सोमवार, 12 दिसंबर 2011

जय भीम !


सरला के आने का समय सवा आठ का तय था। लेट होती तो आठ पचीस नहीं तो आठ तीस तक ज़रूर सरला की चाभी दरवाज़े के लैच में घूमने की आवाज़ आ जाती। सरला कभी घंटी बजाकर घर में नहीं आती थी। उसे पता था कि सुबह के वक़्त सब लोग समय के विरुद्ध एक विषम संघर्ष कर रहे होते हैं। और घर के सभी लोगों के घर में रहते हुए भी शांति द्वारा दी हुई चाभी का इस्तेमाल असल में घरवालों के उस हड़बड़ाए हुए संघर्ष के प्रति सरला की हमदर्दी और रहमदिली है। सवा आठ के बाद, आठ पचीस. आठ तीस बज गए - दरवाज़े के लैच में सरला की चाभी घूमने की सुकूनसाज़ आवाज़ नहीं आई। समय की अबाध चाल में पौने नौ, नौ, साढ़े नौ सभी बजते रहे पर सरला नहीं आई। एक फ़ोन भी लिया था सरला ने पर वो बिल समय पर न जमा न करने के कारण उन दिनों पूरी तरह स्थगित था।

शांति ने सरला को हिदायत दे रखी थी कि नागा करना तो हफ़्ते के किसी भी दिन कर ले पर छुट्टी वाले दिन मत कर। हफ़्ते भर दफ़्तर में घिसने के बाद छुट्टी के दिन घर में घिसना मंज़ूर नहीं था शांति को। उस दिन वो पूरा आराम चाहती थी। उस दिन मंगल था पर वो छुट्टी का ही दिन था। बच्चों के स्कूल की तो छुट्टी थी ही, अजय और शांति का दफ़्तर भी बंद था। लेकिन सरला के नागा कर जाने से शांति की छुट्टी बेकार हो गई।

सरला की अनुपस्थिति से घर पूरी तरह श्रीहीन सा हो गया था। शांति ने कोशिश की। घर ठीक किया, बरतन मांजे, नाश्ता बनाया, पर सरला वाली बात नहीं बनी। नाश्ता करते ही पाखी इमारत के दूसरे बच्चों के साथ क्रिकेट खेलने नीचे भाग गई और अचरज सामने वाले घर में अपनी हमउम्र सहेली टिप्पा के घर चला गया। अजय अपना लैपटॉप गोद में रखकर घर में ही दफ़्तर खोलकर बैठ गया। और चैन की दो साँस लेने के लिए बैठी शांति को एकेक करके घर के वो सारे छूटे हुए काम याद आने लगे जो हफ़्तों से वो टालती रही थी। परदे पुराने हो गए थे-वो नए खरीदने थे; अजय ने अपनी चाभी खो दी थी तो उसके लिए एक डुप्लीकेट बनवानी थी;  फ़िल्टर कॉफ़ी का पाउडर ख़रीदना था जो पूरे शहर में सिर्फ़ हबीबगंज नगर की एकमात्र दुकान पर मिलता था; और अपने लिए एक आरामदायक सैण्डल ख़रीदना था- छुपकर। क्योंकि अजय को हमेशा लगता है कि वो कुछ ज़्यादा ही सैण्डल खरीदती है।

निकलते-निकलते ढाई बज गया। दोपहर की वो दुर्लभ मीठी नींद छोड़कर निकलना आसान नहीं था पर निकली। उसकी सूची में जो-जो काम दर्ज़ थे उन्हे निबटाने के लिए उसे शहा के तीन छोरों पर जाने की ज़रूरत थी। शहर के उत्तरी छोर पर स्थित दुकान से उसे पर्दे खरीदने थे- उस राह पर चलते हुए उसे इमाम हुसैन की शहादत की याद में इमामबाड़े की ओर जाता हुआ ताजियों का समूह और साथ चलते मातमियों का जुलूस मिला। शांति ने मन ही मन करबला की करुण कहानी को याद किया और इमाम को अपनी श्रद्धांजलि अर्पित कर के आगे बढ़ी। फ़िल्टर कॉफ़ी खरीदने के लिए शहर पश्चिमी जाते हुए जब वो हबीबगंज से गुज़र रही थी तो रास्ते में उसे एक अलग दल झण्डे-बैनरों के साथ मार्च करता हुआ मिला। और तब शांति को याद आया कि मंगल को पड़ने वाली उस मुहर्रम की तारीख़ ६ दिसम्बर थी। वो काला दिन जिसके बाद से शहर के दो समुदायों के बीच तनाव की दीवार कई फ़ुट और ऊँची हो गई थी। ज़ेहन में उन दिनों की वीभत्स यादें आते ही शांति सिहर गई। और तेज़ी से स्कूटर चलाकर उन यादों से दूर भाग चली।

