भ्रष्टाचार लेबलों वाले संदेश दिखाए जा रहे हैं. सभी संदेश दिखाएं
भ्रष्टाचार लेबलों वाले संदेश दिखाए जा रहे हैं. सभी संदेश दिखाएं

मंगलवार, 7 जून 2011

यू पी की लड़ाई में बाबा चँप गए


दिल्ली के रामलीला मैदान में जो हुआ वह कोई रणनैतिक भूल नहीं थी जैसे कि अभी कांग्रेस पार्टी, पूरी तरह बचाव की मुद्रा में आ जाने पर, बता रही है। असल में यह एक लाइन से पलटी मार कर दूसरी लाइन पकड़ लेने का झटका था। कांग्रेस में पिछले कुछ समय से दो लाइनें आपस में टकराती रही हैं। एक लाइन तो साफ़ तौर पर सत्ता पर क़ाबिज़ है और जिसका मक़सद है देश में भूमण्डलीय प्रतिमानों पर पूँजीवाद का विकास करना। मनमोहन सिंह, प्रणव मुखर्जी और चिदम्बरम इस लाइन के प्रवक्ता हैं। दूसरी लाइन का मक़सद है कांग्रेस के पुराने क़िले उत्तर प्रदेश में सत्ता हासिल करना। सन १९८९ के बाद से कांग्रेस का यूपी से जो सफ़ाया हुआ है तो दुबारा वहाँ सत्ता की उसकी फ़सल बटाई पर भी काटने लायक़ भी नहीं हो सकी है।

राहुल बाबा का जादू भी निहायत बेअसर रहा है। चालीस का हो जाने के बाद भी उनके अन्दर किसी भी तरह की राजनैतिक बुद्धि पनपती नहीं दिख रही है। और कांग्रेसजन इस बात पर एकमत हैं कि सत्ता हासिल करने के लिए गांधी परिवार की किसी सदस्य का सदर की कुर्सी पर बैठना उनके लिए भाग्यशाली रहता आया है। चाहते तो वो असल में ये हैं कि राहुल के बदले प्रियंका जी टोपी पहन लें मगर सोनिया ज़िद करके बैठी हैं कि प्रधानमंत्री बनेगा तो मेरा बेटा ही। और बेटाजी भी पापाजी के नक़्शेक़दम पर चलने को बेताब हैं। लिहाज़ा दिग्विजय सिंह की घाघ बुद्धि को उनकी सेवा में लगा दिया गया है। तभी से दिग्विजय सिंह कांग्रेस की दूसरी लाइन के प्रवक्ता के रूप में उभरे हैं जिसका म़कसद, जैसा कि पहले कहा, यूपी में सत्ता हासिल करके केन्द्र में पूर्णबहुमत की सरकार में राहुल गांधी को प्रधानमंत्री बनाना है।

इन्दिरा गांधी के समय तक कांग्रेस का वोट तीन तरफ़ से आता था- ब्राह्मण, दलित और मुसलमान। राजीवगांधी ने १९८९ के चुनाव के बाद इन तीनों पर से अपने इज़ारेदारी गँवा दी। १९८७ के भागलपुर के दंगे और हाशिमपुराकाण्ड के बाद से मुसलमान का कांग्रेस से पूर्ण मोहभंग हो गया और उन्होने दूसरा रास्ता देखा। और १९८४ के बाद से निरन्तर एक शक्ति के रूप में बढ़ती बीएसपी के कांशीराम ने दलित को जगाकर बता दिया कि कांग्रेस उनके वोटों की हक़दार क्यों नहीं है। धीरे-धीरे दलित वोटबैंक भी कांग्रेस के हाथ से रेत की तरह खिसक गया। और इन दोनों के जाने के बाद ब्राह्मण जाति के वोट कांग्रेस को मिलते तो रहे मगर किसी बैंक की तरह नहीं। और पिछले चुनाव में तो मायावती ने वो भी छीन लिए। 

दिग्विजय सिंह ने राहुल गांधी को समझा लिया है कि यूपी में वापसी इन जातियों का वोट मिले बिना मुमकिन नहीं है। लिहाज़ा राहुल, राजकुमार के मोहक चेहरे से बहक सकने वाले दलितो को कनविन्स करने में लगे हैं कि वो उनके कितने हितचिंतक हैं। दूसरी तरफ़ अधिक कठिन मुसलमानों को बरग़लाने का काम दिग्विजय ने अपने हाथ में लिया है। ब्राह्मणों की चिंता वो अभी नहीं कर रहे हैं क्योंकि जब सत्ता मिलती दिखाई देगी तो परम्परा से हमेशा से सत्ता के क़रीब रहने वाली ब्राह्मण जाति आसानी से वापस लौटा ली जाएगी।

