लोगों को यह दुहराते बहुत सुना था। मगर प्रत्यक्ष समझा न था। आज अनुभव हो गया कि इसकी क्या घात है, क्या मार है। बनारस कैण्ट पर हमें लेने आए हमारे पुराने मित्र संजय मेजर का बटुआ किसी बदमुआश ने मार दिया। पहली बात बनारस के बारे में उन्होने हमें यही बताई कि बनारस में पैंतीस प्रतिशत लुच्चे हैं। मेरा ख्याल था कि हम रिक्शे-ऑटो से अपने मक़ाम तक पहुँचेंगे मगर उन्होने इसरार किया कि बैग लेके बाइक पर सवार हो जाया जाय। मैं घबराया किसी भी तरह उनके पीछे मोटरसाइकिल पर सवारी करने को तैयार न था। मगर उनके बेहद ज़ोर देने पर मुझे पिछली सीट पर बैग समेत क़ाबिज़ होना ही पड़ा।
हमारे अज़ीज़ ने अपनी गाड़ी को विपरीत दिशा से आने वाले ट्रैफ़िक की लेन में डाल दिया। मैंने प्रतिवाद किया कि ये क्या करते हो। उन्होने बताया कि रस्ता यही सही है। पूरा दृश्य तेज़ धूप से प्रकाशमान था। सड़क पर गाड़ी, मोटर, ठेला, रिक्शा, साइकिल, मोबाइक, स्कूटर से गँजा हुआ था। ऐसे बहुत मौके आए कि अब गिरे कि तब गिरे। हर वाहन एक दुर्घटना की सम्भावना की तरह से सामने से आता और अगल बगल से, और जाने कितनी बार तो छू कर निकल जाता; हमारा बाल भी बांका न होता। धन्य हैं मेरे मित्र संजय मेजर जिनके भीतर तमाम अन्य सौन्दर्यबोधों के अलावा बनारसी का ठेठ अबोध भी स्वयंभू रूप में अस्तित्वमान है। सारे वाहन हम पर चढ़े आते रहे मगर हम बने रहे अपनी जगह। जैसे बनारस इतनी अराजकता के बावजूद बना हुआ है।
बनारस और बनारसी किसी नियम-क़ानून की मर्यादा का पालन करते नहीं दिखते। अपनी सहूलियत के लिए वे जिस तरफ़ निकल पड़ें वही मार्ग होता है। बनारस का जीवन एक बेतरतीबी के सौन्दर्य(!) से आच्छादित है। कहीं पढ़ा था कि रैन्डमनेस इज़ वेरी डिफ़ीकल्ट टु अचीव, दि इन्स्टिन्क्ट ऑफ़ ऑर्गेनाइज़ेशन कीप्स स्पॉइलिंग इट। शायद काशी का महत्व इस बात में भी है कि वे इस दुर्गम पथ पर चौड़े होकर चलते हैं। बल्कि नहीं चलते हैं, पथ से उतर के चलते हैं, पथ के चारों ओर चलते हैं, पथ से उलट कर चलते हैं, और पथ को उलट कर चलते हैं।
सबसे ग़ौर करने लायक बात ये है कि जहाँ मुम्बई, दिल्ली, कानपुर आदि बाक़ी के शहर एक खास तौर के रोड-रेज से ग्रस्त होते जा रहे हैं, बनारस में हर व्यक्ति दूसरे व्यक्ति की सम्भावित मार्ग पर निरन्तर डाका डालता रहता है, फिर भी कोई क्रोधित नहीं होता। सभी एक विचित्र वैराग्य से सब कुछ सहते रहते हैं और दूसरे के मार्ग पर डाका डालते हुए आगे बढ़ते रहते हैं। सम्भवतः यही वह फ़्री ट्रेड की असली आत्मा है जिसे पश्चिम ने भुला दिया और जिसे बनारस ने न जाने कब से अपनी संस्कृति में जिलाए रखा है?
या फिर प्राचीन 'आनन्दवन' पर यह गौ, गंगा, और गौरीपति शंकर का प्रभाव है?
(बनारस यात्रा के दौरान लिखी गई डायरी से)
15 टिप्पणियां:
सुन्दर चित्रण किया गया है,
दृश्य सजीव हो उठे हैं .
"बनारस का जीवन एक बेतरतीबी के सौन्दर्य(!) से आच्छादित है..."
हमें तो यही सब अनुभव आपके कानपुर शहर की बाबत भी सही जान पड़ रहा है।
sarji, adhbhut hai...kuch dino baad aapki is diary ko apne blog par lagana chahunga...aapki anumati mil gyi to....
हर वाहन एक दुर्घटना की सम्भावना की तरह से सामने से आता और अगल बगल से, और जाने कितनी बार तो छू कर निकल जाता; हमारा बाल भी बांका न होता।
यही तो है बनारस और भगवान विश्वनाथ का प्रताप:)
सुन्दर। सुना है बनारस के बारे में बीएचयू के कुलपति कहा करते थे-""बनारस इज अ सिटी व्हिच हैव रिफ़्यूज्ड टु मार्डनाइज इट्सेल्फ़""। जो शहर खुद आधुनिक होना ठुकरा चुका है उसका क्या कहना?
अनूप जी ने बहुत सही बात बताई .चरितार्थ
हो रही है .. बनारस का अल्हड सौंदर्य मन को वहां बुलाता है
बनारस एक अकथ गाथा है ! कभी कभी गूँगें का गुड माफिक !
बनारस की आत्मा का थोड़ा थोड़ा अंश पूरे हिन्दुस्तान के हर गांव-कस्बे और नगर में मिल जाएगा।
इसे आम भारतीय की पैदाशी सड़क अनुशासन संज्ञानता कहते है जी ...पढ़े लिखे लोग इसमें भी वैराग्य ढूंढ लेते है ...एक ओर बात ....ये वैराग्य भारत में ही रहता है
अनूप शुक्ल जी वाली बात हमने भी सुनी है....
सोंदर्य वास्तु में नहीं अपनी नज़र में होता है ...दार्शनिकों ने कहा है ...सुना ही होगा ...आपने भी इस ट्रेफिक से भरे रास्ते में भी सोंदर्य तलाशा ये आपकी नज़र है ...वैसे वैरागी तो हम हैं ही ...कोई सड़क पर कहीं चले ...हमें क्या ...
"बनारस का जीवन एक बेतरतीबी के सौन्दर्य(!) से आच्छादित है..."
सहमत हूं।
99 में दस दिन रहना हुआ था बनारस में तब से ही इस शहर को अलमस्त कहता हूं।
भा गई थी इस शहर की अलमस्तता
लाजवाब विवेचन.......सम्पूर्ण दृश्य नयनाभिराम हो उठे...
बहुत सही कहा आपने...अनुशाशन को बनारस क्या पूरे बिहार यु पी में शान के खिलाफ घोर तौहीनी मानते हैं..
सौम्य , सहज, सरल और मन प्रफुल्लित करने वाला लेख | मजा आ गया |
पहली बार जब बनारस गई तो मैं भी चकित रह गई और वहाँ के यातायात को देखकर लगा कि शायद यह भगवान के अस्तित्व को सिद्ध करने के लिए ही बना है। जो बात बनारस में है और कहीं नहीं मिल सकती। किंकर्तव्यविमूढ़ करते इस शहर का अपना ही आकर्षण है।
घुघूती बासूती
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