जम्मू में अमरनाथ श्राइन बोर्ड विवाद से उपजे आन्दोलन के चलते हुए पैंतीस दिन हो गए। अब कांग्रेस आरोप लगा रही है कि भाजपा लोगों को भड़का कर चुनावी रोटियाँ सेंकना चाहती है। मगर जम्मू के कांग्रेसी नेता भाजपाईयों के साथ मिलकर जम्मू बंद में हिस्सा ले रहे हैं। और मुझे यह इस बात का सबूत मालूम देता है कि इस आन्दोलन से जम्मू की आम जनता की आंकाक्षाएं जुड़ गई हैं। पर दुख की बात ये है कि ऐसे आन्दोलनो को अपने हितों का साधन बनाने वालों की बन आई है। जम्मू और कश्मीर घाटी दोनों जगह बिल्ली के भाग से छींके फूट चुके हैं।
उधर कश्मीर घाटी के राजनीति के नेतागण टीवी पर आ आ कर धमकियाँ दे रहे हैं। कोई कह रहा है कि ९९ एकड़ ज़मीन के लिए आप कश्मीर से हाथ धो बैठेंगे। कोई अपील कर रहा है कि कश्मीर को फ़िलीस्तीन मत बनाइये। और ये नेता इस तरह का अलगाववादी सुर इसलिए अलाप रहे हैं क्योंकि चुनाव नज़दीक हैं और उन्हे लगता है कि इन उबलते हुए जज़बातों के बीच वे समझौतावादी समझदारी की बातें करेंगे तो उनकी चुनावी नैया डूब जाएगी।
पर हालात बुरे हैं बहुत बुरे। जब मुस्लिम कट्टरपंथी कश्मीरी जमातों के दबाव में आकर ग़ुलाम नबी आज़ाद ने अमरनाथ श्राइन बोर्ड को दी गई ज़मीन वापस ले ली थी तभी उन्होने एक ऐसी बुनियादी ग़लती कर दी थी कि भाजपा और अन्य हिन्दू साम्प्रदायिक दल उसका भरपूर फ़ायदा उठाकर जनता को भड़का सकें। श्राईन बोर्ड को दी गई ज़मीन को वापस लेने का फ़ैसला किसी भी तरह से सही नहीं ठहराया जा सकता।
कश्मीरी मुसलमान को डर है कि इस तरह ज़मीन हथिया कर के कश्मीर घाटी में हिन्दुओं को भरने की साज़िश की जा रही है। क्या किसी के डर के आधार पर सरकार फ़ैसले करती है? मुझे डर है कि दूसरा मेरा गला काटने वाला है इसलिए सरकार मेरे डर के आधार पर उसे जेल में डाल दे? ये तो माइनॉरिटी रिपोर्ट जैसा मामला हो गया। घाटी के लोगों की संवेदशीलता को सम्बोधित करने के चक्कर में वे जम्मू के लोगों के प्रति संवेदनहीन हो गए।
जम्मू के हिन्दुओं को इस बात पर प्रतिक्रिया करना स्वाभाविक था खासकर तब जब कि वहाँ रहने वालों में एक अच्छी संख्या कश्मीरी पण्डितों की हो जिन्हे बीस साल पहले कश्मीर घाटी से खदेड़ दिया गया। एक लम्बे अरसे से घाटी में मुस्लिम कट्टरपंथियों ने अलगाववाद और आतंकवाद की राजनीति की है, आज जम्मू से उसका विद्रूप जवाब आ रहा है।
ये समस्या कांग्रेस की खड़ी की हुई है जिस का फ़ायदा भाजपा और कट्टर कश्मीरी संगठन उठा रहे हैं और नुक़सान देश का हो रहा है।
27 टिप्पणियां:
कई बार सोचता हूं कि ये आग कब बुझेगी...लेकिन जवाब खुद से कई बार आता है चुनाव के बाद।
धर्मनिरपेक्षता की जय, कांग्रेस की जय, मानवाधिकारवादियों की जय, गांधीवादियों की जय, चलो आओ एक-एक गुलाब का फ़ूल "महबूबा" को दें…शायद समस्या हल हो जाये…
जम्मू को सेना को सौंपने का फैसला किया लेकिन कश्मीर को नहीं. कृपया बताये क्यों
क्या ये केवल चुनाव से ही संबंधित है.
