बुधवार, 29 अक्तूबर 2008

पुलिस किस की रक्षा के लिए है?

दो दिन पहले प्रतिशोध के ताप में बौखलाए हुए पटना के राहुल राज का पहले मुम्बई पुलिस ने किसी आतंकवादी की तरह एनकाउन्टर कर दिया, फिर राज्य के उप-मुख्यमंत्री आर आर पाटिल जी ने कड़े शब्दों में बताते हुए लगभग धमकाया कि गोली का जवाब गोली से दिया जाएगा और आगे किसी ने ऐसी कोशिश की तो यही हाल किया जाएगा। उनके बयान से ऐसा मालूम दिया कि वे पुलिस को क़ानून व्यवस्था बनाए रखने की संस्था नहीं न्याय वितरण करने वाली संस्था भी मानते हैं।

हम्मूराबी के आँख के बदले आँख की न्याय व्यवस्था में यक़ीन रखने वाले पाटिल साब का न्याय बोध तब कहाँ नदारद हो जाता है जब एक निर्दोष 'भैय्ये' को पीट-पीट कर ट्रेन में मार डाला जाता है। लालू जी की रेल में बिना किसी राजनीतिक दल का नाम लिये यह कारनामा अंजाम दिया जाना एक सोची समझी रणनीति की ओर इशारा करता है। मगर उस मामले में मंत्री जी का कहना है कि यह हेट-क्राइम नहीं है।

आज पूरे दिन सहारा समय पर मृतक धर्म देव के साथ पिटने वाले 'भैय्ये' बताते रहे कि मारने वालों की मार खाने वालों से मुख्य शिकायत उनका उत्तर-भारतीय होना ही थी; वो भैय्यों को सबक सिखा रहे थे। लेकिन मंत्री जी उनकी बातों पर ध्यान नहीं देते.. सम्भवतः वे उत्तर-भारतीयों के बयान को उतना वज़नी नहीं मानते। और उप मुख्य मंत्री जी ने जाँच होने के पहले ही फ़ैसला सुना दिया है कि यह हेट-क्राइम नहीं है।

समझ में नहीं आता कि क्या करूँ.. क्या उनका एहसान मानूँ कि कम से कम वे इसे क्राइम मान रहे हैं?

मैं जिस गहरे क्षोभ को महसूस कर रहा हूँ उसका अनुभव मेरे साथ-साथ उत्तर भारत का बहुसंख्यक हिस्सा भी कर रहा है। दुविधा अब यह है कि मैं मनसे, शिव सेना, कांग्रेस और शरद पवार जी की राष्ट्रवादी कांग्रेस के बीच चल रही इस घिनौनी राजनीति का जवाब किस के नेतृत्व में गोलबंद हो कर दूँ? लालू जी के या मुलायम जी के? राजनीति के अपराधीकरण में इन लोगों की भूमिका कम उल्लेखनीय नहीं है.. ये वही लालू जी हैं जो कामरेड चन्द्रशेखर के हत्या के आरोपी, सिवान के सांसद शहाबुद्दीन के गले में हाथ डालकर संसद में घूमते थे जबकि पुलिस उसके नाम का वारंट लेके देश भर में भटक रही होती थी। मुलायम जी के राज में उत्तर प्रदेश में अपराधी सीन फुला के लाल बत्ती की गाड़ियों में घूमते रहे हैं.. आज भी घूम रहे हैं।

कौन दूध का धुला है? क्या भाजपा और क्या कांग्रेस.. सभी इस हमाम में नंगे हैं। सब ने अपने छुद्र चुनावी स्वार्थों के लिए क़ानून तोड़ने वालों को क़ानून बनाने वाली सर्वोच्च संस्था में घुसा कर उसे प्रदूषित करने का काम किया है। सब से बड़ी अपराधी तो जनता है जो इन हत्यारों को अपना नेता स्वीकार करती है.. इन अपराधियों की सफलता के पीछे सिर्फ़ बूथ-कैपचरिंग का मामला नहीं है। हमारा समाज गहरे तौर पर बीमार समाज है। हमारे समाज के सबसे बड़े नायक कौन हैं? सचिन तेंदुलकर और शाहरुख खान? समाज में इनका क्या रचनात्मक योगदान है?

