गुरुवार, 29 मई 2008

क्या फूटने वाला है बुलबुला?

इन दिनों हालात कुछ अच्छे नहीं जान पड़ते। चन्द महीनों पहले तक लग रहा था कि शहरों की सम्पन्नता गाँवों की दरिद्रता से चपक के पनप रही है.. पर हाल में स्थितियाँ जिस तेजी से बदली है.. उस से शहरों और शहरी सभ्यता की सम्पन्नता की सारी हवा निकलती हुई सी लग रही है।

पहले तो पूरे संसार में खाद्यान्न का संकट जिसका ठीकरा बुद्धिशाली बुश ने भारत के बढ़ते मध्यवर्ग पर फोड़ दिया.. और फिर अब ये तेल का संकट.. जिसके लिए कौन ज़िम्मेवार है बुश साहब भी नहीं बता रहे!

पिछले दस सालों में तेल की क़ीमत दस डॉलर प्रति बैरल से एक सौ तीस डॉलर प्रति बैरल जा पहुँची है। जो चार महीने पहले कुल सौ डॉलर थी और साल के अंत में दौ सौ तक भी पहुँच जाए तो हैरत नहीं होनी चाहिये। चुनावी वर्ष में महँगाई को दबा कर रखने के लिए सरकार तेल कम्पनियों को दीवालिया होने की कगार तक धकेले जा रही है।

अगर केरोसिन, डीज़ल और कुकिंग गैस ड्योढ़े दामों पर बिकने लगे तो महँगाई का क्या हाल होगा? और ये दाम क्या वहीं रुकने वाले हैं..? वो तो दुगने तिगुने और चौगुने भी होते जाएंगे जैसे कि ओपेक की दशा और दिशा है। उस का प्रभाव पूरे अर्थतंत्र पर क्या होगा ये बताने की ईमानदारी किसी अर्थशास्त्री में नहीं दिखती.. सारे के सारे अर्थवेत्ता, सरकार और मीडिया जनता को विकास दर और सेंसेक्स की उछाल और पछाड़ में ही उलझाए रखते हैं।

हर आदमी जानता है कि अभी की महँगाई की वजह खाद्यान्न की कमी और उनकी बढ़ी हुई क़ीमतें हैं। ग़ौरतलब बात ये है कि ये क़ीमतें मूल उत्पादक यानी किसान के सिरे पर जस की तस हैं.. वो अभी भी अपना उत्पाद उन्ही माटी के मोल पे बेच रहा है जो उसे अस्तित्वविहीनता के मुहाने पर बनाए रखता है। मगर फिर भी दाम आसमान छुए जाते हैं.. कारण क्या है?

बाबा धूमिल ने कहा है कि लोहे का स्वाद लुहार से नहीं घोड़े से पूछा जाय.. । तो खेती-बाड़ी करने वाले अशोक जी बता रहे हैं कि गणित में सौ में सौ पाने वाले देश के महान अर्थशास्त्री जन अनाज के दामों की ज़रा सी जुम्बिश तक पकड़ लेते हैं मगर लोहे का मूस मुटा के हाथी हो जाय तो भी वो उन्हे नज़र नहीं आता?

पिछले छै महीनों में लोहे की क़ीमतें दुगनी हो चली हैं.. और दूसरी तरफ़ .. "आलू जैसी कुछ सब्जियां तो इतनी सस्ती है की किसानों की लागत तक नहीं निकल पा रही है। हमारे यहाँ आज की तारीख में किसानों से ढाई रूपए किलो की दर से आलू खरीदने को भी कोई व्यापारी तैयार नहीं।"

अशोक भाई आगे कहते हैं कि ".. अनाज की कीमतें अधिक हैं, तो सरकार ने किसानों को भी उन अधिक कीमतों का लाभ क्यों नहीं दिया? केन्द्र सरकार इस साल भी किसानों से गेहूँ की खरीद पिछले साल के समर्थन मूल्य 1000 रूपए प्रति क्विंटल की दर से ही कर रही है।सच तो यह है की महंगाई की सबसे अधिक मार किसानों पर ही पड़ी है। उनके जीवन-यापन का व्यय बढ़ गया, कृषि लागत बढ़ गयी, लेकिन अनाज का समर्थन मूल्य पिछले साल वाला ही रहा। ... धन्य हैं भारत भाग्य विधाता। समर्थन मूल्य पाई भर भी नहीं बढाया, फिर भी कह रहे हैं कि अनाज मंहगे हैं। लोहे की कीमत डबल हो गई, फिर भी फरमाते हैं कि कीमतें कम हो रही है।"

मुझे अर्थशास्त्र की पेचीदा गलियाँ किसी भूलभुलैया से कभी कम नहीं लगी। लेकिन रोटी एक हो और खाने वाले चार तो ये गणित समझने के लिए आप को किसी अर्थशास्त्री की ज़रूरत नहीं। कुछ लोग का मुग़ालता हो सकता है कि साधन असीमित है.. पर ज़ाहिर बात है.. चाहे लोहा हो या तेल.. सीमित मात्रा में है। और जिस तरह से विकास का कार्यक्रम चल रहा है उसमें विकास से ज़्यादा विकास-दर का महत्व समझ आता है.. जैसे विकास भी कोई असीमित परिघटना हो!

