एक खुशखबरी यह है कि मेरे मित्र परेश कामदार की फ़िल्म खरगोश को ओसियान फ़िल्म फ़ेस्टिवल में पुरस्कार मिल गया है। और एक नहीं चार पुरस्कार मिल गए हैं: ज्यूरी पुरस्कार, अन्तर्राष्ट्रीय क्रिटिक पुरस्कार, ऑडियेन्स पुरस्कार, और नेटपैक पुरस्कार। किसी भी फ़िल्म के लिए चार अलग-अलग ज्यूरी के दिलों में अपनी जगह बनाना आसान नहीं होता, खरगोश ने यह करिश्मा कर दिखाया है।
कथाकार प्रियंवद की कहानी पर बनी यह फ़िल्म के केन्द्र में एक दस बरस के बच्चे की दुनिया और उसका नज़रिया है। उसके दुनिया में माँ है, उसके अध्यापक हैं, स्कूल है, सहपाठी हैं, एक कठपुतली वाला है, मोहल्ले की गलियाँ हैं, पीछे के खेत और खेतों के पार का जंगल है, मन के भीतर एक और बड़ा जंगल है, और सबसे बढ़कर उसके घर में किरायेदार भैया है, उनकी मोटरसाइकिल है, और मोहल्ले की छतों के आर-पार संचालित होने वाला प्रेम और उसका लक्ष्य नायिका - भैया की प्रेमिका है। मासूम बच्चा इन दो नौजवानों के प्रेम का क़ासिद बनता है और जाने कब से क़ासिद से रक़ीब की हैसियत में आने लगता है, उसे खुद पता नहीं लगता। एक तरह से यह एक बच्चे के भीतर काम के प्रस्फुटन का कलात्मक लेखा है।
खरगोश परेश भाई की तीसरी फ़िल्म है। इसके पहले वे एन एफ़ डी सी के प्रायोजन से टुन्नु की टीना और जुगाड़े हुए स्रोतों व दोस्तों-यारों के प्रायोजन से 'जॉनी-जॉनी येस पापा' बना चुके हैं। टुन्नु की टीना ने बर्लिन तक का सफ़र भी किया, और दूरदर्शन के छोटे पर्दे पर भी उसे जगह मिली। जॉनी-जॉनी येस पापा इतनी भाग्यशाली नहीं रही, तीन-चार साल से बन कर तैयार है लेकिन अभी तक वितरण नहीं हो सका है। परेश भाई एफ़ टी आई आई ने सम्पादन में डिप्लोमा हासिल किया है और कुमार शाहणी के साथ भी काम करते रहे हैं, बाद के वर्षों में टी वी पर सीरियलों का निर्देशन भी किया। लेकिन अच्छी बात ये रही कि बावजूद पैसे के लालच के टीवी की दुनिया में रमे नहीं और कला का जोखिम उठाया। (आजकल कला का जोखिम महज़ अभिव्यक्ति का ही जोखिम नहीं, अस्तित्व का जोखिम भी बनता है) उनकी पत्नी और मेरी सहपाठी रह चुकीं गज़ाला नरगिस ने भी उन्हे इस राह पर बढ़ चलने के लिए उत्साहित बनाए रखा। उनके सहयोग के बिना यह सफ़र बहुत मुश्किल हो सकता था। और धन्यवाद है ऋषि चन्द्रा जैसे निर्माता को जिसने परेश जी को अपनी समझ से एक अच्छी फ़िल्म बनाने की पूरी आज़ादी दी।
फ़िल्म पिछले वर्ष ही बन कर तैयार हो गई थी और मुम्बई में हुए तमाम ट्रायल शो में से एक ट्रायल में मैंने भी इसका आस्वादन किया। इस तरह की फ़िल्में भारत में कम ही बनी हैं और सन अस्सी के बाद तो बिलकुल ही नहीं बनीं। असल में समान्तर सिनेमा के नाम पर भारत में जो सिनेमा बनाया गया वह मोटे तौर पर सामाजिक सच्चाई का सिनेमा था। सिनेमाई कला की बरीक़ियों का अनुसंधान और संधान करने वाले सिनेमा के साधक कम ही रहे। सत्यजित राय, ऋत्विक घटक और बिमल राय, कला और सामाजिक सच्चाई को संतुलित करते रहे। लेकिन धीरे-धीरे कला पिछड़ती गई और जिसे कथ्य कहा जाता है उसकी धार भोथरी होती गई। (बहुत लोग मानते हैं कि शिल्प और कथ्य दो अलग-अलग हस्तियाँ हैं, पर इस मसले पर मैं गोदार का मुरीद हूँ जो मानते थे कि कथ्य शिल्प की अन्तर्वस्तु है और शिल्प कथ्य का आवरण)
मुख्यधारा के सिनेमा ने ही सामाजिक परिवर्तन को एक मसाले की तरह अख्तियार कर लिया और अगर आप भूले न हो तों मेरी आवाज़ सुनो, आज का एम एल एल राम अवतार, इंक़िलाब, अंकुश, प्रतिघात आदि फ़िल्में इसी अन्दाज़ की फ़िल्में थीं। मणि कौल और कुमार शाहणी ने ही कलात्मक सिनेमा के महीन परचम की झण्डाबरदारी की लेकिन वह नदी नब्बे आते-आते तक सूख गई। कला के जोखिम से भरी एक अनोखी फ़िल्म कमल स्वरूप की ओम दरबदर भी अस्सी के दशक के नारेबाज़ों का शिकार हुई थी जिसे तब के ‘सचेत’ बुद्धिजीवियों ने इसलिए नकार दिया क्योंकि उसमें सामाजिक सच्चाईयों का कोई प्रगतिशील संदेश उन्हे नहीं मिल सका; आज कला के भूखे लोग खोज-खोज के वो फ़िल्म देखने के लिए मचलते हैं।
