शुक्रवार, 9 सितंबर 2011

छुपन -छुपाई



शाम के समय दफ़्तर सिर्फ़ सन्नाटे से गूँज रहा था। शांति को दीवार की ओर मुँह करके सौ तक गिनती गिननी थी पर उसने नहीं गिनी थी। फिर भी अचरज छुप गया था। शांति को उसे खोजना था पर शांति का मन खेल में नहीं था। दफ़्तर ख़त्म हो गया था पर शांति का काम ख़त्म नहीं हुआ था। छूटे हुए कामों ने उसके मन को उलझा रखा था। अचरज ऐसी किसी उलझन में नहीं था। वह शुद्ध प्रतीक्षा कर रहा था ख़ुद को खोज लिए जाने की। यह जैसे शिकारी और शिकार का एक खेल था। शांति को शिकारी होना था और अचरज शिकार की भूमिका में था। वो जो महसूस कर रहा था वो शायद एक आदिम रोमांच था जिसने उसके शरीर की सारी इंद्रियों को अपने चरम सामर्थ्य तक खींच डाला था। आँखों और कान निहायत चौकन्ने, हाथ-पैर किसी भी पल हरकत में आ जाने के लिए तत्पर और दिल पूरे शरीर में ख़ून को तेज़ी से फेंकने के लिए धौंकनी सा धौंक रहा था। एक-एक पल के प्रति सचेत था वो। जब बहुत लम्बे-लम्बे ढेर सारे पल यूँ ही बीत गए तो उसने बहुत हौले से झांक कर देखा उस दिशा में जिधर से शांति को आना था। शांति वहीं अपनी मेज़ के पीछे अपने लैपटॉप में सर सटाए बैठी थी।
ममा, मैं छुप गया हूँ.. आओ! अचरज वापस अपने छुपने की जगह जाकर उत्तेजना में उतराने लगा।

अचरज स्कूल से सीधे शांति के दफ़्तर आ गया था क्योंकि घर पर न तो सासू माँ थीं और न ही पाखी। और दफ़्तर अचरज के लिए एक अनोखा संसार था। उसका विस्तार, उसकी ऊँची छत, छोटे-छोटे चौकोर हिस्सों में विभाजित लम्बे काउन्टर, और हर कुछ का सलेटी-नीली रंगत में रंगा होना भी अचरज के लिए एक भूलभुलैया सा है। चमचमाती रौशनी से जगमगाने के बावजूद वो सारा कुछ अचरज के लिए एक रहस्य के खोल से ढका हुआ है। उस रहस्य का अनजानापन अचरज के लिए भय और उत्तेजना का आधार है।

इसी भय और उत्तेजना की राह से गुज़रकर उसने सबसे पहले घर के अनजानेपन का अनुसंधान किया था। फिर घर से निकलकर जिस-जिस इमारत में रहे उन इमारतों का अनुसंधान किया था। और फिर स्कूल में भर्ती हो जाने के बाद स्कूल में सहज रूप से न दिखने वाले कोनों और अँतरों में छुपे हुए आयामों का भी अपने साथियों के साथ अन्वेषण किया था- बिना यह जाने कि स्कूल में दाख़िला लेने वाली हर पीढ़ी उन्ही कोनों का बार-बार अन्वेषण करती है और उसके रोमांच से गुज़रती है।

अचरज की आशा थी कि उसके शिकार का चरम किसी दबोच लिए जाने वाली चेष्टा या फिर चौंका देने वाले सुर से होगा। पर शांति ने जो किया वो बिलकुल भी उस स्वभाव का नहीं था। अपनी उलझनों को लपेटती हुई सी शांति आई और सिर्फ़ यह कहकर उसके बग़ल से गुज़र गई – चलो! न कोई हमला, न कोई चीख, न जक़ड़ने की जल्दी और न बच निकलने की हड़बड़ी - शिकार के किसी तत्व का कुछ भी नहीं मज़ा नहीं मिला अचरज को। वो मायूस हो गया। अपनी जगह से हिला भी नहीं। शांति खीजकर उलटे पाँव लौटी और लगभग उसे घसीटते हुए सी अपने साथ नीचे ले गई।

