शनिवार, 31 जनवरी 2009

रिलायंस दि रियल नटवर

आजकल विदेश मंत्री प्रणव मुखर्जी के नाम की बड़ी धूम है। दो साल पहले उनकी कुर्सी पर नटवर सिंह विराजमान थे। वे किस अपराध के चलते गद्दी से उतारे गए, ये जनता भुला चुकी है। कुछ तेल का मामला था.. इराक़.. सद्दाम हुसेन..नटवर ने उसमें घूस खाई थी.. जाँच हुई.. उनको निकाला गया.. । मगर उस सारे प्रकरण से रिलायंस का लेना देना? रिलायंस .. रियल नटवर.. इसका क्या मतलब है..?

बताता हूँ क्या मतलब है.. पहले याद दिलाता हूँ कि इराक़ में क्या हुआ था..
१९९१ में सद्दाम हुसेन ने तेल के लालच में कुवैत पर हमला किया। जवाब में अमरीका ने उसे बुरी तरह मसल डाला और उस पर सयुंक्त राष्ट्र के ज़रिये तमाम पाबन्दियाँ भी थोप डाली.. सब से खास ये कि कोई इराक़ के साथ व्यापार नहीं करेगा। नतीतजतन इराक़ में एक मानवीय संकट पैदा हो गया। रहम खाकर (या तेल की भूख से प्रेरित हो कर, भगवान जाने) १९९६ में सं. रा. ने ऑइल फ़ॉर फ़ूड नाम का एक कार्यक्रम ईजाद किया जिसमें इराक़ अपना तेल सं. रा. को देगा। वो तेल सं. रा. अपने पास लिस्टेड कम्पनियों को बेचेगा और उस से हुई आमदनी का एक हिस्सा अमरीका को (युद्द क्षति पूर्ति), दूसरा हिस्सा कुवैत को (हरजाना), और बची हुई ३०% धनराशि से अनाज और दवाईयाँ खरीद के इराक़ की जनता के लिए इराक़ भेज दी जायेंगी।

मरता क्या न करता.. इराक़ ने ये प्रस्ताव मंज़ूर किया। चार साल तक यह कार्यक्रम ईमानदारी से चला। मगर सन २००० में सद्दाम, सं. रा. के कुछ भ्रष्ट अधिकारियों और बिचौलियों ने मिलकर एक ऐसी योजना तैयार की जिस के ज़रिये सब लूट-खसोट और बन्दरबाँट कर सकें। सद्दाम ने शर्त रखी कि कि इराक़ तय करेगा कि तेल किसे दिया जाय और हर बैरल तेल पर सरचार्ज की छोटी धनराशि की अदायगी करनी होगी.. सद्दाम की ये मासूम सी शर्त सं. रा. ने मान ली।

सद्दाम तय करता कि तेल किसे देगा.. वो नटवर सिंह भी हो सकते थे.. स्पेन की एक राजनीतिक पार्टी भी और कोफ़ी अन्नान के सुपुत्र भी। तेल का ईनाम पाने वाले ये लोग किसी तेल कम्पनी को ये तेल बेच देने के लिए स्वतंत्र थे। मतलब कि जो रिश्वत या सरचार्ज, नटवर ने सद्दाम को दी वो तेल कम्पनी से वसूल ली। इस पूरे खेल में निश्चित ही सं.रा. के अधिकारी भी बराबर कुछ प्रसाद पाते रहे। रिश्वतखोरी का ये सिलसिला लगभग साढ़े तीन साल तक चलता रहा.. जो सद्दाम के अपदस्थ होने के साथ ही थमा जब ऐसी किसी पाबन्दी और कार्यक्रम और सरचार्ज के और औचित्यों को पछाड़ते हुए इराक़ के तेल के कुँओ में ही जार्ज बुश ने अपना सर डाल दिया। और इस पूरे मामले पर वोलकर रपट सामने आई।

नटवर सिंह पर वापस लौटते हुए पूछा जाय कि आखिर उनका अपराध क्या था? उनका अपराध ये था कि उन्होने (या उनके बेटे जगत और अन्दलीब सहगल ने) सरचार्ज नाम की रिश्वत दी और ईनाम में मिले लगभग तीन मिलियन बैरल तेल को तेल कम्पनियों को बेच कर एक मोटी रक़म कमाई। (ये बात अलग है कि दीग़र हालात में ये व्यवहार सामान्य व्यापार का हिस्सा माना जायेगा.. मगर चूँकि अमरीका के दबाव में सं.रा. ने जो पाबन्दियाँ लगाईं थी.. उसका उल्लंघन हुआ था इसलिए ये निश्चित अपराध था)। नटवर सिंह, उनके बेटे जगत सिंह, और उसके दोस्त अन्दलीब सहगल पर तीन मिलियन बैरल तेल के आपत्तिजनक रिश्वतखोरी में मुलव्वस होने का आरोप लगा।

