बुधवार, 13 फ़रवरी 2008

मुंबई के झगड़े के पीछे क्या है?

आज के नवभारत टाइम्स में इतिहासकार अमरेश मिश्र का एक लेख आया है जिसमें मुंबई में उत्तर भारतीयों के खिलाफ़ जो माहौल बनाया जा रहा है उसके पीछे की एक लम्बी राजनीति पर से पर्दा उठाया गया है.. उनकी सहमति से यह लेख यहाँ छाप रहा हूँ..

मुंबई के झगड़े के पीछे क्या है?

अमरेश मिश्र

हाल के दिनों में महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना ने मुंबई में बसे उत्तर भारतीयों को लेकर नाराजगी दिखानी शुरू कर दी है। इस मुद्दे पर छिटपुट हमले हुए हैं और फिलहाल सियासत गर्म है। मुंबई की दो करोड़ आबादी में करीब साठ-सत्तर लाख उत्तर भारतीय हैं। लेकिन इनमें से ज्यादातर को अब भी अहसास नहीं कि मामला क्या है। इन घटनाओं का एक छुपा पहलू यह है कि मराठीवादी सियासत के नाम पर सवर्ण और अवर्ण यानी अगड़े और पिछड़े की राजनीति चल रही है।

शिव सेना की मराठीवादी राजनीति एक खास सवर्ण वर्ग के पूर्वाग्रहों से संचालित रही है। पिछले कुछ अरसे में मराठियों के भीतर अगड़े और पिछड़े का संघर्ष तेज हुआ है। मराठी ओबीसी सत्ता में अपनी हिस्सेदारी मांग रहे हैं। इसी के जवाब में, यानी पिछड़ों की दावेदारी को ध्वस्त करने के लिए इस वक्त मराठी माणूस की एकता का यह नारा लगाया गया है। उत्तर भारतीय तो इस सियासी खेल में सिर्फ एक मोहरा हैं।

लेकिन सवर्ण और अवर्ण के बीच बनते-बिगड़ते रिश्तों का इतिहास आज का नहीं है। इसे देश और मुंबई के इतिहास के संदर्भ में देखना होगा, जहां समाज, सियासत और पैसे का भी रोल है। इसी में उत्तर भारतीयों और मराठियों के आपसी रिश्ते की कहानी भी मौजूद है।

इतिहास में मुंबई कोई खालिस सवर्ण शहर नहीं रहा है। मुंबई पहले बंबई था और इसे अंग्रेजों ने बनाया था, यानी इतिहास में इसकी दखल बाद में शुरू हुई। शिवाजी महाराज के जिस आंदोलन से मराठियों को पहचान और सम्मान मिले थे, उसका केन्द्र रायगढ़ था। पेशवाओं की राजधानी पुणे थी। बंबई महज कुछ टापुओं के रूप में मौजूद थी। पहले इन टापुओं पर पुर्तगालियों का कब्जा था। सत्रहवीं सदी में ये अंग्रेजों के हाथ आए। यहां जो कोली समाज बसता था, वह अवर्ण था। उसे न तब और न अब सत्ता का सुख हासिल हुआ।

औरंगजेब के समय पुर्तगालियों को बंबई से खदेड़ने की कोशिश हुई। मराठों से भी पुर्तगालियों और अंग्रेजों की जंग हुई। लेकिन पश्चिम भारत में सक्रिय भारतीय ताकतों ने बंबई को कभी अपना सियासी या व्यापारिक केन्द्र नहीं बनाया। मुगल और मराठा काल में भी गुजरात के सूरत जैसे शहरों को यह दर्जा हासिल रहा। बंबई एक बड़ा व्यापारिक केन्द्र बन कर उभरा उन्नीसवीं सदी के शुरुआती दौर में। अंग्रेजों को एक नए पूंजीवादी सेंटर की तलाश थी, जिसे उन्होंने बंबई में आकार दिया। अंग्रेज उस समय भारत के उद्योगों का नाश कर रहे थे। उनकी मुख्य गतिविधि थी भारत से कच्चा माल एक्सपोर्ट करना और इंग्लैंड से तैयार माल इम्पोर्ट करना। गुजरात के पोर्ट अपनी मराठा-मुगल संस्कृति के चलते इस मकसद में पूरी तरह सहायक नहीं हो सकते थे।