पर ममा, तुमने प्रौमिस किया था..
हाँ किया था.. पर अभी टाईम नहीं है बेटा.. घर भी तो जाना है..
प्लीज़ ममा.. चलो खेलो न.. प्लीज़ ममी प्लीज़..
अचरज अपने बालहठ में उतरकर पैर पटकने लगा। हारकर शांति ने समझौते की राह लेनी चाही- अच्छा ठीक है.. घर चलकर खेलेंगे..
घर पर तो मैं रोज़ खेलता हूँ.. यहाँ खेलते हैं न ममा.. कितनी बड़ी जगह है.. यहाँ कितना मज़ा आएगा..

शांति ने उसे फिर से बहलाने की कोशिश की पर अचरज ने ठुनकना शुरू कर दिया। तब तक शांति उसका हाथ पकड़ कर खींचते हुए पार्किंग तक ले आई थी। शांति ने उसे झांसा दिया कि दफ़्तर में तो चौकीदार ने ताला मार दिया होगा- तो वहाँ लौटना तो मुमकिन नहीं और अपनी नेकनीयत दिखाने के लिए उसे पार्किंग में छुपन-छुपाई खेलने का प्रस्ताव दे डाला। अचरज ने नज़र उठाकर देखा- पार्किंग में अंधेरे और उजाले का एक अजब चितकबरा दृश्य फैला हुआ था। काफ़ी कुछ ख़ाली पार्किंग में कहीं-कहीं कारें और मोटरसाईकलें खड़ी हुई थीं। वो एक ऐसी जगह थी जो नन्हे अचरज के लिए बिलकुल अपरिचित और अनजान थी। उसे देखकर ही अचरज के दिल में अज्ञात के भय की एक लहर सी थरथराने लगी। उस भय की छायाओं को उसके चेहरे पर देख शांति को यह उम्मीद हुई थी कि वो ना कर देगा। पर अचरज ने हामी भर दी।

शांति के पास अपने ही प्रस्ताव से पलट जाने का विकल्प नहीं बचा। अचरज एक बार शिकार बन चुका था- अब शांति की शिकार बनने की बारी थी। शांति ने सोचा- वो ऐसी जगह छुपेगी जहाँ से उसे खोजने में अचरज को ज़रा भी मशक़्क़त न करनी पड़े। अचरज उसके स्कूटर के पास वाली दीवार में मुँह गड़ाकर गिनती गिनने लगा और शांति उससे एक खम्बा छोड़कर दूसरे खम्बे के पीछे छुपकर खड़ी हो गई। लेकिन शांति उस पल में मौजूद ही नहीं थी। वह दो घंटे पहले के पल में पैदा हुई किसी दफ़्तरी चिंता में बार-बार गोते खा रही थी।

वहीं खड़े-खड़े जब कुछ मिनट गुज़र गए और अचरज नहीं आया तो अचानक शांति को फ़िक़्र हुई। उसने मुड़कर देखा -अचरज नहीं दिखा। खेल के नियम के अनुसार उसे हर सूरत में अपने आपको छुपाए रखना चाहिए पर वो खेल भूल गई और खम्बे की आड़ छोड़कर वो अचरज को देखने के लिए पार्किंग के बीचोबीच आ खड़ी हुई। फिर भी अचरज उसे कहीं नहीं दिखाई दिया। शांति ने आवाज़ दी- अचरज!! कोई जवाब नहीं आया। दो-तीन बार और पुकारा- कोई जवाब नहीं। फिर तो बुरी तरह घबरा गई शांति। हड़बड़ाए क़दमों से पहले पार्किंग के एक कोने तक दौड़ गई और फिर दूसरे कोने तक। अचरज कहीं भी नहीं मिला। तरह-तरह के डर उसके मन में उमड़ने लगे। हथेलियों से पसीना छूटने लगा, मुँह सूख गया, सांसे उखड़ने लगीं। क्या करे - कुछ समझ नहीं पा रही थी। दिमाग़ हज़ार दिशाओं में एक साथ दौड़ने लगा। उसे ऐसा लगने लगा जैसे कि पैरों में जान ही न हो- सारी शक्ति निचुड़ के कहीं बह गई हो। लगा कि चक्कर खाके गिर पड़ेगी। तो खम्बे के सहारे जैसे ही अपनी देह को टिकाया एक तीखी आवाज़ ने उसे बुरी तरह चौंका दिया। एक पल वो आवाज़ भय की एक लहर बनकर उसके ह्रदय को चीरती चली गई और कहीं गहरे जाकर चुभ सी गई। वो अचरज था जो खम्बे के पीछे से आकर शिकार कर लेने का विजयघोष कर रहा था। अचरज की उत्तेजना में एक शिकारी की सफलता की ख़ुशी थी। पर शांति ख़ुश नहीं हुई, वो झुंझला गई और चिड़चिड़ाने लगी और किसी तरह से अचरज को झापड़ मारने से ख़ुद को रोका। खो जाने और मिल जाने का जो आदिम खेल अचरज खेलना चाह रहा था उसका कोई स्वाद था जो शांति बड़े होने की कसरत में कहीं भूल आई थी।
***