इसीलिए जब से उन्हे यूपी का प्रभार मिला है मुसलमानों के भीतर मौजूद अल्पसंख्यक भय को भाने वाली बातों को कहने का वो कोई मौक़ा नहीं छोड़ते। ये बहुत ही अफ़सोस की बात है कि इस देश की राजनीति की धुरी बड़े तौर पर भय से प्रचालित होती है। इस धुरी का एक पहलू है जिसमें मुसलमानों को हिन्दू कट्टरता का भय दिखाकर वोट लपेटे जाते हैं और उसी धुरी का दूसरा पहलू वो है जिसमें हिन्दुओं को मुसलमान कट्टरता का भय दिखाकर वोट लपेटे जाते हैं। वामपंथ को इनमें से खुरचन भी नहीं मिलती लेकिन वो ख़ुद अपने हाथों से इस धूल को अपनी और अपने समर्थकों की आँखों में झोंकता रहता है।

जब बाबा रामदेव को एअरपोर्ट लेने चार मंत्री पहुँचे तो उसके पीछे मनमोहन की समझौतापरस्त लाइन काम कर रही थी जो पूँजीवादी विकास के लिए शांति का माहौल चाहती है और व्यवस्था में थोड़े-मोड़े सुधार करने की भी पक्षधर है। लेकिन जब आधी रात को सोते हुए लोगों पर पुलिस को छोड़ दिया गया तो वो दिग्विजय की लाइन थी जो साफ़ तौर पर हिन्दू दिखने वाले और हिन्दू प्रतीकों का इस्तेमाल करने वाले बाबा को ठग बताकर मुसलमान को उनके हितचिन्तक होने का विश्वास दिलाना चाहते हैं। जब वे ओसामा जी के दफ़न-कफ़न के प्रति चिन्तित होते हैं तो उसके पीछे भी ही यही मंशा काम कर रही होती है।

और बाबा को आर एस एस का मुखौटा बताने के पीछे भी यही सोच है कि मुसलमानों को डराया जाय और ये बताया जाय कि कैसे वो आर एस एस के ख़िलाफ़ हैं और इसलिए उनके पक्ष में हैं। जबकि बाबा रामदेव का आर एस एस से कोई प्रत्यक्ष सम्बन्ध नहीं। जो मुद्दे आर एस एस उठाता रहा है वो बाबा भी उठा रहा है और आर एस एस उनका समर्थन भी कर रहा है। इसी आधार पर उन्हे आर एस एस का कीच मलकर मलिन किया जा रहा है। ये दिलचस्प है कि कैसे कोई मुद्दा किसी संगठन को मलिन करता है और फिर संगठन ही दूसरे मुद्दों को छू देने भर से मैला कर देता है। अब भ्रष्टाचार आर एस एस के छू देने से मैला हो चुका है। और रही बात रामदेव की तो वो ज़ाहिरी तौर पर आर्यसमाजी परम्परा में है। आर्यसमाज भी एक समय में मुसलमानों के साथ संघर्ष की भूमिका में रहा है मगर आम मुसलमान को वो सूक्ष्म अंतर कौन समझाए। और अब आर एस एस का खौफ़ फ़ैशन में भी है तो इसीलिए दिग्विजय हर बात घुमा-फिरा कर आर एस एस की ओर मोड़ देते हैं।   

बाबा का तम्बू उखाड़कर कांग्रेस ने २०१२ के यूपी के चुनावों में  मुसलमानों के वोट पर अपनी दावेदारी पेश की है और मायावती को सीधी चुनौती दी है। क्योंकि असल में मायावती ही कांग्रेस की विरासत पर कुण्डली मारकर बैठ गई हैं। दलित, मुसलमान और ब्राह्मण का समीकरण अब उनके पास है। कांग्रेस की इस चाल को मायावती भी अच्छी तरह समझती हैं इसीलिए जब बाबा को दिल्ली से हकाला गया तो मायावती ने उनको भाव देना तो दूर यूपी की सीमा में वापस घुसने भी नहीं दिया। वो नहीं चाहतीं कि मुसलमान के बीच यह इम्प्रेशन जाय कि वो बाबा को बढ़ावा दे रही हैं। अपने व्यवहार में मायावती ने कहीं अधिक राजनैतिक परिपक्वता का मुज़ाहिरा किया है। 

कुछ भटके हुए लोग भले यह समझते रहें कि भ्रष्टाचार १९९१ के आर्थिक नीतियों का परिणाम हैं मगर घुटे हुए समझदार लोग जानते हैं कि भ्रष्टाचार युगों पुराना रोग है। प्राचीन काल में था और मुग़ल काल में भी। कम्पनी के गोरे भी इस रोग से ग्रस्त थे और आज़ादी के तथाकथित मतवाले भी। बीच-बीच में जनता आजिज़ आकर हल्ला मचाती है मगर वापस ढर्रे पर लौट जाती है क्योंकि हर आदमी जो दूसरे के भ्रष्टाचार से दुखी है अपने भ्रष्ट आचरण के साथ सुखी है। बाबा रामदेव ने भी भ्रष्टाचार का झण्डा अपनी सस्ती लोकप्रियता को और भड़काने के लिए उठाया है। बाल-दाढ़ी बढ़ाकर शादी न करने से आदमी वास्तविक ब्रह्मचारी नहीं हो जाता। ब्रह्म के अलावा भी बहुत कुछ में विचरण करने वाले बाबा ने ब्लेड और शादी से सन्यास भले लिया हो सांसारिकता से सन्यास नहीं लिया है।