कैसा सवाल पूछ रहे हैं भाई..कश्मीर तो कब से सेना के हवाले है..
सेना को कश्मीर मे स्वायत्ता नही है अन्यथा पंजाब की तरह वँहा भी आतंकवाद का खात्मा हो गया होता
मेरे हिसाब से फ़िलीस्तीन वाले स्वतंत्रता के हकदार है और जम्मू वाले भी
जिस दिन गुलामों के नबी आज़ाद नें १० हेक्टर ज़मीन श्राइन बोर्ड़ को दी थी उसी दिन,एन डी टी वी २४/७ पर परिचर्चा मॆ भाग लेते हुए आल हुर्यित कान्फ्रेंस के सदर मौलाना मीर वायज नॆ एक झट्के में एक बात कही "हम वहां गाजा पट्टी नहीं बनने दे सकते" .इतना सुनते ही बर्खादत्त ने उनको स्विच आंफ किया हॊले से मुस्करायीं और रविशंकर प्रसाद से सवाल पूंछ्ने लगी. अर्थ साफ है कश्मीर वॆली में हिन्दू नाम की चीज नही बची है,अलहदगी पसंद कशमीर में ऎसी ग्राउन्ड बना चुके हैं जिससे कभी भी कश्मीर को अलग देश की घोषणा कर सकें. भारत से कश्मीर के विभाजन की भूमि तैयार है पाकिस्तान के राजनीतिक हालात ऎसे नही है कि वह अभी खुले आम हुर्यित की मदद कर पाए,समय की प्रतीक्षा की जा रही है. हमारे कायर और भ्रष्ट राजनेता और उससे भी ज्यादा भ्रष्ट मीडिया सेक्युलरिज्म के नाम पर देश तोडनें की साजिश में जिस प्रकार जानॆ अनजानें लगी हुई है यह अत्यंन्त ही दुख की बात है. इस्लाम के दो रुप हैं एक है ख़ुदा पर ईमान लाने वाला और दूसरा है इस्लाम पर ईमान लाने वाला. इस्लाम पर ईमान लानें वालों का एक ही मिशन रह्ता है, ज़्यादा से ज्यादा लोगो या देशों का इस्लामीकरण करना,और वह अभी तक सफल भी रहे है, हमारी आपकी उदारता, कायरता या दोगली मानसिकता के कारण. पिछ्ले १५०-२०० वर्षों में कितनें देशों का इस्लामीकरण हुआ है?क्या वह इस्लाम की रुहानी शिक्षाओं के आधार पर हुआ है या युद्धक मानसिकता के कारण? विस्तारवाद चाहे वह पूंजीवाद,मार्क्सवाद,इस्लामवाद या फिर वह हिन्दूवाद के नाम पर ही क्यों न हो क्या उसको आप जायज ठहरायेंगे? १२००/१३०० वर्ष पहले यहूदी और फिर पारसी जीवन,धर्म और अस्मिता बचानें हेतु भारत में शरण लेते हैं, ५०/१०० बरस बाद हिन्दू कहाँ शरण लेंगे यह आप जैसे सेक्युलर्स को ही बताना पड़ेगा ? कृपया इस्लामी विस्तारवाद की राजनीति का पुनः गंभीरता से अध्य्यन,चिन्तन और मनन करें! कृपया आम मुसलमान की दुहाई न दीजिगा, दो जून की रोटी-रोज़ी की चिन्ता में रहनें वाले से किसी का कोई बैर न था न है किन्तु यह आम जन बाँग्लादेश,पाकिस्तान,अफगानिस्तान,इराक, ईरान, मलेशिया,इण्डोनेशिया आदि-आदि के बननें के पहले भी था,यह भी न भूला जाए.
