मंगलवार, 26 जून 2007

अछूत कौन थे - ६


भाग पाँच : नए सिद्धान्त और कुछ कठिन प्रश्न


अध्याय ११: क्या हिन्दू कभी गोमांस नहीं खाते थे?

प्रत्येक हिन्दू इस प्रश्न का उत्तर में कहेगा नहीं, कभी नहीं। मान्यता है कि वे सदैव गौ को पवित्र मानते रहे और गोह्त्या के विरोधी रहे।

उनके इस मत के पक्ष में क्या प्रमाण हैं कि वे गोवध के विरोधी थे? ऋग्वेद में दो प्रकार के प्रमाण है; एक जिनमें गो को अवध्य कहा गया है और दूसरा जिसमें गो को पवित्र कहा गया है। चूँकि धर्म के मामले में वेद अन्तिम प्रमाण हैं इसलिये कहा जा सकता है कि गोमांस खाना तो दूर आर्य गोहत्या भी नहीं कर सकते। और उसे रुद्रों की माता, वसुओं की पुत्री, आदित्यों की बहन, अमृत का केन्द्र और यहाँ तक कि देवी भी कहा गया है।

शतपथ ब्राह्मण (३.१-२.२१) में कहा है; "..उसे गो या बैल का मांस नहीं खाना चाहिये, क्यों कि पृथ्वी पर जितनी चीज़ें हैं, गो और बैल उन सब का आधार है,..आओ हम दूसरों (पशु योनियों) की जो शक्ति है वह गो और बैल को ही दे दें.."। इसी प्रकार आपस्तम्ब धर्मसूत्र के श्लोक १, ५, १७, १९ में भी गोमांसाहार पर एक प्रतिबंध लगाया है। हिन्दुओं ने कभी गोमांस नहीं खाया, इस पक्ष में इतने ही साक्ष्य उपलब्ध हैं।

मगर यह निष्कर्ष इन साक्ष्यों के गलत अर्थ पर आधारित है। ऋग्वेद में अघन्य (अवध्य) उस गो के सन्दर्भ में आया है जो दूध देती है अतः नहीं मारी जानी चाहिये। फिर भी यह सत्य है कि वैदिक काल में गो आदरणीय थी, पवित्र थी और इसीलिये उसकी हत्या होती थी। श्री काणे अपने ग्रंथ धर्मशास्त्र विचार में लिखते हैं;

"ऐसा नहीं था कि वैदिक काल में गो पवित्र नहीं थी। उसकी पवित्रता के कारण ही वजसनेयी संहिता में यह व्यवस्था दी गई है कि गोमांस खाना चाहिये। "

ऋग्वेद में इन्द्र का कथन आता है (१०.८६.१४), "वे पकाते हैं मेरे लिये पन्द्र्ह बैल, मैं खाता हूँ उनका वसा और वे भर देते हैं मेरा पेट खाने से" । ऋग्वेद में ही अग्नि के सन्दर्भ में आता है (१०. ९१. १४)कि "उन्हे घोड़ों, साँड़ों, बैलों, और बाँझ गायों, तथा भेड़ों की बलि दी जाती थी.."

तैत्तिरीय ब्राह्मण में जिन काम्येष्टि यज्ञों का वर्णन है उनमें न केवल गो और बैल को बलि देने की आज्ञा है किन्तु यह भी स्पष्ट किया गया है कि विष्णु को नदिया बैल चढ़ाया जाय, इन्द्र को बलि देने के लिये कृश बैल चुनें, और रुद्र के लाल गो आदि आदि।

आपस्तम्ब धर्मसूत्र के १४,१५, और १७वें श्लोक में ध्यान देने योग्य है, "गाय और बैल पवित्र है इसलिये खाये जाने चाहिये"।

आर्यों में विशेष अतिथियों के स्वागत की एक खास प्रथा थी, जो सर्वश्रेष्ठ चीज़ परोसी जाती थी, उसे मधुपर्क कहते थे। भिन्न भिन्न ग्रंथ इस मधुपर्क की पाक सामग्री के बारे में भिन्न भिन्न राय रखते हैं। किन्तु माधव गृह सूत्र (१.९.२२) के अनुसार, वेद की आज्ञा है कि मधुपर्क बिना मांस का नहीं होना चाहिये और यदि गाय को छोड़ दिया गया हो तो बकरे की बलि दें। बौधायन गृह सूत्र के अनुसार यदि गाय को छोड़ दिया गया हो तो बकरे, मेढ़ा, या किसी अन्य जंगली जानवर की बलि दें। और किसी मांस की बलि नहीं दे सकते तो पायस (खीर) बना लें।