बाबा कितने आत्मकेन्दित और महत्वाकांक्षी हैं, ये कोई भी देख सकता है। अगर उन्हे वास्तव में भारत और भारतीय मानस में व्याप्त भ्रष्टाचार की चिंता तो है तो भ्रष्टाचार की जड़ पर वार क्यों नहीं करते? आचार पर? धर्म तो समाज की इकाई व्यक्ति को मानता है। समाज परिवर्तन की धुरी वो व्यक्ति को मानता है। इसीलिए साधु समाज को नहीं बदलता, स्वयं को बदलता है। बाबा कहाँ अनशन में जुट गए?

अनशन बापू का हथियार था और याद रहे बापू साधु नहीं, राजनीतिज्ञ थे। उनका अनशन अपने भीतर की वृत्तियों पर क़ाबू पाने के लिए नहीं था जैसा कि हर सच्चा धार्मिक और आध्यात्मिक व्यक्ति करता है, उनका अनशन राजनैतिक लक्ष्य के लिए होता था। इसलिए कोई अगर ये कहे कि बाबा तो राजनीति नहीं कर रहे थे, तो वो नासमझ हैं। सिर्फ़ चुनाव लड़ना ही राजनीति नहीं होती। राज्य की नीति परिवर्तन के लिए जो कुछ भी किया जाय वो सब राजनीति है।

मगर बाबा कच्चा है। वो दिग्विजय सिंह जैसा घाघ नहीं है। राजनीति उसके बस की नहीं। अच्छी राजनीति करने के लिए सिर्फ़ अच्छा आदमी होना ज़रूरी नहीं, कुटिलता ज़रूरी है। और बाबा के तो अच्छे होने पर भी सन्देह है। बाबा का असली योगदान तो यह हो सकता था कि वो व्यक्तियों के भीतर भ्रष्टाचार के अनैतिक बीज के विरुद्ध आध्यात्मिक जंग का ऐलान करे। मगर वो यह कर सकें ये बूता उनमें नहीं है। जिस व्यक्ति ने योग को महज़ शरीर को एक स्वस्थ रखने की पद्धति बना दिया उससे आप किसी आध्यात्मिक समझ की क्या उम्मीद कर सकते हैं? जिस पतंजलि के नाम पर उन्होने अपना विद्यापीठ बनाया है उनकी दो हज़ार से भी पुरानी किताब योगसूत्र में किसी आसन का कोई ज़िक़्र नहीं है, वो सिर्फ़ एक दार्शनिक-आध्यात्मिक सिद्धान्त है। आसन-बन्ध-मुद्रा वाला ये संस्करण तो गोरख और मछन्दर के बाद नौवीं-दसवीं सदी से आया है। और उसका भी ध्येय शरीर में रमना नहीं, स्थूल शरीर के पार जाना ही है। पर वो सब किसे याद है?


दिल्ली से निकाले जाने के बाद बाबा ने जिस तरह की अनावश्यक दारुणता का मुहावरा चुना है उससे कुछ लोग भले ही धोखा खा जायें पर अधिकतर लोग उनकी नौटंकी के आर-पार देख सकेंगे। 

मंगलवार, 19 अप्रैल 2011

अन्ना : भ्रष्टाचार : लोकपाल


२०११ के इस अप्रैल के पहले पखवाड़े में कुछ अभूतपूर्व घटनाएं हुई हैं। भारत ने क्रिकेट का विश्वकप जीता। अन्ना हज़ारे के भ्रष्टाचार के विरुद्ध और जनलोकपाल के लिए किये गए अनशन को अप्रत्याशित जनसमर्थन मिला। और सुप्रीम कोर्ट ने निचली अदालतों के फ़ैसलों को कूड़ेदान में फेंकते हुए राजद्रोह के आरोपी बिनायक सेन को निर्दोष घोषित कर दिया। तीनों घटनाएं आशा, विजय और आनन्द का दुर्लभ प्रयोजन बनी। इनमें से पहली और आख़िरी पर तो कोई अधिक विवाद नहीं हुआ। मगर दूसरी घटना याने अन्ना हज़ारे, उनका आन्दोलन और उनके द्वारा प्रस्तावित जनलोकपाल बिल क्रूर आलोचनाओं का निशाना बना है।

आशावाद बनाम हताशा
मूर्धन्य पत्रकार पी साईनाथ से जब पूछा गया कि उनकी इस बिल के बारे में क्या सोच है। तो उन्होने इसे चरम आशावाद बताया है। और इस पर आस्था रखने वाले व्यक्ति की तुलना किसी बहुमंज़िली इमारत से गिर रहे उस बदनसीब आदमी से की जो हर मंज़िल गुज़रने के बाद कहता है- यहाँ तक तो सब बढ़िया है। निश्चित तौर पर इस आन्दोलन के समर्थक एक तरह के आशावाद के मरीज़ हैं। जो मान रहे हैं कि एक लोकपाल आ जाने से देश में भ्रष्टाचार की समस्या का समाधान हो जाएगा। पर क्या बात सिर्फ़ इतनी ही है?