संसद में कांग्रेस, बीजेपी और वाम दलों ने नटवर को खूब धिक्कार, नैतिकता के दुहाई दी गई, भ्रष्टाचार को क़तई सहन न करने की क़समें खाईं गईं। जस्टिस पाठक की अध्यक्षता में एक जाँच कमेटी बैठाई गई। मीडिया में महीनों तक ब्रेकिंग न्यूज़ का बाज़ार गर्म रहा। और सब ने नटवर जैसे भ्रष्ट, अनैतिक मंत्री को सत्ता से धकेल कर ही दम लिया जब देश में वापस शुचिता की बयार मंद-मंद बहने लगी।

लेकिन इसी मामले में रिलायंस पन्द्रह मिलियन बैरल तेल को खरीदने और उस से लाभान्वित होने का अपराधी था मगर उस बारे में किसी ने कोई बात नहीं की। न सोनिया ने, न चिदम्बरम ने, न कपिल सिब्बल ने, न प्रणव मुखर्जी, न ईमानदारी की प्रतिमूर्ति मनमोहन सिंह ने, न लाल कृष्ण अडवाणी ने, न मुलायम और अमर सिंह ने। वाम दलों ने एक प्रेस कान्फ़्रेस में रिलायंस की जांच करने की माँग ज़रूर की मगर संसद का सत्र शुरु होने के पहले मुकेश अम्बानी साक्षात सीपीएम मुख्यालय में जाकर सीताराम येचुरी से मिल कर आ गए और येचुरी संसद में रिलायंस का नाम लेने से क़तरा कर निकल गए।

भारतीय मीडिया के पुरोधा प्रणव राय, बरखा दत्त, राजदीप सरदेसाई, और अरणव गोस्वामी (सम्भव है ये सभी उस समय अपनी वर्तमान स्थिति में न रहे हों) एक ने भी रिलायंस का नाम एक दफ़े भी उच्चारित होने देने का महापाप होने नहीं दिया। एकाध अपवाद को छोड़कर अधिकतर प्रिंट मीडिया ने भी मौन की साधना की।

ये सच है कि रिलायंस ने सद्दाम की सत्ता से सीधे तेल नहीं खरीदा। बल्कि एलकॉन नाम की एक कम्पनी की आड़ से तेल खरीदा.. जबकि एलकॉन की तरह वो भी सं.रा. में रजिस्टर्ड कम्पनी के बतौर लिस्टेड है और सरचार्ज के पहले लगातार सीधे तेल खरीदता रहा था। वो चाहता तो सरचार्ज की शर्त के बाद भी ये सौदा सीधे कर सकता था।

मगर निश्चित ही वो इन खेलों का पुराना माहिर है और अवैध रस्तों के उसे सारे पैंतरे और भविष्य में आने वाले फन्दों की अच्छी जानकारी है। और उसे अच्छी तरह मालूम था कि ये खेल ग़ैर-क़ानूनी है इसीलिए उसने ये सावधानी बरती। मगर इस से उसका अपराध कम नहीं हो जाता.. और वोल्कर रपट पर पाठक कमेटी और ससद में बहस का मुद्दा फ़ूड फ़ॉर आइल कार्यक्रम में मुलव्वस सभी भारतीय व्यक्तियों और संस्थाओं का पर्दाफ़ाश करना था.. और नटवर सिंह की तरह रिलायंस भी एक नान कान्ट्रैक्क्चुल बेनेफ़िशियरी था। इसलिए जितना अपराध नटवर का था उतना रिलायंस का भी।

तो किस रिश्तेदारी के चलते लोकतंत्र के तीनों-चारों खम्बे रिलायंस और मुकेश भैया के प्रति धृतराष्ट्र की वात्सल्य दृष्टि अपनाए रहे? किस रिश्तेदारी के चलते..? क्या ये तथाकथित जनता के प्रतिनिधि.. जनता के प्रतिनिधि हैं या नहीं? नहीं हैं तो किस के प्रतिनिधि हैं.. विचार करें.. लोकतंत्र में लोक का असली अर्थ कुछ अन्य है.. या लोक और तंत्र के बीच कोई अन्य शब्द प्रच्छन्न है?


और जानकारी के लिए पढ़िये अरुण के अग्रवाल द्वारा लिखित किताब रिलायंस दि रियल नटवर



इस किताब के बारे में मुझे मेरे विस्फोटक मित्र संजय तिवारी ने बताया था.. उन्हे धन्यवाद!