आज अगर तथाकथित ‘मराठी मानूस’ राज ठाकरे को अपना नेता मान रहा है; उसकी गिरफ़्तारी पर सड़क पर आके दंगा करने और पुलिस के हाथों पिटने में अपना हित देखता है, तो दोष सिर्फ़ राज ठाकरे को ही क्यों दिया जाय? वे सभी लोग जो इस तरह की लुम्पेन राजनीति के पीछे चलने में अपनी मनुष्यता की सार्थकता समझते हैं.. वे या तो स्वयं असफल अपराधी हैं या नैतिक रूप से बीमार।

मैं ये सोच कर खीझ उठता हूँ कि मासूम विद्यार्थियों को सामूहिक रूप से पीटे जाने को अपनी राजनीति की मुख्य धुरी बनाने वाले राजनीतिज्ञ की सुरक्षा में बाइस पुलिस वाले तैनात रहते हैं क्योंकि उसे डर है कि पीटे जाने वालों में से कोई या उनका सगा-सम्बन्धी उस पर क़ातिलाना हमला कर सकता है। और जब उन सम्भावित हमलावरों की जमात वालों में से किसी को जब सामूहिक रूप से पीट-पीट कर मार डाला जाता है तो राज्य व्यवस्था उस वक़्त राज ठाकरे की सुरक्षा में सजगता बरत रही होती है।

मन भीतर से बहुत क्षुब्ध है.. आप सब भी क्षुब्ध है मैं जानता हूँ.. पार आप में से तमाम मित्र ऐसे भी हैं जो कश्मीर में भीड़ पर गोली चलाने वाली पुलिस का समर्थन करते हैं, बाटला हाउस जैसे एनकाउन्टर को जाइज़ ठहराते हैं, निरीह किसानों के हित के लिए लड़ रहे नक्सलियों के क्रूर दमन की पैरवी करते हैं।

आप को लगता होगा कि यह मामला नितान्त स्वतंत्र मामला है.. पर ऐसा है नहीं दोस्तों.. ये राज्य सत्ता अपने को बरक़रार रखने के लिए किसी भी हद तक गिर सकती है.. उस के लिए लोग महत्वपूर्ण नहीं है.. सत्ता महत्वपूर्ण है.. जिसे पर अपना क़ब्ज़ा बनाए रखने के लिए वो देश, राष्ट्र, समाज, धर्म सब कुछ तोड़ सकती है.. दो चार सौ लोगों की जान को तो वो कीड़ों-मकोड़ों जैसी अहमियत भी नहीं देती।

हम सहज विश्वासी लोग.. सुन्दर चेहरों औए मीठी बातों से बरग़लाये जाते हैं और बार-बार वही ग़लतियाँ दोहराए जाते हैं। ये सिर्फ़ महाराष्ट्र और उत्तर-भारतीयों की समस्या तक सीमित मामला नहीं है। ये क्रूर खेल अलग-अलग रूप में हर जगह देखा जा सकता है।

अभी कल की ही बात है मेरी मित्र विनीता कोयल्हो जो गोवा में अन्धाधुन्ध माइनीकरण और एसईज़ेडीकरण के खिलाफ़ गोवा बचाओ अभियान के तहत संघर्ष करती रही हैं, उन्हे एक अखबार में अपनी स्वतंत्र राय रखने के विरोध में भरी ग्राम सभा में गुंडो ने अपमानित किया, धमकाया, और दबाने का हर सम्भव प्रयास किया।

जिसके जवाब में पुलिस ने क्या किया.. उलटा उन्हे गिरफ़्तार करके थाने ले गए.. ग़नीमत यह रही कि कोई केस नहीं लगाया और तीन घन्टे बाद छोड़ दिया.. मगर सोचिये.. अब भी.. कि ये राज्य किसका है? सरकार किस की है..? और पुलिस किस की रक्षा के लिए है?

आखिर में एक सवाल अपने प्रगतिशील मित्रों से जो एक साध्वी की गिरफ़्तारी को अपनी उन आशंकाओ की पुष्टि मान रहे हैं जिसके अनुसार देश में एक हिन्दू आतंकवाद काफ़ी पहले से पनप रहा है। मैं उस आशंका और सम्भावना से इन्कार नहीं करता.. मगर इल्ज़ाम और जुर्म, मुल्ज़म और मुज्रिम का फ़र्क बनाए रखा जाय। जिस पुलिस की मुस्लिम युवकों की गिरफ़्तारियों पर हम सभी लगातार प्रश्नचिह्न खड़ा करते रहे हैं, उसी पुलिस की हिन्दू साध्वी की गिरफ़्तारी को इस नज़रिये से देखा जाना कहाँ तक उचित है जैसे कि जुर्म सिद्ध ही हो गया हो?