कात्यायन भाई, आप कहते हैं कि इस्लाम का प्रचार और प्रसार युद्धक मानसिकता के बल पर हुआ.. और उस पर भी पिछले डेढ़ दो सौ साल पर अधिक ज़ोर दे रहे हैं..
मेरा कहना है कि इस्लाम के जन्म के बाद के शुरुआती दौर में ज़रूर इस्लाम की सेनाएं अरब से लेकर सिन्ध तक और पश्चिम में मोरक्को तक दौड़ी थीं.. मगर उस के बाद से ऐसा कुछ नहीं हुआ.. और अगर मुसलमानों की संख्या बढ़ी है तो उसका कारण तलवार तो बिलकुल ही नहीं है.. यदि वैसा होता तो हिन्दुस्तान पर आठ सौ साल के शासन के बाद हिन्दू कैसे बहुसंख्यक बने रहे जबकि मलेशिया और इन्डोनेशिया की बहुसंख्यक लोग मुसलमान हो गए जिसे कभी अरबों, ईरानियों या तुर्कों ने नहीं जीता और न उन पर किसी विदेशी मुसलमान ने राज किया.. ?
कट्टरपंथी नरमपंथी हिन्सक अहिन्सक आपको सर्वत्र मिलेगे
आज अहिन्दुओ को आतंकवाद फेलाने के लिए कई जगहो से सहायता मिलती है यह बात छुपी नही है
यदि हिन्दु कट्टरपंथियो को भी उन की तरह कही से सहायता मिल गयी तो क्या होगा
वैसे नरमपंथी हिन्दुओ को कट्टरपंथी बनाने के लिए आपके कुछ एकतरफा लेख भी जिम्मेदार हो सकते है
मै आपके लेखौ तथा विचारो को प्रतिबंधित करने या हमेशा उसका विरोध करने का हिमायती नही हू परन्तु पक्षपात से बचे
मै आपके ज्ञान तथा क्षमता का बडा मुरीद हू कृप्या मेरे विचारो को अन्यथा न ले
तथ्यों में जाने से कोई लाभ नहीं। जब इतिहास लिखा जाएगा तो यह कहा जाएगा कि भारतीय संसदीय प्रणाली के असफल होने का एक मुख्य कारण उस की चुनाव पद्यति थी। हमारी वर्तमान चुनाव प्रणाली ही सब राजनैतिक दलों को (साम्यवादी और मार्क्सवादी दलों को छोड़ कर)इस तरह के सांप्रदायिक मुद्दों को छेड़ कर जनता के खून की कीमत पर अपनी रोटियाँ सेंकने को बाध्य़ करती है। हमारी जर्जर व्यवस्था पर लिखिए। इन मुद्दों को आधार बनाते हुए। जिस से लोगों की आँखें खुलें। आप में वह सामर्थ्य है।
लोग आलोचना करते समय क्यों अपना नाम छुपाते हैं। सामने आ कर बात क्यों नहीं करते। उन्हें किस बात का भय है। मैं तो कहता हूँ कि इस देश को एक हिन्दू या मुस्लिम राष्ट्र बनाने की मुहिम चलाने वाले अपनी मुहिम को खुला क्यों नहीं करते? जिस पर बहस हो सके।
मेरा मानना है कि विचारों को खुले रूप में अभिव्यक्त करने का साहस करने वाले ही समाज में बदलाव के वाहक बन सकते हैं।
बिल्कुल सही स्टैंड है आपका -एक बार जब जमीन दे दी थी तो फिर वापस नहीं लेनी चाहिए थी -मगर कट्टरपंथियों की आगे सरकार झुकी और यह सब शुरू हो गया -पर अब क्या किया जाना चाहिए ?
क्या फिर से जमीन अमरनाथ बोर्ड को दे दिया जाना चाहिए ?
