मंगलवार, 22 जून 2010

विभाजन के पहले विविधता


लगभग सभी प्रगतिशील चिन्तक और विचारक यह मानते आए हैं कि फ़ोर्ट विलियम वाले गिलक्रिस्ट साहब ने हिन्दी/उर्दू ज़ुबान का साहित्य नागरी लिपि में लिखवा कर एक साम्प्रदायिक दीवार की नींव रखी। धारणा यह रही है कि लल्लू लाल जी और सदल मिश्र के पहले नागरी लिपि में खड़ी बोली का कोई साहित्य नहीं रचा गया था। इसी बात को आगे खींचते हुए 'हिन्दी' भाषा के बाद के साहित्यकारों पर आरोप लगाया जाता रहा है कि उन्होने आमफ़हम उर्दू के भीतर संस्कृत के शब्द भर कर एक विकृत भाषा को जन्म दिया और समाज को साम्प्रदयिक चेतना से दूषित किया।

असल में इन अवधारणाओं के मूल में वही वृत्ति है जिस से लगभग हर पश्चिमी परिपाटी बीमार रहती है- प्रमाण की अनुपस्थिति को, अनुपस्थिति का प्रमाण मान लिया जाता है।


हिन्दी-उर्दू मसले पर फ़्रंचेस्का ओर्सिनी द्वारा सम्पादित किताब 'बिफ़ोर द डिवाइड' इन सवालों की पड़ताल करने के लिए गिलक्रिस्ट के फ़ोर्ट विलियम के पहले रचे साहित्य को खंगाल कर नए तथ्य सामने लाती है और हमें उन की रौशनी में इस पूरे मामले को नए नज़रिये से देखने के लिए मजबूर करती है।

ओर्सिनी अपनी भूमिका में कहती हैं कि हिन्दी-उर्दू बहस में एक बड़ी समस्या यह भी रही है कि साहित्यिक कृतियों की भाषा को लोगों की आम ज़बान के रूप में स्वीकार किया जाता रहा है। (आज भी हमारी बोलने वाली और लिखने वाली भाषा में लहज़े और वाक्य संऱचना के अलावा शब्द-सम्पदा का बड़ा फ़र्क़ रहता है)

हिन्दी और उर्दू के बीच झगड़े का मुख्य आधार उनकी ऐतिहासिकता रही है। उर्दू वालों, और समझदार विद्वानों के एक बड़े तबक़े का मानना रहा है कि तथाकथित खड़ी बोली को साहित्य के रूप में व्यवहार करने का काम नस्तालिक़ लिपि में होता रहा है और इसलिए मोटे तौर पर दिल्ली और दकन के मुस्लिम अशराफ़ द्वारा विकसित भाषा (खड़ी बोली के साहित्य) को नागरी लिपि में लिखना एक किसी अन्य (औपनिवेशिक व साम्प्रदायिक) मक़सद से प्रेरित हरकत हैं। और हिन्दुओं द्वारा १९वीं सदी में अपनाई गई हिन्दी थोपी हुई, बनाई हुई, गढ़ी हुई भाषा है जिसके अन्दर संस्कृत की शब्दावली घुसा दी गई।

हालांकि हिन्दी-उर्दू के बीच साहित्य का बँटवारा अकेले लिपि के आधार पर तो नहीं होता रहा है। रसखान, रहीम, कबीर और जायसी हिन्दी साहित्य की परम्परा में गिने जाते रहे हैं और तमाम ग़ैर-मुस्लिम शाएर नस्तालिक़ में लिखने के बावजूद मुहम्मद हुसैन आज़ाद के उर्दू साहित्य के इतिहास पर केन्द्रित किताब आबेहयात में जगह नहीं पा सके। हिन्दी साहित्य का नाम जपने वाले मीर और नज़ीर को गुनते तो रहे मगर इतिहास लिखते समय संकोच वृत्ति/स्मृति लोप/भेद दृष्टि का शिकार हो गए।