सोमवार, 22 अगस्त 2011

स्कूटर का जीवन



ममा, आपको पता है विवेकानन्द भी बीमार पड़ते थे?  
हम्म? शांति सोने के पहले के सारे काम ख़तम करके सोने की तैयारी कर रही थी। मगर पाखी की उलझनें अभी शेष थी।
हाँ ममा, उनका लीवर ख़राब रहता था और बुख़ार भी बहुत होता था। दस्त और क़ै भी हो जाती थी।
अच्छा... कहाँ लिखा है ये सब?
इन्टरनेट पर.. हमें एक एसाईनमेण्ट मिला है.. एक लेख लिखना है- विवेकानन्द हमें प्रिय क्यों हैं। उसी के लिए रिसर्च कर रही थी तो इन्टरनेट पर एक ब्लाग मिला.. जिसमें उनकी डायरी के टुकड़े दिए हुए हैं। ..ममा कटिवात क्या होता है?
कटिवात..? पता नहीं!
उनको कमर में भी दर्द रहता था.. उन्होने लिखा है कटिवात से परेशान हूँ..
शायद स्लिपडिस्क को कहते है.. अपनी टीचर से पूछना..
ममा उनको गर्मी भी लगती थी बहुत और बहुत जल्दी थक भी जाते थे.. और उन्होने ये भी लिखा है कि उनके बाल गुच्छे-गुच्छे सफेद हो रहे हैं..
तो इसमें इतने अचरज की क्या बात है.. वो भी इन्सान थे.. जैसे सब बीमार पड़ते हैं, वो भी पड़ते होंगे..
पर ममा वो तो विवेकानन्द थे.. इतने बड़े संत..? महापुरुष.. महात्मा..??
महापुरुष-महात्मा थे पर अपनी आत्मा की वजह से। अगर शरीर से ही महात्मा होना तय होता तो फिर कोई पहलवान ही सबसे बड़ा महात्मा होता।    
बात तार्किक थी। पाखी को समझ आ गई वो अपने कमरे में लौट गई और शांति ने बिस्तर पर लेटकर अपने शरीर पर से जागे रहने की बंदिशें उठा लीं।
**
अगली सुबह शांति की बड़ी बुरी गुज़री। नहीं-नहीं, उसका विवेकानन्द से कोई लेना-देना नहीं था। टोस्टर में टोस्ट जल गए। दरवाज़े से निकलते हुए एक छिपी हुई कील ने साड़ी में खोंच लगा दी। और जब स्कूटर में चाभी डालकर अँगूठे से स्टार्टर दबाया तो इंजन से कोई आवाज़ नहीं आई। बार-बार दबाने और दबाते रहने पर भी इंजन मौन बना रहा। शांति ने स्टैण्ड पर खड़ाकर के कम से कम बीस-पचीस बार किक मारी। फिर भी स्कूटर में किसी तरह के जीवन का संचार नहीं हुआ। स्कूटर कई दिनों से तंग कर रहा था पर ऐसा उसके साथ पहले कभी नहीं हुआ था। शांति की इमारत के पीछे ही एक शकील ऑटो मेकैनिक है। स्कूटर धकेलकर वहाँ तक ले जाकर उसके हवाले कर दिया और ऑटो पकड़कर दफ़्तर चली गई। इसी बहाने बड़े दिनों बाद ऑटो की सवारी के सुख-दुख फिर से ताज़ा हो गए।
**
शाम को बजाय घर जाने के सीधे शकील के गैराज चली आई। क्योंकि उसने वादा किया था कि शाम तक बना देगा। मगर वहाँ तो नज़ारा कुछ और था। पहले तो शांति को अपना स्कूटर कहीं दिखाई ही नहीं दिया। और शकील से जब पूछा कि उसका स्कूटर कहाँ है तो वो दाँत चियार के हँसने लगा। शांति को बड़ी खीज हुई कि पहले तो मेरा स्कूटर ग़ायब कर दिया, फिर हँस रहा है। शांति की बेबसी में शकील को बड़ा आनन्द मिल रहा था।
आप पहचान नहीं पा रही ना..?
कोप से भरी शांति कुछ बोली नहीं, बस उसे घूरती रही।
अरे ये पड़ा तो है आपके सामने..!  
