गुरुवार, 22 दिसंबर 2011

यमदूत



गाँधी जी ख़ुद एक वकील थे पर वो वकालत के पेशे को बड़ा बुरा समझते थे। उनका मानना था कि वकील झगड़ा निबटाने के बदले झगड़ा बढ़ाने का काम करते हैं, लोगों को चाहिये कि अदालत न जायें और अपना झगड़ा आपस में ही निबटा लें। शांति ने उनकी किताब हिन्द स्वराज पढ़ रखी थी। शांति को ठीक-ठीक याद नहीं पर मोटे तौर पर उसमें गाँधी जी वकीलों से भी ज़्यादा बुरा पेशा डॉक्टरी का लिखते हैं और अस्पतालों में पाप की जड़ होने की बात करते हैं। उन दिनों शांति नौजवान थी और दुनिया के हर पहलू को आदर्श नज़रों से देखने की कोशिश करती थी। बचपन में एक दौर ऐसा भी था जबकि वह ख़ुद भी डॉक्टर बनकर बीमार-बेचारों की सेवा करना चाहती थी। इसीलिए गाँधी जी की ऐसी बातों को उसने, गाँधी जी के प्रति तमाम आदर व सम्मान के बावजूद, एक अतार्किक अनर्गल प्रलाप ही माना। बहुत समय बीत गया। धीरे-धीरे कई कड़वे-कसैले अनुभवों के संशोधनों का शिकार होके के शांति की आदर्शवादी दृष्टि आदर्शों के डेरे से बेघरबार होके दुनियादार हो गई। जीवन के बहुत से पहलुओं के प्रति उसका नज़रिया बदला। वो डॉक्टरों और हस्पतालों के बारे में अब क्या सोचती है वो बाद में बतायेंगे पर पहले वो घटना जिस से गाँधी जी दुबारा प्रंसग में आ गए।

इरफ़ान का छोटा भाई फ़रहान कई दिनों से हस्पताल मे भर्ती था। शांति मिलने गई। शबनम हस्पताल के बाहर ही मिल गई। शांति को देखकर शबनम मुसकराई ज़रूर पर आँखें उदास ही बनी रहीं। आँखों के नीचे झाईंयां पड़ी हुई थीं, शायद थकान और नींद न पूरी होने के चलते। शांति ने फ़रहान का हाल पूछा तो पता चला कि उसके पैंन्क्रियस में कुछ भयंकर संक्रमण हो गया है। एक के बाद एक कई ऑपरेशन हो रहे हैं पर डॉक्टर कुछ भी साफ़-साफ़ कहते नहीं। घरवाले उनकी इस चुप्पी से अपनी उम्मीद की डोर जोड़े हुए हैं।

शबनम ने हौले से उसे बताया कि उसके अपने अनुमान से बचने की उम्मीद बहुत कम है पर अगर वो कुछ बोलती है तो बुरी बनती है.. इसलिए चुपचाप जो हो रहा है होने दे रही है। बीस दिन से आईसीयू में पड़ा हुआ है। ऑक्सीजन की मशीन से लेके न जाने कितने तरह की मशीन के तार और ड्रिप जिस्म से जोड़ रखे हैं। सुबह-शाम टैस्ट हो रहे हैं। हर तीसरे-चौथे रोज़ कोई नई जटिलता पैदा हो जा रही है और नतीजे में एक और ऑपरेशन। ऐसे करते-करते चार ऑपरेशन हो चुके हैं। शबनम ने धीरे से बताया कि डॉक्टर्स ने फ़रहान के पेट को काटकर खुला छोड़ रखा है.. बार-बार चीरने और फिर सीने से बचने के लिए।

ग़लती से एक रोज़ फ़रहान के जिसम को उसी हाल में उसकी माँ ने देख लिया- पछाड़ खा के गिर पड़ीं। रो तो वो पहले भी रही थीं मगर तब से उनकी आँखों की गंगा-जमना बरसाती मिज़ाज की हो गई है। उनको हस्पताल लाने की मनाही कर दी गई है फिर भी वो ज़िद करके चली आती हैं और उन्हे सम्हालना एक अलग काम बना रहता है। और इरफ़ान के अब्बू तो एकदम ही चुप हो गए हैं- न तो कुछ बोलते हैं और न ही हस्पताल आते हैं बस घर पर बैठकर दीवारों को ताका करते हैं। अपने जवान बेटे की इस बीमारी ने उनके चेहरे पर कई सिकुड़नें बढ़ा दी हैं।