उर्दू वालों ने अपने इतिहास को महज़ मुस्लिमों द्वार रचित खड़ी बोली के साहित्य (और उसमें भी मोटे तौर पर गज़ल) तक सीमित रखा था, हालांकि विगत कुछ वर्षों में कुछ बदलाव आए हैं। लेकिन इमरै बंघा के शोध से पता चलता है कि खड़ी बोली का साहित्य फ़ारसी लिपि के अलावा देवनागरी और गुरमुखी में भी लिखा गया है।फ़्रंचेस्का ओर्सिनी द्वारा सम्पादित ‘बिफ़ोर द डिवाइड’ में पूर्व औपनिवेशिक उत्तर भारत के भाषाई परिदृश्य पर केन्द्रित नौ लेख हैं। सभी लेख पढ़ने योग्य और गुनने योग्य हैं मगर विस्तार और विषयान्तरके भय से मैं यहाँ पर तीन लेखों की ही चर्चा कर रहा हूँ; १) इमरै बंघा का “रेख़्ता: पोएट्री इन मिक्स्ड लैंग्वेज” (द इमर्जेन्स औफ़ खड़ी बोली लिट्रेचर इन नोर्थ इंडिया), २) एलीसन बुश का “रीति एण्ड रेजिस्टर” (लेक्सिकल वैरिएशन इन कोर्टली ब्रज भाषा टेक्स्ट), और ३) फ़्रंचेस्का ओर्सिनी का “बारहमासा इन हिन्दी एण्ड उर्दू”।



रेख़्ता की विरासत
इमरै बंघा अपने लेख की शुरुआत में ही पहले यह साफ़ करते हैं कि रेख़्ता से उनकी मुराद क्या है। और इसके लिए वो अपनी नहीं मीर तक़ी मीर की परिभाषा को सामने रखते हैं। मीर ने भाषाई आधार पर रेख़्ता की चार क़िस्में बताई हैं; १) एक पंक्ति फ़ारसी और एक हिन्दी, २) एक ही पंक्ति में आधी फ़ारसी और बाक़ी आधी हिन्दी, ३) हिन्दी वाक्य में फ़ारसी क्रियाओं, पूर्वसर्गादि का प्रयोग, ४) हिन्दी में फ़ारसी वाक्यांशों का प्रयोग। मीर की शाइरी ज़ाहिरन चौथे क़िस्म से ताल्लुक़ रखती है। बंघा लिखते हैं कि मीर का अपनी भाषा को हिन्दी के साथ-साथ रेख़्ता भी कहते हैं क्योंकि कहीं न कहीं आज उर्दू कही जाने वाली भाषा, दकनी के अलावा, उस वक़्त उत्तर भारत में हुए रेख़्ता सम्बन्धी प्रयोगों की विरासत भी मानी जा रही थी। बंघा का मक़सद पहली तीन कि़स्मों की छानबीन करना है।

वे अपने शोध के ज़रिये पाते हैं कि १६वीं १७वीं सदी में रेख़्ता का बड़ा ज़ोर था जो अभी तक फ़ारसी लिपि में ही पाया गया था। लेकिन इमरै बंघा ने ऐसे अनेक रेख़्ते खोज निकाले हैं जो नागरी, कैथी और गुरमुखी लिपि में हैं। और उनका मत है कि अगर इन रेख़्तो पर ग़ौर किया जाय तो फिर आधुनिक हिन्दी को फ़ोर्ट विलियम कौलेज में घटित एक बनावटी प्रयोग नहीं माना जा सकेगा। बल्कि वह एक ऐसी परम्परा की कड़ी है जिसके साक्ष्य लोगों ने गवां दिये। एक शैली के रूप में रेख़्ता की अहमियत, वली दकनी की शैली के विकास के बाद लगभग समाप्त हो गई। 'हिन्दी' में इसका चलन १९वीं सदी तक मिलता तो है पर भारतेन्दु आदि के उर्दू परम्परा के कड़े विरोध के चलते उर्दू-हिन्दी के बीच की इस साझी कड़ी के अस्तित्व को लगभग नकार दिया गया।

उर्दू के विद्वान भी उत्तर भारत में रेख़्ता की मिसाले खोजने के लिए बेचैन तो रहे हैं मगर उसे उर्दू की पूर्वपीठिका के बतौर स्थापित करने के लिए, ना कि हिन्दवी (पूर्व औपनिवेशिक उत्तर भारत की भाषा को बंघा ने हिन्दवी के नाम दिया है) के साथ सतत सम्पर्क के सन्दर्भ में। वह हिन्दवी जिसमें ब्रज भाषा, अवधी, गुजरी, फ़ारसी, खड़ी बोली और दकनी बराबर एक दूसरे के साथ हिलती-मिलती रहीं और लिपियों की हद को नज़र‌अंदाज़ करती रहीं।

बंघा अफ़ज़ल द्वारा लिखित ‘बिकट कहानी’ की मिसाल से कहते हैं कि पिछले बीस-तीस सालों में ही इस मसनवी को उर्दू के इतिहास में जगह मिलने लगी है जबकि पहले के किसी तज़्किरे में इस का ज़िक्र नहीं मिलता। क्यों? बंघा का तर्क है कि इसका कारण भाषाई सीमा नहीं बल्कि शैलीगत सरहदें थी। इसीलिए फ़ारसी व अरबी के शब्दों से भरे दोहों, कबित्तो और पदों को उर्दू के तज़्किरों में जगह नहीं मिलती जबकि मीर और सौदा की सादी ज़ुबान को ख़ूब मिलती है। और बिकट कहानी मसनवी तो ज़रूर है मगर बारहमासा शिल्प में लिखी गई जो फ़ारसी शिल्प की उर्दू गज़ल परम्परा से बाहर की चीज़ है।

