अध्याय ७:
छुआछूत की उत्पत्ति का आधार - नस्ल का अन्तर
समाज शास्त्री स्टैनली राइस के मतानुसार अस्पृश्यता दो बातों से उत्पन्न हुई; नस्ल और पेशा। दोनों बातों पर अलग अलग विचार करना होगा, इस अध्याय में हम नस्ल के अंतर से छुआछूत की उत्पत्ति के सिद्धान्त के सम्बन्ध में विचार करेंगे।
श्री राइस के नस्ल के सिद्धान्त के दो पहलू हैं;
१. अछूत अनार्य हैं, अद्रविड़ हैं, मूल वासी हैं, और
२. वे द्रविड़ो द्वारा पराजित हुए और अधीन बनाए गए
श्री राइस के मतानुसार भारत पर दो आक्रमण हुए हैं। पहला आक्रमण द्रविड़ों का, जिन्होने वर्तमान अछूतों के पूर्वज भारत के अद्रविड़ मूल निवासियों पर विजय प्राप्त की और फिर उन्हे अछूत बनाया। दूसरा आक्रमण आर्यों का हुआ, जिन्होने द्रविड़ों को जीता। यह पूरी कथा बेहद अपरिपक्व है तथा इस से तमाम प्रश्न उलझ कर रह जाते हैं और कोई समाधान नहीं मिलता।
प्राचीन इतिहास का अध्ययन करते हुए बार बार चार नाम मिलते हैं, आर्य, द्रविड़, दास और नाग। क्या ये चार अलग अलग प्रजातियां हैं या एक ही प्रजाति के चार नाम हैं? श्री राइस की मान्यता है कि ये चार अलग नस्लें हैं।
इस मत को स्वीकार करने के पहले हमें इसकी परीक्षा करनी चाहिये।
I
अब ये निर्विवाद है कि आर्य दो भिन्न संस्कृतियों वाले हिस्सों में विभक्त थे। ऋगवेदी जो यज्ञो में विश्वास रखते और अथर्ववेदी जो जादू टोनों में विश्वास रखते। ऋगवेदियों ने ब्राह्मणो व आरण्यकों की रचना की और अथर्ववेदियों ने उपनिषदों की रचना की। यह वैचारिक संघर्ष इतना गहरा और बड़ा था कि बहुत बाद तक अथर्ववेद को पवित्र वाङ्मय नहीं माना गया और न ही उपनिषदों को। हम नहीं जानते कि आर्यों के ये दो विभाग दो नस्लें थी या नहीं, हम ये भी नहीं जानते कि आर्य शब्द किसी नस्ल का नाम ही है। इसलिये यह मानना कि आर्य कोई अलग नस्ल है गलत होगा।
इससे भी बड़ी गलती दासों को नागों से अलग करना है। दास भारतीय ईरानी शब्द दाहक का तत्सम रूप है। नागों के राजा का नाम दाहक था इसलिये सभी नागों को आम तौर पर दास कहना आरंभ हुआ।
तो नाग कौन थे? निस्संदेह वे अनार्य थे। ऋगवेद में वृत्र का ज़िक्र है। आर्य उसकी पूजा नहीं करते। वे उसे आसुरी वृत्ति का शक्तिशाली देवता मानते हैं और उसे परास्त करना अपना इष्ट। ऋगवेद में नागों का नाम आने से यह स्पष्ट है कि नाग बहुत प्राचीन लोग थे। और ये भी याद रखा जाय कि न तो वे आदिवासी थे और न असभ्य। राजपरिवारों और नागों के बीच विवाह सम्बन्धों का अनगिनत उदाहरण हैं। प्राचीन काल से नौवीं दसवीं शताब्दी तक के शिलालेख नागों से विवाह सम्बन्ध की चर्चा करते हैं।
नाग सांस्कृतिक विकास की ऊँची अवस्था को प्राप्त थे, साथ ही वे देश के एक बड़े भूभाग पर राज्य भी करते थे। महाराष्ट्र नागों का ही क्ष्रेत्र है, यहाँ के लोग और शासक नाग थे। ईसा की आरम्भिक शताब्दियों में आंध्र और उसके पड़ोसी राज्य नागों के अधीन थे। सातवाहन और उनके छुतकुल शातकर्मी उत्तराधिकारियों का रक्त नाग रक्त ही था। बौद्ध अनुश्रुति है कि कराची के पास मजेरिक नाम का एक नाग प्रदेश था। तीसरी और चौथी शताब्दियों में उत्तरी भारत में भी अनेक नाग नरेशों का शासन रहा है, यह बात पुराणों, प्राचीन लेखों और सिक्कों से सिद्ध होती है। इस तरह के तमाम साक्ष्य हैं जो इतिहास में नागों के लगातार प्रभुत्व को सिद्ध करते हैं।
अब आइये द्रविड़ पर, वे कौन थे? क्या वे और नाग अलग अलग लोग हैं या एक ही प्रजाति के दो नाम हैं? इस विषय पर दक्षिण के प्रसिद्ध विद्वान दीक्षितय्यर ने अपने रामायण में दक्षिन भारत नामक लेख में कहते हैं..