पिछले पचीस बरस से इस देश में भ्रष्टाचार के मामले कभी ठण्डे नहीं पड़ने पाए हैं। एक के बाद दूसरे मामले, उत्तरोत्तर गहरे और बड़े मामले। लाखों से करोड़ों और करोड़ों से अरबों रुपये के घपले के मामले। जनता का पैसा जिसे देश के विकास- स्वास्थ्य, शिक्षा और जनकल्याण- में खर्च होना चाहिये, वो नेता और नौकरशाह चूहों की तरह कुतरते तो भी सहा जा सकता मगर वो तो डाकुओं की तरह लूट रहे हैं। जनता उनकी इस बेशर्म लूट को लेकर इतनी हताश हो चुकी है कि सब साले चोर हैं को ही अन्तिम सत्य मान चुकी है। जबकि सच्चाई कभी इतनी सरल नहीं होती।

भारत की जनता एक हारी हुई, लुटी हुई, और पिटी हुई मानसिकता का शिकार रही है। शायद सैकड़ों बरस से। एक अकाल, एक दुर्भिक्ष का मानस घर कर गया है उनके अन्दर। हर आदमी अपने संकीर्ण स्वार्थ को सामने रखकर जितना हो सके, मलाई चांभ लेना चाहता है। इसीलिए जब कोई आदमी लंगोटी लगाकर उनके हित की बात करने को आगे आता है तो वो जनता उसे व्यक्ति को महात्मा की पदवी पर चढ़ाकर उसमें अपनी सम्पूर्ण आस्था निवेश कर देती है। यह जनता इस क़दर हारी हुई भी है कि एक क्रिकेट टीम की जीत को वो अपनी निजी जीत की तरह देखती है। और उसकी हार की सम्भावना उपस्थित होते ही स्टेडियम से पलायन कर जाती है या टीवी बन्द कर देती है। ऐसी हताश जनता में आशा के संचार होने को क्या पी साईनाथ की तरह रोग समझा जाय? या स्वास्थ्य की दिशा में बढ़ते क़दम। हताश लोग या तो लड़ाई लड़ते ही नहीं, लड़ते हैं तो प्रतिरोध होते ही हथियार डाल देते हैं, और कुछ तो आत्महत्या भी कर लेते हैं। आशावान ही किसी नए समाज की नींव रख सकता है। या किसी परिवर्तन में सकारात्मक भूमिका निभा सकता है। अफ़सोस ये है कि मेरे अधिकतर प्रगतिशील और सामाजिक परिवर्तन के आंकाक्षी मित्र अभी भी निराशा की गर्त में से इस आन्दोलन को गलिया रहे हैं। शुरुआत में सीपीआई एम एल के मेरे कुछ पुराने साथियों ने अन्ना के प्रति बेहद कटु निन्दा का रवैया लिया था। इसीलिए जब सीपीआई एम एल ने आन्दोलन का समर्थन करने का फ़ैसला किया तो मुझे बहुत हैरानी हुई मगर ख़ुशी भी।


साम्प्रदायिक और जातिवादी समर्थक
एक बात बार-बार ये भी कही जा रही है कि इस बिल के समर्थक या तो शहरी, अभिजात्य वर्ग के स्वयं भ्रष्टाचारी लोग हैं। या फिर साम्प्रदायिक और जातिवादी लोग। पहले तो यह सच है नहीं। इस आन्दोलन की अपील बहुत व्यापक है। तभी सरकार ने घबराकर फ़ौरन सारी माँगें मान लीं। और अब छिपकर तरह-तरह के दुष्प्रचार करवा रही है। दूसरे ये कि जो लोग ये आरोप लगा रहे हैं असल में उन्हे भारवासियों के असली चरित्र का अन्दाज़ा नहीं है। ये कहा जा सकता है कि यहाँ वही ईमानदार है जिसे बेईमानी करने का मौक़ा नहीं मिला है। अगर ग़रीब किसान और मज़दूर ईमानदार है तो इसलिए कि वो कमज़ोर है। भ्रष्ट होने के लिए ताक़त होना ज़रूरी है। रही बात जातिवादी होने की। तो इस समाज में मैं बहुत कम ऐसे लोगों से मिला हूँ जो जातिवादी नहीं हैं। और उनमें से अधिकतर शहरी और पढ़े-लिखे वर्ग से आते हैं। हाँ ये ज़रूर कहा जा सकता है कि इस आन्दोलन के कई समर्थक मण्डल कमीशन के विरोधी थे। ऐसा ज़रूर सच है। मगर इस से यह सिद्ध नहीं होता कि जो लोग मण्डल कमीशन के समर्थक थे वो जातिवादी नहीं थे? कुछ एक प्रगतिशील तत्वों को छोड़कर मण्डल के समर्थक वही लोग हैं जिन्हे इस नीति से लाभ मिलने वाला है। इस लाभ के मिल जाने से उनके भीतर का जातिवाद मिट नहीं जाता। उलटे वह अवसर और शक्ति मिलने से और प्रबल होकर सामने आया है। आरक्षण से दलित और पिछड़ी हुई जातियों का उत्थान अवश्य होगा मगर उससे जातिवाद नहीं जाएगा। जातिवाद को कमज़ोर करने वाली सबसे बड़ी ताक़त वो शै है जिसे मेरे प्रगतिशील मित्र हिकारत की नज़र से देखते हैं- औद्योगिक पूँजीवादी समाज। भारतीय ग्रामीण जीवन जातिवाद की जड़ों का पोषण करता रहा है।

