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गुरुवार, 24 अप्रैल 2008

ओशो इन्टरनेशनल मेडीटेशन रिसार्ट

रजनीश मुझे काफ़ी पहले से अच्छे लगते रहे हैं. उनके गुरुआई का मैं क़ायल रहा हूँ। नाक सीधे पकड़नी हो या घुमा के.. वो दोनों तरह से पकड़ने की महिमा गा कर आप को चकाचौंध कर सकने की प्रतिभा रखने वाले गुरु थे। कबीर को कबीर बन कर और नानक को नानक बनकर समझा सकने वाले गुरु रहे वो। बहुत ही पहुंचे हुए आदमी थे।

ये गोरी चमड़ी वाले लोग, जिन्होने डेढ़ सौ बरस राज किया हमारे ऊपर, को ओशो, अंग्रेज़ी के अपने निहायत देसी उच्चारण के बावजूद कुत्ता बनाकर रखते थे। इसे गाली न समझा जाय! कुत्ता जैसे स्वामी के आगे पीछे भक्ति भाव से डोलता है.. वैसे ही ये गोरे भी डोलते रहे।

अमरीका जा के भी डंका बजा आये थे.. पर जाने क्या साउंड बैरियर तोड़ दिया कि अमरीका वालो ने इनको टिकने ही नहीं दिया। कुछ लोगों का आरोप है कि वहाँ कि क्रिश्चियन लॉबी को इनका ‘नैतिक भ्रंश’ रास नहीं आया। कुछ लोगों का कहना है कि अमरीका से उनके निकाले जाने के पीछे अमरीकी राष्ट्रपति रोनाल्ड रीगन और उनके पीछे पोप का दुराग्रह था। और वो सिर्फ़ अमरीका ही से नहीं निकाले गए.. पूरी दुनिया में वो जहाँ-जहाँ गए उन्हे विरोध का सामना करना पड़ा।

अमरीका से निकलने के बाद ओशो ने दुनिया की सैर करने का मन बनाया पर ग्रीस, स्वीडन, इंगलैंड, आयरलैंड, स्पेन, स्विटज़रलैंड, सेनेगल, उरुग्वे कहीं भी उन्हे जमने नहीं दिया गया। कुल मिलाकर सत्रह देशों से खदेड़े गए और कई जगह तो एयरपोर्ट से ही वापस लौटा दिया गया.. जैसे वो कोई प्लेग की बीमारी हों! ध्यान दिया जाय इन देशों में से कोई भी ‘मुस्लिम’ देश नहीं था.. लगभग सभी तथाकथित धर्मनिरपेक्ष देश थे।

पहले तो ओरेगॉन की बिग मडी रान्च में बसे रजनीशपुरम को अवैध घोषित किया गया क्योंकि वहाँ धर्म को राज्य के साथ मिलाया जा रहा है.. ये वो देश कह रहा था जिसकी करेन्सी - हर डॉलर पर छपा रहता है – इन गॉड वी ट्रस्ट! हद है!

इस घटना के बाद जब ओशो की सचिव माँ आनन्द शीला के खिलाफ़ एक हत्या का मामला सामने आया तो पुलिस ने जाँच के बहाने ओशो को गिरफ़्तार करके बारह दिन तक अमरीका की छै जेलों की सैर कराई। उनके ऊपर तमाम क़ानूनों के अन्तर्गत चौंतीस केस बनाए गए.. और ये सब अवैध तरीके से। ओशो ने बिना प्रतिवाद किए अमरीका छोड़ देने का फ़ैसला किया। अमरीकी लोकतंत्र से उनकी आस्था उठ चुकी थी। उन्हे विश्वास हो चला था कि अमरीका ऐसे अपराधियों का देश है जो आज़ादी का मन्त्र का जाप करते हैं।

अमरीका जाने से पहले ओशो ने अपनी बेबाक ज़बान में भारत तथा उसकी संस्कृति को काफ़ी गरियाया था। क्योंकि पुणे में उनके आश्रम के खुले वातावरण और रजनीश के उकसाने वाले वक्तव्यों के चलते धार्मिक कट्टरपंथी उनसे खासे खफ़ा थे। पुणे में एक सभा के दौरान उन पर एक व्यक्ति ने चाकू से हमला भी किया। सरकार ने उनके आश्रम में आने वाले विदेशी भक्तों के ऊपर रोक-टोक लगाना शुरु कर दिया और आश्रम के ऊपर भी कुछ क़ानूनी दाँव-पेंच निकाले।
जिस से खफ़ा होकर ओशो ने दुनिया के ‘सबसे सुनहरे’ देश अमरीका की ओर रुख किया। पर वहाँ जो हाल हुआ उसने उनका दिल ही नहीं तोड़ दिया- बाद में उनके डॉक्टर ने भी ये भी आशंका व्यक्त की वहाँ पर दिए गए ज़हर ने ही उनकी जान ले ली। पर विडम्बना यह है कि आखिरकार ओशो को पुणे की धार्मिक संकीर्णता ने ही शरण दी। जिस को गरिया कर भागकर वो पश्चिम के खुलेपन में अपना आश्रम बनाने गए थे.. पर नहीं बना सके।