सैण्डल ख़रीदने के लिए उसका स्कूटर शहर पूर्वी की तरफ़ मुड़ गया। शोरूम पहुँचने के पहले ही  रास्ते में कुछ जाम मिला। शांति ने देखा कि चौराहे पर आकर मिलने वाली आड़ी सड़क से एक और जुलूस गु़ज़र रहा था। इस जुलूस में न तो ताजिए थे और न ही काला दिवस मनाने वाले काले झण्डे। जुलूस का मुँह शांति से आड़ा होने के कारण शांति बैनरों पर लिखी इबारत ठीक से पढ़ नहीं पा रही थी। सिर्फ़ एक बैनर पर उसे जय भीम लिखा हुआ दिखाई दिया। शांति घबरा गई.. क्योंकि भीम नाम से वो एक ही महाभारत वाले महाबली भीम को जानती थी। उसे अंदेशा हुआ कि वो जुलूस काला दिवस मनाने वाले जुलूस के विरोधियों का जुलूस तो नहीं। पर जुलूस में शामिल लोगों के हाव-भाव में भीम वाली कोई आक्रामकता नहीं थी। बल्कि वे बड़े विनीत भाव से धीरे-धीरे नारा लगाते हुए चले जा रहे थे। नारे में भी भीम का ही नाम ले रहे थे- जय भीम बोलो! आगे बढ़ो! जुलूस निकल गया और शांति भीम वाली बात को भूल गई।

अगली सुबह ठीक सवा आठ बजे दरवाज़े के लैच में चाभी घूमने की आवाज़ आई। शांति शिकायती मुद्रा धारण करके रसोई तक पहुँची पर मुसकराती हुई सरला ने पहल की- दीदी कल मैंने आपको देखा था।
'मुझे? कहाँ?'
'आर्यनगर चौराहे पर.. '
'हाँ मैं कल गई थी उधर .. पर तू आर्य नगर चौराहे पर क्या कर रही थी.. ?'
'मैं तो जुलूस में थी!'
जुलूस में?
शांति की आँखों के आगे जय भीम वाला विनीत जुलूस घूम गया।
'वो भीम वाला जुलूस..?
'..हाँ-हाँ दीदी.. वो ही!'
कल के नागे की बात किनारे हो गई.. शांति के कौतूहल ने बाग़ हाथ में ली।
'ये भीम कौन है.. ?'
'भीम.. ? बाबा साहेब!और कौन?!'
बाबा साहेब?'
'हाँ उनका पूरा नाम बाबा साहेब भीमराव अम्बेडकर है ना..! कल परिनिर्वाण दिवस था न उनका!'
शांति एकदम सिटपिटा गई और उसकी हालत किसी स्कूली लड़की की तरह हो गई जिसका सही समझे जाना वाला सवाल ग़लत साबित हो गया हो। वो जानती थी डा० अम्बेडकर का काम और पूरा नाम भी जानती थी पर न जाने क्यों वो समझ ही नहीं सकी कि जय भीम में किसकी जय की बात हो रही है।

 सरला ने आगे बताया कि किस तरह बाबा साहेब उसके लिए भगवान से भी बढ़कर हैं। क्योंकि कितने अवतार हुए पर एक ने भी दलितों के उद्धार के लिए कुछ भी नहीं किया। सरला ने ये भी बताया कि उसके घर में भगवान की कोई तस्वीर, कोई मूर्ति नहीं। भगवान के कोने में उसने बाबासाहेब की ही फ़ोटो लगा रखी है।  

शांति को शर्म सी आने लगी अपने आप पर कि वो अपने आपको बड़ा सजग और सचेत समझती है पर उस भीम के बारे में वो न सजग निकली न सचेत, जिसे समाज का सताया हुआ तबक़ा भगवान के समकक्ष या उससे भी आगे रखता है!? और यह सोचकर वह और भी शर्मसार होती रही कि सरला जो उसके घर की दूसरी घरैतिन है उसी के मन में बैठी श्रद्धा का पता भी न पा सकी!? शायद उनके दिलों के बीच कुछ हज़ारों बरस की दूरी है जिसे पाटने में बड़ी मेहनत और कसरत करनी होगी।  

***

(इस इतवार दैनिक भास्कर में प्रकाशित हुई) 

2 टिप्‍पणियां:

vidha-vividha ने कहा…

आपकी शांति की नियमित पाठक और प्रसंशिका हूँ.सहज सरल अभिव्यक्ति. जय भीम ने भी मन छू लिया.

Batangad ने कहा…

'सरला की अनुपस्थिति से घर पूरी तरह श्रीहीन सा हो गया था।'

अभय जी ये लाइनें मुझे भी सरपत की धार की तरह छूकर निकली हैं। ज्यादातर महानगरीय सभ्यता के आदी लोगों को ऐसे ही लगा होगा। शानदार

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