उत्तर पश्चिम में तक्षशिला, उत्तर पूर्व में आसाम और दक्षिण में श्री लंका तक, सर्प चिह्न वाले देवतुल्य नाग फैले हुए थे। एक समय वे अत्यन्त शक्तिशाली थे और श्रीलंका और मलाबार उनके कब्ज़े में रहे। मलाबार में आज भी नाग पूजा की परम्परा है। ऐसा लगता है कि ईसवी दौर आते आते नाग चेरों के साथ घुलमिल गये थे..
इसी विषय को सी एफ़ ओल्ढम आगे बढ़ाते हुए बताते हैं.. प्राचीन काल से द्रविड़ तीन भागों में बँटे हैं, चेर चोल और पान्ड्य.. तमिल भाषा में चेर नाग का पर्यायवाची है। इसके अतिरिक्त गंगा घाटी में चेरु या सिओरी कहलाने वाले एक प्राचीन प्रजाति रहती है, ऐसा माना जाता है कि उनका एक समय में गंगा घाटी के एक बड़े हिस्से पर उनका, यानी कि नागों का, आधिपत्य रहा है। ये कहा जा सकता ह कि ये चेरु अपने द्रविड़ बंधु चेरों के सम्बन्धी हैं।
इसके अलावा दूसरी कडि़यां हैं जो दक्षिण के नागों को उत्तर भारत के नागों से मिलाती हैं। चम्बल में रहने वाले सरय, शिवालिक में सर या स्योरज और ऊपरी चिनाब में स्योरज। इसके अलावा हिमाचल की कुछ बोलियों में कीरा या कीरी का अर्थ साँप है हो सकता है किरात इसी से बना हो, जो एक हिमालय में रहने वाली एक प्रजाति है। नामों की समानता सदैव विश्वसनीय नहीं होती मगर ये सब लोग जिनके नाम मिलते जुलते हैं, सभी सूर्यवंशी है, सभी मनियर नाग को मानते हैं और ये सभी नाग देवता को अपना पूर्वज मानकर पूजते हैं।
तो यह स्पष्ट है कि नाग और द्रविड़ एक ही लोग हैं। मगर इस मत को स्वीकार करने में कठिनाई यह है कि यदि दक्षिण के लोग नाग ही हैं तो द्रविड़ क्यों कहलाते हैं? इस सम्बन्ध में तीन बातें ध्यान देने योग्य हैं। पहली भाषा सम्बन्धी बात पर सी एफ़ ओल्ढम साहब फ़रमाते हैं;
संस्कृत के वैयाकरण मानते हैं कि द्रविड़ भाषा को उत्तर भारत की लोक भाषाओं से सम्बन्धित मानते हैं, खासकर उन लोगों की बोलियों से जो असुरों के वंशज है। सभी बोलियों में पैशाची में संस्कृत का सबसे कम अंश है।
ऋगवेद के साक्ष्यों के अनुसार असुरों की भाषा आर्यों को समझ में नहीं आती थी। और अन्य साक्ष्यों से साफ़ होता है कि मनु के समय आर्य भाषा के साथ साथ म्लेच्छ या असुरों की भाषा भी बोली जाती थी, और जो महाभारत काल तक आते आते आर्य जातियों के लिये अगम्य हो गई। बाद के कालों में वैयाकरणों ने नाग भाषाएं बोलने वालों का ज़िक्र किया है। इस से पता चलता है कि कुछ लोगों द्वारा अपने पूर्वजों की भाषा त्याग दिये जाने के बावजूद कुछ लोग उस भाषा तथा संस्कृति का व्यवहार करते रहे, और ये कुछ लोग में पान्ड्य व द्रविड़ थे।
दूसरी ध्यान देने योग्य बात यह है कि द्रविड़ संस्कृत का मूल शब्द नहीं है। यह तमिल से दमित हुआ और फिर दमिल्ल से द्रविड़। तमिल का अर्थ कोई प्रजाति नहीं बल्कि एक सिर्फ़ एक भाषाई समुदाय है।
तीसरी ध्यान देने योग्य बात कि तमिल आर्यों के आने से पूर्व पूरे भारत में बोले जाने वाली भाषा थी। उत्तर के नागों ने अपनी भाषा द्रविड़ को छोड़ दिया और संस्कृत को अपना लिया जबकि दक्षिण के पकड़े रहे। चूंकि उत्तर के नाग अपनी भाषा को भूल चुके थे और द्रविड़ बोलने वाले लोग सिर्फ़ दक्षिण में सिमट कर रह गये थे इसीलिये उन्हे द्रविड़ पुकारना संभव हुआ।
