फ़िलीस्तीन एक तरह से दुनिया का केंद्र है; तीन महाद्वीप की नाड़ियाँ वहाँ से गुज़रती हैं। धर्म, संस्कृति और सभ्यता के प्राचीनतम सूत्र इस जगह से जुड़े हैं और मगर आज वही स्थान विश्व के सबसे घिनौने साम्प्रदायिक संघर्ष की ज़मीन में तब्दील हो गया है।
इस में जो दो पक्ष दिखाए दे रहे हैं उनके अलावा एक तीसरा पक्ष भी है जो गंगा-यमुना के संगम में सरस्वती की तरह विलुप्त है। मेरा आशय उस योरोपीय कट्टर ईसाई मानस से है जिसकी प्रताड़ना से दग्ध हो कर यहूदी, मुसलमान अरबों के साथ आज इस संघर्ष में लथपथ हुए पड़े हैं। संगम की महिमा पापमोचन में हैं पर ये संगम पाप और प्रतिशोध का दलदल बन चुका है।
अभी तक आप ने इस श्रंखला की तीन कड़िया पढ़ी.. आज अन्तिम कड़ी..
अराफ़ात एक महानायक
1948 में इज़राईल की स्थापना के बाद बिखर आठ लाख शरणार्थियों में जो तमाम तरह की छोटी-छोटी राजनैतिक प्रतिक्रियाएं और अभिव्यक्तियाँ हुई उनमें से एक फ़तह नाम का संगठन भी था जो कुवैत में पढ़ने वाले फ़िलीस्तीनी विद्यार्थियों के बीच १९५९-६० में अस्तित्व में आया। फ़तह का उद्देश्य इज़राईल का विनाश और फ़िलीस्तीन की आज़ादी था। इसकी अगुआई कर रहे थे यासिर अराफ़त, जो वहाँ इंजीनियरिंग की शिक्षा हासिल कर रहे थे। अराफ़ात पहले ऐसा नेता थे जिन्होने फ़तह को अन्य फ़िलीस्तीनी गुटों/संगठनो की तरह किसी भी अरब देश का पिछलग्गू बनने से इंकार कर दिया और फ़िलीस्तीन की मुक्ति को खास फ़िलीस्तीनी संदर्भ में देखा, आम अरब संदर्भ में नहीं। उनसे ही फ़िलीस्तीनी राष्ट्रवाद की शुरुआत होती है और फ़िलीस्तीनी राष्ट्र निर्माण की भी। यहाँ तक कि आरम्भ में उन्होने इन देशों से आर्थिक सहयोग तक लेने से इंकार कर दिया ताकि उन पर किसी तरह का दबाव न रहे। कुवैत के बाद अराफ़ात ने पहले सीरिया और फिर जोर्डन को अपनी गतिविधियों का केन्द्र बनाया।
१९६४ में फ़िलीस्तीन मुक्ति संगठन (पैलेस्टाइन लिबरेशन ऑरगेनाइज़ेशन) पी एल ओ की स्थापना हुई और १९६७ में इज़राईल के साथ अरब देशों की छै दिन की जंग। इस जंग के नतीज से लाखों फ़िलीस्तीनी एक बार फिर से शरणार्थी हुए और जोर्डन नदी के पश्चिमी किनारे पर इज़राईल का क़ब्ज़ा हो जाने से पूर्वी किनारे पर जोर्डन देश में बड़ी संख्या में तम्बुओ में आबाद हुए। इन्ही शरणार्थी कैम्पो में से एक करामह की लड़ाई लड़ी गई जिसने यासिर अराफ़ात को एक महानायक का दरजा दे दिया।
करामह की लड़ाई
फ़तह के लड़ाके इज़राईली सीमा पार कर के उनके ठिकानों पर हमला करने की नीति अपना कर एक छोटे स्तर का गुरिल्ला युद्ध छेड़े हुए थे, जिसमें कभी कदार एक-दो सैनिकों की क्षति हो जाती, मगर इज़राईल अपने रौद्र रूप और कठोर छवि को ज़रा भी कमज़ोर नहीं पड़ने देना चाहता था। १९६८ में करामह कैम्प से किए गए एक फ़िदायीन हमले के जवाब में इज़राईल की सेना पूरे दल-बल के साथ जोर्डन की सीमा में गुस आई और कैम्प पर हमला कर दिया। अराफ़ात ने एक नीति के तहत फ़िलीस्तीनियों को पीछे नहीं हटने दिया। आखिरकार मामले के बहुत अधिक विराट रूप ले लेने से डरकर इज़राईल की सेना स्वयं पीछे हट गई।
हालांकि इस लड़ाई में १५० फ़िलीस्तीनी व २५ जोर्डनी सैनिक मारे गए और दूसरी तरफ़ कुल २८ इज़राईली। मगर इज़राईल की सेना का पीछे हटना अरब जन में एक अद्भुत जीत की तरह देखा गया। ऐसा पहली बार हुआ था कि किसी अरब ने इज़राईल की सेना का डट कर मुक़ाबला किया था और उसे मुँहतोड़ जवाब दिया था। करामह की लड़ाई के बाद अराफ़ात का क़द अरबों के बीच बहुत ऊँचा हो गया । इसी जीत के प्रभाव का नतीजा था कि अराफ़ात को पीएल ओ का अध्यक्ष चुन लिया गया।