सखी भादो निपट तपती पड़ी रे, तमामे तन-बदन मेरा जरे री
सियाह बादर चहारो ओर छाये, लिया मुझ घेर पिउ अजहुँ न आये

इमरै बंघा एक बहुत दिलचस्प नुक्ताचीनी करते हुए लिखते हैं कि वली की हिन्दवी ने उत्तर भारत में रेख़्ता का चलन चलाया नहीं बल्कि पहले से मौजूद मिले-जुले काव्य की शैली को विस्थापित कर दिया।

रेख़्ता की इस परिभाषा के तहत दादू दयाल (मृत्यु १६०३) के मुक्तक खड़ी बोली के रेख़्ता के सबसे पुराने मिलने वाले उदाहरण हैं-
अला तेरा जिकर फिकर करते हैं
आसक मुस्ताक तेरे, तरसि तरसि मरते हैं
सलक षेस दिगरा नेस, बैठे दिन भरते हैं
दाईम दरबारी तेरे, गैर महल डरते हैं
तन सहीद मन सहीद, राति दिवस लरते हैं
ग्यान तेरा ध्यान तेरा, इसक आगि जरते हैं
जान तेरा ज्याद तेरा, पाँउ सिर धरते हैं
दादु दिवाना तेरा, जर षरीद घर के हैं

या सुन्दर दास का पद देखिये-
मै ही अति गाफिल हुई, रही सेज पर सोइ
सुन्दर पिया जागै सदा क्यौकरि मेला होई

दादू, उनके शिष्य सुन्दरदास और वाजिद के अलावा मलूकदास और हरिदास के पदों में भी खड़ी बोली नागरी लिपि में पाई जाती है।

इमरै बंघा कई मिसालों द्वारा यह सिद्ध करते हैं कि १६वीं-१७वीं सदी का उत्तर भारत किसी एक ज़ुबान से महदूद नहीं था। अपनी बात कहने के लिए उसके पास कई-कई ज़ुबानें थीं। और यही नहीं वो ब्रज, अवधी, फ़ारसी, खड़ी बोली, तथा अन्य भाषाओं को मिलाने की परिपाटी को संस्कृत नाटकों से जोड़ देते हैं। जिसमें आम जन प्राकृत में बोलते हैं और कुलीन जन संस्कृत में। बल्कि भरत के नाट्य शास्त्र में तो यहाँ तक कहा गया कि किस पृष्ठभूमि के पात्र को किस प्रकार की प्राकृत बोलनी चाहिये। इसी बात को अन्य मध्ययुगीन साक्ष्यों से सिद्ध करते हुए बंघा कहते हैं कि तत्कालीन भारत/ हिन्दोस्तान भी एक बहुभाषी भूभाग था। और यही नहीं ये बहुभाषी परम्परा दक्षिण भारत में भी मौजूद थी। और इसकी एक हद देखने को मिलती है रहीम के निम्न पद में-

भर्ता प्राची गतो मे, बहुरि न बगदे, शूँ करूँ रे हवे हूँ।
माझी कर्माचि गोष्ठी, अब पुन शुणसि, गाँठ धेलो न ईठे॥
म्हारी तीरा सुनोरा, खरच बहुत है, ईहरा टाबरा रो,
दिट्‌ठी टैंडी दिलो दो, इश्क़ अल्‌ फ़िदा, ओडियो बच्चनाडू॥

बंघा तमाम उदाहरणों से यह स्थापित करते हैं कि १६वीं-१७वीं सदी के उत्तर भारत में, तमाम कुलीन मुस्लिम घरानों में भी, कई भाषाओं का इस्तेमाल हो रहा था। उनकी विभिन्न पृष्ठभूमि की माताओं, धाय माँओ, पत्नियों, और लौंडियों के सुहबत में वे लगातार के बहुभाषी संस्कृति में जी रहे थे। इसी लिए जब मोहम्मद अफ़ज़ल (अफ़ज़ल गोपाल) की बिकट कहानी लिखी जाती है तो लगभग नाट्य शास्त्र के आदेशों का पालन करते हुए, स्त्री स्वर के प्रति निष्ठा बरतने के लिए तद्‌भव शैली का इस्तेमाल किया जाता है।