इसी किताब का एक और रिव्यू

11 टिप्‍पणियां:

Unknown ने कहा…

आपको और तिवारी जी दोनों को धन्यवाद, लेकिन अब इस तरह की रिपोर्टें आम हो चली हैं, भ्रष्टाचार को हमने शिष्टाचार मान लिया है… आपके और मेरे खून के खौलने से क्या फ़र्क पड़ता है? मैं कहूँगा कि इसीलिये एक देशभक्त हिटलर चाहिये, आप कहेंगे कि नहीं लोकतन्त्र और न्यायपालिका पर भरोसा करना चाहिये, तीसरा कहेगा कि ये सब बेकार की बाते हैं… होगा कुछ भी नहीं, आप लिखेंगे-मैं लिखूंगा सिर्फ़ भड़ास और गुस्सा निकालने के लिये, हम भी जानते हैं कि उद्योग जगत और धर्म के खिलाफ़ न कोई बोलता है न कोई छापता है… आत्मा को गिरवी रख चुके इस देश के लोगों में मुझे तो कोई खास उम्मीद नज़र नहीं आती…

Neeraj Rohilla ने कहा…

अभयजी,
इस पोस्ट के लिये बहुत धन्यवाद, इसके बारे में १-२ जगह पढा अवश्य था लेकिन प्रामाणिक जानकारी आपके चिट्ठे से मिली।

किन पत्रकारों की बात कर रहे हैं, उनकी जो एक ब्लाग पर अपनी जरा भी आलोचना बर्दाश्त न सके और पूरे NDTV का लीगल डिपार्टमेण्ट एक इकलौते ब्लागर के पीछे लगाकर उसको प्रताडित करने की कोशिश की। अफ़सोस की बात है कि हिन्दी ब्लागरों में पत्रकारों की भारी जमात के बावजूद किसी ने इस पर एक शब्द तक लिखना उचित नहीं समझा। अधिक जानकारी इस लिंक से लें
http://www.desipundit.com/2009/01/28/blogger-silenced-by-ndtv/

अजित वडनेरकर ने कहा…

"...और सब ने नटवर जैसे भ्रष्ट, अनैतिक मंत्री को सत्ता से धकेल कर ही दम लिया जब देश में वापस शुचिता की बयार मंद-मंद बहने लगी।"

भाई, ये छायवादी पंक्तियां बहुत पसंद आईं। बाकी पुस्तक की सूचना समेत समूची पोस्ट ज्ञानवर्धक थी। आनंदम् आनंदम् ....

purnima ने कहा…

वसंत पंचमी की शुभकामनाएं

मैथिली गुप्त ने कहा…

चलिये आपने भी ये किताब पढ़ ली.
क्या आपने अम्बानी के ऊपर लिखी द पोलिस्टर प्रिंस पढ़ी है?

अभय तिवारी ने कहा…

मैथिली जी@.. यानी आप ने भी यह किताब पढ़ी है.. आप भी कुछ लिख डालिए..
और पोलिएस्टर प्रिन्स के बारे में सुना है.. पढ़ी नहीं.. मिली नहीं.. आप के पास है क्या?

ab inconvenienti ने कहा…

पॉलीएस्टर प्रिंस मेरे पास भी पड़ी है, इंदौर के पाइरेसी बुक स्टाल से ली थी. अगर आपको भारत में पायरेटेड किताबों के अड्डे मालूम हों तो ही इसे खरीद सकते हैं, वरना लीगल प्रति दुनिया के किसी बुकस्टोर या लाइब्रेरी में नहीं मिलेगी, सिर्फ़ हारवर्ड या लाइब्रेरी ऑफ़ कांग्रेस जैसे पुस्तकालयों में ही कुछेक प्रतियाँ हैं. शायद यह 'एलेन एंड अन्विन' (प्रकाशक) के पास भी बिक्री के लिए उपलब्ध नहीं है. अमेज़न और बर्न्स एंड नोबल के पास भी यह पुस्तक आउट ऑफ़ स्टॉक है.

हर बड़े और ताक़तवर कारोबार की नींव गुनाहों से चुनी जाती है.----- मारियो पुज़ो ('द गॉडफादर' में)

Unknown ने कहा…

Aah Indian Journalism (electronic)!!!...don't want to sound cynical but I don't see any ray of hope either...ye patrakarita paidaa hone se pehlehi mar gayee humaare desh mein...Lets enjoy "the first lady" Neeta Ambani's interview on NDTV...
I agree with Mr.Chiplunkar that no one speaks about business community and religion...humaare desh mein nyaay bhee haisiyat or auhde ke hisaab se miltaa hai...We are a great democracy you know...

BTW, I am the fortunate(?) one to read Polyester Prince(a smuggled copy) but I haven't read this one...will read it this Summer vacation for sure...Thanks for returning to the blog-world.

बेनामी ने कहा…

ham bhrastan ke bhrast hamare.....ausi hi bat dikhti hai ab to har jage

बेनामी ने कहा…

ab inconvenienti सही कहते हैं, द पालिएस्टर प्रिंस की सारी प्रतियां एकदम खरीद लीं गयीं और अब प्रकाशक उसे नहीं बेच रहा है. दो साल पहले हिन्दुस्तान में पायरेसी में यह उपलब्ध थी. आजकल वह भी गायब है.

लेकिन इन्टरनेट जिन्दाबाद.
इसका ई-बुक वर्जन निम्न लिंक पर डाउनलोड के लिये उपलब्ध है.
http://rapidshare.com/files/192225622/ThepolysterPrince.rar.html

Smart Indian ने कहा…

रिलायंस दि रियल नटवर की जानकारी के लिये बहुत धन्यवाद,

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