राज्य सत्ता अपनी सहूलियत बनाए रखने के लिए जैसे पहले मुसलमानों की गिरफ़तारियाँ करती थी.. वैसे ही (चुनावी)समय की नज़ाकत को देखते हुए ये हिन्दू साध्वी की गिरफ़्तारी का खेल भी खेला जा रहा है। भाजपा, सबको पता है, नागनाथ है मगर कांग्रेस छिपा हुआ साँपनाथ है.. पर ज़हरीला कौन अधिक है.. कहना मुश्किल है।

हमारे हितों का प्रतिनिधित्व करने वाला मंच अभी नहीं है.. जो हैं वो या तो भ्रूणावस्था में हैं या समाज की उन्ही बीमारियों से ग्रस्त हैं जिन से हम मुक्ति पाना चाहते हैं। जब तक हमें अपना मंच नहीं मिलता.. जागते रहिये.. सवाल करते रहिये.. और जवाब खोजते रहिये।

शनिवार, 25 अक्तूबर 2008

आरे पर गिद्ध-दृष्टि

मुम्बई में साँस लेने के लिए वैसे ही हवा कम पड़ती है और अब शरद पवार साहब के बयान से ऐसा मालूम देता है कि मु्म्बई के फेफड़ों में जो बची-खुची हवा है वो भी निकल जाएगी। पिछले महीने महानन्दा डेअरी के एक समारोह में बोलते हुए पवार साहब ने इशारा किया कि यदि आरे डेअरी मुनाफ़ा नहीं बना पा रही है तो क्यों न महानन्दा ही उसे सम्हाल ले।

उनके इस बयान में निहित खतरों को भाँप कर आरे मिल्क कॉलोनी में काम करने वाले और रहने वाले लोगों ने भारिप बहुजन महासंघ के अन्तर्गत २३ अक्तूबर को एक विरोध प्रदर्शन किया। इस मोर्चे का नेतृत्व डॉ आम्बेडकर के नाती आनन्दराज आम्बेडकर ने किया और आरे के प्रबन्धन को अपनी माँगो का एक ज्ञापन भी दिया। उनकी मुख्य माँग डेअरी के किसी भी प्रकार के निजीकरण पर रोक लगाना है। भारिप बहुजन महासंघ के नेताओं ने अपने-अपने भाषणों में शरद पवार पर ये आरोप लगाया कि वे डेअरी के निजीकरण की आड़ में आरे मिल्क कॉलोनी के विशाल भू-भाग को लैंड माफ़िया के हवाले कर देना चाहते हैं।

आरे मिल्क कॉलोनी के स्थापना आज़ादी के ठीक बाद १९४९ में हुई थी और आज भी इसे देश की सबसे अत्याधुनिक डेअरी में गिना जाता है। लगभग ४००० एकड़ की ज़मीन में फैली इस डेअरी के अन्दर बत्तीस तबेले हैं। डेअरी से जुड़े इन तबेलों के अलावा आरे मिल्क कॉलोनी के प्रांगण में डेअरी, एनीमल हज़बैण्डरी, पोल्ट्री और कृषि से जुड़े तमाम शोध और शिक्षण संस्थान भी मौजूद हैं। यानी ये समझा जा सकता है कि इस संस्था की स्थापना आज़ादी के समय मौजूद राष्ट्र-निर्माण के आदर्श दृष्टिकोण से की गई थी। मगर धीरे-धीरे एक अपराधिक उदासीनता, आलस्य और भ्रष्टाचार के एक दौर ने डेअरी को एक बीमारु अवस्था में धकेल दिया और अब उसे शुद्ध मुनाफ़ाखोरों के हवाले कर देने की बात की जा रही है।