जोर्डन में संघर्ष
अराफ़ात की इस अप्रत्याशित लोकप्रियता से जोर्डन देश के भीतर सत्ता के दो केन्द्र हो गए। किंग हुसेन मक्का के शरीफ़, हाशमी परिवार से थे और वैधानिक रूप से देश के राजा थे मगर अरबों के बीच लोकप्रिय समर्थन अराफ़ात और पी एल ओ के लिए बढ़ता ही जा रहा था। जैसा कि आप को मैंने पहले बताया था कि जोर्डन भी पूरी तरह से एक कृत्रिम देश जो पहले विश्व युद्ध के बाद अस्तित्व में आया क्योंकि अंग्रेज़ हाशमी परिवार की वफ़ादारी का ईनाम देना चाहते थे। वादा तो एक पूरे अरब राष्ट्र का था पर भागते भूत की लंगोटी भली जानकर, किंग हुसेन के दादा अब्दुल्ला ने वो प्रस्ताव स्वीकार कर लिया था।
तो किंग हुसेन अरबों के बीच फ़िलीस्तीन को लेकर जो लोकप्रिय जज़्बात थे उनको समझते थे इसीलिए किंग हुसेन ने बहुत कोशिश की मामला सुलझ जाए; यहाँ तक कि उन्होने अराफ़ात के सामने जोर्डन के प्रधान मंत्री पद को सम्हालने का भी प्रस्ताव रखा मगर अराफ़ात फ़िलीस्तीनी मक़्सद के लिए प्रतिबद्ध थे; वे तैयार नहीं हुए।
१९७१ में आखिरकार दोनों पक्षों के बीच लड़ाई छिड़ गई। अन्य अरब देशों ने किसी तरह बीच-बचाव करके युद्ध विराम कराया गया पर तब तक ३५०० फ़िलीस्तीनी मारे जा चुके थे। फिर भी छिट-पुट घटनाएं होती रहीं। और हालात तब बिगड़ गए जब एक रोज़ अराफ़ात ने हुसेन के सत्ता पलट का इरादा कर लिया और किंग हुसेन पर हमला हो गया। अब समझौता नामुमकिन था और अराफ़ात और उनके लड़ाकों को जोर्डन छोड़ना पड़ा। पचीस साल पहले विस्थापित लोग फिर एक बार अपना बोरिया-बिस्तर बाँधकर लेबनान की शरण में चले गए।
लेबनान
लेबनान आकर अराफ़ात को अपने गतिविधियों के लिए वो आज़ादी मिल गई जो जोर्डन में उपलब्ध नहीं हो पा रही थी क्योंकि लेबनान की सरकार की सत्ता कमज़ोर थी और वहाँ पर पी एल ओ एक स्वतंत्र राज्य की हैसियत से काम करने लगा। इज़राईल के भीतर और बाहर यहूदी सत्ता और यहूदी जनता पर हमले कर के उस पर दबाव बनाना उसकी नीति के अन्तर्गत था। पी एल ओ में अराफ़त के फ़तह के अलावा भी कई दल शामिल थे। उनके नरम से लेकर चरम तक के सब रंग थे और सब पर अराफ़ात का नियंत्रण था भी नहीं।
१९७० से १९८० के बीच लेबनान को केन्द्र बनाकर पीएल ओ के वृहद छाते के नीचे से तमाम तरह की हिंसक गतिविधियाँ की गई जैसे प्लेन हाईजैक, फ़िदायीन हमले, बंधक बनाना आदि। हथगोले, फ़्रिज बम, कार बम आदि का इस्तेमाल करके इज़राईलियों के खिलाफ़ आतंकवादी घटनाएं होती रही। कुछ ऐसी भी थीं जिसमें मासूम बच्चों को निशाना बनाया गया। इन सब में सब से कुख्यात और दुखद घटना रही म्यूनिक ओलम्पिक में की गई ८ इज़राईली खिलाड़ियों की हत्या। जिसका बदला लेने के लिए इज़राईल ने भी एक ग़ैर क़ानूनी पेशेवर हत्यारे का तरीक़ा अपनाया (देखिये स्टीवेन स्पीलबर्ग की फ़िल्म म्यूनिक)। इज़राईली कमान्डोज़ ने म्यूनिक हत्याकाण्ड के लिए जितने भी लोग ज़िम्मेदार थे, उन सब को चुन-चुन कर मारा।
इज़राईल का जवाब