अब देखिये दारा शिकोह के मीर मुंशी चन्द्रभान ब्राहमन (मृत्यु १६६२) का रेख़्ता किस शैली का है -
खुदा ने किस शहर अन्दर हमन को लाए डाला है
न दिलबर है, न साक़ी है, न शीसा है, न प्याला है



१७वीं सदी में नागरी रेख़्ता
बंघा नागरी लिपि के रेख़्ता के हवालों में जयपुर के दरबार के प्राणनाथ श्रोत्रिय का मुख्य रूप से उल्लेख करते हैं। इन्ही प्राणनाथ की जीवनी उनके शिष्य लालदास लिखित 'बीटक' (१६९४)खड़ी बोली में लिखा गया। बिहार से राजस्थान तक १८वीं सदी नागरी रेख़्ते का ख़ूब चलन हुआ। इन की कोई चर्चा आज के पहले आम नहीं हुई, बंघा ने अनुसार ये सारी पाण्डुलिपियां राजस्थान ओरियण्टल रिसर्च इंस्टीट्यूट, नागरी प्रचारणी सभा, हिन्दी साहित्य सम्मेलन, और बिहार राष्ट्रभाषा परिषद की इमारतों में क़ैद हैं।

[जो लोग इलाहाबाद के हिन्दी साहित्य सम्मेलन की तीर्थ-यात्रा कर चुके हैं वे जानते होंगे कि वहाँ क़ैद पाण्डुलिपियों के अलावा और कितने प्रकार के आज़ाद देवता भी उस परिसर में भ्रमण कर रहे होते हैं और रुष्ट होने का बहाना बस ढूँढ रहे होते हैं। इस तथ्य के दीगर कि भारत में इस प्रकार का शोध करने में किसी की दिलचस्पी नहीं। एडवर्ड सईद जिन ओरियण्टिलिस्ट्स की भरपूर मज़म्मत करते हैं, उनके भारत से विदा होते ही ऐसी किसी गतिविधि को लोग गड़े मुर्दे उखाड़ने के समकक्ष मान कर, अर्थकरी विद्या के दामन से लटक रहे हैं या कूलर और एसी की हवा में अलसा रहे हैं।]

निर्गुण संत, कृष्ण भक्त कवि और रीति शैली के दरबारी कवि, जिन्होने मूल रूप से तो ब्रज भाषा में लिखा किया मगर रेख़्ता में भी प्रयोग किए। बिहार और मेवाड़ के दरिया साहब, कोटवा के चरनदास, निरंजनियों के बीच से गुलाल साहब, बुल्ला साहब, भीखा साहब, कृष्ण भक्तो में मनोहर दास, आनन्द घन, सितलादास के रेख़्ता के प्रयोगों पर बंघा ने चर्चा की है और मिसालें दी हैं।

चरनदास का रेख़्ता-
दो दिन का जग में जीना है, करता है क्यो गुमान
अए बेश‌उर गीदी टुक राम को पिचान

आनन्द चमन से लाल बिहारी का रेख़्ता-
मजनूं फरहाद माधवानल ये थे महरम इस बस्ती के
ललै शीरा मे लीन हुए उर कामकण्डला किस्ती के
यह इश्क चन्द्रिका छाय रही अब तक बायस इस मस्ती के
जानी ढूँढे ही मिलते है गाहक इस हुस्नपरस्ती के

अठाहरवीं सदी के आते-आते ब्रज भाषा के सभी मुख्य कवि -नगरीदास, आनन्दघन, ब्रजनिधि, रामनारायन, गंगादास बख्तावर - नागरी रेख़्ता में काव्य रच रहे थे। और उन्नीसवीं सदी तक यह चलन जारी रहा जिसके प्रमाण बंघा को मिलते हैं।