आरे डेअरी को पहले सम्भवतः किसी ऐसी व्यवस्था के तहत चलाया जाता था जिसमें कॉलोनी के भीतर दुहा गया सारा दूध डेअरी को देने की बाध्यता थी। मगर बसन्तदादा पाटिल के मुख्यमंत्रित्व काल में तबेले के प्रबन्धकों को ये छूट दे दी गई कि वे अपने दूध को बाहर भी बेच सकें। जिसके कारण डेअरी घाटे के दलदल में धँसते हुए तबेलों से किराया वसूल करने वाली एक संस्था भर बन कर रह गई है। ये छूट मुक्त बाज़ार के दौर के पहले किस नैतिकता के तहत दी गई, इसके लिए बहुत सोचने की ज़रूरत नहीं है। हमारे देश में चीज़ें भ्रष्टता के जिस तरल रसायन से चलायमान होती हैं वो किसी से छिपा नहीं है।

इस देश में कम ही संस्थाएं ऐसी हैं जो अंग्रेज़ो की बनाई हुई नहीं है, आरे मिल्क कॉलोनी उन में से एक है। लेकिन शरद पवार जैसे लोग पर उसकी जड़ों में माठा डाल चुकने के बाद अब निजीकरण के नाम पर उसे उखाड़ फेंकने का काम कर रहे हैं। किस लिए? ताकि ज़मीन की खरीद-फ़रोख्त के ज़रिये कुछ नोट पैदा किए जा सकें? पर ये धन-पशु सम्पत्ति के लोभ में ऐसे अंधे हुए हैं कि सामने दिख रहे माल के ज़रा आगे गहरी खाई भी उन्हे नहीं दिखती। मीठी नदी का प्रकोप और २००५ की मुम्बई की बाढ़ के बावजूद ये लोग बिना किसी योजना के अन्धाधुन्ध निर्माण को ही विकास का पर्याय मान कर चल रहे हैं और देश को भी ऐसा ही मनवाने पर तुले हुए हैं।

समय-समय पर आरे मिल्क कॉलेनी की ज़मीन को देश के दूसरे ‘विकास-कार्यों’ के लिए दिया जाता रहा है जैसे कि कमालिस्तान फ़िल्म स्टूडियो, फ़ैन्टेसीलैण्ड एन्टरटेनमेंट पार्क, मरोल इन्डस्ट्रियल डेवलेपमेंट कॉर्पोरेशन (एम आई डी सी) और हाल के वर्षों में रॉयल पाल्म्स (गोल्फ़ क्लब, होटॅल और रिहाईशी बिल्डिंग्स)। रॉयल पाल्म्स के बारे में उल्लेखनीय यह है कि पहले शिव सेना ने इस का प्रचण्ड विरोध किया और फिर बाद में स्वयं बाल ठाकरे ने इस का अपने करकमलों से उदघाटन किया।

इन सब के अलावा आरे के केन्द्रीय डेअरी से सटा हुआ एक आरे गार्डेन रेस्टॉरन्ट भी इस कृपा का भागीदार हुआ है जहाँ आठ सौ ‘पार्टी-पशु’ एक साथ आनन्द ले सकते हैं। क्या ये विडम्बनापूर्ण नहीं है कि एक मिल्क डेअरी पहले तो अपने ही तबेलों को दूध बाहर बेचने की आज़ादी देकर घाटा सहन करती है और फिर घाटे को पूरा करने के लिए अपने केन्द्रीय दफ़्तर की नाक के नीचे से शराब बेचने का व्यापार शुरु कर देती है?

आरे मिल्क कॉलोनी के भीतर लगभग आठ-नौ हज़ार परिवारों की रिहाईश है। जिस में से कुछ तो प्राचीनकाल से रहने वाले आदिवासी हैं जिनका अधिकार क्षेत्र उत्तरोत्तर सिमटता ही जा रहा है। उन के अलावा आरे में काम करने वाले कर्मचारियों के परिवार तथा अन्य दूसरे लोग जो अलग-अलग समय पर झोपड़ पट्टियों में बस गए, आरे के अन्दर रहते हैं।

अब इसे चाहे हमारे देश का सह-अस्तित्व का गहरा बोध कह लीजिये या विशेष चारित्रिक भ्रष्ट उदासीनता कि जब तक पानी सर के ऊपर न हो जाय हम एडज़स्ट करते रहते हैं। इसी मानसिकता के तहत हर जगह अवैध रूप से झोपड़े बनाने वालों के प्रति एक उदासीन उपेक्षा का भाव साधा जाता है। और जब वे बरसों की मेहनत के बाद अपने घर और रोज़गार में सहूलियत की स्थिति में आने लगते हैं, उन्हे उखाड़ फेंकने के निहित स्वार्थ उठ खड़े होते हैं।