आपके कथन "ये समस्या कांग्रेस की खड़ी की हुई है " के हिसाब से क्या यात्रियो को सुविधाए नही मिलनी चाहिए थी
समस्या कट्टरपंथियो के कारण से है
काँग्रेस ने कभी भी अगर सांप्रदायिक राजनीति शुरु की है तो उसका झण्डा भा ज पा ने ही आगे बढ कर थामा है। बाबरी मस्जिद के मामले में यह बात साबित हो चुकी है।
कश्मीर के सांप्रदायिक माहौल की ज़िम्मेदार भी काँग्रेस है। अब तक धर्म के नाम पर राष्ट बनते आए हैं .... काँग्रेस राज्य भी बनवा रही है।
क्या अप्रत्यक्ष रूप से काँग्रेस, कश्मीरी आतंकवादियों की मदद कर रही है ?
दिनेशराय द्विवेदी जी
क्या विचार की उपयोगिता केवल पहचान बताने से ही होती है
कृप्या गुगल से Anonymous आपशन हटाने का अनुरोध किजीए
स्वतंत्रता संग्राम मे कई क्रांतिकारियो ने अपनी पहचान छुपाई है जैसे सुभाष बाबू
मै इतना महान नही पर अपनी पहचान की गोपनियता भंग नही करुगा
अत मे आपको मुद्दा बदलने मे कामयाब होने पर बधाई
अभय तिवारी जी
"क्या हमे दूसरो के विचार इसलिए अनसुने कर देने चाहिए क्यो कि अमुक या तो दूसरी विचारधारा का है या फिर उसकी पहचान गोपनिय है"
इस मनोवैज्ञानिक मुद्दे पर लिखने के आप सबसे काबिल है. वैसे यही विचार जम्मु सहित कई अन्य समस्याओ की जड है कृपया विचार करे.
मेरे अनान मित्र,
यदि मैं आप की गोपनीयता पर कोई एतराज़ करता तो आप की टिप्पणी छापता ही क्यों? मुझे सिर्फ़ गालियों और निजी टीका-टिप्पणी से ऐतराज़ है। रही बात दिनेश भाई की तो वे आप का विरोध नहीं कर रहे सिर्फ़ आप से और अधिक साहस की अपेक्षा रख रहे हैं, ताकि आप समाज के बदलाव में सक्रिय भूमिका निभा सकें.. मुझे नहीं लगता कि आप को उन से कोई शिकायत होनी चाहिये..
सुभाष बाबू ने भी स्वेच्छा से नहीं, परिस्थितियों के दबाव में ऐसा क़दम उठाया था..
अभय जी,मैने कब कहा कि१५०/२०० वर्षों में युद्ध के माध्यम से मलेशिया,इण्डोनेशिया,बर्मा,मालदीव आदि का इस्लामीकरण हुआ? मैने यह प्रश्न उठाया है कि पिछ्ले १५०/२०० वर्षों में उक्त देशों का इस्लामी करण क्यों हुआ है,और यदि आप यह कहना चाह्ते हैं कि उन सभी देशों के बहुसंख्यक विचारधारा से प्रभावित और अनुप्राणित हो कर मुस्लिम हुए हैं तो मैं पुनःनिवेदन करना चाहूँगा कि यह तथ्य और सत्य के विपरीत है.ईरान की बात तो छोड़ें,काबुल,गान्धार से लेकर भारत होते हुए सुदूर दक्षिण पूर्व एशिया के समस्त क्षेत्र में सनातन धर्मियों,जैनों और बौद्ध मतावलम्बियों की ही भरमार थी तथा अधिकांश आबादी आप्राकृतिक अहिंसा के व्यामोह से ग्रसित थी.जिसके प्रतिकार में भक्ति आंदोलन{इसमें वेदान्ती भी सम्मिलित हैं} जहां एक ओर सक्रिय था वहीं दूसरी ओर इस्लाम के हरावल दस्ते सूफ़ी सन्तों के रुप में कार्यरत थे. ऎसे द्वन्द्व में फंसे बहुअसंख्यक समुदाय को जहाँ एक ओर सूफी संत रुढ़ आस्थाओं से ड़िगा रहे थे वहीं छोटे-छोटे सैनिक दलों के साथ आनें वाले इस्लामिक आततायी उनकी जान,माल तथा इज्जत का अपहरण करनें में लगे थे{ऎसे कब्जे वाले क्षेत्रों को इस्लामी देश घोषित करानें के लिए तुर्की के ख़लीफा को अनाप-शनाप खिरातें भेंट की जाती थीं},दूर न जाकर कश्मीर के इतिहास पर नज़र ड़ालें-अलदाद से शुरु हुआ यह खेल कहाँ पहुँच गया है यह आपके सामनें है ही.