बुधवार, 16 नवंबर 2011

कांटा


 सीढ़ी उतरते हुए पैर में पड़ी सैण्डल की उतरती बद्धी को चढ़ाने की मुश्किल कसरत को करते हुए शांति इमारत के नीचे से आती हुई उत्तेजित आवाज़े भी सुन रही थी। नवम्बर की हल्की ठण्डी हवा में भी निरन्तर गरम होती जाती आवाज़ों का ताप कानों को अच्छा नहीं लग रहा था। शांति ने बैग को कंधे के पीछे धकेलते हुए एक नज़र कलाई की घड़ी पर डाली- नौ सत्रह हो रहे थे। टाइम बड़ा कट टू कट था फिर भी दो मिनट रुककर गरमागरमी का जाएज़ा लेने का मोहसंवरण न कर सकी शांति।

जो मजमा लगा था उसके बीच में बी-नाइन वाले जैन महाशय और शांति के ऊपर की मंज़िल पर क़याम करने वाली मिसेज़ घोषाल, अपने त्वरित अंग संचालन के चलते सबसे अधिक चमक रहे थे। समूह के बीच में से मछली, ठेला, बदबू और नाक जैसे शब्द सबसे स्वरित होकर गूँज रहे थे। शांति की इमारत के काम्प्लेक्स की दीवार से लगकर जो बंगाली एक ठेले पर मछली तलता है - है तो वो असल में जैन महाशय की नाक से कम से कम तीन सौ फ़ीट दूर मगर सच्चाई यही है कि वो ठेला जैन महाशय की नाक की परिधि में आता है उनकी नाक पर किसी मक्खी की तरह भिनभिनाता है। क्योंकि जैन महाशय की नाक शाकाहारी है मछली की तली हुई गंध उस की शुचिता और नैतिकता का उल्लंघन करती है।

उनकी नैतिक नाक का अतिक्रमण करने के अपराध पर जैन महाशय ने अकेले ही बंगाली को अरदब में लेकर उसे किसी मक्खी की तरह चपेटना चाहा। पर बंगाली मच्छी वाला जैन महाशय के रहमोकरम पर नहीं जी रहा था। वो भी समाज का शरीफ़ सदस्य था जो उस सड़क से सम्बन्धित सरकार के हर विभाग को बराबर हफ़्ते का प्रसाद अर्पित करता था। कुछ विभाग ऐसे भी थे- जैसे कि पुलिस विभाग- जिन्हे रोज़ और कभी-कभी तो दिन में दो-बार भी हफ़्ता देना पड़ता था। इतने सारे आक़ाओं के संरक्षण में हो जाने पर वो किसी इमारत की लम्बी शाकाहारी नाक और तरेरती हुई आँख से दबने वाला नहीं था। एक मामूली ठेले वाली की ऐसी हिमाकत से भड़ककर ही जैन महाशय के गले ने नाक की पीड़ा का गान गा-गाकर अपनी सोसायटी में उस मजमे का आयोजन किया था।

उनकी इस मुहिम से पूरी सोसायटी दोफांक होकर दो विरोधी मगर ग़ैर-बराबर खेमों में विभाजित हो गई थी। सोसायटी में शाकाहारी बहुमत में थे और मांसाहारी अल्पमत में। शुरुआत में तो मांसाहारियों ने बराबर का मोर्चा खोला पर जैसे-जैसे मजमे में शाकाहारियों की संख्यावृद्धि होती गई , उनकी प्रतिरोधक क्षमता घटते-घटते इस बेक़दरी तक पहुँची कि जब शांति ने मजमे में प्रवेश किया तो मिसेज़ महामाया घोषाल शाकाहारियों के दल में बल बनकर शामिल थीं- मत्स्यलोभी बंगाली होने पर भी। इस मौक़े पर मिसेज़ महामाया घोषाल के संक्षिप्त इतिहास को जान लेना भी अनुचित न होगा।

जीवन के पचास बसन्त देख चुकीं मिसेज़ महामाया घोषाल अकेले रहती थीं। दो बरस पहले मिस्टर घोषाल का देहान्त हो गया था। संसार रूपी इस माया और उनकी महामाया से विदा लेने के पूर्व वे अपनी दुनियावी दायित्व से मोक्ष पा चुके थे। दोनों बेटियों का विवाह शास्त्रीय पद्धति से सम्पन्न होता देखने के बाद ही उन्होने प्राण त्यागे। दो बरस पहले का वो मनहूस दिन था और ये मनहूस दिन था- किसी ने मिसेज़ घोषाल को किसी भी तरह की विलासी गतिविधि में संलिप्त नहीं देखा। शास्त्रीय रीति से उन्होने रंगीन कपड़े त्याग दिए थे। उत्सव-समारोह पर अपनी शोकपूर्ण छाया वो कभी नहीं पड़ने देतीं। अपनी पतली किनारी वाली सुफ़ैद साड़ी में वो कटी पतंग की आशा पारेख की तरह शोक और उदासी से आच्छादित रहतीं। उनका माछ-त्याग भी इसी शोक की अभिव्यक्ति थी। और जैन महाशय की मच्छीविरोधी मुहिम का अप्रत्याशित समर्थन भी शायद इसी शोक का विस्तार था।