शकील ने ज़मीन की ओर इशारा किया। शांति ने नज़र घुमा के देखा- ज़मीन पर एक मैली-कुचैली मशीन लगभग औंधी होकर पड़ी हुई थी। उसका वो चमकदार प्याज़ी आवरण जिससे वो उसे पहचानती थी, कहीं नहीं दिख रहा था। लोहा था, ग्रीस थी, अचीन्हे कोणों और घुमावों वाली एक आकृति थी, और इन सब पर प्रमुखता जमाये हुए एक काला मटमैला रंग था। इन सब का जो मिला-जुला भाव शांति तक पहुँच रहा था वो काफ़ी अजनबी था। शांति के मन में उसके स्कूटर के नाम से जो भाव उपजता था वो इन कल-पुर्जों से उपज रहे भाव से काफ़ी अलग था। जब शांति ने ग़ौर से देखा तो उसे अपने स्कूटर का छिपा हुआ प्याज़ी रंग दिखाई पड़ने लगा। एक पहचान मिल जाने के बाद फिर धीरे-धीरे दोनों भावनाएं गड्ड-मड्ड होकर एक हो गईं।
दीदी, बाहर से जैसा दिखता है वैसा अन्दर से नहीं होता!  
क्या हुआ क्या है..?
कारबोरेटर में कचड़ा था.. और दीदी आपका एग्ज़ास्ट भी सड़ गया है!  
एग्ज़ास्ट मतलब..?
मतलब.. आपके गाड़ी के फेफड़े सड़ गए हैं.. बदली करने पड़ेंगे.. दीदी, स्कूटर में आँख, नाक, गला, फेफड़े, आँत, गुर्दा सब होता है। इसीलिए तो आदमी की तरह स्कूटर भी बीमार होता है। ये कह के शकील फिर दाँत चियार के हँसने लगा। उस दिन स्कूटर नहीं मिला। 
**
शाम को अचरज जब खेलकर आया तो उसने सवाल किया- ममा नीचे आपका स्कूटर नहीं है?
स्कूटर के फेफड़े ख़राब हो गए हैं.. वो अस्पताल में भरती है..
स्कूटर के भी फेफड़े होते हैं..? अचरज ने पूछा।
हम्म.. मेरा जो मेकैनिक है न शकील, वो बता रहा था.. और ऐसे बता रहा था जैसे स्कूटर भी कोई जीती-जागती चीज़ हो..
अचरज को स्कूटर को जीता-जागता मानने में ज़रा भी कठिनाई नहीं हुई। उसके लिए स्कूटर तो क्या सारे खिलौने जीवित हैं। जिस दिन वो ख़रीदे जाते हैं वो उनका बर्थडे होता है। और अगर वो खिलौनों की धीमी उपेक्षा और अन्तिम ठोकर के प्रति भी सचेत होता तो उनकी मौत के रोज़ पर भी अपनी हामी भरता। पर तिरछी बात उठाई पाखी ने जो विवेकानन्द की महानता के बीज उनकी आत्मा में है, यह सुबह ही स्वीकार कर चुकी थी।  
तब तो उसमें आत्मा भी होती होगी?  
आत्मा..किसमें?- शांति थोड़ा अचकचाई।
स्कूटर में..
स्कूटर के आत्मा कैसे हो सकती है..? स्कूटर को भगवान ने थोड़ी बनाया है, स्कूटर को तो आदमी ने बनाया है..?
पर आदमी को तो ईश्वर ने बनाया है.. और मैंने पढ़ा है कि ईश्वर ने इंसान को अपने ही जैसा बनाया है।
बात तो ठीक है.. और इंसान अब मशीन को अपनी छवि में बना रहा है- शांति ने कहा।
ममा.. मैंने तो यह भी पढ़ा है कि संत ज्ञानेश्वर ने एक भैंसे से मंत्र बुलवा दिए थे.. यह सिद्ध करने के लिए कि सब के अन्दर आत्मा होती है।
और शांति की ज़ुबान से एक घिसा हुआ सत्य फिसल आया- हाँ भगवान तो कण-कण में होते हैं। मगर कहने के साथ ही वो उसमें निहित आशय से उलझ गई- मतलब स्कूटर में भी भगवान हैं और मौक़ा पड़ने पर वो भी कभी मंत्र बोल सकता है और अपना ईश्वरत्व सिद्ध कर सकता है।   
**
रात सोते हुए शांति अपने स्कूटर और उसकी आत्मा के बारे में सोचती रही- वो बेचारा वहाँ शकील के गैराज में अंजर-पंजर खोले उलटा पड़ा हुआ है। न जाने उसकी आत्मा पर कैसी चोट पड़ रही होगी। फिर उसे विवेकानन्द की बीमारी याद आई। आत्मा बीमार नहीं होती, बीमार तो शरीर होता है। यह बात सोचकर उसे बड़ी तसल्ली हुई और उसने शरीर को नींद के हवाले कर दिया।
***