मेरा कहना यह है कि फ़िलहाल देश में जातिवाद और भ्रष्ट आचरण सर्वव्याप्त है। तो किसी ऐसी जनता की कल्पना करना जो पूरी तरह से इन रोगों से मुक्त होगी, व्यर्थ है। निश्चित ही इस अभियान के कुछ समर्थक मण्डल कमीशन की प्रगतिशील नीतियों के विरोधी हैं। मगर उनके चरित्र को पूरे अभियान पर आरोपित करना अतिरेक है। यह अभियान भ्रष्टाचार के विरुद्ध है जातिवाद के पक्ष या विपक्ष में नहीं। जो लोग इसमें जातिवाद और साम्प्रदायिकता का आरोपण कर रहे हैं उनके लिए पुरानी कहावत पीढ़ियों से चली आई है- सावन के अंधे को सब तरफ़ हरा ही हरा दिखता है।

अनशन का ब्लैकमेल
कुछ लोग कह रहे हैं कि अन्ना लोकतंत्र की गाड़ी में डंडा फंसा रहे हैं। अनशन करके वो जनता के प्रतिनिधियों को ब्लैकमेल कर रहे हैं। अन्ना कोई अकेले या पहले आदमी हैं जिन्होने अनशन किया है? इरोम शरमीला नाम की एक लड़की दस साल से अनशन कर रही है। सरकार तो आज तक ब्लैकमेल नहीं हुई? सवाल है कि क्यों नहीं हुई? अनशन करने से कोई सरकार ब्लैकमेल नहीं होती। अनशन करने से जब किसी व्यक्ति को जनसमर्थन मिलने लगता है तो सरकार पर जनता का दबाव बनता है और जनता की व्यापक इच्छा को ध्यान में रखते हुए वो कोई क़दम उठाती है। इस तरह के अनशन और अभियान को अलोकतांत्रिक समझना एक गहरी भूल है। लोकतंत्र चुनाव तक ही सीमित नहीं होता। अधिक से अधिक जनता की भागीदारी ही स्वस्थ लोकतंत्र की पहचान है।

लोकपाल का दायरा
कांग्रेस के महासचिव दिग्विजय सिंह ने एक और शिगूफ़ा छोड़ा है- कि सिर्फ़ संसद, विधानसभा और नौकरशाही ही लोकपाल कानून के दायरे में हैं। और कारपोरेट्स, एन जी ओ, मीडिया, उच्च न्यायपालिका, आदि लोकपाल के दायरे में नहीं हैं। इस तर्क में कोई दम नहीं है। कारपोरेट्स, एन जी ओ, मीडिया, उच्च न्यायपालिका, आदि के ख़िलाफ़ सरकार जब चाहे तफ़तीश कर सकती है। उसके पास तमाम एजेन्सीज़ हैं। सवाल तो उनके खिलाफ़ जांच करने का है जो जांच एजेन्सीज़ के माईबाप बनकर बैठे हैं।

साम्प्रदायिकता बनाम भ्रष्टाचार
एक लहर ये भी चली है कि अन्ना मोदी के समर्थक हैं। इसका समूहगान करने वाले भूल जाते हैं कि इसी अभियान के दूसरे नेता स्वामी अग्निवेश माओवादियों के समर्थक हैं। वैसे सच ये है कि अन्ना ने मोदी की व नीतीश की तारीफ़ की ज़रूर मगर ग्रामीण विकास के प्रसंग में। फिर अलग से उन्होने गुजरात के साम्प्रदायिक दंगो की भर्त्सना भी की। मगर कुछ लोग तो जैसे इसी इन्तज़ार में थे कि कब अन्ना कुछ ऐसा कहें जिस पर उनको पीटा जा सके। मैं स्वय़ं मोदी का विरोधी हूँ। मगर ज़रा सोचिये गुजरात में एक साम्प्रदायिक मोदी बनाम महाराष्ट्र में पवार, ठाकरे, व देशमुख, कर्णाटक में बेल्लारी बंधु और येदुरप्पा, तमिलनाडु में करुणानिधि और जयललिता, आंध्र में वाइ एस आर जगनरेड्डी, बिहार में लालू, यू पी में मुलायम और माया, झारखण्ड में कोडा और केन्द्र के अनगिनत मंत्री और सत्ता के दलाल। क्या अकेले साम्प्रदायिकता ही देश पर आसन्न ख़तरा है और भ्रष्टाचार कोई समस्या ही नहीं है? ये वैसे ही है जैसे बहुत से लोग लाख से ऊपर आत्महत्या कर चुके किसानों की कर्ज़े की समस्या से बड़ी समस्या आतंकवाद को मानते हैं। सत्ता, लगातार मँहगें होते चुनाव और भ्रष्टाचार का एक वर्तुल सा बना हुआ है। जिसे तोड़ने के लिए लोकपाल बिल एक ज़रूरी कड़ी बन सकता है।


