सोमवार, 20 जून 2011

शहर के चौकीदार



 सुबह से नल में पानी नहीं आ रहा था। दो बार बालकनी से चिल्लाकर ऐलान कर चुकी है और तीन बार पड़ोसियों से पूछ चुकी है कि उनके यहाँ हाल कुछ जुदा तो नहीं। मगर पानी का कुछ अता-पता नहीं। इसके पहले कि पानी के चलते दिन उठकर दौड़ने के पहले ही ढेर हो जाय, शांति ने नीचे जाकर ख़ुद ही तफ़्तीश करने का फ़ैसला किया। रात में आए पानी को ऊपर की टंकी में मोटर द्वारा चढ़ाने की ज़िम्मेदारी चौकीदार की है। मगर वो अपनी कुर्सी पर नहीं था। शांति को लगा कि शायद वो ऊपर छत पर होगा या नीचे की भूमिगत टंकी के पास। पहले नीचे ही उसे देख लेने के ख़्याल से शांति घूमकर भूमिगत टंकी के पास जाने लगी तो उसके पहले ही दो अजनबी नौजवान खड़े दिख गए। एक ने तो चौकीदार वाली वर्दी भी डांट रखी थी। शांति ने उन्ही से पूछ लिया चौकीदार की बाबत। तो वर्दी वाले ने ग़ैर वर्दी वाले की तरफ़ इशारा किया और बताया कि वही नया चौकीदार है।

नया चौकीदार इतना नया था कि वो अपनी नई पहचान के सुबूत अपनी वर्दी भी हासिल नहीं कर पाया था। और अपने इसी दुख के चर्चा बगल की इमारत के चौकीदार से कर रहा था। पानी शब्द सुनकर उसकी चेतना में कुछ गुड़गुड़ाहट तो हुई लेकिन उतनी नहीं जितनी की अपेक्षा पानीपीड़ित शांति को थी। उसके अफ़सोस में जवानी की एक अलसाहट भरी नींद का भारीपन झलका जिसके नीचे बड़ी-बड़ी ज़िम्मेदारियां कुचल के पिच्चा हो रहती हैं। इमारत की शिराओं में फिर से पानी के प्रवाह होने लगे उतने अन्तराल के बीच क्रोध और चिड़चिड़ाहट के वेग को धीरज से सम्हालते हुए शांति ने उसे पानी चढ़ाने की विधि की शिक्षा भी दी और अपना काम मुस्तैदी से करने की नसीहत भी। 

इस तरह जाने-पहचाने चौकीदार का रातोरात ग़ायब हो जाना कोई नई परिघटना नहीं है। कुछ समय से ऐसा नियमित तौर पर हो रहा है। उतरते-चढ़ते एक चेहरा जो आप को देखकर कभी अदब से खिंच जाता है तो कभी अपनी ऊब में ही बिखरा पड़ा रहता है, वो एक दिन सीढ़ियों के पास तैनात दिखना बन्द हो जाता है। उसकी अनुपस्थिति के एक गुज़रते हुए ख़्याल के साथ उस चेहरे का अस्तित्व फिर आपके ही भीतर कहीं दफ़न हो जाता है। अक्सर होता यह है कि चौकीदार कहलाने वाले उस व्यक्ति को हम नाम और चेहरे से अधिक उसकी जगह और वर्दी से पहचानते हैं। परसों दफ़्तर में भी यही हुआ।

दफ़्तर में नियुक्त माली की अनियमितता को देखकर शांति को गमले वाले पौधों की चिंता हुई। इस झुलसती गर्मी में पानी न मिलने से सीधे ज़मीन में लगे पौधे एक बारगी फिर भी कुछ उपाय कर सकते हैं मगर गमलाबद्ध पौधों के पास तो जड़ फैलानी की भी जगह नहीं। यही सोचकर शांति ने चौकीदार से गुज़ारिश की कि वही दिन में एक बार उन्हे पानी दे दिया करे। चौकीदार ने माना तो पर पानी देने के लिए टिका नहीं। और नए चौकीदार की होने की जानकारी शांति को तभी हुई जब उसने पौधे सूखे हुए देखे। नए चौकीदार को पुराने की कोई जानकारी नहीं- वो क्यों और कहाँ चला गया। अपने आस-पास इस तरह के बेक़ाबू बदलाव से शांति को बेचैनी होने लगती। लेकिन जीवन की रफ़्तार ऐसी हो चली है शहर में कि कहाँ क्या है, की पहचान विकट होती जा रही है। चीज़ें क्यों और किसके अनुसार बदल रही है उसकी ख़बर आम आदमी तक नहीं पहुँचती।   

