सोमवार, 22 अगस्त 2011

स्कूटर का जीवन



ममा, आपको पता है विवेकानन्द भी बीमार पड़ते थे?  
हम्म? शांति सोने के पहले के सारे काम ख़तम करके सोने की तैयारी कर रही थी। मगर पाखी की उलझनें अभी शेष थी।
हाँ ममा, उनका लीवर ख़राब रहता था और बुख़ार भी बहुत होता था। दस्त और क़ै भी हो जाती थी।
अच्छा... कहाँ लिखा है ये सब?
इन्टरनेट पर.. हमें एक एसाईनमेण्ट मिला है.. एक लेख लिखना है- विवेकानन्द हमें प्रिय क्यों हैं। उसी के लिए रिसर्च कर रही थी तो इन्टरनेट पर एक ब्लाग मिला.. जिसमें उनकी डायरी के टुकड़े दिए हुए हैं। ..ममा कटिवात क्या होता है?
कटिवात..? पता नहीं!
उनको कमर में भी दर्द रहता था.. उन्होने लिखा है कटिवात से परेशान हूँ..
शायद स्लिपडिस्क को कहते है.. अपनी टीचर से पूछना..
ममा उनको गर्मी भी लगती थी बहुत और बहुत जल्दी थक भी जाते थे.. और उन्होने ये भी लिखा है कि उनके बाल गुच्छे-गुच्छे सफेद हो रहे हैं..
तो इसमें इतने अचरज की क्या बात है.. वो भी इन्सान थे.. जैसे सब बीमार पड़ते हैं, वो भी पड़ते होंगे..
पर ममा वो तो विवेकानन्द थे.. इतने बड़े संत..? महापुरुष.. महात्मा..??
महापुरुष-महात्मा थे पर अपनी आत्मा की वजह से। अगर शरीर से ही महात्मा होना तय होता तो फिर कोई पहलवान ही सबसे बड़ा महात्मा होता।    
बात तार्किक थी। पाखी को समझ आ गई वो अपने कमरे में लौट गई और शांति ने बिस्तर पर लेटकर अपने शरीर पर से जागे रहने की बंदिशें उठा लीं।
**
अगली सुबह शांति की बड़ी बुरी गुज़री। नहीं-नहीं, उसका विवेकानन्द से कोई लेना-देना नहीं था। टोस्टर में टोस्ट जल गए। दरवाज़े से निकलते हुए एक छिपी हुई कील ने साड़ी में खोंच लगा दी। और जब स्कूटर में चाभी डालकर अँगूठे से स्टार्टर दबाया तो इंजन से कोई आवाज़ नहीं आई। बार-बार दबाने और दबाते रहने पर भी इंजन मौन बना रहा। शांति ने स्टैण्ड पर खड़ाकर के कम से कम बीस-पचीस बार किक मारी। फिर भी स्कूटर में किसी तरह के जीवन का संचार नहीं हुआ। स्कूटर कई दिनों से तंग कर रहा था पर ऐसा उसके साथ पहले कभी नहीं हुआ था। शांति की इमारत के पीछे ही एक शकील ऑटो मेकैनिक है। स्कूटर धकेलकर वहाँ तक ले जाकर उसके हवाले कर दिया और ऑटो पकड़कर दफ़्तर चली गई। इसी बहाने बड़े दिनों बाद ऑटो की सवारी के सुख-दुख फिर से ताज़ा हो गए।
**
शाम को बजाय घर जाने के सीधे शकील के गैराज चली आई। क्योंकि उसने वादा किया था कि शाम तक बना देगा। मगर वहाँ तो नज़ारा कुछ और था। पहले तो शांति को अपना स्कूटर कहीं दिखाई ही नहीं दिया। और शकील से जब पूछा कि उसका स्कूटर कहाँ है तो वो दाँत चियार के हँसने लगा। शांति को बड़ी खीज हुई कि पहले तो मेरा स्कूटर ग़ायब कर दिया, फिर हँस रहा है। शांति की बेबसी में शकील को बड़ा आनन्द मिल रहा था।
आप पहचान नहीं पा रही ना..?
कोप से भरी शांति कुछ बोली नहीं, बस उसे घूरती रही।
अरे ये पड़ा तो है आपके सामने..!  
शकील ने ज़मीन की ओर इशारा किया। शांति ने नज़र घुमा के देखा- ज़मीन पर एक मैली-कुचैली मशीन लगभग औंधी होकर पड़ी हुई थी। उसका वो चमकदार प्याज़ी आवरण जिससे वो उसे पहचानती थी, कहीं नहीं दिख रहा था। लोहा था, ग्रीस थी, अचीन्हे कोणों और घुमावों वाली एक आकृति थी, और इन सब पर प्रमुखता जमाये हुए एक काला मटमैला रंग था। इन सब का जो मिला-जुला भाव शांति तक पहुँच रहा था वो काफ़ी अजनबी था। शांति के मन में उसके स्कूटर के नाम से जो भाव उपजता था वो इन कल-पुर्जों से उपज रहे भाव से काफ़ी अलग था। जब शांति ने ग़ौर से देखा तो उसे अपने स्कूटर का छिपा हुआ प्याज़ी रंग दिखाई पड़ने लगा। एक पहचान मिल जाने के बाद फिर धीरे-धीरे दोनों भावनाएं गड्ड-मड्ड होकर एक हो गईं।