(इसी इतवार दैनिक भास्कर में छपी) 

रविवार, 7 अगस्त 2011

तबादला



दिन का सबसे बीहड़ समय शुरू हो चुका था। दफ़्तर ख़त्म हो गया था और शांति अपना स्कूटर लिए सड़क के सीने पर सवार थी। हज़ारों और लोग भी सवार थे। सब हाथों में लगाम डाँटे सड़क को अपनी-अपनी ओर खींच रहे थे। किसी सताए हुए जानवर की तरह सड़क में से दारुण स्वर उमड़ रहे थे। किसी का ध्यान सड़क पर नहीं था, अपनी-अपनी मंज़िलों पर था। और वहाँ पहुँचने के लिए उनकी आस्था सीधे रास्ते पर नहीं थी, रत्ती भर भी नहीं। उलटे-पलटे, टेढ़े-मेढ़े, आड़े-तिरछे वो किसी भी शर्त पर अपनी मंज़िल पर पहुँच जाने के लिए प्रतिबद्ध लगते थे। यातायात के घोषित नियम और नैतिकताएं हैं मगर शहर की सड़कों पर यातायात किन्ही अघोषित नियमों से संचालित होता है और उस भीड़ में सहयात्रियों के प्रति नैतिकता के लिए ज़रा भी जगह नहीं बची है। हर आदमी उस अन्याय से आहत है जो उसके साथ हुआ है या हो रहा है, और उस अन्याय के प्रति अंधा है जो वो दूसरे के साथ कर रहा है।