अन्ना और बिल
अन्ना कौन हैं क्या हैं, यह महत्व का है। मगर अभियान उनसे अधिक महत्व का है। अभियान में और भी लोग हैं जो अन्ना जैसे नहीं हैं। उनकी अलग साख और अलग मूल्य हैं। अग्निवेश, केजरीवाल, किरन बेदी यह सब एकदम अलग लोग हैं, पर एक मुद्दे पर एक हैं। देखने की बात ये भी है कि इनका पिछला ट्रैक रेकार्ड क्या है? अन्ना और केजरीवाल वही लोग हैं जिन्होने सूचना के अधिकार के लिए अभियान चलाया था। और आज जब सूचना का अधिकार का क़ानून बन गया है तो वो सिर्फ़ सवर्णों और हिन्दुओं के लिए नहीं है। लोकपाल क्या अन्ना की कल्पना है? चालीस साल से यह बिल बनकर धूल खा रहा है। हुआ बस इतना कि इतने अरसे में उसके दांत ज़रूर गिर गए। फिर से कहता हूँ कि साम्प्रदायिकता और जाति का मुद्दा ध्यान भटकाने की साज़िश है।

बिल में समस्याएं
इस प्रस्तावित जनलोकपाल बिल में तमाम समस्याएं हैं। और इसमें लोकपाल चुनने की प्रक्रिया तथा अन्य भी सुधार और परिष्कार की गुंज़ाईश है। मगर जिस तरह मेरे तमाम प्रगतिशील मित्र और सामाजिक विषमताओं को दूर करने के लिए प्रतिबद्ध साथी इस आन्दोलन और जनलोकपाल बिल का विरोध कर रहे हैं उस से ऐसा लगता है कि जनलोकपाल बिल सामाजिक परिवर्तन की राह में रोड़ा बन गया हो। और जैसे उसके लागू हो जाने से जातीय विषमताएं बढ़ जाने वाली हैं। जैसे लोकपाल अपने आप में कोई साम्प्रदायिक पद हो। जिसके अस्तित्व में आ जाने से देश में मुसलमानों और ईसाईयों पर बड़ी आफ़त टूट पड़ने वाली है। अभी बिल पर बहुत बात होनी है। बजाय दूसरी बातों के जनलोकपाल की संस्था को कैसे और बेहतर बनाया जाय, पर बात होनी चाहिये।

पावर करप्ट्स
आजकल एक चलन हो चला है कोई बीमारी हो प्राणायाम कर लो। रामदेव का यह रामबाण तो अब उनके भक्तों के अनुसार भी बेअसर होने लगा है। हमारा यह विविधतापूर्ण समाज इतना सरल नहीं है। कि एक जातिवाद को दूर करने से ही आदर्श समाज क़ायम हो जाएगा। या इज़ारेदार पूँजी पर रोक लगाने भर से समता स्थापित हो जाएगी। या साम्प्रदायिक भेदभाव को मिटा देने और साम्प्रदायिकता के राक्षस को जिबह कर देने से अमन और इंसाफ़ का निज़ाम हो जाएगा। मामला उलझा हुआ और जटिल है। कुछ लोग कह रहे हैं कि भ्रष्टाचार का सम्बन्ध नई उदारवादी आर्थिक नीतियों से है। अगर ऐसा है तो १९९१ के पहले तो सब जगह सदाचार ही होना चाहिये था। पर ऐसा था क्या? इन सारी समस्याओं के प्रति यथोचित सम्मान व्यक्त करते हुए मैं इतना अर्ज़ करना चाहूँगा कि मेरी समझ में भ्रष्टाचार की जड़ सत्ता और शक्ति के केन्द्रीकरण में है। जब अधिकार किसी एक संस्था या व्यक्ति में केन्द्रीकृत हो जाते हैं तो भ्रष्टाचार जड़ फैलाने लगता है। अंग्रेज़ी का सरल और पुराना सूत्र है- पावर करप्ट्स। दो शब्दों में सीधा सम्बन्ध नज़र आता है। पावर और करप्शन। इसीलिए शक्तिशाली और सत्ताधीन लोगों की शक्ति और सत्ता के विकेन्द्रीकरण की ज़रूरत है। और जनलोकपाल इसी दिशा में एक और क़दम है। मेरा ज़ोर एक और पर है। न तो यह पहला है और न आख़िरी। लोकतंत्र की संरचना ही शक्ति के केन्द्र के विखण्डन की है। और जो लोग इस बिल को अलोकतांत्रिक कह रहे हैं वो असल में इसके भीतर और जनतांत्रिक सम्भावनाओं की सेंध लगा रहे हैं। उनका स्वागत किया जाना चाहिये।


