रेस के सम्पादक ने एक बड़ी दिलचस्प बात बेपरदा कर दी। आप सब जानते ही हैं कि कांग्रेस पार्टी को लगभग बहुमत मिल गया है और ये तय हो चुका है उनके और अगली सरकार के बीच अब कोई रोड़ा नहीं है।

इसी बात पर हो रही चहचहाटों के बीच प्रणय रॉय ने ने कांग्रेस के पृथ्वीराज चौहान को घेरते हुए कहा कि अब आप के ऊपर वाम दलों का दबाव नहीं है और इसलिए अब गहरे आर्थिक सुधार करने से पीछे हटने के लिए आप के पास कोई बहाना नहीं होगा।

पृथ्वीराज चौहान कुछ इस की पुड़िया बनाते उसके पहले ही शेखर गुप्ता ने अति उत्साह में उवाचा कि कांग्रेस के अन्दर तमाम सारे क्लॉज़ेट सोशलिस्ट (छिपे हुए समाजवादी) हैं जो गहरे आर्थिक सुधारों में रुकावट बन जाते हैं। उल्लेखनीय है कि इसके थोड़ा पहले स्वयं राहुल गांधी ग़रीबों के हितों की बात करते टी वी पर दिखाई दिए थे। परोक्ष रूप से यह आरोप उन पर भी था (हालांकि मैं इस आरोप से सहमत नहीं हूँ)।

प्रच्छन्न समाजवादी होने की इस टिप्प्पणी पर जे डी यू के एन के सिंह ने एक बेबाक बात कही- अगर कांग्रेस के भीतर क्लॉज़ेट सोशलिस्ट की बात सही है तो इस का सीधा अर्थ यह होगा कि आर्थिक सुधारों का एजेण्डा कांग्रेस का अपना एजेण्डा नहीं बल्कि ऊपर से थोपा गया एजेण्डा है। शेखर गुप्ता इस के जवाब में चुप्पी साध गए। मगर क्या ये बात सच नहीं है?

आखिर किस का एजेण्डा है ये आर्थिक सुधार का एजेण्डा? कांग्रेस का तो नहीं है। क्योंकि कांग्रेस पार्टी तो पिछले चुनाव में कांग्रेस का हाथ आम आदमी के साथ के नारे पर सबसे बड़ी पाटी के रूप में उभर के आई थी। NREGA जैसी योजनाओं को लागू करने के अलावा कांग्रेस ने ग़रीब आदमी के लिए क्या किया? किसानों के कर्ज़े माफ़ कर दिए? इस तरह के क़दम, मार के आँसू पोंछने जैसी बातें हैं।

मज़े की बात यह है कि NREGA तथा अन्य जनहित की योजनाओं को लागू करने के लिए वाम दलों ने ही उन पर दबाव बनाया था। आज हालत ये है कि वाम दल हार गए और कांग्रेस विजयी हुई है।

मैं नहीं जानता कि प्रगति और आर्थिक खुशहाली के लिए कौन सा रास्ता सही रास्ता है। सम्भव है कि आर्थिक सुधारों का रास्ता ही दी गई परिस्थितियों में सबसे कम बुरा हो। मगर मुश्किल ये है कि कांग्रेस ने उसे लागू करने के लिए जनादेश नहीं लिया है।

जनादेश किस बात का मिला है यह कितने लोग ठीक-ठीक कह सकते हैं? कितने लोगों ने कांग्रेस, भाजपा और अन्य दलों का घोषणापत्र पढ़ा है? तो आखिर किस आधार पर लोग एक दल को चुनते हैं और दूसरे दल को नकार देते हैं? सड़क बन गई हो, नाली साफ़ करा दी गई हो, बिजली जाना कम हो गया हो, इन आधारों पर नितिश और मोदी जैसे नेता क़द्दावर साबित हो रहे हैं। जान माल की सुरक्षा का वादा करके लालू और मुलायम अभी तक मुसलमानों से जनादेश उगाहते रहे हैं। दलितों की इज़्ज़त अफ़्ज़ाई के सवाल पर मायावती दलित वोट पर पालथी मार के जमी हुई हैं।

इन सब आधारभूत और बेहद मौलिक सवालों में अटकी हमारी जनता से ये उम्मीद करना शायद ज़्यादती है कि वह आर्थिक सुधारों पर जनादेश दे? मेरे जैसे पढ़े-लिखे होने का भ्रम रखने वाले लोग तक पूरी शिद्दत से इस विषय पर अपनी राय ज़ाहिर नहीं कर सकते अर्ध-शिक्षित आम जनता की बात बहुत दूर की है।