जरा उत्तर पूर्व के इतिहास पर दृष्टि ड़ालें-११२५ में असम में देववंश का राज था जिसकी तीसरी पीढ़ी मे पृथु के शासन काल १२०६ ई० में मोहम्मद बिन बख्तियार नें पहला हमला किया था और यह सिलसिला १६१३ई० तक तब तक चलता रहा जब तक कि जहाँगीर के काल में राजा परीक्षीत नारायण को पराजित कर मुगलिया सल्तन्त में मिला न लिया गया.यह उल्लेख इसलिये किया क्योंकि असम के राजाओं के आधिपत्य में बर्मा तक के क्षेत्र रहे थे. इसके लिए आपको १७०० से १९३० तक छ्पे पुरानें इतिहास परक ग्रन्थों{ विजय चतुर्वेदी जी से जान की अमान पाऊँ-असम क्षेत्र के लिए कालिका पुराण,कश्मीर के लिए कल्हण की राजतरंगिणी,चीनी यात्रियों के विवरण भी } को देखना पड़ेगा.एक रुचिकर तथ्य बताना चाहूँगा-क्या आपनें १९३० या उसके पहले के मुद्रित अंग्रेजी कोषों को देखा है?तब और अब की ड़िक्शनरीज़ के अर्थों में आश्चर्यजनक अन्तर मिलेंगे. यह तथ्य सही नही है कि इस्लाम का युद्धक इतिहास शुरुआती काल तक ही सीमित रहा है-६ठी शताब्दी से लेकर १७००वीं शताब्दी तक यह ताण्डव जारी रहा है. स्पेन में कब्जे के बाद सक्रिय हुये रोमन चर्च के मुँह तोड़ जवाब के बाद यह सिलसिला रुका था. लोकतंत्रात्मक व्यवास्थाओं के उदय होंने के बाद इस्लामिक रणनीतिकारों नें भी नीतिगत परिवर्तन किये. लोकतन्त्र में क्या हथकण्डे अपनाए जाते हैं अल्पसंख्यकवाद के नाम पर, वह हम सब अपनीं-अपनीं दृष्टि से देख रहे हैं और जिसका चरम भविष्यत फल सैय्य्द शाहबुद्दीन के इस कथन में संकेतित है-" इफ डेमोक्रेसी विल रिमेन, इण्डिया विल बी अ मुस्लिम कंट्री बाइ वे आफ पापुलेशन इन २०२०." और जहाँ लोकतन्त्र नहीं है क्या अभी वहाँ वह गृह युद्ध की स्थिति का कारण नहीं बनें हुए हैं? जहाँ तक ८०० साल तक पराधीन रहनें के बावज़ूद हिन्दू बहुसंख्यक कैसे रह गये तो १६००वीं सदी तक अफगानिस्तान में हिन्दू राजा दाहिर का राज्य था,और तब से अफगानिस्तान के साथ साथ पाकिस्तान, बांग्लदेश हम बनवा चुके हैं कश्मीर आपके सामने है, आने वाले वर्षों में, नेपाल -उत्तरपूर्व के इलाके तथा कश्मीर में क्या घटनें वाला है इसकी आहट क्या अभी भी सुनायी नहीं पड़ रही? वैसे विभाजन के पहले संयुक्त भारत की जनसंख्या ४५ करोड़ थी, नये बनें पाकिस्तान की आबादी ७ करोड़ थी जिसमें १० लाख हिन्दू और अन्य थे तथा बँटे हुए भारत में ३ करोड़ मुस्लिम थे.पाकिस्तान में अब १०हजार के लगभग हिन्दु शेष हैं{माल्थस का रिवर्स ला आफ पापुलेशन इज़ाद हो गया है शायद}. बांग्लादेश की स्थिति तो बुद्धदेव बाबू ही ज्यादा बेहतर बता सकॆंगे.