दीदी, बाहर से जैसा दिखता है वैसा अन्दर से नहीं होता!  
क्या हुआ क्या है..?
कारबोरेटर में कचड़ा था.. और दीदी आपका एग्ज़ास्ट भी सड़ गया है!  
एग्ज़ास्ट मतलब..?
मतलब.. आपके गाड़ी के फेफड़े सड़ गए हैं.. बदली करने पड़ेंगे.. दीदी, स्कूटर में आँख, नाक, गला, फेफड़े, आँत, गुर्दा सब होता है। इसीलिए तो आदमी की तरह स्कूटर भी बीमार होता है। ये कह के शकील फिर दाँत चियार के हँसने लगा। उस दिन स्कूटर नहीं मिला। 
**
शाम को अचरज जब खेलकर आया तो उसने सवाल किया- ममा नीचे आपका स्कूटर नहीं है?
स्कूटर के फेफड़े ख़राब हो गए हैं.. वो अस्पताल में भरती है..
स्कूटर के भी फेफड़े होते हैं..? अचरज ने पूछा।
हम्म.. मेरा जो मेकैनिक है न शकील, वो बता रहा था.. और ऐसे बता रहा था जैसे स्कूटर भी कोई जीती-जागती चीज़ हो..
अचरज को स्कूटर को जीता-जागता मानने में ज़रा भी कठिनाई नहीं हुई। उसके लिए स्कूटर तो क्या सारे खिलौने जीवित हैं। जिस दिन वो ख़रीदे जाते हैं वो उनका बर्थडे होता है। और अगर वो खिलौनों की धीमी उपेक्षा और अन्तिम ठोकर के प्रति भी सचेत होता तो उनकी मौत के रोज़ पर भी अपनी हामी भरता। पर तिरछी बात उठाई पाखी ने जो विवेकानन्द की महानता के बीज उनकी आत्मा में है, यह सुबह ही स्वीकार कर चुकी थी।  
तब तो उसमें आत्मा भी होती होगी?  
आत्मा..किसमें?- शांति थोड़ा अचकचाई।
स्कूटर में..
स्कूटर के आत्मा कैसे हो सकती है..? स्कूटर को भगवान ने थोड़ी बनाया है, स्कूटर को तो आदमी ने बनाया है..?
पर आदमी को तो ईश्वर ने बनाया है.. और मैंने पढ़ा है कि ईश्वर ने इंसान को अपने ही जैसा बनाया है।
बात तो ठीक है.. और इंसान अब मशीन को अपनी छवि में बना रहा है- शांति ने कहा।
ममा.. मैंने तो यह भी पढ़ा है कि संत ज्ञानेश्वर ने एक भैंसे से मंत्र बुलवा दिए थे.. यह सिद्ध करने के लिए कि सब के अन्दर आत्मा होती है।
और शांति की ज़ुबान से एक घिसा हुआ सत्य फिसल आया- हाँ भगवान तो कण-कण में होते हैं। मगर कहने के साथ ही वो उसमें निहित आशय से उलझ गई- मतलब स्कूटर में भी भगवान हैं और मौक़ा पड़ने पर वो भी कभी मंत्र बोल सकता है और अपना ईश्वरत्व सिद्ध कर सकता है।   
**
रात सोते हुए शांति अपने स्कूटर और उसकी आत्मा के बारे में सोचती रही- वो बेचारा वहाँ शकील के गैराज में अंजर-पंजर खोले उलटा पड़ा हुआ है। न जाने उसकी आत्मा पर कैसी चोट पड़ रही होगी। फिर उसे विवेकानन्द की बीमारी याद आई। आत्मा बीमार नहीं होती, बीमार तो शरीर होता है। यह बात सोचकर उसे बड़ी तसल्ली हुई और उसने शरीर को नींद के हवाले कर दिया।
***

(इसी इतवार दैनिक भास्कर में छपी) 

4 टिप्‍पणियां:

SANDEEP PANWAR ने कहा…

वक्त वक्त की बात है, प्यारे?

प्रवीण पाण्डेय ने कहा…

सबको मरम्मत की आवश्यकता होती है।

सदा ने कहा…

बेहतरीन प्रस्‍तुति ।

रंजना ने कहा…

साधारण से कथा के माध्यम से कितना गंभीर चिंतन प्रस्तुत किया है आपने....

बहुत बहुत बहुत ही अच्छी लगी...

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