तो अतिथि सम्मान के लिये गो हत्या उस समय इतनी सामान्य बात थी कि अतिथि का नाम ही गोघ्न पड़ गया। वैसे इस अनावश्यक हत्या से बचने के लिये आश्वालायन गृह सूत्र का सुझाव है कि अतिथि के आगमन पर गाय को छोड़ दिया जाय ( इसी लिये दूसरे सूत्रों में बार बार गाय के छोड़े जाने की बात है)। ताकि बिना आतिथ्य का नियम भंग किए गोहत्या से बचा जा सके।

प्राचीन आर्यों में जब कोई आदमी मरता था तो पशु की बलि दी जाती थी और उस पशु का अंग प्रत्यंग मृत मनुष्य के उसी अंग प्रत्यंग पर रखकर दाह कर्म किया जाता था। और यह पशु गो होता था। इस विधि का विस्तृत वर्णन आश्वालायन गृह सूत्र में है।

गो हत्या पर इन दो विपरीत प्रमाणों में से किस पक्ष को सत्य समझा जाय? असल में गलत दोनों नहीं हैं शतपथ ब्राह्मण की गोवध से निषेध की आज्ञा असल में अत्यधिक गोहत्या से विरत करने का अभियान है। और बावजूद इन निषेधाज्ञाओं के ये अभियान असफल हो जाते थे। शतपथ ब्राह्मण का पूर्व उल्लिखित उद्धरण (३.१-२.२१) प्रसिद्ध ऋषि याज्ञवल्क्य को उपदेश स्वरूप आया है। और इस उपदेश के पूरा हो जाने पर याज्ञ्वल्क्य का जवाब सुनने योग्य है; "मगर मैं खा लेता हूँ अगर वह (मांस) मुलायम हो तो।"

वेदों और ब्राह्मण ग्रंथों के बहुत बाद रचे गये बौद्ध सूत्रों में भी इसके उल्लेख हैं। कूट्दंत सूत्र में बुद्ध, ब्राह्मण कूटदंत को पशुहत्या न करने का उपदेश देते हुए वैदिक संस्कृति पर व्यंग्य करते हैं, " .. हे ब्राह्मण उस यज्ञ में न बैल मारे गये, न अजा, न कुक्कुट, न मांसल सूअर न अन्य प्राणी.." और जवाब में कूटदंत बुद्ध के प्रति कृतज्ञता व्यक्त करता है और कहता है, ".. मैं स्वेच्छा से सात सौ साँड़, सात सौ तरुण बैल, सात सौ बछड़े, सात सौ बकरे, और सात सौ भेड़ों को मुक्त करता हूँ जीने के लिये.. "

अब इतने सारे साक्ष्यों के बाद भी क्या किसी को सन्देह है कि ब्राह्मण और अब्राह्मण सभी हिन्दू एक समय पर न केवल मांसाहारी थे बल्कि गोमांस भी खाते थे।

अध्याय १२ : गैर ब्राह्मणों ने गोमांस खाना कब छोड़ा?

साम्प्रदायिक दृष्टि से हिन्दू या तो शूद्र होते हैं या वैष्णव, उसी तरह शाकाहारी होते हैं या मांसाहारी। मांसाहारी में भी दो वर्ग हैं, १) जो मांस खाते हैं पर गोमांस नहीं खाते, और २) जो गोमांस भी खाते हैं। तो इस तरह से तीन वर्ग हो गये;

१) शाकाहारी, यानी ब्राह्मण (हालाँकि कुछ ब्राह्मण भी मांसाहार करते हैं)
२)मांसाहारी किंतु गोमांस न खाने वाले यानी अब्राह्मण
३)गोमांस खाने वाले यानी अछूत

यह वर्गीकरण चातुर्वर्ण के अनुरूप नहीं है फिर भी तथ्यों के अनुरूप है। शाकाहारी होना समझ आता है, गोमांस खाने वाले की स्थिति भी समझ आती है, मगर अब्राह्मण की सिर्फ़ गोमांस से परहेज़ की स्थिति समझ नहीं आती। इस गुत्थी को सुलझाने के लिये पुराने समय के क़ानून को समझने की ज़रूरत होगी। तो ऐसा नियम या तो मनु के विधान में होगा या अशोक के।