नब्बे और नई सदी के वर्षों में प्रयोग तो कई हुए पर कामयाब कम हुए। लगभग टीवी के जन्म और नई आर्थिक नीति के समान्तर ही समान्तर सिनेमा की मृत्यु हो गई। मल्टीप्लेक्स फ़िल्मों का उदय हुआ, फ़िल्मों में बड़े तकनीकि विकास हुए मगर कलात्मक विकास पिछड़ता रहा। खरगोश इन अकाल वर्षों में वर्षा की पहली फुहार की तरह हैं, उस ज़मीन पर जहाँ सिनेमाई प्रयोग के नाम पर लोग शुद्ध नक़ल, योरोपीय सिनेमा और अमरीकी इन्डेपेन्डेन्ट सिनेमा को हिन्दी की बोतल में ढाल कर पेश करने के आगे जाने से क़तराते रहे हों। खरगोश पर सिनेमा की ईरानी परम्परा का प्रभाव ज़रूर दिखता है पर किसी फ़िल्म का नहीं ज़रा नहीं।
फ़िल्म को विदिशा और महेश्वर की पुरानी क़स्बाई दुनिया में फ़िल्मांकित किया गया है। उसका भूगोल बच्चे की मानसिक दुनिया का भूगोल बनता है दरअसल। विवेक शाह का कैमरा और मनोज सिक्का का ध्वनि संयोजन दोनों फ़िल्म की अंतरंगता के माध्यम हैं। जैसा कि पुरस्कारों की झड़ी से ही ज़ाहिर है कि ओसियान में लोगों ने इसे हाथों-हाथ लिया। मेरी उम्मीद है कि यह सफलता परेश भाई को आगे तमाम ऐसी और फ़िल्में बनाने के रास्ते साफ़ करेगी और उनके दर्शक इस फ़िल्म की कला से अभिभूत होकर इस परम्परा को आगे बढ़ाएंगे। विशेषकर इस तथ्य की रौशनी में कि आजकल सामाजिक संदेश को प्रसारित करने का बीड़ा मनोरंजन टीवी ने अपने हाथ ले लिया है, और सिनेमा की ज़मीन का संकट गहरा गया है.. या शायद ये बेहतर हुआ है!
10 टिप्पणियां:
परेश जी को बधाई। देर-सबेर मेहनत तो रंग लाएगी ही। हां, कभी-कभी वह खरगोश की तरह उछलती-कूदती भी आ जाती है:)
आपके मित्र को बधाई. जाने भारतीय दर्शक (अधिसंख्यक)कब गंभीर विषयों वाली फिल्मो का रुख करेंगे.
पऱेश भाई को बधाई।
तो हमारे पड़ोस में इसकी शूटिंग हुई, अच्छा लगा जानकर। इस बहाने आपने भी कला सिनेमा और मख्यधारा सिनेका का पुनरावलोकन पेश किया। सिनेमा पर, हिन्दी में कई चीज़ें नेट आर्काइव में आनी जरूरी है, आपके लिखने से यह भी हुआ।
परेश भाई को बधाई
और जिस तरह के सिनेमा की आप बात कर रहे हैं वो तो कई बरस पीछे छूट गया या बीच बीच में कुछ एक ने कोशिश की
आपने सही कहा
देखें आगे दौर कैसा आता है
अरे वाह टुन्नू की टीना उन्होंने बनाई थी। भई कॉलेज के दिनों में देखी थी और यह फिल्म अच्छी लगी थी, लेकिन निर्देशक का नाम याद नहीं रहा न ही कलाकारों का, लेकिन अब तक कभी-कभी उसका जिक्र आ जाता है मेरी ज़बान पर।
खरगोश तो अभी तक देखी नहीं है, उपलब्ध होगी तो अवश्यक देखूंगा।
लेकिन अभय भाई आपको जरूर धन्यवाद कहना चाहूंगा टुन्नू की टीना के बारे में जानकारी देने के लिए...
आभार इस रपट के लिए -खरगोश पर पुरस्कारों की वर्षा के लिए निश्चित ही इसके निर्माण टीम को क्रेडिट है -उन्हें बधायी! कहानी सचमुच रोचक है एक नए एंगल को उभारती हुयी ! समांतर /कला फिल्मो को मुख्यधारा ही में छुपा लिया गया और मुख्यधारा की बुराइयाँ ज्यादा , अच्छाईयाँ कम अब इनमें आ गयीं हैं -अलबर्ट पिंटो को गुस्सा आता है .मंथन ,बाज़ार और दामुल जैसी बारीक भावों की फिल्में आज अपना चोल बदल शायद नए रूपों में हमारे सामने आ रही हैं !
परेश जी को बधाई। इस आलेख से बहुत सी जानकारियाँ मिलीं।
yah film cd/dvd me kahan uplabdh ho sakti hai ? agar jaankari de saken to achha hai. Paresh ji ko anekon badhai aur roman me likhne ke liye kshama-yachna.
Iqbal Abhimanyu
अफ़सोस इक़बाल!
अभी फ़िल्म की थियेटर में रिलीज़ नहीं हुई लिहाज़ा डी वी डी भी नहीं आई.. फ़िल्मोत्सव में देखने का मौक़ा मिल सकता है.. जैसे ओसियान में थी ही.. उम्मीद करते हैं कि जल्द ही थियेटर में रिलीज़ हो..
परेश भाई को बधाई।
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