१९७८ में एक १८ बरस की फ़िलीस्तीनी लड़की के अगुआई में ११ अन्य फ़तह के सद्स्यों द्वारा अंजाम दिए गए एक कोस्टल रोड मैसेकर में ३७ इज़राइली मारे गए। इस आतंकवाद का मुँहतोड़ जवाब देने के लिए इज़राईल ने फ़िलीस्तीनी गुरिल्लो को लेबनान की अन्दर बहने वाली लिटानी नदी के उत्तर तक धकेलने के इरादे से हमला कर दिया। एक हफ़्ते तक चली इस कार्रवाई में २००० ग़ैर फ़ौजी लेबनीज़ मारे गए और २,८५,००० अपने घरों से उजड़ गए। फ़िलीस्तीनी लड़ाकों का कुछ ज़्यादा नुक़्सान नहीं हुआ।
बड़ी संख्या में फ़िलीस्तीनियों के आ जाने से लेबनान की आन्तरिक राजनीति में उथल-पुथल मच गई थी। लेबनान के ईसाई समुदाय और मुस्लिम समुदाय के बीच फ़िलीस्तीनियों को लेकर एक गहरा मतभेद घर कर गया था। जिसके चलते पी एल ओ, लेबनीज़ ईसाई संगठन और इज़राईल के बीच हिंसक झड़पे आम हो चली थीं। सीरिया का भी इस खेल में दखल बराबर बना रहा।
१९८२ में अपने एक राजदूत के हत्या के प्रयास के बदले में इज़राईल ने लेबनान पर हमला कर दिया और उसे नाम दिया ऑपरेशन पीस फ़ॉर गैलिली। लेबनान में भी तमाम समुदायों के बीच संघर्ष ने एक गृह-युद्ध का रूप ले लिया और इज़राईल ने भी मौके का फ़ायदा उठाकर हमला कर दिया। ये हमला मुख्य रूप से पी एल ओ और फ़िलीस्तीनियों को खदेड़ने के मक़सद से किया गया था जिसमें वो कामयाब भी हो गए। इस लड़ाई के अन्तिम चरण में जब फ़िलीस्तीनियों को खदेड़ दिया गया था तब इज़राईल के सरंक्षण में लेबनीज़ ईसाई संगठन फ़लन्जिस्ट ने निहत्थे फ़िलीस्तीनियों के शरणार्थी कैम्प पर एक हमला किया जिसमें मरने वालों की संख्या एक हज़ार से चार हज़ार तक अनुमानित की जाती है। इस ऑपरेशन पीस फ़ॉर गैलिली में निहत्थे फ़िलीस्तीनियों का जनसंहार प्रच्छन्न था।
फ़िलीस्तीनियों और पी एल ओ के पाँव लेबनान से भी उखड़ गए और अधिकतर फ़िलीस्तीनियों ने इस बार सीरिया में शरण ली और अराफ़ात को अपना पी एल ओ का दफ़्तर दूर ट्यूनिशाई शहर ट्यूनिस ले जाना पड़ा। अराफ़ात का फिर कभी लेबनान लौटना नहीं हुआ।
ओस्लो क़रार
फ़िलीस्तीन से इतना दूर जाकर अराफ़ात की हिम्मत जैसे टूटने लगी और जवानी के वो उत्साही दिन भी नहीं रहे। इज़राईल को नक़्शे से मिटाना हर आने वाले दिन और भी अधिक असम्भव दिखता जा रहा था। और दूसरी इज़राईल भी अपने नागरिकों की सुरक्षा की गारंटी के बदले कुछ रियायत देने को तैयार होने का मन बनाने लगा था। अराफ़ात का इस नए बदलाव से कोई सम्पर्क नहीं था। उनकी अपनी हालत युधिष्ठिर जैसी होती जा रही थी जो पूरे राज्य की जगह अपने लोगों के लिए पाँच गाँवों पर भी समझौता करने को तैयार हो सकते थे। शायद ऐसी ही किसी हताशा या विकसित चिन्तन के तहत उन्होने समझौते का रास्ता अख्तियार किया।
नवम्बर १९८८ में उन्होने एक तरफ़ तो फ़िलीस्तीन राज्य की स्थापना की उद्घोषणा की और दूसरी तरफ़ अगले ही महीन संयुक्त राज्य में लगातार बढ़ते अन्तराष्ट्रीय दबाव में आकर आतंकवाद की भर्त्सना की। इस भर्त्सना के चलते दबाव अब अराफ़ात से हटकर इज़राईल पर आ गया जिसने पी एल ओ से कभी बात न करने का रुख हमेशा से ही बना कर रखा हुआ था। इसलिए एक स्थायी हल और शांति बहाल करने के लिए पी एल ओ के साथ बैक चैनल संवाद शुरु हुआ, ओस्लो में।
