मंगलवार, 5 फ़रवरी 2008

पूर्वग्रह की राजनीति

मेरी माँ और दूसरे शहरों में बैठे मित्र परेशान हैं कि मुम्बई में क्या हो रहा है? पहली बात तो यह कि यह पूरा मामला जितना बड़ा है उस से कई गुना बढ़ा-चढ़ा कर इसे पेश किया जा रहा है। और इसमें मीडिया की खबरखोरी का लोभ एक बड़ा कारण है। मगर ज़्यादा दुःखद इसमें राज्य सरकार की भूमिका है.. जो अराजक तत्वों को बेक़सूर लोगों को सताने दे रही हैं?

अब वो दिन नहीं रहे जब जनता नेता के पीछे चलती थी.. अब नेता जनता के पीछे चलता है। कोई भी बात कहने से पहले वो देख लेता है कि हवा का रुख क्या है। ऐसे में राजनीति का सबसे आसान रास्ता आम जन में व्याप्त पूर्वग्रहों की गली से होकर जाता है.. क्योंकि वहाँ असंतोष भी होता है और एक बना-बनाया दुश्मन भी।

अधिकाधिक पार्टी इस क़िस्म की राजनीति कर रही हैं.. अकेले मुम्बई ही नहीं, दुनिया के हर कोने में आप को इस तरह के पूर्वग्रह मिल जाएंगे.. जर्मनी में तुर्कों के खिलाफ़, फ़्रांस में नार्थ अफ़्रीकी मुस्लिम विस्थापितों के खिलाफ़, इंगलैण्ड में इण्डियन्स और पाकीज़ के खिलाफ़ और पिछले कुछ सालों में पूरी दुनिया में और खासकर अमरीका में, मुसलमानों के खिलाफ़ एक बनी बनाई सोच मौजूद होती है।

आदमी को जानने के पहले ही उसकी भाषा और चेहरे-मोहरे से उसके बारे में एक राय क़ायम कर ली जाती है। आम तौर पर इन पूर्वग्रह का एक भौतिक आधार भी होता है। मुस्लिमों के बारे में पूर्वग्रह की जड़ आतंकवाद से जुड़ा हुआ है मगर अन्य मामलों में यह विस्थापित मज़दूर के कम दामों में बिकने को तैयार हो जाने की वजह से स्थानीय मजदूर में पैदा हुए क्षोभ के चलते होता है। और भूमण्डलीकरण के इस दौर में इस तरह की राजनीति का भविष्य अर्थव्यवस्था के स्वास्थ्य पर निर्भर करेगा काफ़ी कुछ।

मुम्बई के इस मामले में विडम्बना की बात यह है कि यहाँ पर जिन विस्थापितों के खिलाफ़ मुहिम चलाया जा रहा है वो किसी दूसरे देश में नहीं अपने ही देश में नफ़रत का निशाना बन रहे हैं। मुम्बई में एक निम्न वर्गीय और निम्न मध्यम वर्गीय मराठी के मन में यह क्षोभ है कि यूपी बिहार के मज़दूरों के रेट गिरा कर उनके रोज़गार के अवसरों में सेंध लगाते हैं। राज ठाकरे इसी सोच का राजनैतिक फ़ायदा उठाना चाहते हैं। इस तरह की राजनीति बेहद खतरनाक है और चिंता का विषय है।

और चिंता का विषय यह भी है कि एक के बाद एक हर राज्य में यह तस्वीर उभर कर आ रही है कि क़ानून लागू किया जाएगा या नहीं इसका फ़ैसला इस बात को ध्यान में रख कर किया जा रहा है कि बहुसंख्यक राय क्या है? अगर बहुसंख्यक राह यह कि मुसलमानों को पिटना चाहिये तो हत्यारों को गिरफ़्तार करने से बचती रहेगी पुलिस। अगर सिवान की जनता भारी वोटों से शहाबुद्दीन को जिताती है तो वे बीसियों क़त्ल और कई नॉन बेलेबल वारन्ट के बावजूद पूरे भारत को अपना अभयारण्य समझ सकते हैं और केन्द्रीय मंत्रियों के गले में हाथ डाल कर संसद में घूम सकते हैं ।

अगर बहुसंख्यक राय यह है कि आधी रात को शराब पी कर होटल से बाहर निकलने वाली औरत परोक्ष रूप से बलात्कार आमंत्रित कर रही है तो उस पर हमला करने वालों को पुलिस सहानुभूति की दृष्टि से देखेगी। मेरा ख्याल है कि वही मानसिकता विलासराव देशमुख को राज ठाकरे को गिरफ़्तार करने से रोके हुए है। वे अभी तौल रहे हैं कि आम राय कितनी राज ठाकरे के साथ है?

