शिक्षक सब जगह होते हैं पर भारत के शिक्षक मात्र शिक्षक नहीं गुरु होते हैं। गुरु एक ऐसा भारी शब्द है कि अंग्रेज़ इसका अर्थ अपनी भाषा के किसी शब्द के आवरण में उठा के नहीं ले जा सके - गुरु का एक अन्य अर्थ भारी होता ही है – समूचे शब्द को ज्यों का त्यों स्वीकार करना पड़ा।
गुरु का नाम लेते ही मन में एक छवि उभरती है जिसकी काली-सफ़ेद, लम्बी दाढ़ी हृदय प्रदेश तक लहरा रही है, शिर के केश जटाओं में गुम्फित हैं, गले में रुद्राक्ष या तुलसी की माला है, बाएं कंधे से कमर में दाईं तरफ़ तक जनेऊ पड़ा हुआ है, अधोभाग सूती धोती से आवृत्त है, मुखमण्डल पर सौम्यता, गाम्भीर्य और ज्ञान की आभा है और साथ में कम से कम दो चार शिष्य तो हैं ही। कुछ लोगों को यह छवि पुरातन पंथी मालूम देगी वे एक मोटे चश्मे और खिचड़ी दाढ़ी वाले, पतलून-कमीज़ में अपने गुरु की कल्पना कर सकते हैं जो ब्लैक-बोर्ड पर गणित की एक दुरुह प्रमेय का पथ सरल कर रहा हो।
मुझे ये दोनों छवियां समस्यामूलक लगतीं हैं। क्योंकि ये दोनों ही एक पुरुष की छवि है। मेरा मानना है कि स्त्री स्वाभाविक गुरु होती है जबकि परिपाटी ने यह दरजा पुरुष पर आरोपित कर दिया है। इस मान्यता के पीछे के पुरुषवादी नज़रिया छुपा हुआ है। मैं यह नहीं कहता कि पुरुष गुरु होता ही नहीं। सभी मनुष्य सभी ग्रहों और राशियों का समावेश हैं। समष्टि में सब एक ही तत्व है। और वो इतना विराट है कि उसे उसकी विराटता में एक साथ विचार कर पाना दूभर है। इसलिए इस सब को अलग-अलग खानों में बाँटना ही तो व्यष्टि है।
और जब इस पूरे प्रपंच को समझने के लिए इस तरह के विभाजन करने की बारी आई तो पुरुष ने राशियों में तो क्रम से एक को पुरुष और एक स्त्री के रूप से चिह्नित किया। लेकिन ग्रहों को गुणधर्मिता तय करते हुए एक चन्द्रमा और दूसरे शुक्र को ही स्त्रीत्व के योग्य माना। चन्द्रमा यानी मन और कल्पना के दायरे के तमाम तत्व। और शुक्र यानी सजने-सँवरने, कला और विलास के सभी विषय। देखा जाय तो सूक्ष्मतम चीज़ों का सम्बन्ध शुक्र से है जैसे घी और इत्र और शुक्राणु। हालांकि शुक्राणु किन अर्थों में स्त्रीलिंग माना जाएगा यह संशय के घेरे में है।
चन्द्रमा बावजूद सूर्य का प्रतिबिम्ब होने के सभी इच्छाओं, अस्थिरता और विचलन का कारक होने के कारण और शुक्र भोग-विलास के विभाग का स्वामी होने के कारण भारतीय दार्शनिक परम्परा के अनुसार प्रतिगामी ग्रह हो जाते हैं। योग भोग-शुक्र पर संयम और मन-चन्द्रमा-स्त्री- पर नियंत्रण रखने का निर्देश देता है और धर्म बताता है कि स्त्री नरक का द्वार है।
आत्मा का प्रतीक सूर्य, पुरुष है। सामर्थ्य का प्रतीक मंगल, पुरुष है। बुद्धि का प्रतीक बुध और दुख और वैराग्य का प्रतीक शनि, नपुंसक हैं। गुरु आनन्द और ज्ञान का कारक है और पुरुष है। सूर्य, मंगल, बुध और शनि की श्रेणियों के लिंग निर्धारण पर सवाल किए जा सकते हैं। लेकिन वे अपनी दार्शनिक परम्परा में अतार्किक नहीं है। परन्तु उन पर चर्चा करने से बात फैल जाएगी। बात अभी गुरु की है, उसी तक सीमित रखते हैं। गुरु को पुरुष घोषित ज़रूर किया गया है मगर मुझे वह इस अनुशासन के आन्तरिक तर्क पर सही बैठता नहीं दिखता। इस परम्परा के आन्तरिक तर्क के अनुसार ही देखें कैसे-
१] सूर्य, मंगल आदि क्रूर हैं गुरु सौम्य है, कोमल है, मृदु है। कोमलता स्त्री स्वभाव है।
२] किसी को वश में करने के लिए सूर्य और मंगल दण्ड की नीति अपनाते हैं, चन्द्रमा दान की, बुध और शनि भेद की और गुरु और शुक्र साम की। यह भी स्त्री स्वभाव है।
३] जन्म कुण्डली में विवाह, परिवार, बच्चों और बुज़ुर्गों का कारक गुरु ही होता है। किसी भी सामान्य स्त्री का जीवन इन्ही विषयों के इर्द-गिर्द घूमता है। पुरुष विवाह करता है पर उसकी मर्यादा की रक्षा स्त्री उस से अधिक करती प्रतीत होती है। बच्चे विशेष रूप से स्त्री की ही ज़िम्मेदारी होते हैं। परिवार में सब का ख्याल और बुज़ुर्गों की देखभाल भी स्त्री का ही विभाग है।
पुरुष एक गर्भाधान को लेकर लालायित रहता है लेकिन वह सम्पन्न होते ही उसे जीवन के उद्देश्य की चिंता सताने लगती है। स्त्रियां आम तौर पर जीवन के उद्देश्य को लेकर व्यथित नहीं होती। वे अपने दैनिक पारिवारिक जीवन से सार्थकता पाती रहती हैं। ऐसी स्त्री की उपेक्षा करके परिवार से इतर जीवन की सार्थकता खोजने वाला पुरुष क्या स्वाभाविक गुरु हो सकता है?