मांसाहारी दल की पारम्परिक शक्ति में हुई इस भितरघात से उनकी आवाज़ दुर्बल होकर दब ही जाती अगर शांति परोक्ष रूप से अल्पमत के पक्ष में न खड़ी हो जाती। शांति की दलील थी कि ठेला सोसायटी की दीवार के बाहर है। और सोसायटी की दीवार के बाहर कौन क्या ठेला लगा सकता है या नहीं इसका फ़ैसला नगरपालिका को करने दिया जाय। यह बात शांति ने अपने चरित्रगत तेवर और बाबुलन्द आवाज़ कही मगर मजमा नक्क़ारखाना बन चुका था और शांति को तूती होना कभी क़ुबूल नहीं था। उसने घड़ी पर एक और नज़र फेंकी- नौ इक्कीस हो रहा था। शांति ने मजमे को उसके हाल पर छोड़ा और स्कूटर को लात मारी। स्कूटर गुर्रा कर चल पड़ा।

उस शाम को जब शांति सोसायटी में वापस आई तो उसी जगह पर फिर से मजमा लगा हुआ था। पर इस बार मजमे का चाल, चेहरा और चरित्र दूसरा था। उस में अतिक्रमण, आक्रोश, और अभियान के बदले रंज, रहस्य और रोमांच का भाव संचारित हो रक्खा था। मज्मे के केन्द्र में एक एम्बुलेंस थी। और उसके भी केन्द्र में मिसेज़ महामाया घोषाल जिन्हे शांति की ऊपरी मंज़िल से कंधे का सहारा देकर उतारा गया और एम्बुलेंस में बिठाकर किसी अज्ञात हस्पताल की ओर ले जाया गया। कानाफ़ूसी और बतकुच्चन के ज़रिये शांति ने जाना कि बात यह थी कि उसके पहुँचने के पहले ही मिसेज़ महामाया घोषाल के गले में एक कांटा फंस गया था। किसी एक मछली का कांटा। वो कांटा बंगाली के ठेले पर तली गई मछली का ही था, ये मामला ज़ेरे बहस था और इस पर कोई आम सहमति नहीं बन पा रही थी। वो कांटा मिसेज़ घोषाल के अपने हाथों से खाई और रस लेकर चबाई हुई किसी मछली का था या किसी मत्स्यद्वेषी शत्रु ने उनके गले में जबरन उतार दिया था- यह बात भी ज़ेरे बहस थी और इस पर भी कोई आम सहमति नहीं बन पा रही थी। जैन महाशय सकते में थे। उनकी पार्टी का एक मज़बूत पाया खिसक कर ढह गया था। लोग खुले तौर पर नहीं कह रहे थे पर मिसेज़ घोषाल की शोक की सुफ़ैदी में काफ़ी दाग़ लग गए थे। और ये दाग़ अच्छे नहीं थे।

शांति की समझ में मिसेज़ घोषाल को कोई ज़रूरत नहीं थी कि वे सुफ़ैद साड़ी पहने या मत्स्यभक्षण छोड़ने का पाखण्ड करें पर उनकी नैतिकता उनके पेट, उनकी ज़ुबान और उनकी नाक से नहीं, पड़ोसियों की ज़ुबान और नाक से तय हो रही थी। अब नाक का ऐसा है कि किसी की नाक छोटी और निरीह होती है। और कुछ की तो इतनी निकृष्ट कि शूकर की तरह सर्वभक्षी होकर भी जुगुप्सा के हर भाव से मुक्त बनी रहती है। और कोई जैन महाशय की तरह इतनी लम्बी नाक रखता है कि सामने वाला कितना भी बचकर निकले बचकर निकल ही नहीं पाता, लड़खड़ा गिर ही जाता है। फिर कुछ लोग ऐसे भी होते हैं जो दूसरे की नाकों से इतना आतंकित रहते हैं कि अपनी नाक अपने हाथों से काट लेते हैं।

***
(इस इतवार दैनिक भास्कर में शाया हुई)



1 टिप्पणी:

देवेन्द्र पाण्डेय ने कहा…

कांटा तगड़ा चुभ गया..नाक सरे राह कट गई।
..ढोंगियों पर करारा कटाक्ष करती कहानी।

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