मगर जो लोग इसे पूरी तरह से नकार कर इसके ख़िलाफ़ एक भर्त्सना अभियान चला रहे हैं वो असल में सत्ताधारियों और भ्रष्टाचारियों की उस साज़िश का शिकार बन रहे हैं जो इस मुद्दे से ध्यान भटका कर अपनी बदउन्वानी की रसोई पकाते रहना चाहते हैं। क्योंकि लोकपाल की संस्था के क़ायम हो जाने से उनकी मनमानी पर लगाम लग जाने वाली है।

शनिवार, 31 जनवरी 2009

रिलायंस दि रियल नटवर

आजकल विदेश मंत्री प्रणव मुखर्जी के नाम की बड़ी धूम है। दो साल पहले उनकी कुर्सी पर नटवर सिंह विराजमान थे। वे किस अपराध के चलते गद्दी से उतारे गए, ये जनता भुला चुकी है। कुछ तेल का मामला था.. इराक़.. सद्दाम हुसेन..नटवर ने उसमें घूस खाई थी.. जाँच हुई.. उनको निकाला गया.. । मगर उस सारे प्रकरण से रिलायंस का लेना देना? रिलायंस .. रियल नटवर.. इसका क्या मतलब है..?

बताता हूँ क्या मतलब है.. पहले याद दिलाता हूँ कि इराक़ में क्या हुआ था..
१९९१ में सद्दाम हुसेन ने तेल के लालच में कुवैत पर हमला किया। जवाब में अमरीका ने उसे बुरी तरह मसल डाला और उस पर सयुंक्त राष्ट्र के ज़रिये तमाम पाबन्दियाँ भी थोप डाली.. सब से खास ये कि कोई इराक़ के साथ व्यापार नहीं करेगा। नतीतजतन इराक़ में एक मानवीय संकट पैदा हो गया। रहम खाकर (या तेल की भूख से प्रेरित हो कर, भगवान जाने) १९९६ में सं. रा. ने ऑइल फ़ॉर फ़ूड नाम का एक कार्यक्रम ईजाद किया जिसमें इराक़ अपना तेल सं. रा. को देगा। वो तेल सं. रा. अपने पास लिस्टेड कम्पनियों को बेचेगा और उस से हुई आमदनी का एक हिस्सा अमरीका को (युद्द क्षति पूर्ति), दूसरा हिस्सा कुवैत को (हरजाना), और बची हुई ३०% धनराशि से अनाज और दवाईयाँ खरीद के इराक़ की जनता के लिए इराक़ भेज दी जायेंगी।

मरता क्या न करता.. इराक़ ने ये प्रस्ताव मंज़ूर किया। चार साल तक यह कार्यक्रम ईमानदारी से चला। मगर सन २००० में सद्दाम, सं. रा. के कुछ भ्रष्ट अधिकारियों और बिचौलियों ने मिलकर एक ऐसी योजना तैयार की जिस के ज़रिये सब लूट-खसोट और बन्दरबाँट कर सकें। सद्दाम ने शर्त रखी कि कि इराक़ तय करेगा कि तेल किसे दिया जाय और हर बैरल तेल पर सरचार्ज की छोटी धनराशि की अदायगी करनी होगी.. सद्दाम की ये मासूम सी शर्त सं. रा. ने मान ली।

सद्दाम तय करता कि तेल किसे देगा.. वो नटवर सिंह भी हो सकते थे.. स्पेन की एक राजनीतिक पार्टी भी और कोफ़ी अन्नान के सुपुत्र भी। तेल का ईनाम पाने वाले ये लोग किसी तेल कम्पनी को ये तेल बेच देने के लिए स्वतंत्र थे। मतलब कि जो रिश्वत या सरचार्ज, नटवर ने सद्दाम को दी वो तेल कम्पनी से वसूल ली। इस पूरे खेल में निश्चित ही सं.रा. के अधिकारी भी बराबर कुछ प्रसाद पाते रहे। रिश्वतखोरी का ये सिलसिला लगभग साढ़े तीन साल तक चलता रहा.. जो सद्दाम के अपदस्थ होने के साथ ही थमा जब ऐसी किसी पाबन्दी और कार्यक्रम और सरचार्ज के और औचित्यों को पछाड़ते हुए इराक़ के तेल के कुँओ में ही जार्ज बुश ने अपना सर डाल दिया। और इस पूरे मामले पर वोलकर रपट सामने आई।

नटवर सिंह पर वापस लौटते हुए पूछा जाय कि आखिर उनका अपराध क्या था? उनका अपराध ये था कि उन्होने (या उनके बेटे जगत और अन्दलीब सहगल ने) सरचार्ज नाम की रिश्वत दी और ईनाम में मिले लगभग तीन मिलियन बैरल तेल को तेल कम्पनियों को बेच कर एक मोटी रक़म कमाई। (ये बात अलग है कि दीग़र हालात में ये व्यवहार सामान्य व्यापार का हिस्सा माना जायेगा.. मगर चूँकि अमरीका के दबाव में सं.रा. ने जो पाबन्दियाँ लगाईं थी.. उसका उल्लंघन हुआ था इसलिए ये निश्चित अपराध था)। नटवर सिंह, उनके बेटे जगत सिंह, और उसके दोस्त अन्दलीब सहगल पर तीन मिलियन बैरल तेल के आपत्तिजनक रिश्वतखोरी में मुलव्वस होने का आरोप लगा।