४] गुरु शरीर में स्थूलता का कारक भी होता है। आम तौर पर गुरु मोटा होगा ही। और गुरु जनित मोटापे के बारे में राय है कि वह शरीर में चारों ओर से मोटा होगा मगर विशेषकर मध्यभाग यानी कि पेट, कमर, नितम्ब और जंघा से मोटा होगा। कोई अंधा भी देख सकता है कि ये स्त्री के आकार का विवरण है।
जन्मकुण्डली में पाँचवे स्थान का कारक है गुरु। पाँचवे स्थान से पेट, भूख, बुद्धि, पुत्र आदि देखते हैं। पेट, भूख और बुद्धि तो स्त्री व पुरुष दोनों में होती है लेकिन पुत्र(!) को पेट में रखकर पालना तो स्त्री ही करती है।
५] गुरु का स्वाभाविक स्थान कोषागार है। स्त्री स्वाभाविक खंजाची है। उड़ाना पुरुष का स्वभाव है, बचाना स्त्री का।
६] बिन घरनी घर भूतों का डेरा। यदि पुरुष स्वभावतः गुरु है तो इस तरह की कहावत बेमानी हो जाती जबकि ये कहावत परखी हुई बात पर आधारित है। दूसरी तरफ़ बिना पुरुष के गृहस्थी कमज़ोर ज़रूर पड़ती है पर चुड़ैलों का अड्डा नहीं बनती।
७] गुरु मध्यमार्गी होता है। और स्त्री न तो पैसे की इतनी भूखी होती है कि अरबों—खरबों की सम्पत्ति जुटाना ही अपना मक़सद बना ले और न ही इतनी वैरागी कि सब कुछ को लात मार के शरीर पर भभूत मल कर भिखारी हो जाय। पुरुष इन्ही दो अतिवादों में फंसा रहता है।
८] धर्म जो कि गुरु का मुख्य विभाग है वह भी स्त्रैण मालूम देता है। यह सही है कि दुनिया के सारे धर्म पुरुषों ने अन्वेषित किए और उनके नियम ग्रंथ में सूची बद्ध किए पर धर्म का विभाग भी पुरुष से अधिक स्त्री के दायरे में आता है। मेरे विवाह के अवसर पर संस्कार सम्पन्न करा रहे पण्डित जी ने कहा कि चार में से तीन पुरुषार्थ- काम, अर्थ और मोक्ष में तो आप आगे रहेंगे लेकिन धर्म में आप अपनी पत्नी के पीछे रहेंगे। ये अनायास नहीं है कि ईश्वर में आस्था और तीज त्योहारों क पालन पुरुष से अधिक स्त्रियां करती हैं।
धर्म का मूल समर्पण है और समर्पण यदि स्त्रैण नहीं तो क्या है?
९] गुरु, शिष्य के बिना अधूरा है। पुरुष, बच्चे के बिना अधूरा नहीं है। लेकिन स्त्री माँ के रूप में बच्चे के बिना अधूरी है।
१०] नियम है कि गुरु जिस स्थान में बैठता है वहाँ की हानि करता है लेकिन जहाँ देखता है वहाँ की वृद्धि करता है। अपना नुक़्सान करके बच्चे पर सब न्योछावर करने की आत्म बलिदान की भावना को माँ से बेहतर कौन जानता है?
इतना कुछ सोचने के बाद मैंने पाया कि गुरु का स्वाभाविक स्वरूप स्त्री का है। और वह भी एक बच्चे के साथ या बच्चों से घिरी स्त्री का। हर स्त्री माँ हो यह ज़रूरी नहीं लेकिन हर माँ गुरु ज़रूर होती है। अपने बच्चे की प्रथम गुरु और सम्भवतः सबसे महत्वपूर्ण गुरु भी। माँ स्वाभाविक गुरु है, बच्चा स्वाभाविक शिष्य है। आज शिक्षक दिवस के दिन मैं अपनी प्रथम और सबसे महत्वपूर्ण गुरु अपनी माँ को नमन करता हूँ और धन्यवाद करता हूँ।
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पुनश्च : प्रत्येक व्यक्ति ग्रहों और राशियों का समावेश है। सब में सब गुण मौजूद हैं। यहाँ प्रयोग की गई श्रेणियां का उद्देश्य स्त्री या पुरुष पर कोई विशेष चरित्र आरोपित करना नहीं बल्कि पहले किए जा चुके ऐसे आरोपण से पीछा छुड़ाना है।
मानव डी एन ए के एक्स क्रोमोज़ोम में बमुश्किल २०-३० वाक्य हैं जो स्त्री को हासिल नहीं होते। वरना मानव के सभी गुण स्त्री में मौजूद हैं - हिंसा भी।