बताइये! ओशो की ही तरह हमारा पढ़ा-लिखा अंग्रेजी तबका अपने ऐसे देसी देशवासियों को दकियानूसी, पोंगापंथी और न जाने क्या-क्या बताता है.. और अमरीकी संस्कारों में नित नए रूपों में ढला जाता है। पर वो दकियानूसी-पोंगापंथी रजनीश को पचा जाता है.. पर अमरीकी लिबरलिज़्म अपने समाज की सहज नैतिकता का एक धार्मिक आवरण नहीं स्वीकार पाता। क्या पाखण्ड है भाई अमरीकी समाज का!

यहाँ यह याद दिला देना अप्रासंगिक नहीं होगा कि रामकथा बखानने वाले मुरारी बापू भी ओशो का श्रद्धा के साथ स्मरण करते हैं और उन्हे महात्मा मानते हैं। साथ ही साथ यहाँ यह भी याद करा दूँ कि इस बात को किन्ही रामभक्तों की शुद्ध आपराधिक साम्प्रदायिकता का अनुमोदन न समझा जाय! वो हमारे समाज का एक अपना फोड़ा है।

खैर.. रजनीश उर्फ़ ओशो तो निकल लिए.. पर चेले छोड़ गए पुणे में। चेलों में काफ़ी उठापटक भी चलती रही काफ़ी बाद तक। पर यहाँ का जो आश्रम है.. वो अब आश्रम नहीं रिसार्ट है- ओशो इन्टरनेशनल मेडीटेशन रिसार्ट। पहले तो इतना नहीं खटका पर जब साइलेंट टुअर के हिस्से के बतौर हमें जो आधे घंटे की वीडियो फ़िल्म दिखाई गई, उसे देखकर हमें समझ आ गया कि जन्नत की हक़ीक़त क्या है।

यह फ़िल्म एक ऐसे दर्शक को सम्बोधित थी जो इंडिया के बारे में कुछ नहीं जानता। उसका जहाज मुम्बई पर लैंड करता है वहाँ से डेकन एक्सप्रेस पकड़कर वो लोनवला की मिस्टीरियस पहाड़ियों को देखता हुआ पूना आ जाता है, जहाँ पर ऒशो रिसार्ट है। फ़िल्म आगे बताती है इस दर्शकों को कि इस रिसार्ट में क्या क्या गतिविधियां होती हैं और कुछ ऐसे लोगों के अनुभव बाते जाते हैं जो इस सुविधा का लाभ ले चुके हैं। फ़िल्म में दिखाई देने वाले ये चार-पाँच चेहरे सभी गोरी चमड़ी वाले हैं जो दिन में तो भूरे रंग की आध्यात्मिकता के लबादे पहन कर इधर-उधर डोलते रहते हैं पर रात में शराब और शबाब की रंगीनियों में खो जाते हैं।

दिन में समाधि और रात में सम्भोग। समझ नहीं आता कि ये लोग सम्भोग से समाधि की ओर जा रहे हैं या समाधि से सम्भोग की ओर। या फिर सम्भोग और समाधि के सतत चक्र में हैं.. भैया जहाँ तक हम जानते हैं.. जब भगवान श्री रजनीश ने ‘स से स की ओ’ लिखी थी तो उनका मतलब था कि स से चल कर स तक पहुँचना है.. ये थोड़ी कहा था कि वापस स पर लौट आना है। एक ही न ऊर्जा है! उसे आप स में खर्च कर देंगे तो स के लिए क्या बचेगा? और ये बात कोई रजनीश कोई ओशो अपने मूलाधार से निकाल के थोड़ी लाए थे? पूरी भारतीय धर्म की परम्परा इसी तथ्य पर आधारित है।