पूरा परिवार ग़मज़दा है और फ़रहान की जान के लिए पैसे की कुछ परवाह नहीं कर रहा। वैसे भी हस्पतालों में कोई मोल-भाव नहीं होता। जो रेट बोला जाय, भरना पड़ता है। आदमी अपने दिल के हाथों मजबूर होता है। कितने ही परिवार जो सालों तक पैसा काट-काट कर बचत करते हैं- इसी हस्पताल के चक्कर में सब कुछ न्योछावर करके नंगे हो जाते हैं। और जो बचत नहीं करते वो तरह-तरह के कर्ज़ों के जाल में पड़ जाते हैं। हस्पताल में किसी को रियायत नहीं मिलती। इरफ़ान और उसके परिवार वाले भी फ़रहान की जान के मोह में रोज़ाना पंद्रह से बीस हज़ार स्वाहा कर रहे थे।

शबनम ने कहा नहीं पर एक सच्ची सहेली होने के नाते शांति ने समझ लिया कि शबनम अपने देवर की बीमारी का सोग तो मना ही रही है पर उसके अलावा लगातार की भाग-दौड़ से बेहद थकी और परेशान भी हो चुकी है। परिवार वाले लगभग तीन हफ़्ते से अलग-अलग शहरों से आकर वहीं डेरा डाले पड़े हैं। दिन-रात घर और हस्पताल के बीच चक्कर मार रहे हैं। कुछ लोग तो हस्पताल के आस-पास ही कुछ भी खा-पी के काम चला रहे थे, फिर भी दस-बारह जनों के लिए शबनम सुबह-शाम खाना बना रही है। और उनके कपड़े भी धो रही है। क्योंकि इतने सारे अतिरिक्त काम को करने से शबनम की बाई ने करने से इंकार कर दिया। काम का बोझ उतना भारी नहीं था मगर पूरे परिवार में छायी मुर्दनगी का बोझ उठाना कहीं दुश्वार था।

और हुआ वही जिसे न तो डॉक्टर बता रहे थे और न घरवाले तस्लीम करने को राज़ी थे। तेईस दिन के हस्पताल वास के बाद हस्पताल वालों ने उनका बिल तैयार कर दिया। फ़रहान का लाइफ़सपोर्ट हटा लिया गया। संयोग से शांति उस वक़्त उनके साथ ही मौजूद थी जब मनहूस ख़बर आई और घरवालों में रोना-पीटना मच गया। शांति ने सबसे संयत होने के नाते काग़ज़-पत्तर का काम सम्हाल लिया। हस्पताल के काग़ज़ात पर फ़रहान की रूह ठीक उसी पल इस आलम से आज़ाद हुई थी। लेकिन अगर लाइफ़सपोर्ट को हटाते के बाद फ़रहान के फेफड़ों ने एक भी साँस नहीं भरी तो साफ़ है कि फ़रहान नहीं उसके बेजान जिस्म में ऑक्सीज़न फूँककर दिन-रात काटे जा रहे थे। ये कसरत घरवालों की 'हर कोशिश कर लिए जाने की तसल्ली' के लिए की गई थी या शुद्ध रूप से हस्पताल का मीटर चलाते रखने के लिए- उस ग़मगीन मौक़े पर यह सवाल पूछने का मन किसी घरवाले का नहीं था। शांति का मन ज़रूर था पर वो भी मौक़े की नज़ाकत को देखकर चुप रह गई। और सोचती रही कि उसी नज़ाकत का नाजायज़ फ़ायदा उठाते रहे हैं हस्पताल वाले।

शांति ने देखा कि फ़रहान का जिस्म आईसीयू से निकलने के साथ ही एक दूसरा बेहोश जिस्म उस कमरे में दाख़िल कर दिया गया। शांति को लगा जैसे कि फ़रहान की मौत का ऐलान करने के लिए वो उस कमरे के अगले किराएदार का इंतज़ार भर कर रहे थे। फ़रहान तो बहुत पहले ही मर चुका था। शांति को अचानक लगा कि वो हस्पताल, बीमारों के चंगा करके दुनिया में वापस भेजने से ज़्यादा उन्हे यमराज के पास भेजने का टोलनाका है। और डॉक्टर्स एक तरह के यमदूत हैं जो इन्सान को इस पार से उस पार भेजने का शुल्क वसूल करने का व्यापार करते हैं।

ये वो पल था जब शांति को बरसों पहले पढ़ी हिंद स्वराज की याद हो आई। और नौजवानी में जिस बात पर वो गाँधी जी से सहमत नहीं हो पाई थी, उस पल में उसे एक बार फिर गाँधी बाबा पर श्रद्धा हो आई कि उन्होने सौ बरस पहले ही इन यमदूतों के असली किरदार को पहचान लिया था।


***

(इस इतवार दैनिक भास्कर में छपी) 


1 टिप्पणी:

कविता रावत ने कहा…

sach kaha aapne court kachhari ke chakkar mein achhe-achhon ke hosh thikane aa jaate hai..
bahut badiya prasutit..

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