india men sabhi rajya bhasha ke aadhar par bane hain....jab rajy bhasha ke bina par ban sakte hain to dharm ke aadhaar par bhi ban sakta hai
uchit kathan
ati uchit kathan.
विद्या भारती के "नींव की ईट" लेख से बडा प्रभावित रहा हू
मेरे कुछ प्रश्न अनछुये है कृप्या उन पर भी प्रकाश डाले विशेषकर "क्या हमे दूसरो के विचार इसलिए अनसुने कर देने चाहिए क्यो कि अमुक दूसरी विचारधारा का है"
मेरे हिसाब से यह कई समस्याओ की जड है
आखिर क्यो हिंदू मुस्लिम धर्मवादी माक्सवादी इत्यादि खुले मन से आपस मे संवाद नही करते वरण केवल तर्को तथा कुतर्को से केवल अपनी बात को ही मनवाना चाहते है
आपका अनाम मित्र
अभय जी, अनाम मित्र की बात सही है... हमारी परंपरा शास्त्रार्थ की रही है उसे जीवित रखना चाहिए।
आपसी विचार विमर्श से ही आगे की राहें बनेंगी। पर एक दूसरे के सम्मान ध्यान रखा जाए और भाषा की शुचिता भी बनी रहे।
दिनेशराय द्विवेदी जी
मै आपसे आप पर की गई टिप्पणी के लिए क्षमा मागँता हू
शास्त्रार्थ का उद्देश जानकर आप मेरी गल्ती अवश्य माफ करेगे
अभय तिवारी जी इस शास्त्रार्थ का श्रीगणेश आप प्रारम्भ किजीए क्योकि आप सर्वाधिक उपयुक्त है
आपका अनाम मित्र
कपिल देव शर्मा
भाई कात्यायन, माफ़ करें मगर आप के स्वर से लगता है कि आप को मुसलमान के होने से ही ऐतराज़ है? मेरी समझ में यदि कोई स्वेच्छा से कोई धर्म चुनता है तो किसी को ऐतराज़ क्यों होना चाहिये?
कपिल जी, शास्त्रार्थ की जो बात है तो उसे श्रीगणेश कैसा करना.. वो तो जारी ही है। बस उसमें शालीनता बनाए रखनी है बस..