विदर्भ के हज़ारों किसानों की आत्महत्या की उपेक्षा कर के देश में आई पी एल के उत्सव में अपनी ऊर्जा देने वाले कृषि मंत्री शरद पवार का आरे सम्बन्धित बयान इसी रोशनी में देखा जाना चाहिये जिसके जवाब में भारिप बहुजन महासंघ ने विरोध प्रदर्शन करके अपने अस्तित्व के रक्षा करने की अग्रिम कार्रवाई की है।

इस देश के विकास पुरुषों की अपनी जनता के विकास की कितनी चिन्ता है वो आप इस बात से समझिये कि आरे की इन झोपड़पट्टियों में १९९३ तक पानी की व्यवस्था और १९९८ तक बिजली की व्यवस्था नहीं थी। और ये सुविधा भी तभी सम्भव हो सकी जब शहर पर बढ़ता हुआ आबादी का दबाव के चलते गोरेगाँव में अचानक त्वरित निर्माण में फलीभूत हुआ।

इसके लिए कुछ लोग बाज़ार के शुक्रगुज़ार होंगे और गलत भी नहीं होंगे मगर ऐसे लोग स्वतंत्र बाज़ार के दूसरे पक्ष पर नज़र डालना या तो भूल जाते हैं या उसे जानबूझ कर अनदेखा कर जाते हैं। गोरेगाँव के इस भयानक विकास का नतीजा ये हुआ कि १९९३ के पहले बस्ती वाले पानी की अपनी ज़रूरत के लिए जिस पहाड़ी नदी का इस्तेमाल करते थे वो आज भी गोरेगाँव और आरे के भीतर से होकर समुद्र की ओर बहती है मगर एक बेहद दुर्गन्धपूर्ण गन्दे नाले के रूप में। और मुम्बई की सबसे ऊँची ‘पहाड़ी’ नाम की पहाड़ी धीरे-धीरे काट-काट कर खतम की जा रही है।

भारिप बहुजन महासंघ की एक माँग ये भी है कि उनके पुनर्वास की किसी सूरत में उन्हे आरे के भीतर ही बसाया जाय। जो लोग पिछले पचास बरस से इस जगह के आस-पास से ही अपना रोज़गार करते हों, उनकी तरफ़ से ये माँग बहुत जायज़ है। और बहुत सम्भव है कि डेअरी का निजीकरण हो जाय और धीरे-धीरे आरे कॉलोनी की ज़मीन स्क्वायर मीटर की दर से बिकने के लिए उपलब्ध भी हो जाय। ऐसी सूरत में आरे के निवासियों को भीतर के किसी एक कोने में बसा देना घाटे का सौदा नहीं होगा।


मगर आरे सिर्फ़ एक मानवीय मामला नहीं है। एक बार अगर आप मुम्बई के नक्शे पर नज़र डालें तो आप को आरे का महत्व अपने आप समझ आ जाएगा। सजंय गाँधी नेशनल पार्क, फ़िल्म सिटी और आरे मिलकर एक ग्रीन ज़ोन का निर्माण करते हैं। वैसे ये अलग-अलग नाम भले हों पर ये उस विशाल जंगल के विभाजित क्षेत्र हैं जिसके भीतर मुम्बई को जल आपूर्ति करने वाली तीन झीलें-तुलसी,विहार और पवई- भी आती हैं। ये विभाजन आदमी ने किए हैं और इनके बीच कोई वास्तविक विभाजन नहीं है।

मनुष्य की आर्थिक गतिविधि से अलग आरे के इस विशाल कॉलोनी के प्रांगण में हज़ारों वृक्ष, बरसाती पौधे, जंगली पेड़ और लताएं भी आश्रय पाती हैं और एक ऐसे आकर्षक पर्यावरण का निर्माण करते हैं जिसमें तमाम अनोखे पंछी पूर्णकालिक या शीतकालिक निवास पाते हैं। इन पंछियों में से कुछ पीलक (गोल्डेन ओरियल) और दूधराज (एशियन पैराडाइज़ बर्ड, देखें चित्र) जैसे बेहद अद्भुत और अनूठे भी हैं। जिन्हे हाल के दिनों में अपने इतने पास पाकर चकित सा होता रहा हूँ।