फिर आर्थिक सुधार किस के अनुमोदन से लागू किए जा रहे हैं? किसी ने आप से पूछा? १९९१ में नरसिंह राव और मनमोहन सिंह की टीम ने तात्कालिक आर्थिक संकट से निबटने एक रास्ता अपनी ज़िम्मेदारी पर तय किया। जिसका दबाव वर्ल्ड बैंक और आई एम एफ़ काफ़ी पहले से भारत सरकार पर बनाए हुए था। मगर हमारी समाजवादी विरासत हमें उस रास्ते पर जाने से बराबर रोके हुए थी। संयोग से वह फ़ैसला सफल साबित हुआ और भारत आर्थिक प्रगति की राह पर चल निकला।

यहाँ पर यह उल्लेख करना ग़ैर-वाजिब नहीं होगा कि मनमोहन सिंह स्वयं भारत सरकार की नौकरी करने के पहले वर्ल्ड बैंक की नौकरी बजा चुके हैं।

मैं जानता हूँ और मानता हूँ कि आप हर बात पर बहुमत की राय लेकर चलेंगे तो कुँएं में गिर जाएंगे। तमाम अहम फ़ैसले आप को विशेषज्ञों के विवेक पर छोड़ने ही होंगे। लेकिन जो विशेषज्ञ ये फ़ैसला ले रहे हैं वे आप के ही हित को ध्यान में रखकर ये फ़ैसले कर रहे हैं इस बात की क्या गारण्टी है? वे अम्बानी, कोक, वालमार्ट, और मोनसैन्टो के हितों को सर्वोपरि नहीं रख रहे ये आप कैसे जानते हैं?

किसी अहम मौके पर जब विदर्भ के किसान और मोन्सैन्टो के हित टकरायेंगे तो ये विशेषज्ञ मोनसैन्टो का हित साध कर आत्महत्या करने वाले किसान को कुछ मुआवज़ा देने के बजाय सीधे किसान के हित में फ़ैसला करेंगे यह क्या आप पूरे विश्वास से कह सकते हैं?

दूसरी ओर आर्थिक सुधारों की यह समझ मानती है कि बाज़ार के मुक्त विकास से आम खुशहाली बढ़ेगी। अगर सचमुच ऐसा है तो पूरे विश्व में बाज़ार के मुक्त विकास के लम्बे दौर के बाद आज मन्दी और मायूसी क्यों है? क्यों आज मुक्त हस्त से कर्ज़ बाँटने वाले बैंक खुद कटोरा लेके खड़े हैं?

तो इन विशेषज्ञों की समझ और उनकी प्रतिबद्धता दोनों पर सवालिया निशान हैं। मगर हम और आप कुछ नहीं कर सकते क्योंकि ऐसे तमाम सवालों के आधार पर हम भारत देश के लोग किसी दल को जनादेश नहीं देते। मैंने स्वयं ने कांग्रेस पार्टी को वोट दिया है।

क्योंकि मैं न तो श्री अडवाणी को देश के प्रधानमंत्री के बतौर देखना चाहता था और न ही शिव सेना या महाराष्ट्र नवनिर्माण जैसी सेनाओं के हाथों आततायित होने का इच्छुक था। एक विकल्प मेरे पास समाजवादी पार्टी के उम्मीदवार अबू आसिम आज़मी भी थे.. पर वे कैसे विकल्प हैं इस पर चर्चा न ही करें तो बेहतर है। तो मैंने कांग्रेस के गुरुदास कामत के नाम पर बटन दबा दिया दूसरे किसी विकल्प के अभाव में।

आप को यह सरकार मुबारक हो! इस उम्मीद के साथ कि कभी वो समय भी आएगा एम पी यानी जनता के प्रतिनिधि संसद में क़ानून बनाते समय अपनी उस जनता का हित-अहित भी सोचेंगे जिसने उन्हे चुन के आया है और उसके बाद कभी वो समय भी आएगा कि जब सरकार ऐसे अहम मामलों को लागू करने के पहले जनता से जनादेश लेगी।

गुरुवार, 14 मई 2009

एफ़ टी आई आई में सरपत

पिछले हफ़्ते मेरी लघु फ़िल्म सरपत का फ़िल्म एण्ड टेलेविज़न इन्स्टीट्यूट में प्रदर्शन हुआ। भाई कमल स्वरूप दूसरे वर्ष के छात्रों के लिए एक वर्कशॉप का संयोजन कर रहे थे, उसी के एक हिस्से के बतौर सरपत भी छात्रों को दिखाई गई।

