बुधवार, 23 सितंबर 2009

ई रजा कासी हॅ ! - ६

किन्ही लाल साहब का मक़बरा है राजघाट के पुल के पास। आरकेयोलॉजिकल सर्वे ऑफ़ इन्डिया के संरक्षण में है वो खूबसूरत इमारत। हम ने चाहा कि देखें मगर पन्द्रह अगस्त के दिन छुट्टी है और उस दिन किसी को काम करने की इजाज़त नहीं है। शायद घूम-फिर कर ऐसे ऐतिहासिक स्थलों को देखने की आज़ादी भी नहीं। हमें ये लाभ देने के लिए जो व्यक्ति उस के देखरेख करता होगा उसे काम करना पड़ता शायद इसीलिए वहाँ प्रवेश बन्द था मगर सुरक्षाकर्मी फिर भी नौकरी बजा रहे थे।

हम यह सोच ही रहे थे कि वहाँ मुसलमानों के एक जत्थे की आमद हुई। हमें लगा कि शायद इन लोगों से इस इमारत की तारीख़ का कुछ पता चले सो दीनी पहनाव में पैबस्त एक मोटी-ताजी शख्सियत से हम ने पूछा कि क्या वो जानते हैं कि इस ऐतिहासिक इमारत की क्या अहमियत है। पर वे शायद खुद परिचित नहीं थे और सम्भवतः बाहर से आए थे। उनके साथ एक स्थानीय से लगने वाले जनाब उस पुलिस वाले से बहस में उलझ गए कि ये लोग बाहर से आए हैं और इनका मक़बरा देखना ज़रूरी है। हम ने उनसे भी अपनी जिज्ञासा ज़ाहिर की तो बासित जमाल नामधारी इन साहब ने इमारत की ऐतिहासिकता पर हमारी पुर्सिश को बुरी तरह से नज़र अंदाज़ कर दिया और अपने दुख भरे आक्रोश को प्रगट करने लगे कि मुसलमानों की जगह और उन्हे ही नहीं घुसने दे रहे।

बाहर से आए अपने रिश्तेदारों या दोस्तों को वो हिन्दू बनारस में मुस्लिम परम्परा के नाम पर जो कुछ है उसका मुज़ाहिरा करने में अपने को बेबस पा कर वे ये भी नहीं देख पा रहे थे कि सुरक्षाकर्मी हमें भी नहीं घुसने दे रहे। फिर भी मैंने उन के दुख को समझने की कोशिश करते हुए कहा कि आज पन्द्रह अगस्त है आज आज़ादी की छुट्टी है। तो भी उनका मानना था कि उस से क्या। उन्हे तो ये आज़ादी नहीं मिली कि वे अपने बुज़ुर्ग की जगह जा कर जो करना चाहें कर सके। शायद उन्हे बाबा विश्वनाथ के श्रद्धालुओं से ईर्ष्या हो जो संडे, मंडे, बैंक हॉलीडे सभी दिन अपने श्रद्धा-सुमन अर्पित कर सकते हैं।

बाद में जमाल साहब की शिकायत पर सोचते हुए मैंने पाया कि मजारों को तो सरकार हस्तगत नही करती, सिर्फ़ ऐतिहासिक स्थलों को। अजमेर शरीफ़, निज़ामुद्दीन औलिया की मजार आदि तो जनता के ही अधिकार में रहती हैं बावजूद इसके कि वो ऐतिहासिक रूप से भी महत्वपूर्ण हैं। तो क्या जमाल साहब मुसलमानों के पुरानी हुक़ूमत के सभी स्थानों पर अधिकार न मिलने से दुखी थे। अगर ऐसा है तो ये बहुत बड़ी शिकायत है क्योंकि मुसलमानों के अधिकार में तो एक वक़्त पूरे का पूरा हिन्दुस्तान था।

जमाल बासित हमें बहुत देर तक अरझा कर नहीं रख पाए और हम आगे निकल गए। वरूणा और गंगा के संगम पर लगा वाराणसी का पहला घाट है आदि केशव घाट। गंगा के प्रवाह की दिशा से देखेंगे तो आखिरी घाट मगर न जाने क्यों इसे पहला घाट ही कहते हैं। वाराणसी में भी पहले वरुणा आती है और असी बाद में। घाट पर लिखा है काशी पहले विष्णु की नगरी है बाद में शिव की। मन्दिर जीर्ण है और प्राचीन मूर्ति के बारे में उघारे बदन, अगोंछे में अधोभाग का आच्छादन किए पुजारी जी ने बताया कि वह स्वयं विष्णु जी के द्वारा स्थापित है।

दो बकरी और एक गाय के अलावा घाट लगभग सुन्न पड़ा है। मन्दिर के चारों ओर लोगों ने अपना घर बना लिया है। आप मन्दिर में घुसते हैं तो आप को लगता है कि आप किसी के घर की सीमा का उल्लंघन कर रहे हैं। चौसट्ठी घाट पर चतुर्षष्ठेश्वर मन्दिर में भी इसी संकोच के चलते मैं बाहर ही रह गया। यह केवल आदिकेशव की नहीं सम्पूर्ण बनारस का चरित्र है यहां लोग मन्दिर में घुस कर रहते ही नहीं, वहां से दुकान धंधा भी संचलित करते हैं। विश्वनाथ गली में भी कई प्राचीन मन्दिर ऐसे हैं जो लोगों के घरों और दुकानों के बीच पिस कर महीन हो कर विलीन होते जा रहे हैं। कुछ एक ने तो मन्दिरवे में ही होटल खोल दिया है। खाओ रजा इडली डोसा!