मगर विकास के अंधाधुंध कंक्रीटीकरण के खतरे की ज़द में सिर्फ़ पंछी नहीं आएंगे, मानव समाज भी उसकी चपेट में आएगा। प्रकृति के नियम माफ़िया संसार से कुछ अलग नहीं होते। सत्या का एक डायलाग याद कीजिये.. एक गया तो सब जाएंगे। पर्यावरण में सब कुछ आपस में जुड़ा हुआ है.. एक पत्थर हटायेंगे तो पूरी इमारत धराशायी हो जाएगी... हो रही है।


वैसे आरे मिल्क कॉलोनी को लेकर पिछले दिनों एक और योजना की चर्चा उठी थी- आरे के भीतर एक ज़ूलॉजिकल पार्क(ज़ू) बनाने की योजना। आरे को लैण्ड माफ़िया के हवाले करने से निश्चित ही ये एक बेहतर योजना है मगर मेरा डर है कि ये योजना सिर्फ़ पर्यावरण लॉबी का मुँह बन्द करने के लिए लटकाई जा रही है। क्योंकि इसका प्रस्तावित क्षेत्र सिर्फ़ ४०० एकड़ है.. यानी कि बाकी का ३६०० एकड़ नोचने के लिए मुक्त रहेगा। वैसे आप ही बताइये कि आप पंछियों को पिंजड़े में बन्द देखना पसन्द करते हैं या मुक्त फुदकते हुए?

मेरे लेखन में निराशा का खेदपूर्ण पुट है.. फिर भी उम्मीद करता हूँ कि आरे का भविष्य मेरे डरों से बेहतर होगा। तथास्तु!

बुधवार, 15 अक्तूबर 2008

क्यों दिए जाते हैं पुरस्कार?

अरविन्द अडिगा की पहले उपन्यास दि व्हाईट टाइगर को मैन बुकर प्राईज़ मिल गया है। उनके नामाकंन पर मैं इतना हैरान नहीं हुआ था, मगर उनकी इस जीत के बाद मैं वाक़ई हतप्रभ रह गया। दुनिया भर में पुरस्कार एक निश्चित राजनीति के तहत दिए जाते हैं, इस तथ्य से मैं अनजान नहीं रहा हूँ मगर आप सब की तरह कहीं न कहीं मेरे भीतर भी एक सहज-विश्वासी मानुस जीवित है जो चीज़ों की सतही सच्चाई पर यकी़न करके ज़िन्दगी से गुज़रते हैं।

अरविन्द अडिगा के साथ अमिताव घोष के साथ की किताब सी ऑफ़ पॉपीज़ भी नामांकित थी, मैंने वो किताब नहीं पढ़ी है, पर अमिताव घोष की पिछली किताबों के आधार पर यह मेरा आकलन है कि सी ऑफ़ पॉपीज़ कितनी भी बुरी हो दि व्हाईट टाइगर से बेहतर होगी। पर मुद्दा यहाँ दो किताबों की तुलना नहीं है, मुद्दा दि व्हाईट टाईगर की अपनी गुणवत्ता है।

लगभग तीन-चार मास पहले एच टी में एक रिव्यू पढ़ने के बाद मैं इस किताब को दो दुकानों में खोजने और तीसरे में पाने के बाद हासिल किया और पढ़ने लगा। कहानी की ज़मीन बेहद आकर्षक है; बलराम नाम का एक भारतीय चीन के प्रधानमंत्री को लिखे गए पत्रों में अपने जीवन और उसके निचोड़ों की कथा कह रहा है। बलराम की खासियत यह है कि वो एक रिक्शेवाले का बेटा है और एक बड़े ज़मीन्दार के बेटे का ड्राईवर है जिसे मारकर वो अपने सफल जीवन की नीँव रखता है।

अडिगा तहलका में लिखे अपने लेख में बताते हैं कि कैसे कलकत्ता के रिक्शेवालो से कुछ दिन बात-चीत कर के उन्हे अपने फँसे हुए उपन्यास का उद्धार करने की प्रेरणा मिली। यह पूरा डिज़ाइन पश्चिम में बैठे उन उपभोक्ताओं के लिए ज़रूर कारगर और आकर्षक होगा जो भारत की साँपों, राजपूतों और राज वाली छवि से ऊब चुके हैं और भारत में अमीर और ग़रीब के बीच फैलते हुए अन्तराल में रुचि दिखा रहे हैं।