तो यह समझा जाय कि नाग और द्रविड़ एक ही प्रजाति के दो भिन्न नाम हैं, नाग उनका संस्कृतिगत नाम है और द्रविड़ भाषागत। इस प्रकार दास वे ही हैं, जो नाग हैं, जो द्रविड़ हैं। और भारत में अधिक से अधिक दो ही नस्लें रही है, आर्य और द्रविड़। साफ़ है कि श्री स्टैनली राइस का मत गलत है, जो तीन नस्ल का अस्तित्व मानते हैं।
II
अगर यह मान भी लिया जाय कि कोई तीसरी नस्ल भी भारत में थी, तो यह साबित करने के लिये कि आज के अछूत प्राचीन काल के मूल निवासी ही हैं, दो प्रकार के अध्ययन का सहारा लिया जा सकता है; एक मानव शरीर शास्त्र (anthropometry) और दूसरा मानव वंश विज्ञान (ethonography)।
मानव शरीर शास्त्र के विद्वान डॉ धुरे ने अपने ग्रंथ 'भारत में जाति और नस्ल' में इन मसलों का अध्ययन किया । तमाम बातों के बीच ये बात भी सामने आई कि पंजाब के अछूत चूहड़े और यू पी के ब्राह्मण का नासिका माप एक ही है। बिहार के चमार और बिहार के ब्राह्मण का नासिका माप कुछ ज़्यादा भिन्न नहीं। कर्नाटक के अछूत होलेय का नासिका माप कर्नाटक के ब्राह्मण से कहीं ऊँचा है। यदि मानव शरीर शास्त्र विश्वसनीय है तो प्रमाणित होता है कि ब्राहमण और अछूत एक ही नस्ल के है। यदि ब्राह्मण आर्य है तो अछूत भी आर्य है, यदि ब्राह्मण द्रविड़ है तो अछूत भी द्रविड़ है, और यदि ब्राह्मण नाग है तो अछूत भी नाग है। इस स्थिति में राइस का सिद्धान्त निराधार सिद्ध होता है।
III
आइये अब देखें कि मानव वंश विज्ञान का अध्ययन क्या कहता है। सब जानते हैं कि एक समय पर भारत आदिवासी कबीलों के रूप में संगठित था। अब कबीलों ने जातियों का रूप ले लिया है मगर कबीलाई स्वरूप विद्यमान है। जिसे टोटेम या गोत्र के स्वरूप से समझा जा सकता है। एक टोटेम या गोत्र वाले लोग आपस में विवाह समबन्ध नहीं कर सकते। क्योंकि वे एक ही पूर्वज के वंशज यानी एक ही रक्त वाले समझे जाते। इस तरह का अध्ययन जातियों को समझने की एक अच्छी कसौटी बन सकता था मगर समाज शास्त्रियों ने इसे अनदेखा किया है और जनगणना आयोगों ने भी। इस लापरवाही का आधार यह गलत समझ है कि हिन्दू समाज का मूलाधार उपजाति है।
सच्चाई यह है कि विवाह के अवसर पर कुल और गोत्र के विचार को ही प्रधान महत्व दिया जाता है, जाति और उपजाति का विचार गौण है। और हिन्दू समाज अपने संगठन की दृष्टि से अभी भी कबीला ही है। और परिवार उसका आधार है।
महाराष्ट्र में श्री रिसले द्वारा एक अध्ययन से सामने आया कि मराठों और महारों में पाए जाने वाले कुल एक ही से हैं। मराठों में शायद ही कोई कुल हो जो महारों में ना हो। इसी तरह पंजाब में जाटों और चमारों के गोत्र समान हैं।
यदि ये बाते सही हैं तो आर्य भिन्न नस्ल के कैसे हो सकते हैं? जिनका कुल और गोत्र एक हो, वे सम्बन्धी होंगे। तो फिर भिन्न नस्ल के कैसे हो सकते हैं? अतः छुआछूत की उत्पत्ति का नस्लवादी सिद्धान्त त्याज्य है।
जारी..