बंघा के निष्कर्ष
• १४ वीं सदी से ही हिन्दवी (उर्दू-हिन्दी, ब्रज, अवधी सभी भारतीय बोलियाँ) फ़ारसी के साथ-साथ साहित्य की भाषा थी।
• हिन्दवी को फ़ारसी जैसा स्थान नहीं मिला क्योंकि उस में मिलने वाला साहित्य विरल है। और उसकी सामाजिक हैसियत भी हीन थी।
• हिन्दवी में मिलने वाली चीज़ें ब्रज भाषा के अधिक नज़दीक़ हैं बनिस्बत खड़ी बोली के।
• खड़ी बोली का साहित्य १६वीं सदी के बाद ही मिलता है। और पुरानी अवधारणाओं के विपरीत यह उत्तर (दिल्ली) और दकन व गुजरात में एक साथ ही विकसित हुआ। उत्तर भारत में इस ने मिली-जुली भाषा की रेख़्ता शैली इख़्तियार की।
• हालांकि सबसे पहले रेख़्ता का प्रयोग मुस्लिम हलक़ों मे ही किया गया मगर १६ वीं सदी के उत्तरार्ध से ही, मुस्लिम और हिन्दू विचारों का संगम कराने वाले निर्गुनी संत परम्परा ने रेख़्ता की अपनी शैली विकसित कर ली। जिसे उन्होने देशज छंदो और नागरी लिपि में लिखा।
• रेख़्ता के फ़ारसी लिपि वाली शैली से आज की उर्दू भाषा का विकास हुआ।
• वाजिद का रेख़्ता, खड़ी बोली के प्राचीनतम रेख़्ता ‘बिकट कहानी’ से पुराना है। वाजिद ने नागरी में लिखा और अफ़ज़ल की बिकट कहानी नस्तालिक़ लिपि में है।
• १७ वीं सदी में रेख़्ता और खड़ी बोली का सम्बन्ध पक्का हो गया।
• मुग़ल दरबारों में फ़ारसी लिपि में रेख़्ता के चलन का ज़ोर रहा और जयपुर और आमेर के दरबार में नागरी रेख़्ता का।
• फ़ारसी की तुलना में, हिन्दवी के भावों को अधिक सफलता से वहन कर पाने की ख़ूबी ने, रेख़्ते की शैली को कामयाब बनाया।
• १९ वीं सदी के पहले की भाषा को उर्दू के नाम से पुकारा नहीं जा सकता क्योंकि हिन्दी-उर्दू की अलग-अलग श्रेणियां तब अस्तित्व में नहीं थीं। इसलिए उसे हिन्दवी कहना अधिक उचित होगा।
• रेख़्ता वो कड़ी है जिस में हिन्दी और उर्दू के आरम्भिक साझे जीवन की स्मृतियाँ बन्द हैं।

***

रीति काल की शैलियाँ
किताब में दूसरा महत्वपूर्ण लेख एलीसन बुश द्वारा रीतिकालीन साहित्य की शैलीगत पड़ताल है। रीति कालीन काव्यों में प्राप्त विभिन्न शैलियों - भक्ति, दरबारी काव्य, वीर गाथाएं, शास्त्रीय ग्रंथ - का अध्ययन करते हुए ने मोहतरमा बुश ने पाया कि ब्रजभाषा के भीतर ही उन में शाब्दिक तौर पर कई छोर हैं; संस्कृतनिष्ठ तत्सम भाषा से लेकर अर्धतत्सम, तद्‌भव और फ़ारसी प्रभावित ज़ुबान तक। इस पड़ताल में गहरे उतरते हुए उन्होने देखा कि आगे जा कर हिन्दी व उर्दू के विभाजन में विकसित होने वाली भाषा का सीधा सम्बन्ध पूर्व-औपनिवेशिक भाषाई परम्पराओं से है।

वे पाती हैं कि संस्कृतनिष्ठ शैली रीतिकालीन कवियों के तरकश में उपलब्ध एक प्रमुख शैली थी और जो अपने चरित्र में 'हिन्दू' नहीं थी। इस रीति कालीन जगत में संस्कृतनिष्ठ भाषा का चुनाव शास्त्रीय लेखन के लिए किया जाता देखा गया है। क्योंकि तद्‌भव शैली में विचारों और अभिव्यक्ति की जटिलता पाना मुमकिन न होता। इस रौशनी में यह कहना कि संस्कृतनिष्ठ भाषा १९ वीं सदी का आविष्कार है, तथ्यों की अनदेखी होगी। शिवा जी और बीर सिंह देव की यश गाथा के लिए ही नहीं जहाँगीर और अकबर शाह के प्रशस्ति गान के लिए भी संस्कृतनिष्ठ शैली का प्रयोग किया जाता है। केशवदास की जहाँगीर जस चन्द्रिका की भाषा देखिये:

कवि, सेनापति, कुसल कलानिधि, गुनी गीरपति
सूर, गनेस, महेस, शेष, बहु बिबुध, महामति
चतुरानन, सोभानिवास, श्रीधर, विद्याधर
बिद्याधरी अनेक, मंजु घोषादि चित्तहर
दृष्टि अनुग्रह-निग्रहनि जुत कहीं केसव, सब भाँति चम
इमि जहाँगीर सुरतान अब देखहु अद्‌भुत इंद्रसम

