कहा जा रहा है कि क्रिकेट और बौलीवुडीय ग्लैमर का यह संगम सास-बहू को प्राइम टाइम पर कड़ी चुनौती देने को तैयार है। अगर यह सास-बहू को देश के मनोरंजन के आलू-प्याज़ के रूप में नहीं हटा पाया तो कुछ नहीं हटा पाएगा। हम समझ नहीं पा रहे हैं कि इतने बड़े-बड़े धनपशुओं को हुआ क्या है? हमें तो इस में हिट होने लायक कोई मसाला नहीं दिख रहा- हो सकता है कुछ रोज़ लोग उसके नएपन को परखने के लिए बीबी के हाथ से रिमोट छीनकर क्रिकेट को वरीयता दे दें। मगर एक बार हेडेन और धोनी को एक ही टीम का हिस्सा होते हुए देख लेने के बाद कोई क्यों रोज़-रोज़ बीबी से झगड़ा मोल लेगा.. मेरी समझ में नहीं आता?
जबकि आइ सी एल के कुछ मैचों में देख चुका हूँ कि विदेशी खिलाड़ी और देशी खिलाड़ी के बीच सहजता का वह सम्बन्ध नहीं होता जो एक टीम के दो खिलाडि़यों के बीच होता है। वैसा शायद काउन्टी क्रिकेट में भी नहीं होता है जहाँ किसी टीम में कितने विदेशी खिलाड़ी होंगे इस पर पाबन्दी भी होती है।
लेकिन यह जो आई पी एल नाम का तमाशा होने जा रहा है यह काउन्टी क्रिकेट और दुनिया भर में फ़ुटबाल के क्ल्ब कल्चर से भिन्न तो है ही सत्तर के दशक के केरी पैकर के नाइट क्रिकेट से भी कई क़दम आगे बढ़ा हुआ है। उस वर्ल्ड सीरीज़ क्रिकेट की तीन टीमें थीं- आस्ट्रेलिया, वेस्ट इंडीज़ और रेस्ट ऑफ़ द वर्ल्ड और उनमें खिलाड़ी अपनी राष्ट्रीयता के आधार पर ही चुने गए थे। मगर आई पी एल तो शुद्ध सर्कस है। सर्कस कभी-कभी देखने के लिए बड़ा रोचक है पर आप रोज़-रोज़ उसे देख कर वही उत्तेजना नहीं महसूस कर सकते।
तो सवाल यह है कि वह क्या चीज़ है जो हिन्दुस्तानी जनता को गांगुली को टीम से निकाल दिये जाने पर सड़क पर दंगा करने पर मजबूर कर देती है.. कैफ़ के अच्छा न खेलने पर उसके घर में आग लगाने को आतुर हो जाती है.. और सचिन को एक जीवित भगवान का दरजा देती है। क्या यह वही जज़बा नहीं है जो इंग्लैंड के फ़ुटबाल फ़ैन्स को दंगाई मानसिकता में बनाए रखता है? और मेरा ख्याल है कि इसी दीवानेपन के जज़्बे को नोटों में भुनाने के लिए बी सी सी आई इस आई पी एल नाम के तमाशे को आयोजित कर रही है और देश के पहले ही धन में डूब-उतरा रहे सुधीजन खिलाड़ियों की बोलियाँ करोड़ों में लगा रहे हैं।
इतने सारे धन-सुधी लोगों को इस लालायित अवस्था में देख कर मुझे अपनी बुद्धि पर शंका होने लगती है। शंका इसलिए कि मुझे नहीं लगता कि यह कोई मुनाफ़े का सौदा हो रहा है- ये लोग जो बेचने वाले हैं मैं तो नहीं खरीदने वाला। जबकि मैं टेस्ट क्रिकेट और वन डे क्रिकेट का खरीदार हूँ। लेकिन आई पी एल की शहर आधारित टीम किस आधार पर लोगों के भीतर वफ़ादारी की उम्मीद करती है। जबकि आई पी एल की किसी भी पर टीम के अन्दर उस शहर के लोग इक्के दुक्के हैं?
अब मैं और मेरे कनपुरिया भाई किसे टीम का समर्थन करें समझ नहीं आ रहा? बंगलोर वाले बंगलोर का समर्थन करें या मुम्बई का जहाँ से रौबिन उत्थपा खेलेगा? और शायद ये सोचा जा रहा है कि राँची समेत सभी झारखण्डी चेन्नई के लिए अपने धड़कनें तेज़ करने कि लिए तैयार बैठेंगे? क्यों भाई?