राज ठाकरे साहब अपनी महत्वाकांक्षाओं के चलते शिवसेना से अलग हो गए। शिवसेना की सीमाओं को समझते हुए उन्होने एक धर्म निरपेक्ष छवि बनाने की कोशिश में अपने झण्डे में एक हरी पट्टी भी डाली पर चुनाव में उनको दो-ढाई प्रतिशत वोट भी नहीं मिला। बजाय एक लम्बी राजनैतिक पारी के लिए धीरज पैदा करने के वे हड़बड़ी और जल्दबाज़ी में अपने चाचा के पुराने हथकण्डों को दोहरा रहे हैं। ये हथकण्डे उस समय थोड़े चल भी गए थे अब अपने दुहराव में चलेंगे, इसमें मुझे शक़ है।

मैं मुम्बई में पन्द्रह साल से हूँ और मैंने मराठियों को बहुत सरल, शांतिप्रिय और अपने काम से काम रखने वाले समुदाय के रूप में जाना है। आम मराठी शिवसैनिक नहीं है। शिव सेना बनने के चालीस साल के इतिहास में शिवसेना को अभी तक सिर्फ़ एक बार ही राज्य में सरकार बनाने का मौका़ मिला है- १९९२-९३ के साम्प्रदायिक दंगो के बाद वाले चुनाव में.. वो भी भाजपा के साथ गठबन्धन बना कर ही।

टीवी क्लिप्स में ठेले का सामान गिराने वाले युवकों की चेष्टा में मुझे जज़बात की गर्मी नहीं एक सोची समझी ठण्डे दिमाग की कार्रवाई दिखी। पहले से तय कर के आए थे कि दो चार टैक्सी वालों को पीटेंगे और दो चार ठेले उलटा देंगे। ज़ाहिर है कि इसमें कोई ऐसी भावना नहीं है जो जुनून बन के कोई हंगामा बरपा कर सके। मेरी समझ में यह मामला अपनी राजनैतिक ज़मीन बनाने की या शिवसेना की राजनैतिक ज़मीन हथियाने की एक ऐसी चाल है.. जिसके जाल में मीडिया तो फँस गया पर मराठी माणूस फँसेगा या नहीं ये तो वक्त ही बताएगा।

8 टिप्‍पणियां:

बोधिसत्व ने कहा…

भाई मैं आपसे सहमत हूँ लेकिन मैं उत्तर भारतीयों की हिफाजत और इनको करारा उत्तर देने के लिए एक 'उत्तर सेना' बनाने के पक्ष में हूँ...

अनुनाद सिंह ने कहा…

आपका ये 'पूर्वग्रह', अर्थ का अनर्थ कर रहा है।

पूर्वाग्रह = पूर्व + आग्रह ; अंग्रेजीमें बोले तो 'बायस'

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azdak ने कहा…

लोगों को ज़रा पता करना चाहिए शिव उद्योग सेना का आवेदन पत्र भरने के पीछे जो ठेल-ठेलकर मराठी माणूसों ने नन-रिफंडेबल नोट भरे थे, उनमें से कितने लाख मराठियों ने अंतत: राजाबाबू की सुलझी नज़र के नीचे रोज़गार का प्रसाद पाया! या अपनी टेंट में धरे कोहिनूर मिल्‍स के पुनर्विकास में मिल कंपाउंड के अंदर की ज़मीन की जो खरीद-फरोख्‍त राजकुंवर ने की है, वह ज़मीन मराठियों में ही बांटा या जिसकी टेंट में ज़्यादा नोट था, वह कहां-किस प्रदेश का था इससे कोई फर्क नहीं पड़ता, सो फकत उसीके पीछे दुम हिलाते रहे?

अभय तिवारी ने कहा…
इस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.
अभय तिवारी ने कहा…

अनुनाद, आप के चेताए जाने पर मैंने शब्दकोशों की सहायता ली.. अरविन्द कुमार के समांतर कोश में पूर्वग्रह और पूर्वाग्रह दोनों मिले.. कामिल बुल्के में बायस का अर्थ पूर्वग्रह लिखा मिला..शायद दोनों प्रचलित हैं..
आप ने पूर्वाग्रह का सन्धि-विच्छेद सही बताया.. उसी तरह से पूर्वग्रह का सन्धिविच्छेद पूर्व + ग्रह होगा.. आग्रह और ग्रह में कोई अधिक अन्तर नहीं है.. दोनों को अर्थ पकड़ना ही है.. इसलिए यथावत रहने दे रहा हूँ.. आप को कोई और प्रमाण मिले हों तो बतायें..

बोधिसत्व ने कहा…

अभय जी आप ठीक हैं...
आचार्य रामचंद्र वर्मा ने लोकभारती वाले कोश में पूर्वग्रह को ही प्राथमिक माना है....
पूर्वाग्रह को पूर्वग्रह के बराबर कहा है...

अनुनाद सिंह ने कहा…

अभय जी और बोधिसत्व जी,

मैने भी आनलाइन उपलब्ध शब्दकोशों से 'पूर्वग्रह' और 'पूर्वाग्रह' शब्द ढ़ूढ़ने की कोशिश की। 'पूर्वाग्रह' शब्द तो कई जगह मिल रहा है किन्तु 'पूर्वग्रह' शब्द कहीं नहीं मिला।

दूसरी बात यह है कि 'पूर्वग्रह' में कोई सन्धि नहीं है; समास अवश्य हो सकता है - पूर्व का ग्रह (पूर्वस्य ग्रहम )

अभय तिवारी ने कहा…

अनुनाद जी, अगर आप नेट का ही प्रमाण चाहते हैं तो यहाँ देखें.. http://www.shabdkosh.com/en2hi/search.php?e=bias&f=0

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