तीन साल तक चले इसी संवाद की बुनियाद पर १९९३ में इज़राईल और फ़िलीस्तीन के बीच ऐतिहासिक समझौता, वाशिंगटन में हो गया। फ़िलीस्तीन ने अपनी तरफ़ इज़राईल के विनाश का मक़सद अपने चार्टर से हटा दिया और उसके अस्तित्व को स्वीकार कर लिया। बदले में इज़राईल गाज़ा पट्टी और वेस्ट बैंक के कुछ भाग का प्रशासन व प्रबन्धन फ़िलस्तीनियों को सौंपने को तैयार हो गया। यह प्रक्रिया पाँच बरस में पूरी होनी थी लेकिन इज़राईल ने सारे अधिकारों को निर्दयता से भींचे रखा और बराबर नियंत्रण अपनी मुट्ठी में क़ैद किए रहा। १९९४ में यासिर अराफ़ात और इज़राईली प्रधान मंत्री यित्ज़ाक राबिन और विदेश मंत्री शिमोन पेरेज़ को नोबेल शांति पुरुस्कार से नवाज़ा गया पर शांति कहीं दूर-दूर तक नहीं दिख रही आज तक। और आज भी इज़राईल की दमनकारी नीति और नियंत्रण जारी है।
इस समझौते के दो बरस बाद ही यित्ज़ाक राबिन की यहूदी दक्षिणपंथियों ने हत्या कर दी। इसके पहले सुलह का रास्ता अपनाने मिस्र के राष्ट्र्पति अनवर सादात की हत्या मुस्लिम दक्षिणपंथियों द्वारा कर दी गई थी। उल्लेखनीय है कि उन्हे भी नोबेल शांति पुरुस्कार मिला था।
सेटलर्स
१९४८ के नकबे के दौरान फ़िलीस्तीनी अरबों दसे खाली कराए गए गाँवों, क़स्बों और शहरों में योरोप और दुनिया के अन्य देशों से आए यहूदियों को बसा दिया गया। इन्हे सेटलर(settler) कहा गया। १९६७ की छै दिन की जंग के बाद जब इज़राईल के के हाथ काफ़ी बड़ा भू-भाग आ गया तो उस ने गाज़ा पट्टी, वेस्ट बैंक और सिनाई क्षेत्र पर और भी सेटलर्स को बसाना शुरु कर दिया। ये सारे क्षेत्र सयुंक्त राष्ट्र के बँटवारे के मुताबिक भी उसके लिए अवैध थे, मगर उस की धृष्टता देखिये कि १९७८ में मिस्र के हुए समझौते के बाद सिनाई तो उसे लौटा दिया मगर गाज़ा पट्टी और वेस्ट बैंक को इज़राईल का अभिन्न अंग घोषित कर दिया।
गाज़ा और वेस्ट बैंक में बचे रह गए फ़िलीस्तीनी अरबों का सीधा संघर्ष इन सेटलर्स के साथ होता। इज़राईल नए आए यहूदियों को अपने सीमांत पर बसा कर दो मक़सद पूरे करता रहा। एक वो नए ज़मीन पर यहूदियों को बसा कर उन्हे फ़िलीस्तीनियों को वापसी की उम्मीद और क्षीण करता है और दूसरे फ़िलीस्तीनियों को दबाने का काम इन नए आए हथियारबन्द यहूदियों को सौंप कर अपना काम आसान करता है। नए लोग फ़िलीस्तीनियों को दमन एक पाशविक वृत्ति के तहत करते हैं क्योंकि उन के अस्तित्व के लिए यही उनसे अपेक्षित होता है। उस ज़मीन पर या तो सेटलर रह सकते हैं या फ़िलीस्तीनी।
आज भी फ़िलीस्तीनियों और इज़राईलियों के बीच लड़ाई का बड़ा मसला ये सेटलर्स हैं। सेटलर्स और फ़िलीस्तीनी नागरिकों के बीच होने वाले इस संघर्ष में सेटलर्स खुद पुलिस और प्रशासन की भूमिका में रहते हैं।
फ़िलीस्तीनियों अपने रोज़गार-व्यापार के लिए भी पूरी तरह से इज़राईल पर ही निर्भर हैं। रोज़गार के अवसर कम और सीमित हैं, और व्यापार पर अनेको बन्दिशें। वास्तव में इज़राईली शासन में फ़िलीस्तीनी एक प्रकार के विशाल कारागार में ही बन्द कर के रखे गए हैं। जगह-जगह चेक पोस्ट खड़ी कर के लोगों के भीतर लगातार एक अंकुश बनाए रखना, आधी रात को घर में घुसकर तलाशी लेना, अंधाधुंध गिरफ़्तारियाँ करके बिना मुक़दमे लम्बे समय तक क़ैद में रखना, फ़र्जी एनकाउन्टर करना, छोटी सी बुनियाद पर लोगों के घरों का गिरा देना आदि इज़राईली प्रशासन का फ़िलीस्तीनियों के प्रति किया जाने वाला आम रवैया है। आज कल सेटलर्स ने फ़िलीस्तीनियों को परेशान करने की एक नई नीति निकाली है- फ़िलीस्तीनियों के घरों में बड़े-बड़े चूहो के झुण्ड छोड़ देना।
इन्तिफ़ादा