उस दिन जब शांति दफ़्तर से लौटी तो फिर से कुर्सी ख़ाली थी और चौकीदार नदारद। नज़र घुमाकर आस-पास देखा तो कुर्सी से ज़रा दूर पर नए चौकीदार के साथ दो नौजवान लड़के बड़ी ही लापरवाही से अधलेटे पड़े हुए थे। शांति को देखकर उसकी उपस्थिति को दर्ज़ करने भर की तत्परता भी उन्होने नहीं दिखाई। उनकी शांति में भले कोई दिलचस्पी न हो लेकिन शांति को तो उसकी जिज्ञासा धकेल रही थी। शांति को उन्ही की तरफ़ आता देख लड़के पैर समेट कर बैठ गए। क्या नाम है तुम्हारा से बात शुरु कर के खेत-खलिहान तक पहुँच गई। तीन में से एक लड़के के घर में तो पचास बीघा खेत निकले। एक तरह से वो करोड़ों की सम्पत्ति का हिस्सेदार था। लेकिन शहर में आकर एक मामूली रिहाइशी इलाक़े की पार्किंग में उठंगे पड़े रहने में उसे कोई शर्म नहीं थी। शहर उसके लिए एक रोमांच का विराट मंच था। गाँव की मन्थर एकरसता की विपरीत यहाँ सब कुछ चपलता और विविधता से भरा हुआ था। गाँव में जो था वो वही होने के अलावा कुछ और नहीं हो सकता था। जबकि गाँव की इन लड़कों की नज़र से शहर सम्भावनाओं से लबालब भरा नज़र आता था। और उन सम्भावनाओं का लालच ऐसा था जिसके लिए पचास बीघे का ज़मीन्दार भी चौकीदारी करने में ज़िल्लत महसूस नहीं कर रहा था। शांति ने ग़ौर से देखा तो हलकी उगती दाढ़ी-मूँछो से उन किशोरों की कोमलता अभी भी पूरी तरह छुपी नहीं थी।

दूसरा लड़का इतनी सम्पन्न बुनियाद पर नहीं खड़ा था। चार बीघे होते थे उसके घर में। अब दो बचे हैं। दो को बेचकर भाई ने एक ट्रक ख़रीदा और अपनी अनुभवहीनता के चलते नया धंधा न सम्हाल सका। धंधे में घाटा खाया, फिर ट्रक बेचकर जो पैसे हाथ आए, उन से कर्ज़ा चुकाया। यह दूसरा लड़का शहर को सम्भावना की तरह नहीं सिर्फ़ आसरे की तरह पाता होगा, शांति ने सोचा। तीसरा अन्तर्मुखी प्रकृति का था। कुछ नहीं बोला, बस अपने साथियों को देख-देख मन्द-मन्द मुस्काता रहा। उसके हाथ में फ़टाफ़ट अंग्रेज़ी सीखने की एक गाइड भी चमक रही थी। निश्चित ही बाक़ी दोनों से अलग उसके भीतर आगे बढ़ने की महत्वाकांक्षा ललक रही थी और शायद वही उसको अपने मौजूदा अस्तित्व के प्रति कहीं शर्मसार भी बना रही थी। इन दोनों की मिली-जुली अभिव्यक्ति उसके मौन में थी। इतना जान लेने के बाद शांति की जिज्ञासा थोड़ी आश्वस्त तो हुई लेकिन ये फिर भी नहीं पता चला कि पहले के चौकीदार शहर में ही किसी दूसरी जगह फ़िट हो गया है या गाँव वापस चला गया?    
  
अगली सुबह जब शांति उठी तो इस चिंता के साथ कि पता नहीं पानी आ रहा होगा या नहीं। मुँह धोने के लिए नल खोलकर देखा तो पानी की धार बेसिन पर छिट्टों में टूटने लगी। एक चिंता से बच गई पर हर दिन चिंताओ की कभी सघन तो कभी विरल धारा है। चौकीदारों का वह संसार जिसके प्रति वो कल बहुत चिंतित थी आज उसके मानसपटल पर कहीं नहीं था। लेकिन गाँवों से रोज़ हज़ारों नौजवान शहर में आते जा रहे हैं। जिस शहर में इमारतों की सुरक्षा के लिए वो तैनात किए जाते हैं, न तो उस इमारत की आन्तरिक बुनावट का वो हिस्सा हैं और न शहर की। फिर भी उनके इस आवाजाही से धीरे-धीरे शहर बदलता जा रहा है। और ये बदलाव चुपचाप भी नहीं है। बहुत रगड़-घिसकर और चोटों और घावों के साथ बदल रहा है सब कुछ। पर भीतर और बाहर की तमाम दूसरी आवाज़ों की गूँज में यह बुनियादी आवाज़ें हम तक आकर भी अनसुनी हो  जा रही हैं।  


***

(इस इतवार दैनिक भास्कर में छपी)  

2 टिप्‍पणियां:

रंजना ने कहा…

चौकीदारों के होने या जीवन पर शायद ही कोई ध्यान देता है... प्रभावशाली ढंग से आपने उनके जीवन को इस कथा में समेटा है....

आशुतोष कुमार ने कहा…

देर से पढ़ा. तुम अपनी जमीन बनाने लगे हो. मुबारक. इसी रस्ते आगे बढ़ो. शुरुआत में लोकप्रियता का घाटा भी हो तो घबड़ाना मत. यह एक अलग तरह का सार्थक काम निकलेगा.

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