मैंने पाया कि काशी का कुछ अलग रंग नहीं है। ऊ पी का ही रंग है जो यहाँ कुछ खिल कर निकलता है। आदमी नंगा है कुछ नहीं है उसके पास। फिर भी मस्त है। जैसे उसे दुनिया जहान से कोई मतलब ही नहीं। कहते हैं जो आनन्द यहाँ हैं कहीं नहीं। यहाँ एक अजब मिठास है। गमछा लपेटे हैं, दो रुपये की सब्जी खरीदें हैं, जेब खाली है, पर कोई परिचित दिख जाय तो आवा एक ठ पान हो जाए, चाय हो जाए। ये चरित्र पूरे प्रदेश का है- खास तौर पर आगरा से दक्षिण-पूर्व का- लेकिन काशी तो जैसे एक सुरूर में रहता है हमेशा। जैसे नशा यहाँ की भंग में नहीं गंगा के पानी में हो। जिसने डुबकी लगायी वो गया, सुरूर में। मन लागो यार फ़कीरी में। दूसरी तरफ़ कुछ लोगों का मानना है कि बनारस एक लद्धड़ शहर है जो अपनी निरुद्देश्यता को बनारसी मस्ती का नाम देकर आँखें मूंदे पड़ा है।


ऐसी ही निरुद्देश्य मस्ती में शाम को घाट पर टहलते हुए अचानक बारिश होने लगी। दौड़ कर एक चाय की दुकान पर लगे तिरपाल में घुस गए। तमाम श्रद्धालुओं के बीच गीता वचन उवाचते मिले झक्क कुर्ता पैजामा धारी सज्जन जो आपस के राग-द्वेष से चिंतित थे। कानों में पड़ा कि उनकी दृष्टि में कोई अपना-पराया नहीं, सब आत्मा है। और आत्मा आत्मा में क्या भेद। यह कहते हुए उनके मुख कमल से मदिरा की गन्ध मन्द-मन्द आ रही है। धीरे से बात खेत के पट्टो और फ़ौजदारी पर लौट गई। ये एक और विषेशता है। लम्पट सबसे बढकर साधु की भाषा बोलता है। लेकिन उसके हाव-भाव और कर्म उसका राज़ खोल देते हैं। कभी भाषा मंत्र थी। उसमें इतनी शक्ति थी कि उच्चारण मात्र ही वरदान और शाप हो जाता था। पर आज की भाषा वास्तव में धोखा है। अकेले भाषा से साधु और शैतान का भेद करना बहुत मुश्किल है। हर लंगोटधारी ब्रह्मचारी हो ये ज़रूरी नहीं।


(बनारस यात्रा की दौरान लिखी डायरी से)

5 टिप्‍पणियां:

Arvind Mishra ने कहा…

चलिए वरुणा जी भी हो गयी -अस्सी तो पहिल्वै निपट लिए थे अब आगे?

अफ़लातून ने कहा…

पुरातत्व विभाग ने लाल खाम के मकबरे के भवन से काई छुड़ाई । पुरातत्व विभाग और काशी विश्वविद्यालय के पुरातत्व विभाग ने असली काम खुदाई का किया है। अभय लगता है चूक गये। मकबरे से बसन्त कॉलेज से जुड़े खड्ड़ में । इस स्थल का नेहरू ने ६४ में उद्घातन किया था तथा यहां से प्राप्त वस्तुएं सारनाथ के पुरातत्व संग्रहालय में ’राजघाट’ लिख कर प्रदर्शित हैं ।
उ.प्र के सरकारी स्कूल में रवीन्द्रनाथ ठाकुर की लिखी एक कहानी दरजा ६ के पाठ्यक्रम में थी जिसमें वरुणा तट पर काशिराज की कन्याओं की ठण्ड लगती है और झोपड़ियां जला दी जाती हैं ।
मकबरे से वरुणा की दिशा में मुख़ातिब होने पर कृष्णमूर्ति फाउन्डेशन के बगल में जो टीला दिखता है उस पर से तारिका नन्दा को कुदना था और आदिकेशव की सीढ़ियों से सुनील दत्त को उतरना था।

अनूप शुक्ल ने कहा…

लम्पट सबसे बढकर साधु की भाषा बोलता है। लेकिन उसके हाव-भाव और कर्म उसका राज़ खोल देते हैं। कभी भाषा मंत्र थी। उसमें इतनी शक्ति थी कि उच्चारण मात्र ही वरदान और शाप हो जाता था। पर आज की भाषा वास्तव में धोखा है। अकेले भाषा से साधु और शैतान का भेद करना बहुत मुश्किल है। हर लंगोटधारी ब्रह्मचारी हो ये ज़रूरी नहीं।
सुन्दर!

बोधिसत्व ने कहा…

आपकी पूरी काशी कथा पढ़ कर इस नतीजे पर पहुँचा हूँ कि आप काशी पर एक अलग पोथी रच डालिए....आपका देखा बनारस अलग है....आकर्षक भी...

ghughutibasuti ने कहा…

बहुत रोचक श्रृंखला लिखी है आपने। मैं बहुत भय के साथ बनारस गई थी किन्तु वहाँ के लोगों ने मन मोह लिया। तीन चार दिन में ही बहुत अपनापन मिला। आज भी बनारस की मधुर यादें हैं मेरे पास। शहर विचित्र है, अनूठा है,कुछ ऐसा है उसमें जो कहीं नहीं है। गन्दगी भी है, बेकाबू भीड़ भी,बहुत कुछ दहला देने वाला है तो बहुत कुछ मोहित करने वाला। आज भी मन करता है कि एक बार फिर बनारस जाया जाए। हाँ वहाँ रहने के लिए साहस जुटाना पड़ेगा।
मैं भी कभी बनारस पर लिखना चाहती हूँ, शायद शहर पर नहीं उसके लोगों पर।
घुघूती बासूती

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