यहाँ पर संस्कृत कोई हिन्दू भाषा नहीं है बल्कि एक कूट शब्दावली है जिसके ज़रिये बादशाह की नैतिक आधिपत्य व सर्वसत्ता की अभिव्यक्ति की गई है। यही केशव बाद में जहाँगीर के लिए कहीं ऐसी भाषा का भी इस्तेमाल करते हैं - आलमपनाह कुल्ली आलम के आदमी। और बहुत सारा ऐसा काव्य है जो तद्‌भव पर ही आश्रित है।

दूसरी ओर अरबी-फ़ारसी शब्दों के ब्रज भाषा में इस्तेमाल को भी सही सन्दर्भ में देखना चाहिये। अक्सर उन शब्दों का इस्तेमाल भाषा व पद को अधिक से अधिक आंलकारिक बनाने के लिए किया गया है। वो किसी चित्रकार की तरह अपनी ज़रूरत के अनुसार वही शब्द चुनते रहे होंगे, उनके पास उपलब्ध विस्तृत शब्द सम्पदा से, जो उनके काव्य में सब से दिलचस्प असर पैदा कर सके। रहीम ने ब्रज, अवधी और खड़ी बोली में रचनाएं की हैं और उनके बीच कई शैलियों में विचरण किया है। बुश रहीम की काव्य को मुग़ल कौस्मोपोलिटनिज़्म में रचा-बसा बताती हैं जो काफ़ी निशाने पर है।

केशवदास की जहाँगीरजसचन्द्रिका के ठीक उलट भूषण त्रिपाठी जब 'शिवाजीराजभूषण' में उनका वीरगाथा लिखते हैं तो संस्कृत और ब्रज को छोड़कर फ़ारसी प्रभावित भाषा का चुनाव करते हैं। अजीब बात है? मुग़ल सम्राट से लोहा लेने वाले मराठे के यशगान में फ़ारसी का प्रयोग। पर बुश इसे बिलकुल तर्कसंगत पाते हैं क्योंकि 'शिवाजीराजभूषण' १७वीं सदी की राजनीति पर केन्द्रित साहित्य है और उस काल तक भारत की राजनीतिक परिदृश्य पूरी तरह फ़ारसी शब्दावली से ही परिभाषित होता था। उसे छोड़कर किसी दूसरी शब्दावली का इस्तेमाल करना अपनी बात को बेवजह दुरूह बनाना होता। वो तो इस हद तक जाते हैं कि शिवाजी के लिए ग़ाज़ी शब्द का प्रयोग करते हैं! और इन ही के भाई मतिराम त्रिपाठी की सरल ब्रज भाषा इस का प्रमाण है कि किसी भी कवि की साहित्यिक भाषा उस की जाति या समुदाय से सम्बन्धित नहीं बल्कि उसका अपना सचेत चुनाव है।

इसी सन्दर्भ में बुश रहीम के काव्य की पड़ताल करती हैं। रहीम के द्वार इस्तेमाल की गई अवधी, ब्रज, खड़ी बोली और संस्कृतनिष्ठ भाषा को आख़िर कैसे देखा जाय? उनके काव्य में इस बात का साफ़ सबूत है कि कविता कोई कुदरती चीज़ नहीं है। ये एक सचेत कला है। क्या वो ब्रज व अवधी में इसलिए लिख रहे थे कि वे फ़ारसी के ज्ञान में कच्चे थे?

बरवै नायिका भेद से मध्यमाअ विप्रलब्धा-
देखि न केलि-भवनवा, नन्दकुमार
लै लै ऊँच उससवा, भ‌इ बिकरार

वे पाती हैं कि एक ही कवि अलग-अलग क़िस्म की चीज़ लिखने के लिए अलग-अलग भाषा का इस्तेमाल करता दिखता है। अपनी संस्कृतनिष्ठ भाषा के लिए प्रसिद्ध 'आचार्यकवि' केशवदास अपने बाद के काव्य में फ़ारसी प्रभावित भाषा का इस्तेमाल के ज़रिये मुग़लो के साथ ओरछा के सम्बन्ध की भावना को आकार देते हैं। दूसरी तरफ़ मुग़ल सैनिक होने के बावजूद रसलीन अपनी भाषा में से सारे अरबी-फ़ारसी के शब्द निकाल फेंकते हैं और सिर्फ़ तद्‌भव शैली का चुनाव करते हैं। क्योंकि कृष्ण-गोपी प्रकरण (और स्त्री प्रकरण) के लिए ब्रजभाषा में तद्‌भव भाषा का ही चुनाव करने की परम्परा बनी हुई थी। सैय्यद इंशाल्ला ख़ान की रानी केतकी की कहानी की अरबी-फ़ारसी हीन भाषा को बजाय औपनिवेशिक काल के औज़ार के तरह देखने के, उसे तद्‌भव शैली में खड़ी बोली के प्रयोग बतौर देखा जा सकता है।

