शनिवार, 18 अगस्त 2007

' जन गण मन' पर कुछ और बातें...

जन गण मन का अधिनायक क्या जार्ज पंचम है? पर कुछ दिलचस्प टिप्पणियाँ आईं.. और देर तक आती रहीं.. आज सुबह मेल बॉक्स में देबाशीष की एक टिप्पणी दिखाई दी..

"अवधिया जी की दी कड़ी से एक और लेख मिला. "जन गण मन" के बारे में लोगों को जो भ्रम हैं वो ये लेख दूर कर सकता है, जो अड़ियल है उन्हें खैर कोई समझा नहीं सकता। इस लेख में ये भी बताया गया है कि टैगोर के गीत को "वंदे मातरम्" की जगह तरजीह क्यों मिली। मुझे लगता है ये निर्णय एकदम सही था और इससे हमारे देश की सही छवि बनी रही है।"

देबाशीष और अवधिया जी के मिले जुले प्रयासों से खोजा गया यह लेख आर वी स्टिल सिंगिंग फ़ॉर द एम्पायर?' दिल्ली विश्वविद्यालय के एक अध्यापक प्रदीप कुमार दत्ता ने लिखा है.. इस में कुछ दिलचस्प तथ्य संजोये गए हैं.. जिनमें से निम्न मुख्य हैं..

१९११ के कांग्रेस के कोलकाता अधिवेशन में जार्ज पंचम को 'विशेष धन्यवाद' इसलिए दिया गया कि उन्होने १९०५ के बंग-भंग के फ़ैसले को वापस लेने में अपनी भूमिका निभाई.. जिस पर कांग्रेस लगातार आंदोलन कर रही थी.. और जिस के विरोध में गुरुदेव भी मुखर रहे थे.. (इसे कांग्रेस का बचाव न समझा जाय..और कांग्रेस के संदर्भ में की गई इष्टदेव जी की टिप्पणी वज़न रखती है)

जन गण मन के बारे में मिथ्या प्रचार के बीज अंग्रेज़ी प्रेस की गलत रिपोर्टिंग के कारण पड़े जिस के अन्दर जनगणमन के अर्थ को समझने के लिए न साहित्यिक रुचि थी और न भाषाई जानकारी..

इस कांग्रेस अधिवेशन के बाद सरकार द्वारा एक सर्कुलर जारी किया गया जिसमें शांतिनिकेतन को सरकारी अफ़सरों की शिक्षा के लिए बिलकुल अनुपयुक्त घोषित किया गया और उन अफ़सरों के विरुद्ध दण्ड देने की भी बात की गई जो अपने बच्चों को शांतिनिकेतन भेजने की भूल करेंगे..

वन्दे मातरम की किसी एक धुन को स्वयं रवीन्द्रनाथ ने संगीतबद्ध किया था..

देश आज़ाद होने और जनगणमन को राष्ट्रगान बनाने के काफ़ी पहले नेताजी सुभाष चन्द्र बोस की आज़ाद हिन्द फ़ौज ने इसे राष्ट्रगान की तरह से स्वीकृत किया..

वन्दे मातरम स्वतंत्रता संग्राम के दौरान अधिक लोकप्रिय गीत था.. मगर एक देवी को सम्बोधित होने के कारण मुस्लिम देशवासियों को इस से गुरेज़ था.. और हिन्दू दंगाइयों ने दंगो के दौरान इस गीत का इस्तेमाल भड़काने वाले नारे की तरह किया था.. और ऐसा कर के विभिन्न समुदायों को जोड़ने वाले सूत्र के रूप में उसे अनुपयोगी बना दिया था..

वन्दे मातरम पूरे देश को एक समरस हिन्दू इकाई के रूप में चित्रित करता है.. जबकि जनगणमन देश को भिन्न-भिन्न भाषाई और सांस्कृतिक समुदायों की महाधारा के रूप में पेश करता है..

इस लेख को खोजने के लिए देबाशीष जी का आभार..

शुक्रवार, 17 अगस्त 2007

फल क्यों मीठा होता है?

कभी-कभी बैठे-बैठे अचानक अपने मनुष्य होने का एहसास खत्म हो जाता है। लगने लगता है कि मैं भी मिट्टी-पत्थर-पेड़ की तरह बस एक पदार्थ-पुंज ही तो हूँ। एक चलता-फिरता पदार्थ-पुंज.. जो अपने अस्तित्व के लिए दूसरे पदार्थों को अपने भीतर से गुजारता है, और पता नहीं क्या-क्या रासायनिक परिवर्तन सम्पन्न कर के उसे वापस अपने से बाहर फेंक देता है। और फिर नज़र आता है कि मैं कोई अनोखा पदार्थ-पुंज नहीं हूँ, गली का कुत्ता भी यही कर रहा है, नाली का तिलचट्टा भी यही कर रहा है, तो मनुष्य ऐसा क्या अनोखा कर रहा है?