शांति रोज़ की तरह घर नहीं जा रही थी। शब्बो के घर जा रही थी रजनी से मिलने। कौलेज में साथ पढ़ती थी पर एक अरसे से उससे कोई बात-मुलाक़ात नहीं रही। असल में तो रजनी शांति की सहेली थी भी नहीं, वो शब्बो का सहेली थी। और उसी की वजह से शांति को उसे सहन करना पड़ता था। और आज भी वो शब्बो के इसरार पर ही उससे मिलने जा रही थी, इतने सालों बाद। कालेज के पाँचों वर्ष शांति ने हमेशा रजनी को प्रतिद्वन्द्वी की तरह देखा। शांति के भीतर रजनी को लेकर एक कड़वाहट हमेशा रही जो किसी गहराई में आज भी कहीं मौजूद है। अगर शब्बो ज़िद न करती तो शांति को उससे मिलने की कोई इच्छा नहीं थी। हालांकि रजनी और शांति दोनों ने गणित में ही एम एस सी किया। शांति को अपनी गणितीय प्रतिभा पर अभिमान था। पूरे स्कूल में गणित में उससे अच्छी कोई लड़की नहीं थी। टीचर्स बाक़ी लड़कियों को उसकी मिसाल दिया करते थे। पर कालेज में रजनी के आगे उसकी सब चमक धूमिल पड़ गई। एक भी साल शांति रजनी से बेहतर प्रदर्शन न कर सकी।

पर रजनी इतनी ही भर नहीं थी। निडर और दबंग थी और कालेज में जूनियर्स के बीच लोकप्रिय भी थी। सब जानते थे कि कोई मुश्किल हो, रजनी दी के पास चली जाओ, ज़रूर मदद करेंगी। और एक बेहद लापरवाह तरह से ख़ूबसूरत भी थी। सुन्दर थी पर कभी बनाव सिंगार कर के कालेज नहीं आई। सच तो ये था कि रजनी और शांति काफ़ी कुछ एक जैसे थे। फ़र्क़ बस ये था कि रजनी शांति से थोड़ी ज़्यादा बुद्धिमान थी, थोड़ी ज़्यादा लोकप्रिय थी और थोड़ी ज़्यादा ख़ूबसूरत थी। शांति इस बात को कभी स्वीकारती नहीं पर रजनी के प्रति उसकी नापसन्दगी के मूल में ईर्ष्या और हीनभावना है।

कालेज ख़त्म होने के तुरन्त बाद ही घरवालों ने उसकी शादी करके ससुराल भेज दिया हालांकि रजनी और आगे पढ़ना चाहती थी। आख़िरी बार शांति ने उसे उसकी शादी में देखा था। तब से एक लम्बे अन्तराल के बाद शांति उससे आज मिल रही है। रजनी से मिलने पर शांति हमेशा एक तनाव अनुभव किया करती थी, एक बार फिर वही तनाव उसकी शिराओं में भर गया था। शब्बो रसोई में थी, दरवाज़ा रजनी ने ही खोला। पर शांति उसे पहचान न सकी। उसके सामने अधपके बालों और मुरझाए हुए चेहरा लिए जो औरत खड़ी थी वो उसकी यादों की रजनी बिलकुल नहीं थी। एक काजल से अधिक उसके चेहरे पर कभी कुछ नहीं लगा होता था। आज भी नहीं था। कभी उसकी लापरवाही उसके अल्हड़ हुस्न की एक अदा थी। सामने खड़ी औरत के चेहरे पर भी लापरवाही थी पर ज़िन्दगी और उसके मंसूबो के बिखराव की इबारत में। ये औरत वो रजनी नहीं थी मगर यही औरत कभी वो रजनी थी।

शांति थोड़ी अचकचाई हुई थी पर रजनी ने उसे लपक के सीने से चिपटा लिया और चूम लिया। शांति को ख़ुद पर एक अजीब सी ग्लानि हुई और अपने भीतर के भावों पर शर्म सी आने लगी। शब्बो रसोई से बाहर आ गई और तीनों बैठकर बातों और भावनाओं का विनिमय करने लगीं। शांति के बारे में रजनी काफ़ी कुछ पहले से जानती थी मतलब वो लगातार उसकी खोज-ख़बर रख रही थी। मगर शांति को रजनी के जीवन के बारे में बहुत कम जानकारी थी। और जो रजनी ने बताया वो सुनकर शांति काफ़ी कुछ हिल गई।  