अपने लेख के अंत में वो चेताती हैं कि आधुनिक भाषाई विचारधाराएं कुछ अधिक ही स्पष्ट अर्थ देखने के दोष से शिकार हैं क्योंकि उनकी आँखें औपनिवेशिक और सांस्कृतिक राष्ट्रवाद की राजनीति से चौंधियाई हुई हैं। साहित्य और साहित्यिक परम्पराएं तमाम मक़सद, लिहाज़ और कारणों से किसी भाषा या शैली का चुनाव करते हैं, उनका कड़े तर्क से स्पष्ट व्याख्या की उम्मीद करना उन के साथ ज़्यादती होगी।

सार यह है कि भाषाई शैली किसी जाति-प्रजाति या धर्म या जनसमूह के लोगों की प्रतिनिधि नहीं थी बल्कि हर कवि के पास उपलब्ध एक औज़ार थी जिसके ज़रिये वह अपनी बात को बेहतर तरीक़े और अन्दाज़ से व्यक्त कर सके। इस बहुभाषाई व्यवहार को आधुनिक पाठक पचा पाने में मुश्किल होती रही है।

***

किताब में इन दो प्रमुख लेखों के अलावा अन्य कई दिलचस्प लेख हैं। जैसे स्वयं फ़्रंचेस्का ओर्सिनी का बारहमासा पर केन्द्रित लेख जिसमें वो भी पाती हैं कि पूर्व आधुनिक उत्तर भारतीय समाज में भाषाई स्तर पर विविधता का ज़ोर था। इमरै बंघा की तरह वो भी यही सिद्ध करती हैं कि मिली-जुली भाषा के जनक के रूप में वली और मीर की जो प्रतिष्ठा है उसमें थोड़ा संशोधित करने की ज़रूरत है क्योंकि उनकी गज़ल विधा की सफलता ने दूसरी अधिक स्वतंत्र विधाओं जैसे बारहमासा की रफ़्तार को गिरफ़्तार कर लिया। प्रिंटिंग की तकनीक आ जाने के बाद १९ वीं सदी में जो बारहमासे छापे गए उनमें ओर्सिनी ने एक बात ग़ौर की है कि वे चाहे खड़ी बोली के साँचे में लिखे गए हों या ब्रज भाषा के, उनकी शब्द-सम्पदा, अभिव्यक्तियाँ और छवियाँ एक जैसी ही रहीं। वही काव्य जब उर्दू में छपता तो उस की क्रियाएं खड़ी बोली की हो जातीं और हिन्दी में छपता तो ब्रजभाषा की।

ये एक दिलचस्प बिन्दु है क्योंकि जब उर्दू में गयै, गये, गयि, गई, ग‌इ या गै ‍लिखते हैं तो ये सभी एक ही प्रकार से लिखे जायेंगे- गाफ़ और बड़ी ये। और इस तरह लिखे हुए शब्द का आम उच्चारण 'गये' होगा। तो क्या उर्दू के खड़ी बोली के स्वरूप के विकास में लिपि का भी कुछ योगदान हो सकता है? क्योंकि हम ने देखा है कि लिपि के अन्तर के कारण पढ़े-लिखे लोग भी गम्भीर भूलें कर बैठते हैं। जैसे कि अंग्रेज़ी न्यूज़ चैनल के न्यूज़रीडर्स, नेपाली माओवादी नेता प्रचण्ड को प्रचन्दा कह कर बुलाते हैं क्योंकि अंग्रेज़ी लिपि में दन्त्य 'द' और मूर्धन्य 'ड' दोनों प्रकार के उच्चारण के लिए एक 'डी' ही है।

***

अपनी भाषा के किसी अंग्रेज़ द्वारा बनाए गए किसी औपनेविशिक संस्थान में बनाए जाने के आरोप से मुक्त होते हुए अपनी आह्लादता में हमें अपनी संकीर्णता को भी थोड़ा याद कर लेना चाहिये और उर्दू (या उस के द्वारा दावा की जाने वाली विरासत) को उस का उचित स्थान न देने की प्रवृत्ति से बाज़ आना चाहिये। संस्कृतनिष्ठ भाषा, नागरी लिपि और खड़ी बोली पर हिन्दी वालों की दावेदारी के पुख़्ता प्रमाण मिल जाने से हिन्दी भाषा (खड़ी बोली) के विकास में दिल्ली और दकन के मुस्लिम शासकों, उनके अधिकारियों, और सूफ़ी संतो की भूमिका कम नहीं हो जाती। उनकी व्यापक उपस्थिति और पहुँच की ही महिमा थी कि खड़ी बोली पंजाब से लेकर बंगाल और कश्मीर से लेकर कर्णाटक तक बोली-समझी जाने लगी। उर्दू साहित्य की विरासत को बेदख़ल कर के हम कभी भी हिन्दी के विकास और उसके असली चरित्र और ताक़त को हम कभी नहीं समझ सकेंगे।