हम में संवेदना है, भाषा है, चेतना है। हम कुत्ते और तिलचट्टे से श्रेष्ठ हैं। और इसलिए हर धर्म में मनुष्य सृष्टि के शीर्ष पर है। कहीं ईश्वर ने मनुष्य को अपने रूप में बनाया है कहीं वह स्वयं मनुष्य के रूप में है। फिर मुझे लगता है कि क्यों नहीं ईश्वर तितली के रूप में हो सकता है, एक राजहंस के रूप में क्यों नहीं? क्यों मनुष्य की यह महासत्ता.. जिसमें सब उसके आधीन है?

क्या सच में मनुष्य के सिवा सब कुछ जड़ है? क्या सारा चिन्तन मस्तिष्क से ही होता है? क्या श्रोत्र का सारा गुण कान में ही केन्द्रित है? क्या अकेले आँख ही देखती है? मन की इच्छा बस मन में ही होती है? तो पोर-पोर में क्या होता है?

अगर चेतना सिर्फ़ प्राणियों में है तो फल क्यों मीठा होता है? अगर पेड़ में जगत तो क्या, स्वयं का भी कोई आभास नहीं तो उसका फूल गंध क्यों फैलाता है? सूरज निकल आया है पत्ती को ये कौन समझाता है?

गुरुवार, 16 अगस्त 2007

चित्त जहाँ भयमुक्त हो..

जिस कवि की पहचान उसकी नोबेल पुरुस्कार से सम्मानित रचना गीतांजलि है.. जिसमें वह परमपिता परमेश्वर की आराधना के गीत गाता है.. उसे उसकी रचनाओं की आध्यात्मिक अन्तर्वस्तु के कारण मनस्वी और आधुनिक ऋषि की तरह जाना जाता है..उसके ऊपर आरोप है कि उसने अपने एक गीत में विधाता, पिता, राजेश्वर के सम्बोधन देकर जार्ज पंचम की स्तुति की है.. जबकि यही सम्बोधन वह अपनी दूसरी रचनाओं में ईश्वर के लिए करता रहा है..

वह गीत आज इस देश का राष्ट्रगीत है.. आरोप लगाने वाले वे हैं जिनकी राजनैतिक धारा का स्वतंत्रता संग्राम से कोई लेना देना तक नहीं रहा.. और उन आरोपों पर विश्वास करने वाले यह तक भूल जाते हैं कि १९११ के कांगेस के उस अधिवेशन के पहले दिन वन्दे मातरम भी गाया गया था.. मेरी नज़र में यह हमारी विचारों की सीमाएँ ही है.. जो हम कवि के विराट कृतित्व को अपने क्षुद्र पैमानो से नापते हैं..

यहाँ कवि रवीन्द्रनाथ ठाकुर की एक और कविता छाप रहा हूँ जो उन्होने १९१२ में लिखी और गीतांजलि में संकलित की.. जैसे जनगणमन में उस अधिनायक को एक जगह माता कहकर सम्बोधित कहने के बावजूद लोगों का प्रबोधन नहीं हुआ.. ऐसे संशयजीवी यहाँ प्रयुक्त पिता को भी उसी संकीर्ण अर्थों में समझेंगे..

पहले देवनागरी लिपि में मूल बंगला.. और फिर अंग्रेज़ी में स्वयं कवि द्वारा किया हुआ अनुवाद..


चित्त जेथा भयशून्य

चित्त जेथा भयशून्य उच्च जेथा शिर, ज्ञान जेथा मुक्त, जेथा गृहेर प्राचीर

आपन प्रांगणतले दिवस-शर्वरी वसुधारे राखे नाइ थण्ड क्षूद्र करि।

जेथा वाक्य हृदयेर उतसमूख हते उच्छसिया उठे जेथा निर्वारित स्रोते,

देशे देशे दिशे दिशे कर्मधारा धाय अजस्र सहस्रविध चरितार्थाय।

जेथा तूच्छ आचारेर मरू-वालू-राशि विचारेर स्रोतपथ फेले नाइ ग्रासि-

पौरूषेरे करेनि शतधा नित्य जेथा तूमि सर्व कर्म चिंता-आनंदेर नेता।

निज हस्ते निर्दय आघात करि पितः, भारतेरे सेइ स्वर्गे करो जागृत॥


Where the mind is without fear

Where the mind is without fear and the head is held high

Where knowledge is free

Where the world has not been broken up into fragments

By narrow domestic walls

Where words come out from the depth of truth

Where tireless striving stretches its arms towards perfection

Where the clear stream of reason has not lost its way

Into the dreary desert sand of dead habit

Where the mind is led forward by thee

Into ever-widening thought and action

Into that heaven of freedom, my Father, let my country awake.


इसके बाद भी देश की आज़ादी और ईश्वर की सत्ता के सम्बन्ध के विषय में रवीन्द्रनाथ के आशय पर किसी को शुबहा हो तो उस व्यक्ति को किसी भी तरह विश्वास नहीं दिलाया जा सकता..


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