मगर मेरे लिए इस किताब को पढ़ना इतना उबाऊ अनुभव रहा कि पचासेक पन्ने के बाद मैं अपने आप से सवाल करने लगा कि मैं ऐसे वाहियात किताब पर क्यों अपना समय नष्ट कर रहा हूँ, जिसे कु़छ वैसे ही चालाकी से लिखा गया है जैसे मैं कभी टीवी सीरियल लिखा करता था। जो मुझे मेरे भारत के बारे में जो कुछ बताती है वो मुझे उस विवरण से कहीं बेहतर मालूम है। और जिन चरित्रों के जरिये बताती है वो न तो सहानुभूति करने योग्य बनाए गए हैं और न ही किसी मानवीय तरलता में डूब के बनाए गए हैं। मुझे अफ़सोस है कि मैं एक उपन्यास से कहीं अधिक उम्मीद करता हूँ।

मैं नहीं जानता कि अडिगा को बुकर पुरस्कार दिए जाने के पीछे क्या मानक रहे होंगे? मैं जान भी कैसे सकता हूँ.. पश्चिम के नज़रिये से भारतीय सच्चाई को देखने की तरकीब कुछ और ही होती है? तभी तो ग्यारह बार नामांकित होने के बाद भी नेहरू को कभी नोबेल शांति पुरस्कार नहीं मिला; गाँधी जी की तो बात छोड़ ही दीजिये। लेकिन कलकत्ता के पेगन नरक में बीमारों की सुश्रूषा करने वाली एक नन, मदर टेरेसा को शांति पुरस्कार के योग्य माना गया।



(ओड़िसा में पिछले दिनों हुई बर्बरता के लिए बजरंग दल और अन्य हिन्दू संगठनो की जितनी निन्दा की जाय कम है। उन पर सरकार प्रतिबंध क्यों नहीं लगाती, उसके पीछे शुद्ध राजनीतिक कारण हैं। मगर धर्म परिवर्तन में संलग्न चर्च की संस्थाएं, बजरंग दल की तरह आपराधिक सोच के भले न हों पर निहायत निर्दोष मानसिकता से अपना कार्य-व्यापार चला रहे हैं , ऐसा सोचना भी बचकाना होगा।)

शनिवार, 11 अक्तूबर 2008

नए शग़ल


एक लम्बे समय तक ब्लॉग से दूर रहने के बाद लौटना हो रहा है। मेरी पिछली पोस्ट अगस्त में लिखी गई थी। इन चालीस दिन के के दौरान मैं छुट्टी पर रहा। जो लोग मेरे जीवन को जानते हैं वे कह सकते हैं कि मैं छुट्टियों की गतिविधियों से छुट्टी पर चला गया। और उनका ये कहना ग़लत नहीं होगा।
कभी-कभी मन में एक अपराध-भावना जागती है कि जब कि शेष संसार धंधे पर लगा हुआ है, पैसे कमाने की जुगत में दिन-रात एक कर के फ़ुरसत को तरस रहा है; उस लिहाज़ से मेरा ऐसा जीवन कितना उचित और नैतिक है? मगर विवेक निर्णय देता है कि मुक्ति सबसे मूल्यवान है और छुट्टी दरअसल मुक्ति का ही लोकप्रिय रूप है। सो सब सही है.. !