अशोक का स्तम्भ लेख -५ कहता है, "..राज्याभिषेक के २६ वर्ष बाद मैंने इन प्राणियों का वध बंद करा दिया है, जैसे सुगा, मैना, अरुण, चकोर, हंस पानान्दीमुख, गोलाट, चमगादड़, कछुआ, रामानन्दी कछुआ, वेदवेयक, गंगापुपुतक, रानी चींटी, स्केट मछली, बिन काँटों की मछली, साही, गिलहरी, बारासिंगा, साँड़, बंदर, गैंडा, मृग, सलेटी कबूतर, और सब तरह के चौपाये जो न तो किसी उपयोग में आते हैं और न खाए जाते हैं.."

अशोक के निर्देशों पर टिप्पणी करते हुए श्री विंसेट स्मिथ कहते हैं कि "अशोक के निर्देशों में गोहत्या का निषेध नहीं है, ऐसा लगता है कि गोहत्या वैध बनी रही" मगर प्रोफ़ेसर राधाकुमुद मुखर्जी का कहना है कि "चूंकि अशोक ने सभी चौपायों की हत्या पर रोक लगाई तो गो हत्या पर स्वतः रोक मानी जाय"। उनके कहने का अर्थ यह है कि अशोक के समय गोमांस नहीं खाया जाता था इसलिये उसका अलग से उल्लेख करने की ज़रूरत न हुई।

मगर शायद सच यह है कि अशोक की गो में कोई विशेष दिलचस्पी होने की कोई वजह न थी। और इसे वह अपना कर्तव्य नहीं समझता था कि गो को हत्या से बचाये। अशोक प्राणी मात्र, मनुष्य या पशु, पर दया चाहता था। उसने यज्ञों के लिए पशु बलि का निषेध किया मगर उन पशुओं की हत्या से निषेध नहीं किया जो किसी काम में आते हैं या खाए जाते हैं। अशोक ने निरर्थक वध को अनुचित ठहराया।

अब मनु को देख लिया जाय। मनु ने पक्षियों, जलचरों, मत्स्यों, सर्पादि और चौपायों की एक लम्बी सूची दी है जो कुछ इस प्रकार समाप्त होती है, " पंचनखियों में सेह, साही, शल्यक, गोह, गैंडा, कछुआ, खरहा, तथा एक ऒर दाँत वाले पशुओं में ऊँट को छोड़कर बकरे आदि पशु भक्ष्य हैं, ऐसा कहा गया है.."

तो मनु ने भी गोह्त्या के विरुद्ध कोई विधान नहीं बनाया। उन्होने तो विशेष अवसरों पर गोमांस खाना अनिवार्य ठहराया है।

तो फिर अब्राह्मण ने गोमांस खाना क्यों छोड़ दिया? मेरा विचार है कि अब्राह्मण ने सिर्फ़ ब्राह्मण की नकल में गोमांस खाना छोड़ दिया। यह नया विचार लग सकता है पर नामुमकिन नहीं है यह। फ़्रांसीसी लेखक गैब्रियल तार्दे लिखते हे कहते हैं कि "समाज में संस्कृति, निम्न वर्ग के द्वारा उच्च वर्ग का, अनुसरण करने से फैलती है"। यह नकल बहुत मजे से के मशीनी गति से एक प्राकृतिक नियम की तरह होता चलता है। उनका मानना है कि निम्न वर्ग हमेशा उच्च वर्ग की नकल करता है और ये इतनी आम बात समझी जाती है कि कभी कोई इस पर सवाल भी नहीं करता।

तो कहा जा सकता है कि अब्राह्मणो ने गोमांस खाना ब्राह्मणों की नकल के फलस्वरूप छोड़ा। मगर बड़ा सवाल है कि ब्राहमणों ने गोमांस खाना क्यों छोड़ा?

जारी..

3 टिप्‍पणियां:

काकेश ने कहा…

रोचक से रोचकतर होता जा रहा है...पुन: साधुवाद..कमसे कम मेरे लिये तो ये सारे तथ्य चौकाने वाले हैं..

अफ़लातून ने कहा…

काश्मीर में गोमान्स भक्षण पर मध्य काल से रोक रही । यह फैसला किसने लिया था ?

Farid Khan ने कहा…

बहुत खू़ब,
शायद इसीलिए जो हिन्दू अपना धर्म बदल कर मुस्लमान हुए, वह अपने पूराने संस्कार छोड़ ना सके ... गोमांस खाना उनमें से एक था...

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