संसद में कांग्रेस, बीजेपी और वाम दलों ने नटवर को खूब धिक्कार, नैतिकता के दुहाई दी गई, भ्रष्टाचार को क़तई सहन न करने की क़समें खाईं गईं। जस्टिस पाठक की अध्यक्षता में एक जाँच कमेटी बैठाई गई। मीडिया में महीनों तक ब्रेकिंग न्यूज़ का बाज़ार गर्म रहा। और सब ने नटवर जैसे भ्रष्ट, अनैतिक मंत्री को सत्ता से धकेल कर ही दम लिया जब देश में वापस शुचिता की बयार मंद-मंद बहने लगी।

लेकिन इसी मामले में रिलायंस पन्द्रह मिलियन बैरल तेल को खरीदने और उस से लाभान्वित होने का अपराधी था मगर उस बारे में किसी ने कोई बात नहीं की। न सोनिया ने, न चिदम्बरम ने, न कपिल सिब्बल ने, न प्रणव मुखर्जी, न ईमानदारी की प्रतिमूर्ति मनमोहन सिंह ने, न लाल कृष्ण अडवाणी ने, न मुलायम और अमर सिंह ने। वाम दलों ने एक प्रेस कान्फ़्रेस में रिलायंस की जांच करने की माँग ज़रूर की मगर संसद का सत्र शुरु होने के पहले मुकेश अम्बानी साक्षात सीपीएम मुख्यालय में जाकर सीताराम येचुरी से मिल कर आ गए और येचुरी संसद में रिलायंस का नाम लेने से क़तरा कर निकल गए।

भारतीय मीडिया के पुरोधा प्रणव राय, बरखा दत्त, राजदीप सरदेसाई, और अरणव गोस्वामी (सम्भव है ये सभी उस समय अपनी वर्तमान स्थिति में न रहे हों) एक ने भी रिलायंस का नाम एक दफ़े भी उच्चारित होने देने का महापाप होने नहीं दिया। एकाध अपवाद को छोड़कर अधिकतर प्रिंट मीडिया ने भी मौन की साधना की।

ये सच है कि रिलायंस ने सद्दाम की सत्ता से सीधे तेल नहीं खरीदा। बल्कि एलकॉन नाम की एक कम्पनी की आड़ से तेल खरीदा.. जबकि एलकॉन की तरह वो भी सं.रा. में रजिस्टर्ड कम्पनी के बतौर लिस्टेड है और सरचार्ज के पहले लगातार सीधे तेल खरीदता रहा था। वो चाहता तो सरचार्ज की शर्त के बाद भी ये सौदा सीधे कर सकता था।

मगर निश्चित ही वो इन खेलों का पुराना माहिर है और अवैध रस्तों के उसे सारे पैंतरे और भविष्य में आने वाले फन्दों की अच्छी जानकारी है। और उसे अच्छी तरह मालूम था कि ये खेल ग़ैर-क़ानूनी है इसीलिए उसने ये सावधानी बरती। मगर इस से उसका अपराध कम नहीं हो जाता.. और वोल्कर रपट पर पाठक कमेटी और ससद में बहस का मुद्दा फ़ूड फ़ॉर आइल कार्यक्रम में मुलव्वस सभी भारतीय व्यक्तियों और संस्थाओं का पर्दाफ़ाश करना था.. और नटवर सिंह की तरह रिलायंस भी एक नान कान्ट्रैक्क्चुल बेनेफ़िशियरी था। इसलिए जितना अपराध नटवर का था उतना रिलायंस का भी।

तो किस रिश्तेदारी के चलते लोकतंत्र के तीनों-चारों खम्बे रिलायंस और मुकेश भैया के प्रति धृतराष्ट्र की वात्सल्य दृष्टि अपनाए रहे? किस रिश्तेदारी के चलते..? क्या ये तथाकथित जनता के प्रतिनिधि.. जनता के प्रतिनिधि हैं या नहीं? नहीं हैं तो किस के प्रतिनिधि हैं.. विचार करें.. लोकतंत्र में लोक का असली अर्थ कुछ अन्य है.. या लोक और तंत्र के बीच कोई अन्य शब्द प्रच्छन्न है?


और जानकारी के लिए पढ़िये अरुण के अग्रवाल द्वारा लिखित किताब रिलायंस दि रियल नटवर



इस किताब के बारे में मुझे मेरे विस्फोटक मित्र संजय तिवारी ने बताया था.. उन्हे धन्यवाद!

इसी किताब का एक और रिव्यू
Related Posts Plugin for WordPress, Blogger...