तो साहब.. लगभग महीने भर के लिए मुम्बई से निकला था, साथ में कुछ काम भी था। सोचा था कि लिखना ही तो है.. लैपटॉप साथ लिए था, जैसे यहाँ तैसे शेष जहाँ। मगर ऐसा कुछ नहीं हुआ। एक वाक्य तक नहीं लिखा गया। दिल्ली के मुग़लिया इमारतों का दर्शन किया गया। ल्यूटन की बनाई नई दिल्ली को आह भर-भर के फेफड़ो में भरा गया और मेरे बड़े भाई संजय तिवारी (विस्फोट ब्लॉग वाले नहीं) के ज़रिये दो नए शग़ल में शिष्यत्व लिया गया।
भाईसाहब पुराने चिड़ीनिहार (बर्ड-वाचर) हैं, और जब से उन्हे रक्तचाप की शिकायत हुई और ऐलोपैथी के दवातंत्र ने अपने शिकंजे उन पर कसने शुरु किए, उन्होने दवाओं का जुआ शरीर से उतार फेंकने के लिए टहलने का एक भयानक कार्यक्रम अपना लिया जिसमें वो रोज़ाना आठ-दस किलोमीटर टहलने लगे। दवाएं फेंक दी, रक्तचाप क़ाबू में आ गया और उन्होने अपने निहारने के शौक़ में चिड़ियों के साथ-साथ पेड़ों को भी शामिल कर लिया।
भाईसाहब के साथ रोज़ाना दिल्ली के मुख्तलिफ़ बाग़-बगीचों में टहलते हुए मुझे भी इस गतिविधि में आनन्द मिलने लगा। और दिल्ली के बाद कानपुर और इलाहाबाद के भी बगीचों और गंगा किनारों के तमाम पेड़ों और चिड़ियों को पहचानने का ये उत्साह मुम्बई भी ले कर चला आया हूँ।
मुम्बई इस मामले में थोड़ा अभागा है। यहाँ पर अंग्रेज़ों ने कोई भी कम्पनी बाग़ नहीं बनाया। जी! ये लिखते हुए मुझे दुःख हो रहा है कि आज के हिन्दोस्तान में प्रकृति के नाम पर शहरों के भीतर जो कुछ भी है वो अंग्रेज़ो की विरासत है। चाहे वो ल्यूटन की बनाई दिल्ली के बाग़-बगीचे और सड़को के किनारे लगाए गए पेड़ों की व्यवस्था हो या कानपुर और इलाहाबाद जैसे शहरों के कम्पनी बाग़- उन्ही की सोच का नतीजा हैं।
हम हिन्दुस्तानियों ने उनके जाने के साठ साल के बाद कुछ भी नहीं बनाया- शहरों में एक क़ायदे का बाग़ नहीं और जो कुदरती जंगल हैं उन्हे लगातार नष्ट करते आ रहे हैं। मुम्बई के फेफड़े कहे जाने वाले संजय गाँधी नेशनल पार्क और आरे कॉलोनी को भी चारों तरफ़ से कुतरा जा रहा है। आने वाले दिनों की स्थिति, अगर सम्हला न गई तो, भयानक होगी।
खैर! इस बीच किताबें तो खरीदता भी रहा और पढ़ता ही रहा। मगर दो किताबें जो सबसे अधिक पलटी गईं वे रहीं- डॉ सालिम अली की ‘द बुक ऑफ़ इंडियन बर्ड्स’ और प्रदीप क्रिशन की ‘ट्रीज़ ऑफ़ डेल्ही’। सालिम अली की प्रतिभा से तो सभी परिचित हैं मगर फ़िल्म डाइरेक्टर प्रदीप क्रिशन की किताब बेहद शानदार है। किताब का शीर्षक दिल्ली के पेड़ो तक अपने को सीमित करने का आभास ज़रूर देता है, मगर इसके अन्दर भारत के मुख्य पेड़ो के बारे में जानकारी बेहद क़रीने से दी गई है।
मज़े की बात यह है कि प्रदीप क्रिशन कोई वनस्पति-विज्ञान के विशेषज्ञ न थे मगर उन्होने अपने से ही अध्ययन करके स्वयं को इतना शिक्षित कर लिया कि समाज को एक कमाल की किताब का योगदान कर सके। इस प्रयास में उन्हे सात-आठ साल लगे, घूम-घूम कर के पेड़-दर्शन किए और जम कर आनन्द लिया होगा इस में मुझे कोई शक़ नहीं है। एक पेड़ को पहचानना, प्रकृति के साथ आप के एक खूबसूरत रिश्ते की शुरुआत बन सकता है और गहरे निर्मल-आनन्द का स्रोत भी।

किताब में २५२ पेड़ों का विवरण दिया है मैंने अस्सी के आसपास पहचान लिए हैं, जिसे लेकर मैं खूब प्रसन्न हूँ। इस किताब को शुरु करने के पहले शायद में आठ-दस को पहचानता रहा होऊँगा। चिड़ियों को भी पहचान रहा हूँ पर उस गति से नहीं; चिड़िया पेड़ की तरह एक जगह स्थिर तो रहती नहीं ना।
कमाल की बात ये है कि उसी पुराने दृश्य में अब नई दिलचस्प चीज़ें दिखने लगी हैं।
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