१९८८ में जब अराफ़ात आतंकवाद से तौबा करने की सोच रहे थे। उधर फ़िलीस्तीन में लम्बी निराशा और असहायता के लम्बे दौर की अभिव्यक्ति एक अजब बेचैनी में हो रही थी। नई पीढ़ी एक अजब दुस्साहस लेकर पैदा हो रही थी। गाज़ा में १९८७ में इज़राईली सेना के एक ट्रक से कुचलकर चार फ़िलीस्तीनियों की मौत हो गई। इस की प्रतिक्रिया में फ़िलीस्तीनी नौजवानों ने पत्थर हाथ में उठा लिए और उसे अपने आक्रोश का हथियार बना कर इज़राईली सेना की तरफ़ फेंकने लगे।
छोटे-छोटे बच्चे जो न गोली से डरते और न टैंक से, कुछ तो पाँच बरस की उमर के। अपमान और दमन की ज़िन्दगी की मजबूरी को परे कर लड़ कर जीने की जज़बा पैदा कर लिया उन्होने। फ़िलीस्तीनी नौजवान के प्रतिरोध को इन्तिफ़ादा के नाम से जाना गया। इन्तिफ़ादा यानी डाँवाडोल के दौरान सिर्फ़ पत्थर ही नहीं चले। फ़िलीस्तीनी लड़के खुदकुश बमबाज़ भी बने, हथियारबन्द दस्तों से कार्रवाईयाँ भी की गईं, और इज़राईली इलाक़ों की तरफ़ रॉकेट भी दाग़े गए।
ये डाँवाडोल छै साल तक चलता रहा। हमास की निन्दा तो हुई मगर उस से अधिक दुनिया भर में इज़राईल के लिए निहायत शर्म का मसला बना। पहले इन्तिफ़ादा के दौरान ४२२ इज़राईली मारे गए और ११०० फ़िलीस्तीनी इज़राईलियों के हाथों मारे गए, जिसमें १५० के लगभग की उमर १६ बरस से भी कम थी। साथ-साथ लगभग १००० फ़िलीस्तीनी अपने ही लोगों के हाथों मारे गए। इनके बारे में शक़ था कि ये गद्दार हैं और इज़रालियों ले किए जासूसी करते हैं।
२००० में वेस्ट बैंक में अल अक़्सा मस्जिद को लेकर दूसरा इन्तिफ़ादा शुरु हुआ और फिर वही हिंसा चालू हो गई।
हमास
१९८७ में इन्तिफ़ादा के साथ ही फ़िलीस्तीनियों के बीच एक नए संगठन का उदय हुआ- हमास। सत्तर के दशक के बाद से दुनिया भर में मुस्लिम कट्टरपंथी विचारों का पुनरुत्थान हुआ है। पाकिस्तान में जनरल ज़िया की सदारत में, अफ़्ग़ानिस्तान में अमेरिका के पोषण से, इरान में अयातुल्ला खोमेनी के झण्डे के तले, मिस्र में अल जवाहिरी के दल में। अराफ़ात की प्रगतिशीलता और सेक्यूलर सोच के अवसान के साथ ही फ़िलीस्तीन में भी सुन्नी कट्टरपंथी वहाबी चिंतन मजबूती पकड़ी। ये आन्दोलन न सिर्फ़ राजनैतिक है बल्कि धार्मिक भी है। इज़राईलियों से लड़ने के अलावा फ़िलीस्तीनी औरतों का हिजाब अगत व्यवस्थित न हो तो उचित सज़ा देने में भी यक़ीन रखता है।
हमास के नेता अहमद यासीन बचपन से ही एक ऐसी अस्वस्थता के शिकार थे जिसने उनके अस्तित्व को व्हीलचेयर के साथ बाँध दिया थ। पर इस शारीरिक सीमा ने उनकी मानसिक क्षमताओं को सीमित नहीं किया। उनके प्रभाव में आकर सैकड़ों फ़िलीस्तीनी नौजवानों ने अपने को खुद्कुश बम बना कर शहीद कर दिया। उनके इसे खतरनाक प्रभाव के कारण इज़राईल ने उन पर कई बार हमले किए और आखिर में एक मिसाइल हमले से उनकी हत्या कर दी। इसके पहले इज़राईल ने फ़तह के नेता और अराफ़ात के सहयोगी अबू जिहाद को भी ऐसे ही एक हमले में मार डाला था।
आज की तारीख में फ़िलीस्तीन में अराफ़ात के संगठन फ़तह से कहीं अधिक लोकप्रियता हमास की है। २००६ के चुनावों में फ़िलीस्तीनी संसद की १३२ सीटों मे जहाँ फ़तह को ४३ सीटें मिलीं वहीं हमास ने ७६ सीटों पर जीत हासिल की। लेकिन आज फिर हमास को फ़िलीस्तीनियों का प्रतिनिधि मानने से इंकार किया जा रहा है, क्योंकि वे खुले तौर पर आतंकवादी गतिविधियों में लिप्त हैं।
फ़िलीस्तीन की आज़ादी की लड़ाई का ये रंग पहले से ज़्यादा खतरनाक है मगर क्या फ़िलीस्तीनियों के अधिकार का फ़ैसला इस आधार पर होना चाहिये कि उनका प्रतिनिधि करने वाला दल एक अतिवाद से ग्रस्त है?