मैं चाहता तो ये हूँ कि प्राथमिक से उच्च स्तर तक हिन्दी के पाठ्यक्रम में उर्दू साहित्य के सभी सितारों को अपनाया जाय और उन्हे उनकी उचित जगह दी जाय मगर ऐसी किसी भी माँग को लोग तुरन्त राजनीतिक और साम्प्रदायिक रंग दे देंगे। लेकिन आप ख़ुद सोचिये मीर और नज़ीर, मंटो और इस्मत चुग़ताई को बिना जाने-पढ़े क्या हमारी पढ़ाई पूरी होती है? इब्ने सफ़ी को गिने बिना ही क्या जासूसी साहित्य का पन्ना लिखा जाएगा? साहिर, क़ैफ़ी, मजरूह को और आज के जावेद अख़्तर और गुलज़ार को जब हम हिन्दुस्तानी सीने से चिपटा के घूम सकते हैं तो मीर और मंटो को स्कूल-कालेज में पढ़ाने से क्या गुरेज़ है?



5 टिप्‍पणियां:

प्रतीक पाण्डे ने कहा…

ज्ञानवर्धक लेख के लिए धन्यवाद। काफ़ी नयी जानकारी हासिल हुई।

प्रवीण पाण्डेय ने कहा…

सारगर्भित और ज्ञानवर्धक लेख ।

Smart Indian ने कहा…

अध्ययनपरक और सुलझा हुआ विश्लेषण. हम तो शायद ये सन्दर्भ ढूंढ भी नहीं पायेंगे. धन्यवाद!

आशुतोष कुमार ने कहा…

हिन्दुस्तानी खड़ी बोली का विकास हिन्दुस्तानी गंगाजमनी सभ्यता के विकास के साथ अटूट रूप से सम्बद्ध है. आज हमें हिंदी उर्दू की कहानी चाहे जितनी विकट लगती हो , अगले जमाने के लोगों के लिए इस झगडे का कोई वजूद न था. वे भाषा , साहित्य , कला आदि की अनेक परम्पराओं में सहजता से आवाजाही करते , इस आवाजाही में नयी ईजादें करते और प्रत्येक की आत्मवत्ता को ससम्मान बनाए रखते ki इस सांस्कृतिक जैव -विविधता के ख़त्म होते ही नवाचार की कोई संभावना नहीं बचेगी. यही वो चीज़ थी , जिसका नाम हिंदुस्तानियत था, जिस ने लगभग उसी वक्फे में हिन्दुस्तान में रौशनी बखेर रखी थी, जिसे यूरप का अन्धकारयुग यूरप वाले ही कहते थे. जरूर वो चीज़ किसी हद तक इस देस की हवापानीमिटटी में शामिल थी , लेकिन मुसलमान शासकों ने इसे जिस उरूज़ पर पहुंचाया , वह दुनिया की तहजीबी तारीख में बेमिसाल है.

बहुभाषिकता प्रत्येक परम्परागत समाज की विशेशता थी , एशिया में , और यूरप में भी. अचंभे की बात उस का पुराने भारत में पाया जाना नहीं , न पाया जाना होता. जायसी फारसी लिपि में लिख कर भी 'भासा' के कवी थे, न की रेख्ते या हिन्दवी के. इस के बावजूद , भासा ही वह जमीन थी , जिस पर हिंदी / हिन्दवी / उर्दू का आसमान खडा हुआ, इसे हुसैन आज़ाद जैसे खासे अनुदार उर्दू साहित्येतिहासकारों ने भी तस्लीम किया है.

उपनिवेशी कर्जे के बोझ से आज़ाद हो कर , आखिरकार, कुछ लोगों ने स्वच्छ आँखों से अतीत को देखना शुरू कर दिया है. तुम ने इस लैंडमार्क घटना की नोटिस ली और हमें वाकिफ कराया . शुक्रिया.

बोधिसत्व ने कहा…

एक बहुत महत्वपूर्ण आलेख, साथ बहस तलब भी, भाई आज हिंदी-उर्दू की समस्या इतनी सहल नहीं है। क्या हिंदी-उर्दू का पूरा मामला केवल लिपि-भेद तक ही सीमित है।

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