और अगर इनमें से किसी टीम के साथ मेरे दिल की भावना नहीं जुड़ेगी तो मैं सब कुछ छोड़कर इन के मैच क्यों देखने लगा? आज भी मैं खेल भावना से इतना परिपूर्ण नहीं हो पाया हूँ कि भारतीय टीम को आसानी से हारता हुआ देख सकूँ- भई खेल है.. एक टीम जीतेगी.. एक हारेगी। लेकिन मुझसे नहीं देखा जाता.. मैं टीवी बंद कर देता हूँ। लेकिन आई पी एल की किसी भी टीम को हारते हुए देख कर मुझे कोई दुख नहीं होने वाला.. मैं जो एक आम दर्शक हूँ।
एक तरफ़ तो लोग भूमि पुत्र और स्थानीयता की राजनीति में अभी भी भविष्य देख रहे हैं और दूसरी तरफ़ हमारे धन-सुधीजन इतनी प्रगतिशील उम्मीदें भी रखते हैं कि दर्शकों द्वारा एक टीम की वफ़ादारी बजाने के लिए उस टीम में स्थानीय खिलाडि़यों की बहुतायत होना कोई ज़रूरी शर्त नहीं। इस वफ़ादारी का सम्बन्ध सीधा इस फ़ौर्मैट की सफलता से है.. तो क्या यह बात आई पी एल के आक़ा नहीं समझते..? समझते होंगे.. उनको मूर्ख समझना एक बड़ी मूर्खता होगी..
वे मूर्ख नहीं है पर इस देश में चीज़ों को नीचे से बदलने की कोई परम्परा नहीं है.. ऊपर-ऊपर से बदलाव कर के फटाफट खुद मलाई खाने की नीयत बनी रहती है सभी की। शरद पवार एंड पार्टी चाहते तो रणजी ट्रौफी को ही धीरे-धीरे एक तरह के क्लब कल्चर में विकसित कर सकते थे.. मगर वो लम्बा रास्ता है.. उस रास्ते में मलाई पैदा होने में शायद दस बारह साल लगने का डर होगा उन्हे.. तब तक का सब्र किसे है? शार्ट कट है ना?
7 टिप्पणियां:
सही अभय, सचमुच सर्कस ही है।
सटीक ।
आई.पी.एल. को आई.सी.एल.से बड़ा दिखाने की कोशिश है।
अब इस बिकने-खरीदने मे खेल भावना कितनी रह जायेगी ये देखने वाली बात है।
वैसे भी खिलाड़ी खेले या ना खेली क्या फर्क पड़ता है बी.सी.सी.आई का तो खजाना भर ही गया।
सब बाज़ार, पैसे और ग्लैमर की माया है.
जनता को अगर जांच गया तो हिट गया नहीं तो समझो पिट गया.
वैसे अभी तक ठीक-ठाक ही चल रहा है.
दुख होता है अभय भाई । लगता है कि क्रिकेट कहीं WWF बनने की तरफ तो नहीं जा रहा । जहां हर मुक्का और हर पटखनी की कीमत होती है । क्रिकेट के हम शैदाईयों के पास अफ़सोस मनाने के सिवा कुछ नहीं । क्योंकि अख़बार और विश्लेषण कह रहे हैं कि ये टेबल प्रॉफिट वाला मामला है, जैसा फिल्म में हो रहा है । घोषणा होते ही हिट । दर्शक इसे हिट करे या हमारी आपकी तरह मूड़ खुजाए । कोई फर्क नहीं पड़ता ।
सब फायदे का कायदा है....इसे रोका नहीं जा सकता...
बहुत सटीक लिखा है। मेरी चिंता यही हे कि इस सर्कस के पीछे रणजी और दिलीप ट्राफी का भट्टा ना बैठ जाए। हमारे शहर के पास तो कोलकाता आता है पर वहाँ से रिकी पांटिंग को खेलता देख मेरी तो इच्छा नहीं करेगी उस टीम को सपोर्ट करने की। खैर सपोर्ट तो बाद की बात है पहले मेदान और टीवी के सामने दर्शक तो जुटें।
अब नहीं रहीं क्रिकेट के प्रति वैसी भावनायें और उत्साह....क्योंकि इस बाजार ने सब कुछ खा लिया है...चलो अच्छा है हमे लगा इसे होने में अभी समय लगेगा पर अब लगता है क्रिकेट के खत्म होने की उलटी गिनती शुरू हो गई है...अच्छा लिखा है आपने ...बधाई
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