हिंसा जारी है
आज भी फ़िलीस्तीन और इज़राईल के बीच आपसी नफ़रत के अलावा तमाम सारे अनसुलझे मुद्दे बने हुए हैं। उनके बीच भू-भाग का बँटवारे का सवाल वैसे ही उलझा हुआ है। इज़राईल अपना आधिकारिक मानचित्र आज भी जारी नहीं करने को तैयार है। सेटलर्स फ़िलीस्तीन के नियंत्रण में घोषित कर दिये भागों में अभी भी बने हुए हैं। इज़राईल की सेना और पुलिस आज भी फ़िलीस्तीनी क्षेत्रों में घुसकर जिसको जी चाहे गिरफ़्तार कर लेती है। और थोड़ी सी हिंसा होते ही इज़राईल फ़िलीस्तीनी इलाक़ो पर बम और मिसाइल वर्षा करने लगता है। ये मामले सुलझ सकते हैं अगर उनके बीच विश्वास का कोई पुल बने मगर जब नफ़रत और प्रतिशोध की खाईयाँ खुद चुकी हों तो कैसे कोई मामला हल हो सकता है।
लेबनान के शिया संगठन हिज़्बोल्ला के साथ भी इज़राईल का ऐसा ही उग्र सम्बन्ध क़ायम है जिसके चलते २००६ में एक महीने लम्बी खूनी लड़ाई लड़ी गई जिसमें हज़ारों जाने गईं और बेरुत जैसा खूबसूरत शहर एक बार फ़िर नष्ट हुआ।
चूँकि ये लेख उन लोगों को समर्पित रहा जो समझते हैं कि इज़राईल जैसी कठोर दमन की नीति अपनाने से आतंकवाद काबू में आ जाएगा.. (याद रखा जाय कि आतंकवादी हमारे देश में हैं फ़िलीस्तीनियों को आतंकवादी कहना उनका अपमान और उनके ज़मीन पर जबरन क़ब्ज़ा जमाए बैठे अपराधी देश इज़राईल का अनुमोदन है, हाँ हिंसावादी निश्चित हैं).. तो अपने उन बन्धुओं को लिए आखिर में एक आँकड़ा रखता चलता हूँ..
१९८७ से २००० तक के बीच चौदह साल में १८७३ फ़िलीस्तीनी और ४५९ इज़राईली मारे गए.. जबकि २००१ से २००७ के सात साल में ४२०७ फ़िलीस्तीनी और ९९१ इज़राईली अपनी जान से गए। यानी कि आधी ही अवधि में मरने वालों की संख्या दोगुनी से भी ज़्यादा हो गई।
भविष्य के प्रति निराश हूँ
हमारे हिन्दुस्तान में हिन्दू मुस्लिम के बीच का दुराव के पीछे राजनैतिक संघर्ष, धार्मिक पूर्वाग्रह, और आपसी हिंसा के कुछ अध्याय ज़रूर हैं मगर सैकड़ों साल तक एक दूसरे के साथ रहते हुए, एक दूसरे को धार्मिक, सांस्कृतिक, और नैतिक स्तरों पर गहरे तौर पर प्रभावित भी किया और एक साझा जीवन जिया है।
जो लोग साझी संस्कृति की सच्चाई को नकारते हैं वे भी मानेंगे कि पिछले हज़ार सालों में भारतीय उपमहाद्वीप में हिन्दू और मुस्लिम संस्कृतियाँ नदी के दो पाटों की तरह अलग-अलग ज़रूर रहीं पर एक लम्बे सफ़र में कभी-पास कभी दूर रहकर भी एक दूसरे को प्रभावित करती रहीं।
अपने देश के प्रति मैं आशावान हूँ पर फ़िलीस्तीन के लिए मैं नाउम्मीद हूँ क्योंकि वहाँ ऐसे साझेपन की किसी भी सम्भावना को शुरु से ही पनपने ही नहीं दिया गया, पहले ही बँटवारा कर दिया।
१९४८ के नकबा के बाद एक दूसरे के एकदम खिलाफ़ हो गए ये दो समुदाय कभी आपस में सहज हो पाएंगे ये कहना बहुत मुश्किल है। एक फ़िलीस्तीनी, एक इज़राईली को देखकर क्या कभी भूल पाएगा कि ये उसी क़ौम की सन्तति है जिसने हम पर अनेको अत्याचार किए और हमें हमारे ही घर से बेघर कर दिया?
सम्भव है कि हिंसा का ताप मद्धिम पड़ जाय पर वो एक शोले की तरह हमेशा उन के दिलों में दब के रहेगी और कभी भी भड़कने के लिए बेक़रार बनी रहेगी। किसी बहुत बड़ी महाविपत्ति के भार के नीचे ही यह आपसी नफ़रत दफ़न होकर, उन्हे वापस जोड़ सकती है, शेष कुछ नहीं; ऐसा मुझे लगता है। भगवान करे मैं ग़लत होऊँ।
इस श्रंखला की पहले की कड़ियाँ-
20 टिप्पणियां:
पहले और दूसरे विश्व युद्ध के बाद जर्मन भूल गये की युरोप ओर अमेरिका ने उनके लोगों को मारा, जापानीयों ने भी अणु-बम गिराने वाले अमेरिका का दामन थामा, हिन्दुस्तानियों ने 200 सालों का अंग्रेज़ो का अत्याचार भुला दिया, वियतनाम भी खुद पर हुये हमलों से उबर चुका
तो फिर इज़राइल और फिलिस्तीन भी इस विभिषिका से उबर सकते हैं
यह पूरी श्रृंखला बहुत ज्ञानवर्धक रही
इसे लाने के लिये धन्यवाद
पूरी तरह एकतरफा दृष्टिकोण से लिखा गया निम्नस्तरीय आलेख. पढ़कर लगा जैसे फिलिस्तीनी कुप्रचार का कोई भोंपू बज रहा है. आज मध्यपूर्व में इजराएल एकमात्र सभ्य देश है जो मध्ययुगीन बर्बर सोच वाले इस्लामी आतंकवादियों से अपने अस्तित्व की रक्षा के लिए निरंतर संघर्षरत है.