आप की सराहना के लिए शुक्रगुज़ार हूँ।
अभय जी, टिप्पड़ियओं से यदि दुखः पहुँचा है तो मै हृदय से खेद व्यक्त करता हूँ। किन्तु आपकी "आप के स्वर से लगता है कि आप को मुसलमान के होनें से ही ऎतराज़ है," इस टिप्पड़ी से न केवल असहमत हुँ वरन दुखिःत भी हूँ। मुस्ल्लम ईमान हो जिनका ऎसे मुसलमानों के होनें पर भला क्या कोई आपत्ति कर सकता है? किन्तु खुदा पर ईमान लानें वालों के मुकाबिल इस्लाम पर ईमान(? )रखनें वालों की आज तादाद ज्यादा है, यही सारे फ़सादात की जड़ हैं और इन्हीं से मेरी नाइत्त्फ़ाकी है। यह मेरी अपनी गढ़ी हुई सोंच नहीं है बल्कि बरसों पहले आपके ही मूलस्थान कानपुर के काज़िये श़हर मौलाना मंज़ूर साहब और सूफ़ियान हुज़ूर साह्ब समेत तमाम आलिमे मज़हब से गुफ़्तगूं के बाद इस निष्कर्ष पर पहुँचा था। एक अन्य प्रश्न आपनें खड़ा किया है,"यदि स्वेच्छा से कोई धर्म चुनता है तो किसी को ऎतराज़ क्यों होना चाहिये?" मासूम से लगनें वाले इस सवाल के पीछे कई यक्ष प्रश्न उपजते हैं मसलन कोई मज़हब क्यों बदलना चाहता है? बदलना इसलिए कह रहा हूँ क्योंकि दुनिया भर में मज़हब जन्मजात होता है,चुनाव तो समझ आने पर ही सम्भव है और क्या कोई मज़हब इतनी आसानीं से बदलता/चुनता है?? अगर आप यह कहना चाहते हैं कि भारत में इस्लाम के आगमन से लेकर अब तक जो भी धर्म परिवर्तन हुए है वह अधिकांशतः स्वेच्छा से हुए हैं तो यह न केवल असत्य है वरन इतिहास को भी झुठलाना होगा। दर असल अभय जी हम आप एक ऎसे उद्यान की कल्पना करते हैं जिसमें गुलाब,गेंदा,चम्पा,चमेली आदि भांति भांति के फूल हों,धर्म रुपी किन्तु वे एक ऎसा बाग चाह्ते हैं जिसमें एक ही नशल के फूल हों. यदि आपको लगता है कि मै गलत बयानी कर रहा हूँ तो कृपा करके डा० मुशीरूलहक की किताब "धर्म निरपेक्ष भारत में इस्लाम" एवं यूट्यूब पर डा० ज़कीर नाइक की साफ़गोई का मुलाहिजा करें।एक गम्भ्रीर शिकायत है,चाहे हमलोग वाले पंकज पचौरी हों,चाहे मुकाबला वाले दिवाँग हों या आप, विषय गम्भीर उठाते हैं किन्तु मनोनुकूल ज़वाब न आनें पर अकस्मात जैसे चर्चा बन्द कर देते है उससे कम से कम एक निष्कर्ष अवश्य निकलता है कि आप सभी की समाधान तक पहुँचनें की न तो इच्छा है न ही धैर्य.कपिल देव शर्मा जी नें संवाद की बात की है, दिनेशराय द्विवेदी जी नें शास्त्रार्थ की बात की है,शास्त्रार्थ शास्त्र आधारित ही हो सकता है जो शायद यहाँ सम्भव नहीं किन्तु वाद,संवाद और.......तो किया ही जा सकता है,हाँ मनोनुकूलता का आग्रह छोड़ना पड़ेगा. अभय जी कुछ भी अन्यथा लगा हो तो क्षमा करें और ब्लाग पर आना ही रुचिकर न लगता हो तो कृपया मेल यहाँ मेल करदें,पुनः धृष्टता नही करुँगा।
आप विद्वान व्यक्ति हैं कात्यायन जी.. आप अपनी बातें मज़बूती और सबूतों के साथ रखते हैं.. और आप मेरे मूल्यवान पाठक हैं जो अपने विचारों से मेरी लिखी बातों के दूसरे पहलू भी खोल देते हैं.. आप की टिप्पणियों का सदैव स्वागत है..
रही बात समाधान की तो मुझे नहीं लगता कि मेरे छोटे से ब्लॉग की एक पोस्ट पर टिप्पणी के आदान-प्रदान से ही समाधान निकल आएगा.. वो कहीं अधिक जटिल यात्रा होगी.. हम और आप जो कर रहे हैं वो उस दिशा में छोटे-छोटे क़दम हैं..
अभय जी,पहले ही आपके शोध परक लेखन से प्रभावित था।आज आपकी सदाशयता,उदारता एवं वैचारिक मत भिन्नता के प्रति प्रदर्शित सहिष्णुता को नमन एवं धन्यवाद।
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