अभी तक सरपत दोस्तों-यारों को ही दिखाई गई थी। फ़िल्म का पहला सार्वजनिक मंच एफ़ टी आई आई जैसा प्रतिष्ठित संस्थान बना, यह मेरे लिए गर्व की बात है। दर्शकों की संख्या कोई बहुत बड़ी नहीं थी मगर फिर भी अनुभव सुखद था।




















फ़िल्म के बाद छात्रों से कुछ परिचर्चा भी हुई जिसमें उनकी तरफ़ से कुछ सार्थक प्रश्न आए और मैंने उनका सन्तोषजनक समाधान किया। एक चीज़ मेरे लिए ज़रूर सीखने का सबब बनी – मेरा परिचय। हमेशा से ही मैं अपने प्रति कुछ हिचिकिचाया, शर्माया रहता आया हूँ। यह दिक़्क़त मुझे वहाँ भी पेश आई।

मुझे हमेशा लगता आया है कि मैंने जीवन में कुछ भी बतलाने योग्य तो नहीं किया अब तक। इस फ़िल्म को बनाने के बाद से वह एहसास कुछ जाता रहा है। और इसलिए अब सोचा है कि इस शर्मिन्दगी से छुटकारा पा कर इसे अलविदा कहा जाय। क्योंकि सार्वजनिक जीवन में लोग आप के बारे में सहज रूप से उत्सुक होते हैं और उस का सरल समाधान करना आप की ज़िम्मेदारी है उसमें शर्मिन्दगी की बाधा नहीं होनी चाहिये।

आजकल तमाम फ़िल्म-उत्सवों में सरपत को भेजने की क़वायद भी चल रही है। वे भी एक डाइरेक्टर्ज़ बायग्राफ़ी की तलब करते हैं- लगभग १०० शब्दों में। यह एक अच्छी कसरत है अगर कोई करना चाहे- अपने जीवन को सौ शब्दों में समेटना। वैसे मेरे जैसे व्यक्ति के लिए कुछ मुश्किल नहीं था जिसे लगता रहा हो कि जीवन में कुछ नहीं किया – सिवाय इस फ़िल्म के।

वैसे तो किसी भी चीज़ के बनने में तमाम चीज़ों का योगदान होता है। कुछ ऐसी जिनके प्रति व्यक्ति सजग होता है और तमाम ऐसी जो अनजाने ही मनुष्य को प्रभावित करती चलती हैं। मेरी इस रचना यात्रा में भी अनेकानेक चीज़ों की भूमिका रही है, अनजानी चीज़ों की तो बात कैसे कहूँ, पर जानी हुई चीज़ों में इस ब्लॉग की भूमिका प्रमुख है।

इस ब्लॉग पर लिखते हुए मैंने अपने सरोकारों को पहचाना, समझा, विकसित किया और अपनी अभिव्यक्ति को निखारा है। अकेले बैठे हुए सोचने और ब्लॉग पर लिखने में बहुत बड़ा अन्तर हो जाता है- पाठक का।

पाठक के अस्तित्व में आते ही फिर आप जो लिखते हैं – अपने मन की ही लिखते हैं – मगर पाठक को केन्द्र में रखकर लिखते हैं। वह आप के भीतर एक उद्देश्य की रचना करता है और एक ऊर्जा का संचार करता है। अपनी पुरातन परम्परा के अनुसार पाठक भी एक देवता हो सकता है- जो आप के भीतर एक सकारात्मक परिवर्तन कराने में सक्षम है।

अपने इस नन्हे से क़दम को उठा पाने में सफल होने के लिए मैं आप सब की भूमिका का सत्कार करता हूँ और आप का धन्यवाद करता हूँ।


* तस्वीर में संस्थान के प्राध्यापक व मेरे मित्र अजय रैना सूचना पट्ट पर लिखते हुए।

सोमवार, 4 मई 2009

उनके जीवन का सब से दुखद दिन

ये नेता जनता को कितना मूर्ख समझते हैं, न तो इसकी कोई हद है और न इनकी मक्कारी की कोई सीमा। भूतपूर्व रामभक्त और वर्तमान मुलायम भक्त कल्याण सिंह का कहना है कि भाजपा ने उन्हे धोखा दिया, उनकी आँखों में धूल झोंककर बाबरी मस्जिद गिरा दी। वास्तव में तो वे मुसलमानों के सच्चे मित्र हैं।