बढ़ना अच्छी बात है.. पर शरीर के कुछ हिस्से बढ़ें और कुछ नहीं तो उस शरीर को स्वस्थ कोई कैसे कह सकता है? .. उसे कैंसर-ग्रस्त ही कहा जाएगा। क्या इसे विड्म्बना कहा जाय या तर्क-गति कि समाज और उसके लोग एक ही बीमारी से ग्रस्त होते हैं। ज़मीन हो, पानी हो या हवा.. सब सीमित मात्रा में हैं। मगर सभ्यता के जिस संस्करण में हम रहे हैं वो (प्रकृति और मनुष्य दोनों के ही) शोषण की व्यवस्था को ही सभ्य मानता है उसकी दृष्टि से भारत की ग्राम्य व्यवस्था एक अविकसित, पिछड़े समाज की अभिव्यक्ति थी।

उस 'असभ्य' व्यवस्था में आप जिन से कुछ लेते थे- पेड़,नदी, पहाड़, हवा, गाय,धरती- सबकी पूजा करते थे.. रोज़-रोज़ धन्यवाद करते थे। इतनी संवेदना रखते थे कि जो आप के लिए जल कर रौशनी करते हैं उनको जल चढ़ाते थे। उस संवेदना के अभाव और शुद्ध लालच से प्रेरित इस व्यवस्था में अब जबकि प्राकृतिक संसाधन अपनी सीमा तक पहुँच रहे हैं.. ये सवाल मौज़ूँ हो जाता है कि क्या बुलबुला फूटने वाला है?

11 टिप्‍पणियां:

Shiv ने कहा…

बिल्कुल फूटने वाला है...मजे की बात ये कि बुलबुला बहुत बड़ा हो गया था...लिहाजा फूटेगा तो आवाज़ भी बहुत दूर-दूर तक सुनाई देगी....

किसानों को कर्ज माफी देकर जो लोग सोच रहे हैं कि किसानों का भला करने का इससे अच्छा तरीका और कहाँ होगा, बड़ा नुकसान कर रहे हैं किसानों का. एक बार तो सोच सकते थे कि इस पैसे से किसानों के लिए बुनियादी सुविधाएं दी जा सकती थीं क्या? लेकिन ऐसा करने से बड़ी समस्या है. ऐसा करने से किसानों की दस प्रतिशत तकलीफ कम होने का चांस है और ये बात इन लोगों को अच्छी नहीं लगेगी. ....कर्ज माफ़ी दे देने से तकलीफ थोडी देर के लिए कम हो जायेगी लेकिन फिर और जोर से वापस आ जायेगी.

अरे, हम ये क्या लिखते जा रहे हैं...अभय जी, वही बात है..बुलबुला फूटने वाला है.

azdak ने कहा…

फूटेगा, भई फूटेगा, आंख मूंदके फूटेगा.

Abhishek Ojha ने कहा…

बुश साहब कहें-ना-कहें उनके हिसाब से तो तेल की कीमतों का कारण भी तो भारत, चीन में बढ़ रही मांग ही है :-)
और बुलबुला तो फूटेगा ही, अब तेल की कीमतों का ही देख लें... सरकार बाज़ार में कीमते बधाएगी नहीं और जनता इल्युजन में पड़ी है... जिससे मांग भी लगातार बढ़ती जा रही है.

Arun Arora ने कहा…

बिल्कुल फ़ूटेगा जी ना फ़ूटे तो ज्यादा दिक्कत होगी

बालकिशन ने कहा…

स्थिति बड़ी ही भयावह होती जा रही.
आगे रास्ता भी कुछ नहीं दिख रहा है.
ऐसे मे बुलबुला क्या बहुत कुछ फूटेगा.
और जब ये फूटेगा तो एक आंधी चलेगी बड़ी तबाही होगी फ़िर शायद कोई रास्ता निकले.

बोधिसत्व ने कहा…

हालात वाकई खराब हैं....

Udan Tashtari ने कहा…

स्थितियाँ चिन्तनीय हैं. कभी भी फूट सकता है यह बुलबुला.

विजयशंकर चतुर्वेदी ने कहा…

केन्द्रीय वित्त मंत्री पी. चिदंबरम ने मंहगाई रोकने के लिए सीमेंट और स्टील कंपनियों पर साल भर का जो अंकुश लगाने की बात कही थी, पिछले बुधवार वह भी हटा दी है. पेट्रोलियम मंत्री मुरली देवड़ा सरकारी तेल कंपनियों का २५ हज़ार करोड़ रुपये का घाटा पाटने के लिए पीएम डॉक्टर मनमोहन सिंह पर दबाव डाल रहे हैं कि पेट्रोल १० और डीजल ५ रुपये प्रति लीटर बढ़ा दिया जाए. रसोई गैस कनेक्शन पिछले सोमवार को ८५० से १२५० रुपये कर दिया गया है. इनपुट बढ़ जाने की आड़ में रेगुलेटर मंहगा कर दिया गया है.

देखते जाइए कि बुलबुला जब फूटेगा तो कितने ज़ोर की गूँज होती है.

Anita kumar ने कहा…

excellent post

Ashok Pandey ने कहा…

इस हाल में तो बुलबुला फूटना ही है। और यदि ऐसा हुआ, सबसे बुरा असर गरीब तबके पर पड़ेगा, क्योंकि यह तबका अपनी आमदनी का एक बड़ा हिस्सा अपना पेट भरने पर ही खर्च कर देता है। फिर जो भोजन व अन्य जरूरी चीजों के लिए दंगे होंगे, वे अमीरों का चैन भी छीन लेंगे।

और हाँ, लोहे का स्वाद चखने-चखाने के लिए हार्दिक धन्यवाद।

अजित वडनेरकर ने कहा…

शानदार पोस्ट है अभय भाई । आप इस विषय पर भी लिख सकते हैं , जानकर आश्चर्य मिश्रित खुशी हुई ।

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