6 टिप्पणियां:
abhay ji
pahle to is kadi ke tamam lekh ke liye badhai. agar aapne iske prastawana me ambedker ka jikr nahi kiya hota to shayad is lekh ke bad comments padhne ka bhi alag maza ata.
ab tak hame acchuto ke bare me sirf 'amritlal nagar'ji ke book 'naccho bahut gopal' ke bhumika me hi padha tha.inke bare me wo bhi kuch isi prakar ka jikra kiye hai.
आभार । लगे रहें ।
डॉ. अंबेडकर का यह बहुशास्त्रीय (मल्टी-डिसिप्लिनरी) शोध आगे क्यों नहीं बढ़ाया जा सका, यह सोचकर हैरानी होती है। अपने-अपने शास्त्रों-उपशास्त्रों में बंधे अकादमीशियनों के लिए अन्य शास्त्रों में घुसपैठ कर सकने वाले किसी जिंदा विषय को छूना चांद पर पहुंचने जैसा होता है, लेकिन यहां इस अड़चन की भूमिका गौण ही रही होगी। बुनियादी सचाई यही है कि संकीर्ण जातिवादी सोच से ग्रस्त देश के बौद्धिक वर्ग ने भीमराव अंबेडकर की प्रखर मेधा को कभी गंभीरता से लिया ही नहीं। दुर्भाग्यवश स्वयं को डॉ. अंबेडकर का अनुयायी बताने वाले लोगों का हाल भी यही है। वे भी उनके महत्व को सामाजिक-राजनीतिक दायरों तक ही समेटकर देखते हैं और इसके लिए उनकी विचारधारा को विकृत करने से भी नहीं चूकते। इस प्रस्तुति श्रृंखला के लिए अन्य ब्लॉगरों के साथ मैं भी आपका आभारी हूं। अच्छा हो कि नृतत्वशास्त्र और समाजशास्त्र के ऊंचे अकादमिक हलकों में इसपर नए सिरे से चर्चा शुरू हो और भारत में मौजूद रंगभेद से कहीं ज्यादा घृणित जाति भेद को व्यावहारिक नहीं तो वैचारिक स्तर पर अब हल ही कर लिया जाए।
इतने अच्छे लेख को हमें पढ़वाने के लिए धन्यवाद । यह छुआछूत हमारे समाज का एक ऐसा कलंक है कि जब तक इसे पूर्ण रूप से मिटा न दिया जाए हम स्वयं को क्षमा नहीं कर सकते । अब तक इसके दुष्प्रभाव तो देख रहे थे अब इसके कारण के बारे में भी पढ़ने को मिला । जो लोग सोचते हैं कि इस प्रथा से हमें कोई लेना देना नहीं है वे कई कहानियों व उपन्यासों में इस विषय में पढ़ सकते हैं । एक उपन्यास जो मैंने हाल में ही पढ़ा था वह है -A Fine Balance by Rohinton Mistry. कोई भी संवेदनशील व्यक्ति उसे पढ़कर लज्जित व द्रवित हो सकता है ।
एक बार फिर धन्यवाद ।
घुघूती बासूती
Abhay ji Is atyant durooh vishay pr apnaa well reaearched lekh likhne ke liye aap badhaai ke paatra hain parantu main aaj aapsae ek sawaal poochhne ki aagyaa chahta hoon ki kyaa aap yah zaroori nahim samajhate ki aaj in puraane muddon jinhen hamaare aapke poorvajon ne na jaane kin pristhitiyaon mein kuchh kiyaa haoga, unko fir se kabron so baahar laa kr us par vishleShan karne se to bahut hi uttam hoga ki hum aaj sarva dharm sam bhaav ke saath hi sarva jaati sam bhaav ka bhi pryaas karen. itnaa peechhe jaane ki Aavashyakta nahiM hai sirf Kabeer Das, Rahim,Shirdi vale Sai Baba, Ram Krishna Param Hans, Swami Vivekanand ji, Aghoreshwar Avdhoot Bhagwan Ram ji ke disaa niedeshon par yid hum chalen to bahut hI accha hoga. Asali prem tabhi panapega jab hum sabhi manushya maatra mein usi ek Eeshwar ko dekhenge. In puratatva abhilekhom se behtar to ek vyavaharik aadhyatmik karya hota hai jiski aaj bahut hi Aavshyakta hai.
भई, इस खंड का मसाला तो सचमुच पेंचदार है! हम धीरे-धीरे पढ़ रहे हैं, बहुत सारा समझ में नहीं भी आ रहा है.. लगता है इसे पुस्तिका रूप में छपवा ही लेना चाहिए.
एक टिप्पणी भेजें