इस बयान से मुझे बरबस लाल कृष्ण अडवाणी के उस बयान की याद आ गई जिसमें वे फ़रमाते हैं कि ६ दिसम्बर १९९२ उनके जीवन का सब से दुखद दिन है। अडवाणी जी की फ़ित्रत के अनुसार तो यह बयान भी उतना धूर्ततापूर्ण है जितना के उनके पूर्व चेले कल्याण सिंह का। पर मुझे लगता है कि अडवाणी साहब झूठ नहीं बोल रहे हैं। वाक़ई वो दिन उनके जीवन का सब से दुखद दिन हो सकता है जिस दिन उनकी सोने की मुर्ग़ी हलाल कर दी गई हो।

ये उसी दुखद दिन का नतीजा है कि आज लगभग बीस साल बाद जबकि वे क़ब्र में पैर लटका कर बैठे हैं और प्रधानमंत्री की गद्दी उनके पहुँच से दूर और दूर होती जा रही है। जनता को बहकाने के लिए उनके पास एक मुद्दा भी नहीं; और राम मन्दिर तो इतना फीका हो चुका है कि मोदी भी उसका ज़िक्र करने से क़तरा रहे हैं।

अगर बाबरी मस्जिद नहीं गिरी होती तो आज भी वो विवादित स्थल पर वहीं शोभायमान होती जहाँ आजकल रामलला विराजमान हैं। और बार-बार मुस्लिम आक्रमणकारियों के मूर्तिभंजक इतिहास की दुहाई दे-दे कर हिन्दुओं के खून को खौलाया जा रहा होता। हिन्दू और मुसलमानों के बीच वैमनस्य को रोज़ भड़काया जा रहा होता। आज वो कुछ सम्भव नहीं क्योंकि बाबरी मस्जिद के गिर जाने से हिन्दुओं की प्रतिशोध की भूख पूरी हो गई.. मगर मुसलमानों के भीतर जाग गई। जिसका प्रमाण हमें मुम्बई सीरियल बम विस्फोट जैसी घटनाओं में मिला।

यहाँ एक बात साफ़ कर देना और ज़रूरी है। मेरे जैसे आस्तिक मगर ग़ैर-कर्मकाण्डी हिन्दू के लिए न तो किसी मन्दिर का कोई अर्थ है और न किसी मस्जिद में कोई श्रद्धा। मुझे बाबरी मस्जिद के वहाँ खड़े रहने से न तो कोई सुकून मिलता था और न ही उसके गिरने से मेरे मानसिक संसार में कोई अभाव आ गया है।

इस देश के बहुत सारे सेकुलरपंथी इस बात से भाजपा और विहिप से खौरियाये नज़र आते हैं कि उन्होने एक ऐतिहासिक महत्व की इमारत को गिरा दिया! इस देश में हज़ारों ऐसे ऐतिहासिक स्थल हैं जहाँ जा कर मूतने में सेकुलरपंथियों को कोई गुरेज़ नहीं होगा। आम जनता वक़्त पड़ने पर उसकी ईंट उखाड़ कर क्रिकेट का विकेट बनाने में इस्तेमाल करती रही हैं। मुझे उनकी इस पुरातत्व-प्रियता में राजनीति की बू आती है।

मुझे इस तरह के शुद्ध, रुक्ष पुरातत्वी इतिहास में कोई आस्था नहीं; मेरे लिए वो ऐतिहासिक स्मृतियाँ अधिक मह्त्व की हैं जो मनुष्य के मानस में क़ैद रहती हैं। वही स्मृतियों जिनके नासूर में उंगलियाँ घुसा कर लाल कृष्ण अडवाणी ने इस देश में नफ़रत की राजनीतिक फ़सल काटी है।

एक और दूसरी बात साफ़ करने की ज़रूरत है कि यह सच नहीं है कि इस देश में हिन्दू और मुसलमान हमेशा शान्तिपूर्ण ढंग से रहते आए हैं। सेकुलर इतिहासकार सिर्फ़ एक साझी संस्कृति की छवि को ही उभारते आये हैं ऐसे तमाम तथ्यों पर परदा डालकर जो उनकी इस निष्पत्ति के विरोध में हों। साझी संस्कृति की बात पूरी तरह ग़लत नहीं है मगर वो अधूरा सच है। उसका पूरक सच - एक आपसी संघर्ष का सच और समय-समय पर हिन्दुओं के दमन का सच है।

बाबरी मस्जिद राम मन्दिर को तोड़कर बनी थी या नहीं इस बात का प्रमाण माँग कर हम अडवाणी जैसे मक़्कार राजनीतिज्ञों के क़दम कुछ देर के लिए तो रोक सकते हैं मगर हिन्दू मानस में दबी, मन्दिरों के तोड़े जाने की उस जातीय स्मृति को मेट नहीं सकते जो निराधार नहीं है। खुद मुस्लिम इतिहासकारों ने ऐसे अभियानो का विस्तार से वर्णन किया है।

