
ये गोरी चमड़ी वाले लोग, जिन्होने डेढ़ सौ बरस राज किया हमारे ऊपर, को ओशो, अंग्रेज़ी के अपने निहायत देसी उच्चारण के बावजूद कुत्ता बनाकर रखते थे। इसे गाली न समझा जाय! कुत्ता जैसे स्वामी के आगे पीछे भक्ति भाव से डोलता है.. वैसे ही ये गोरे भी डोलते रहे।
अमरीका जा के भी डंका बजा आये थे.. पर जाने क्या साउंड बैरियर तोड़ दिया कि अमरीका वालो ने इनको टिकने ही नहीं दिया। कुछ लोगों का आरोप है कि वहाँ कि क्रिश्चियन लॉबी को इनका ‘नैतिक भ्रंश’ रास नहीं आया। कुछ लोगों का कहना है कि अमरीका से उनके निकाले जाने के पीछे अमरीकी राष्ट्रपति रोनाल्ड रीगन और उनके पीछे पोप का दुराग्रह था। और वो सिर्फ़ अमरीका ही से नहीं निकाले गए.. पूरी दुनिया में वो जहाँ-जहाँ गए उन्हे विरोध का सामना करना पड़ा।
अमरीका से निकलने के बाद ओशो ने दुनिया की सैर करने का मन बनाया पर ग्रीस, स्वीडन, इंगलैंड, आयरलैंड, स्पेन, स्विटज़रलैंड, सेनेगल, उरुग्वे कहीं भी उन्हे जमने नहीं दिया गया। कुल मिलाकर सत्रह देशों से खदेड़े गए और कई जगह तो एयरपोर्ट से ही वापस लौटा दिया गया.. जैसे वो कोई प्लेग की बीमारी हों! ध्यान दिया जाय इन देशों में से कोई भी ‘मुस्लिम’ देश नहीं था.. लगभग सभी तथाकथित धर्मनिरपेक्ष देश थे।
पहले तो ओरेगॉन की बिग मडी रान्च में बसे रजनीशपुरम को अवैध घोषित किया गया क्योंकि वहाँ धर्म को राज्य के साथ मिलाया जा रहा है.. ये वो देश कह रहा था जिसकी करेन्सी - हर डॉलर पर छपा रहता है – इन गॉड वी ट्रस्ट! हद है!

अमरीका जाने से पहले ओशो ने अपनी बेबाक ज़बान में भारत तथा उसकी संस्कृति को काफ़ी गरियाया था। क्योंकि पुणे में उनके आश्रम के खुले वातावरण और रजनीश के उकसाने वाले वक्तव्यों के चलते धार्मिक कट्टरपंथी उनसे खासे खफ़ा थे। पुणे में एक सभा के दौरान उन पर एक व्यक्ति ने चाकू से हमला भी किया। सरकार ने उनके आश्रम में आने वाले विदेशी भक्तों के ऊपर रोक-टोक लगाना शुरु कर दिया और आश्रम के ऊपर भी कुछ क़ानूनी दाँव-पेंच निकाले।
जिस से खफ़ा होकर ओशो ने दुनिया के ‘सबसे सुनहरे’ देश अमरीका की ओर रुख किया। पर वहाँ जो हाल हुआ उसने उनका दिल ही नहीं तोड़ दिया- बाद में उनके डॉक्टर ने भी ये भी आशंका व्यक्त की वहाँ पर दिए गए ज़हर ने ही उनकी जान ले ली। पर विडम्बना यह है कि आखिरकार ओशो को पुणे की धार्मिक संकीर्णता ने ही शरण दी। जिस को गरिया कर भागकर वो पश्चिम के खुलेपन में अपना आश्रम बनाने गए थे.. पर नहीं बना सके।

यहाँ यह याद दिला देना अप्रासंगिक नहीं होगा कि रामकथा बखानने वाले मुरारी बापू भी ओशो का श्रद्धा के साथ स्मरण करते हैं और उन्हे महात्मा मानते हैं। साथ ही साथ यहाँ यह भी याद करा दूँ कि इस बात को किन्ही रामभक्तों की शुद्ध आपराधिक साम्प्रदायिकता का अनुमोदन न समझा जाय! वो हमारे समाज का एक अपना फोड़ा है।
खैर.. रजनीश उर्फ़ ओशो तो निकल लिए.. पर चेले छोड़ गए पुणे में। चेलों में काफ़ी उठापटक भी चलती रही काफ़ी बाद तक। पर यहाँ का जो आश्रम है.. वो अब आश्रम नहीं रिसार्ट है- ओशो इन्टरनेशनल मेडीटेशन रिसार्ट। पहले तो इतना नहीं खटका पर जब साइलेंट टुअर के हिस्से के बतौर हमें जो आधे घंटे की वीडियो फ़िल्म दिखाई गई, उसे देखकर हमें समझ आ गया कि जन्नत की हक़ीक़त क्या है।
यह फ़िल्म एक ऐसे दर्शक को सम्बोधित थी जो इंडिया के बारे में कुछ नहीं जानता। उसका जहाज मुम्बई पर लैंड करता है वहाँ से डेकन एक्सप्रेस पकड़कर वो लोनवला की मिस्टीरियस पहाड़ियों को देखता हुआ पूना आ जाता है, जहाँ पर ऒशो रिसार्ट है। फ़िल्म आगे बताती है इस दर्शकों को कि इस रिसार्ट में क्या क्या गतिविधियां होती हैं और कुछ ऐसे लोगों के अनुभव बाते जाते हैं जो इस सुविधा का लाभ ले चुके हैं। फ़िल्म में दिखाई देने वाले ये चार-पाँच चेहरे सभी गोरी चमड़ी वाले हैं जो दिन में तो भूरे रंग की आध्यात्मिकता के लबादे पहन कर इधर-उधर डोलते रहते हैं पर रात में शराब और शबाब की रंगीनियों में खो जाते हैं।

खैर छोड़िये इस बात को… हमें बस ओशो रिसार्ट जा कर एक बात का एहसास हुआ कि गोरा आदमी भले ही व्यक्तिगत तौर पर काले और भूरे आदमी को अपने से हीन न समझता हो या व्यक्तिगत तौर पर ज़ाहिर न होने देता हो पर तमाम ऐसे छोटे-छोटे रूप हैं जिनसे उनका ये रंगाग्रह ज़ाहिर हो जाता है। पर वे ये नहीं समझते कि जिस छोटे से आश्रम की चहारदीवारी में बंद हो कर वे अपने को धन्य-धन्य समझ रहे हैं.. उस के बाहर तमाम ऐसे भूरी चमड़ी वाले ठलुए, थोक के भाव, घूम रहे हैं जो उन्हे अपनी जटाओं में बाँधकर सहस्रार की सैर करवा सकते हैं।
इसके अलावा मैंने ऐसे सभी आश्रमों में देखा है कि इस की दीवारों के भीतर जाने वाले लोग मुक्ति की तड़प ले के जाते हैं और आश्रम की उन दीवारों के बन्दी होकर रह जाते हैं..क्यों? मेरे मित्र कमल भाई बताते हैं कि असल में आश्रम एक तरह का कॉरपोरेशन है.. वो तो यहाँ तक कहते हैं कि कॉरपोरेशन की अवधारणा का विकास आश्रम/मठ की अवधारणा से हुआ है। तो किसी भी अन्य कॉरपोरेशन की तरह हर आश्रम शुरु तो होता है सामाजिक हित के लिए पर जल्दी ही अपने हित साधने लगता है।