मेरे लिये यह श्रखला एक जानकारी का स्त्रोत रही. इसे समझने के लिये बार बार पढ़ना पड़ा.
इसे ई-बुक फार्म में भी प्रस्तुत करना चाहिये.
अभय जी, हार्दिक शुभकामना इस आलेख के लिये | जैसे ब्रिटेन अौर अमेरिका ने 2000 साल पहले की घटना के सुधार के नाम पर एक कौम को बिना देश का बना दिया उसी तर्ज पर हमारे मुल्क मेँ भी ओझैती(Ghost busting) - मानसिकता वाले इतिहास सुधार की मँशा से की गई करतूतोँ से विक्रुति पैदा करते हैँ |आदिवासी समाजोँ मेँ भी तीन पीढियोँ के पहले के झगडे का निपटारा न करने की परम्परा थी |इससे उलट सोच वालोँ की यदि चले तो पिछले पचास सालोँ की 'इतिहास की भूलोँ को सुधारने' मेँ देश पागलखाना बन जाए|कोई दलित नेता कहे कि 'हमारी स्त्रियोँ के साथ सवर्णोँ ने अत्याचार किए लिहाजा हमेँ भी अैसा हक दिया जाए'- तो इससे समाज मे विक्रुति ही फैलेगी | हाफ पैन्टियोँ ने एक किताब भी छापी है 'सँघर्षरत इस्राीईल'|राव के शासन तक इस्राइल को असभ्य देष मानते हुए ही उससे राजनयिक सम्बन्ध नहीँ थे|
ठीक बताया आप ने अफ़लातून भाई। भारत ने भी इज़राईल को अभी १९९१ में मान्यता दी है। मगर हमारे कुछ मित्र मुस्लिम-विरोध की साम्प्रदायिकता में ऐसे अंधे हो जा रहे हैं कि इज़राईल के मुस्लिम विरोधी होने से ही, तर्क और तथ्य के परे जा कर, वो उनके लिए सभी तरह से स्वीकार्य हो जा रहा है.. मिसाल के तौर पर देखिये बानगी घोस्ट बस्टर जी की टिप्पणी।
इन तथ्यों पर आप ने सिलसिलेवार लिखा, जिस की वाकई जरूरत थी। घोस्ट बस्टर जी ने अभी इजराइल को जाना ही नहीं है। जब जानेंगे बहुत देर हो चुकी होगी।
अभयजी, इस आलेख को अंतिम कड़ी न कहिए..समय समय पर आज की स्थिति पर आपके विचार जानने की इच्छा रहेगी..इंसान की एक खासियत यह भी है कि मरते दम तक उम्मीद का दामन नहीं छोड़ती..
@घोस्टबस्टर जी, अगर आप अपना दृष्टिकोण भी रखें तो अच्छा होगा....उम्मीद है कि आप इस विषय पर जल्दी ही अपने विचार रखेंगे..
बहुत ज्ञानबर्द्धक लेख...आभार।
घोस्ट बस्टर जी से अपेक्षा है कि वे दूसरे पक्ष को सामने लाकर संतुलन स्थापित कर दें। हम अज्ञानी पाठकों का लाभ ही होगा। मैं कोई व्यंग नहीं बोल रहा।
बडा ही अकादमिक अध्ययन किया है आपने इस पर।
पर यदि इसे अंतिम न बता कर , आगे भी लिखते रहे तो हम जैसे कम पढने वालों का भला होता रहेगा।
वैसे यह विषय इतना सामयिक है कि आप इस पर रोज़ भी लिख सकते हैं।
ABHAY JEE JO AAKHRI 7 YEAR ME MARNE WALO KI NO. BADHI HAI. AAPKE LIKHE KE HISAB SE WO ISRAIL KA AAKHRI 7 YEARS ME NARAM RUKH APNANE KA PARINAM BHI HO SAKTA HAI.
Tathypoorn tatha vishleshanparak alekh. Ghostbusterji ko chahiye ki vah nafrat ki coaching lete rahen, apne aap nasht ho jayenge.
मेरे हिसाब से आपने सत्य ही लिखा है
फिलिस्तीनी स्वतन्त्रता संग्रामी है
परन्तु जब अन्य समुह जो कि फिलिस्तीन से सम्बन्धित नही है वे भी इसके नाम से हिंसा मे कूद जाते है तो अच्छा भला स्वतन्त्रता संग्राम भी बदनाम हो जाता है
अब जरा कश्मीर समस्या पर हो जाए
फ़िलीस्तीनी, इज़राईली दोनोँ मेँ सुलह शाँति होनेके आसार दूर दूर तक दीखलाई नहीँ देते :(
ऐसा हो सकता है कि भारत पाकिस्तान मिल बैठना शुरु करेँ पर ईज़्राईल से विश्व युध्ध की चिन्गारी कभी भी ,
फैल कर पूरी दुनिया को युध्ध मेँ झोँक सकती है -
काश, ये सिर्फ डर ही रहे!