हमारे सामने दो तरह के झूठे इतिहास रखे जाते हैं। एक इतिहास समाज में भाई़चारा बना रहे इसलिए झूठ बोलता है तो दूसरा अपने पराजय बोध को घटाने के लिए और समाज में साम्प्रदायिक तनाव बढ़ाने के लिए झूठ बोलता है। कोई सत्य की शक्ति में यक़ीन नहीं करना चाहता और न ही समय के स्वाभाविक प्रवाह से जातीय स्मृतियों के सुलझ जाने में विश्वास रखना चाहता है। एक उन्हे नकारता है तो दूसरा आग से आग बुझाना चाहता है।

एक स्वस्थ समाज के लिए उसके व्यक्ति को पराजयबोध से मुक्त होना चाहिये। तो क्या हर हिन्दू को विदेशी आक्रमणकारियों के साथ संघर्ष में अपने पूर्वजों की हार का बदला अपने निर्दोष पड़ोसियों से लेना चाहिये? ऐसी सोच और कृत्य को बढ़ावा देना नीचता, कायरता और अपराध है। हिन्दुओं के नाम पर राजनीति करने वाले दल यही करते रहे हैं।

रथ-यात्रा निकाल कर इस देश के गाँव-गाँव में लालकृष्ण आडवाणी ने जो दंगे का माहौल तैयार किया था, उसमें हज़ारों हिन्दू-मुसलमानों की जाने गईं। मैं उसके लिए व्यक्तिगत तौर पर लाल कृष्ण अडवाणी को ज़िम्मेदार मानता हूँ। मेरा सवाल है कि उन्हे बाबरी मस्जिद से सम्बन्धित हर दंगे में होनी वाली मौत के लिए अपराधी क्यों नहीं माना जाय?

कैसे एक लिबेरहान इन्क्वायरी कमीशन महज़ उनके एक अकेले बयान पर बरी कर देता है कि वो मेरे जीवन का सब से दुखद दिन था? क्या उन्हे दिखता नहीं कि वो शख्स गाँव-गाँव नगर-नगर आग लगाता आ रहा था? और जब मस्जिद गिर गई तो रोने लगा कि हमें क्या पता कि कैसे गिर गई? मेरी समझ में तो वही केन्द्रीय रूप से अपराधी हैं।

मैंने पहले भी कहा कि मुझे मस्जिद गिरने से कोई फ़रक नहीं पड़ा। और जहाँ बाबरी मस्जिद थी वहाँ राम मन्दिर बनने में भी मेरी कोई रुचि है। बावजूद इसके कि मैं मानता हूँ कि राम ने उसी अयोध्या में जन्म लिया था जो देश में समुदायों के बीच का क्लेश का कारण बनी हुई है। मुझे राम में श्रद्धा है मगर मेरे राम अपने भक्तों के हदय में रहते हैं किसी हाईली सेक्योर्ड टेंट में नहीं।

फिर भी अगर कभी वहाँ मन्दिर बन गया तो मुझे तकलीफ़ भी न होगी। लेकिन उस के बनने से अगर मेरे मुसलमान दोस्तों के मन में कोई पराजय-भाव घर करता है, कोई चोट लगती है तो ऐसा मन्दिर मुझे सात जन्मों तक भी स्वीकार्य न होगा। मन्दिर ईश्वर से आदमी का योग कराने के अभिप्राय से बनता है, आदमी का आदमी से जो वैर कराए वो मन्दिर आदमी को ईश्वर से मिला देगा इस धोखे में जो रहना चाहता है तो रहे, मैं इतना अबोध नहीं।

और जो लोग इस धोखे में हैं कि भाजपा या अडवाणी कभी कोई मन्दिर बनवा देंगे तो जाग जायें, राम का नाम लेकर राजनीतिक लाभ उठाने वाले अडवाणी और कल्याण सिंह जैसे लोग मन्दिर बनाने में नहीं मस्जिद गिराने में यक़ीन रखते हैं। और फिर मस्जिद गिरा कर एक अपने को दुखी बताने लगते हैं और दूसरे कहते हैं कि उनके साथ धोखा हुआ है। हैरत है कि देश के हिन्दू लोग इन पर भरोसा करते हैं और मुसलमान मुलायम जैसे ढोंगियों पर जो एक तरफ़ तो इन राक्षसों से उन्हे बचाने का वादा करते हैं और फिर वोट के लालच में उन के पैर छू कर धर्म निरपेक्षता का प्रमाण पत्र भी पकड़ा आते हैं।

ये नेता तो धन्य हैं ही, हमारे देश की जनता भी धन्य है।
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