खैर छोड़िये इस बात को… हमें बस ओशो रिसार्ट जा कर एक बात का एहसास हुआ कि गोरा आदमी भले ही व्यक्तिगत तौर पर काले और भूरे आदमी को अपने से हीन न समझता हो या व्यक्तिगत तौर पर ज़ाहिर न होने देता हो पर तमाम ऐसे छोटे-छोटे रूप हैं जिनसे उनका ये रंगाग्रह ज़ाहिर हो जाता है। पर वे ये नहीं समझते कि जिस छोटे से आश्रम की चहारदीवारी में बंद हो कर वे अपने को धन्य-धन्य समझ रहे हैं.. उस के बाहर तमाम ऐसे भूरी चमड़ी वाले ठलुए, थोक के भाव, घूम रहे हैं जो उन्हे अपनी जटाओं में बाँधकर सहस्रार की सैर करवा सकते हैं।

इसके अलावा मैंने ऐसे सभी आश्रमों में देखा है कि इस की दीवारों के भीतर जाने वाले लोग मुक्ति की तड़प ले के जाते हैं और आश्रम की उन दीवारों के बन्दी होकर रह जाते हैं..क्यों? मेरे मित्र कमल भाई बताते हैं कि असल में आश्रम एक तरह का कॉरपोरेशन है.. वो तो यहाँ तक कहते हैं कि कॉरपोरेशन की अवधारणा का विकास आश्रम/मठ की अवधारणा से हुआ है। तो किसी भी अन्य कॉरपोरेशन की तरह हर आश्रम शुरु तो होता है सामाजिक हित के लिए पर जल्दी ही अपने हित साधने लगता है।

रविवार, 2 सितंबर 2007

न करो अपने प्रति घात

धर्म में मेरी आस्था खोजने पर भी नहीं मिलती, पर जिज्ञासा बराबर बनी रहती है। महापुरुषों की करुणा से अभिभूत होता हूँ। जीवन और एक परा-शक्ति पर विश्वास बना रहता है। किशोरावस्था से अब तक अलग अलग मोड़ों पर आचार्य रजनीश, भगवान श्री रजनीश और ओशो को पढ़ता रहा हूँ, और प्रभावित भी होता रहा हूँ। हाल के कथावाचक संतो में मुरारी बापू को ही आंशिक तौर पर स्वीकार कर पाता हूँ। वे खुद ओशो की बात करते पाए जाते हैं कभी-कभी। अपने श्रोताओं को वे किसी नियम में न बँधने की सलाह भी देते हैं। इन्टरनेट पर विचरते हुए ओशो का यह टुकड़ा मिला.. अच्छा लगा.. अनुवाद करके छाप रहा हूँ.. देखिये, आप के लिए कुछ तत्व है क्या इसमें..?


ओशो से उनके शिष्यों ने उनके दस कमान्डमेन्ट्स माँगे.. तो ओशो का कहना था कि “ये मुश्किल मामला है, क्योंकि मैं किसी भी प्रकार के धर्मादेशों के खिलाफ़ हूँ। मगर फिर भी, सिर्फ़ मौज के लिए, ये लो:”


१. किसी का हुक्म मत बजाओ, जब तक वो तुम्हारे अन्दर की आवाज़ भी न हो।
२. जीवन के अलावा कोई दूसरा ईश्वर नहीं है।
३. सत्य तुम्हारे भीतर है, कहीं और मत खोजो।

४. प्रेम प्रार्थना है।

५. शून्य हो जाना ही सत्य का द्वार है। शून्य ही साधन, साध्य और सिद्धि है।

६. जीवन अभी और यहाँ है।
७. जागते हुए जियो।
८. तैरो मत बहो।
९. हर क्षण मरो ताकि तुम हर क्षण नए हो सको।
१०. खोजो मत। वो जो है, है। रुको और देखो।


प्रामाणिक रूप से धार्मिक व्यक्ति एक (अविभाजित, स्वतंत्र, व्यष्टि) व्यक्ति होता है।
वह एकाकी होता है, और उसके एकाकीपन में एक गजब शान, गजब सौन्दर्य होता है।
मैं तुम्हे वह एकाकीपन सिखाता हूँ।
मैं तुम्हे वह सौन्दर्य, वह भव्यता, एकाकीपन की वह सुगन्ध सिखाता हूँ।

अपने एकाकी पन में तुम गौरीशंकर(एवरेस्ट) की ऊँचाईयाँ चूमोगे।

अपने एकाकीपन में तुम दूरस्थ तारों को छुओगे।

अपने एकाकीपन में तुम अपनी संपूर्ण संभावना में पुष्पित हो जाओगे।



कभी आस्तिक न बनो।
कभी अनुगामी न बनो।
कभी किसी संगठन के सदस्य न बनो।

कभी किसी धर्म के सदस्य न बनो।

कभी किसी देश के सदस्य न बनो।

अपने प्रति प्रामाणिक रूप से निष्ठावान रहो।


अपने प्रति घात न करो।


चित्र: ओशो ज़ेन टैरो का एक कार्ड-'एलोननेस'
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