मुंबई का इस्तेमाल उस अफीम व्यापार के लिए भी हो रहा था, जिसके तहत चीनियों से माल लेकर उन्हें अफीम दी जाती थी। इस व्यापार में अंग्रेजों के मददगार थे मुंबई के पारसी और दूसरे धनी लोग। मुगलकाल में पारसी पूंजीपतियों का नाम कम सुनाई पड़ता था। उस वक्त गुजराती पूंजीपति ही हावी थे। लेकिन अफीम व्यापार में पारसियों के रोल ने 1857 के आसपास उन्हें बंबई में सबसे ताकतवर बना दिया। जगन्नाथ शंकरसेठ को छोड़ कर कोई भी मराठी इन पारसियों की बराबरी नहीं कर सकता था। पारसियों के बाद गुजरातियों के पास ही दौलत थी।

मुंबई में उत्तर भारतीयों का आना 1857 के आसपास ही शुरू हुआ। सन सत्तावन की क्रांति के दौरान जहां शंकर सेठ जैसे लोगों को गिरफ्तार कर यातनाएं दी गईं, वहीं पारसियों को वफादारी का इनाम मिला। पूरे महाराष्ट्र में सत्तावन की जंग जोरदार तरीके से चली, लेकिन इसमें ज्यादातर हिस्सेदारी ओबीसी कोली, महार और भील समुदायों ने ही की। कुछ जगह चितपावन ब्राह्माण भी लड़े, लेकिन बाल ठाकरे जिस जाति से आते हैं, वह इस जंग से अलग ही रही। कुल मिलाकर पिछड़ी जातियों ने ही अंग्रेजों से लोहा लिया। यह बात बाबासाहेब आंबेडकर ने 21 अक्टूबर 1951 को लुधियाना में दिए गए अपने भाषण में मानी थी।

सन सत्तावन की क्रांति में बंगाल आर्मी की रीढ़ थे उत्तर प्रदेश और बिहार के हिंदू और मुस्लिम पूरबिए। वही कश्मीर से लेकर कन्याकुमारी और मणिपुर से महाराष्ट्र तक राष्ट्रीयता की भावना से लड़े। पूरे महाराष्ट्र में पिछड़ी जातियों ने उत्तर भारतीयों के साथ मिलकर मोर्चा खोला था।

जब 1857 के बाद बंबई में औद्योगीकरण की शुरुआत हुई, तो उत्तर भारतीय कामगार उसकी वर्क फोर्स का हिस्सा बन गए। लेकिन बहुमत अवर्ण मराठियों का ही रहा। इनमें से ज्यादातर मराठवाड़ा और उत्तर महाराष्ट्र से आए थे। बीसवीं सदी के शुरुआती दौर में जब आजादी का आंदोलन नया मोड़ ले रहा था, उसी समय से ओबीसी मराठी और उत्तर भारतीय कामगार एक साझा ताकत बनकर उभरने लगे थे। बालगंगाधर तिलक की गिरफ्तारी के बाद जब बंबई में हड़ताल हुई, तो एक नई ताकत का जन्म हुआ। इस ताकत ने आजादी की लड़ाई में कांग्रेस और कम्युनिस्टों का साथ दिया। आजादी के बाद यह कम्युनिस्टों की रीढ़ बनी रही। यही अवर्ण समुदाय था, जिसने बंबई को मुंबई बनाया। इससे भी पहले गिरगांव जैसे इलाकों में एक साझा मराठी-उत्तर भारतीय संस्कृति परवान चढ़ी।

1960 में कांग्रेस की मदद से शिवसेना का उभार होने लगा। उस वक्त कांग्रेस सवर्ण मराठी लीडरशिप के हाथों में थी। अवर्ण मराठियों को कम्युनिस्टों से अलग करने के लिए शिवसेना को आगे बढ़ाया गया। दत्ता सामंत की हड़ताल शायद अवर्ण मराठियों के लिए सबसे गौरवशाली दौर था। लेकिन इसी हड़ताल के दौरान पारसी पूंजीपतियों और सवर्ण मराठियों के बीच वह गठजोड़ उभरा, जिसने बंबई का चरित्र बदल कर रख दिया। बंबई मैन्युफैक्चरिंग के सेंटर से बदलकर फाइनैंस और जायदाद के कारोबार का सेंटर बन गई। सवर्ण मराठी सामंतशाही ने धीरे-धीरे सवर्ण मध्यवर्ग को भी खुद से अलग कर दिया।