शादी के तुरन्त बाद फटाफट दो बच्चों के बीच नौकरी की तो बात ही असम्भव थी और पढ़ाई की भी। पति अच्छा था और बच्चे भी प्यारे थे। शादी के पाँच बरस बाद एक नलकूप विभाग में एक नौकरी मिल गई। उसकी प्रतिभा के अनुरूप तो न थी पर बुरी भी न थी। इस नौकरी में विज्ञान और गणित के अमूर्त आनन्द की कोई राह तो न थी। पर कम से कम व्यापक सामाजिक जीवन से सम्बन्ध का एक मंच तो था। चार-पाँच साल तो ठीक-ठाक चलता रहा। फिर प्रदेश में आम चुनाव हुए और नई सरकार ने आते ही पर तरफ तबादलों की झड़ी लगा दी। उसी लपेट में रजनी का तबादला भी प्रदेश के सबसे पिछड़े और अविकसित ज़िले में कर दिया गया। रजनी को निजी तौर पर वहाँ जाने में कोई परेशानी नहीं थी। पर उसका जीवन पति और बच्चों से भी तो जुड़ा हुआ था। उसमे अपने हालात का बयान करते हुए एक अर्ज़ी डाल दी और नई नियुक्ति का कार्यभार ले लिया- यह सोचकर कि पिछड़े इलाक़ो को देखने और उनकी समस्याओं को समझने का एक अनुभव ले लिया जाय।

उसने सोचा था कि दो-चार महीने में उसकी अर्ज़ी पर सुनवाई हो जाएगी। पर नहीं हुई। और पिछड़े इलाक़े का अनुभव धीरे-धीरे एक दुःस्वप्न में बदलता गया। रजनी ने बताया कि वहाँ लोग सरल हैं पर आलसी हैं। कोई काम नहीं करना चाहता। न नीचे वाले और न ऊपर वाले। ख़राब मशीनें महीनों ख़राब पड़ी रहती हैं और काग़ज़ पर अनुमोदन हो जाने के बाद भी नई मशीनें बरसों तक नहीं आतीं। बहुत कुछ किये जाने की ज़रूरत है पर हालात कोई काम नहीं करने देते। हफ़्ते के पाँच दिन ख़ाली बैठे गुज़र जाते हैं। और दो दिन घर पर हफ़्ते भर का काम करते हुए। आने और जाने के रात भर के सफ़र की थकान दफ़्तर की कुर्सी पर बैठे-बैठे दूर हो जाती है।

कितने समय से ऐसा चल रहा है- शांति ने पूछा।
सात साल- रजनी का जवाब था।
सात साल? कर क्यों नहीं रहे तबादला?
पहले तो उसे भी समझ में नहीं आया कि मामला क्या है, रजनी ने बताया। फिर उसे पता चला कि नई सरकार के आने के बाद हर तबादले का रेट फ़िक्स हो गया है और उसके तबादले के लिए पचास हजार का रेट है। रजनी भी शांति की ही तरह ताड़ की तरह सीधी लड़की थी- इस तरह के भ्रष्टतंत्र में शिरकत करने से उसकी नैतिकता आहत होती थी। रजनी ने घूस देने से इंकार किया और व्यवस्था ने उसके अस्तित्व को ही भुला दिया। रजनी ने सोचा कि अगली सरकार आएगी तो उसे कुछ बदलाव आएगा। और बदलाव आया भी। पर तबादले के रेट में बदलाव आया। पचास हजार से रेट बदल कर साढ़े सात लाख हो गया।

पहले रजनी घूस देने के लिए राज़ी नहीं थी। सात साल की रगड़ाई के बाद अब जब वो अपने उसूलों के साथ समझौता करने को तैयार है, तबादले का नया रेट उसकी जेब के बाहर हो गया है। रजनी की प्रतिभा, उसके रौशन दिमाग़, सबकी मदद करने की उसकी नेकनीयती की समाज को कोई ज़रूरत नहीं थी। समाज के लिए वो घूस खाने या खिलाने का एक और एजेण्ट भर थी। उसने इंकार किया और व्यवस्था ने उसकी उमंगो को ध्वस्त करते हुए उसे घुटने टेकने पर मजबूर कर दिया। शांति ने उसके छितराए हुए व्यक्तित्व पर एक नज़र डाली और ग़ुस्से और क्षोभ से झनझना उठी।  

*** 


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