कभी ऐसा ना हो !
आपने बडी मेहनत करके ये कडीयाँ प्रस्तुत कीँ हैँ - आभार !
- लावण्या
for me these essays are a source of oxygen. I was feeling suffocated by reading reports and information propagated by popular media.
thanks for bringing breathful moment for all who are interested in understanding the interantional politics and order or have even minimum clue about the extent of suppression and vulenrability of Palestine's population and Palestinian nation.
the way international politics has changed, it seems we are living in the age of Genocides.
I would like to emphasise-
the way media (the only source international news for common people, who forms the majority both within a country and across national borders) has treated issue of Palestine, it seems they are actively propagating and reinforcing with full vigour the idea of imperialism. And this is not only an exceptional deed of media but it is growing trend rather established fact that media is reduced only to a propaganda machinery of powerful eg. including Nation State-India.(Powwerful in terms of warfare and economy).
NADIM NIKHAT
मैथिली जी के विचार से सहमत। आपके लेखों की यह श्रृंखला इस विषय पर जानकारी का महत्वपूर्ण स्रोत साबित हो रही है। इसे ई-बुक फार्म में प्रस्तुत किया जाए तो पाठकों को हमेशा लाभ मिलता रहेगा।
अभय, स्वाधीनता दिवस की शुभकामनाएं!
वंदे मातरम!
निश्चित रूप से अध्ययन सहित लिखी गई है यह पोस्ट सीरीज, इस बात से कौन इनकार कर रहा है कि फ़िलीस्तीनियों पर अत्याचार नहीं हुए, लेकिन इसराइलियों की जिजीविषा को कम करके आँकना, या उन्हें सिर्फ़ आक्रांता ही बताना ही एकतरफ़ा सोच है। दिक्कत तब और भी बढ़ जाती है, जब कुछ बुद्धिजीवी फ़िलीस्तीन और कश्मीर को एक साथ जोड़कर देखने लगते हैं, भारत कभी भी इसराइल नहीं बन सकता, वैसी "मिट्टी" के लोग ही नहीं हैं यहाँ के… और भारत पर क्या कम अत्याचार हुए हैं? सबने तो लूटा है इस देश को, तो क्या हम ब्रिटेन पर हमला कर दें या मध्य-पूर्व के देशों पर बम गिरा दें? अंतर्राष्ट्रीय समझौतों के वक्त देश का नेतृत्व कैसा और कितना मजबूत होता है इस बात पर बहुत कुछ निर्भर करता है। हर जगह मुस्लिमों को "सताया हुआ" चित्रित करने से ही सारी गड़बड़ी फ़ैलती है। समस्या यह है कि "लाल बुद्धिजीवी" की नज़र में "भारत की संस्कृति" नाम की कोई चीज़ थी ही नहीं, जो भी इतिहास है वह मुगलकाल से शुरु होता है और आज़ादी के बाद खत्म हो जाता है, न उससे पहले कुछ न उसके बाद कुछ। मुगलकाल से पहले का सब कुछ "काल्पनिक" और आज़ादी के बाद का "सांप्रदायिक", इस सोच ने ही प्रतिक्रिया को जन्म दिया है, यह भी सोचने की ज़रूरत है… "पुचकारने" की भी एक हद होती है, कुछ पाठ कांग्रेस और वामपंथियों को भी तो सिखाईये भाई साहब… रही बात फ़िलीस्तीन की, तो खुद हमारे यहाँ क्या समस्यायें कम हैं, यहीं ध्यान लगाईये, उन्हें अपने हाल पर छोड़ दीजिये… क्यूँ खामखा अपना जलता हुआ घर छोड़कर दूसरे के घर पंखा झल रहे हैं… नये पाठकों को जानकारी बहुत अच्छी दी है आपने, संग्रहणीय और पठनीय तो है, लेकिन Balanced नहीं है…
इस पोस्ट के लिए मैं आपकी जितनी तारीफ़ करूँ कम है....सच कहूँ तो शब्द नही मेरे पास, बेहद सशक्त ढंग से लिखी ये पोस्ट तारीफ़ के काबिल है...प्लीज़ इसे इसी तरह जारी रखें और सच्चाई को इसी तरह सामने लाते रहें...कुछ सस्ती चर्चा के भूखे लोगों से ज़रा भी विचलित न हों...बेहद अच्छा लगा पढ़ कर ...आगे भी अब आना लगा लहेगा...थैंक्स.
इजराइल को सभ्य देश कहने वाले ठीक ही हैं...क्योंकि वो देश ऐसे ही सभ्य शैतानों से भरा हुआ है जो सिर्फ़ नफरत फैलाना जानते हैं.....नफरत ही उनकी जिंदगी है...
bahut hi sargarbhit lekhan.
abhayji afsos k main dinon bad idhar aaya.
aflatoon ji bhi achcha kahe hain.
kabhi mauqa mile to hamari koshishon par apni ray dijiye.
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