मराठीवाद का नारा देने वाले लोग इसी सामंतशाही का हिस्सा हैं। बंबई के मुंबई बनने के बाद नब्बे के दशक में उसके चरित्र में और भी बड़े बदलाव आने लगे। अवर्ण मराठियों की ताकत टूट चुकी थी। उसी वक्त नए पेशों में (जिसे सर्विस सेक्टर कहा जा सकता है) उत्तर भारतीयों का दबदबा बढ़ने लगा। इसमें उत्तर भारत की कमजोर इकॉनमी का रोल उतना बड़ा नहीं था, जितना कि मुंबई में पैदा हो रही नई डिमांड का। सर्विस सेक्टर को ऐसे लोग चाहिए थे, जो महज कामगार न हों, थोड़ा पढ़े-लिखे भी हों।

पारसी पूंजीपतियों से मिलकर सवर्ण मराठियों ने पहले अवर्ण मराठियों की ताकत तोड़ी, फिर जब उत्तर भारतीय खुद को साबित करने लगे, तो यह नया मराठीवाद खड़ा कर दिया गया। आज के दौर में यह पिछड़ा सोच है। इस झगड़े से बहुसंख्य पिछड़े मराठियों को कोई लेना-देना भी नहीं है। इसलिए आज एक बार फिर उत्तर भारतीयों, पिछड़े मराठियों और दलितों के साझा मोर्चे की मुंबई को जरूरत है।

अमरेश मिश्र इतिहासकार हैं जो लम्बे समय तक सामाजिक-राजनैतिक आंदोलन से भी जुड़े रहे हैं.. उनकी नई किताब War of Civilisations: India AD 1857 बाज़ार में उपलब्ध है.. जिसे रूपा एंड कम्पनी ने छापा है..

11 टिप्‍पणियां:

अजित वडनेरकर ने कहा…

जबर्दस्ती के बौद्धक प्रलाप से दूर एक ज्ञानवर्धक, सारगर्भित आलेख । पढ़वाने के लिए शुक्रिया। लेखक आपके परिचित लगते हैं, उन तक मेरा आभार पहुंचा दें।

Manish Kumar ने कहा…

शुक्रिया इस जानकारी के लिए !

Kirtish Bhatt ने कहा…

सच है.. इतनी शैतानी सोच एक आम आदमी की नही हो सकती... अंदर की बात बताने के लिए धन्यवाद.

azdak ने कहा…

बाबू अम्‍बरीश जी मिश्रा धन्‍य हों..

Yunus Khan ने कहा…

दिमाग़ के कई दरीचे खुल गये भई । एकदम सामयिक और जरूरी जानकारी । आभार ।

Tarun ने कहा…

पढ़वाने के लिये शुक्रिया अभय, काफी जानकारी मिली पढ़कर। अमेरसजी को भी धन्यवाद कहें

रजनी भार्गव ने कहा…

लेख बहुत अच्छा लगा।, आभार सहित

Anita kumar ने कहा…

बहुत ही ज्ञानवर्धक लेख है, काफ़ी नयी जानकारी मिली, धन्यवाद आप का भी और अमरेश जी का भी कौशिश करुंगी कि ये किताब खरीद सकूं।

Batangad ने कहा…

गजब की जानकारी है। जितने ज्यादा लोगों तक पहुंचे अच्छा होगा। अमरेशजी को इसके लिए धन्यवाद।

मुनीश ( munish ) ने कहा…

very confusing ! keep life simple yar. Raj was not getting what he thought he deserved and he just played "son of soil " card which is nothing new. it happens all the world over. it is simply the weakness of law n order enforcing agencies that he is roaming free. the same thing is happening in Assam ,how will u explain it? I am sorry to say dat im not impressed!

अनूप शुक्ल ने कहा…

अच्छा लेख है। धन्यवाद इसे पढ़वाने के लिये।

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