मंगलवार, 5 अगस्त 2008

रचना एक नए देश की

इज़राईल और फ़िलीस्तीन के बीच चल रहे अस्तित्व के संघर्ष की कहानी आज की तारीख में इतनी बदरंग हो चुकी है कि लोग भूल चुके हैं कि यह सब कैसे शुरु हुआ। मेरी पिछली पोस्ट में आप ने पढ़ा प्राचीन काल से उन्नीसवीं सदी के आखिरी सालों तक का इतिहास.. अब पढ़िये आगे की कहानी..


पहला विश्व युद्ध
उन्नीसवी सदी के आखिरी वर्षों में जब यहूदियों ने धीरे-धीरे फ़िलीस्तीन में आकर बसना शुरु किया तो यह इलाक़ा तुर्कों के ऑटोमन साम्राज्य का अंग था। हेजाज़ स्थित पवित्र धर्मस्थल मक्का-मदीना भी उन्ही के अधिकार क्षेत्र में पड़ता था। मुसलमानों की केन्द्रीय धर्म सत्ता खलीफ़ा का पद भी तुर्की के सम्राट के ही पास था। वो बात अलग है कि अरब इस बात से बहुत प्रसन्न नहीं थे। हाँ अरब की गहन मरूभूमि के इलाक़े ज़रूर उनके नियंत्रण से बाहर थे जहाँ आज के साउद वंश के पूर्वज, अपने वहाबी मौलवियों के साथ दूसरी कबाइली शक्तियों से संघर्षरत थे।

प्रथम विश्व युद्ध के दौरान यहाँ के शक्ति-समीकरण में तमाम बदलाव आने लगे। क्योंकि ऑटोमन साम्राज्य को तोड़ने के लिए ब्रिटेन और फ़्रांस की एलाइड फ़ोर्सेज़ उन सभी शक्तियों से सम्पर्क साधने लगीं जो उन्हे इस काम में मदद कर सकतीं थीं। इन में मक्का के शरीफ़, हाशमी परिवार के लोग भी थे। जो ७०० से भी अधिक सालों से मक्का और मदीना के कस्टोडियन होते आए थे। और दूसरी ओर साउद वंश के लोग भी। मज़े की बात यह थी कि ये दोनों पक्ष एक दूसरे के खिलाफ़ थे मगर युद्ध में इन दोनों के तुर्की के विरुद्ध अंग्रेज़ो का साथ दिया।

सब को अलग-अलग लोभ दिए गए। साउद को पैसे और हथियार दिए गए। हाशमी परिवार को टी०ई० लॉरेन्स (लॉरेन्स ऑफ़ अरेबिया) के ज़रिये वृहत्तर अरब का वादा किया गया। इस वृहत्तर अरब में सीरिया, फ़िलीस्तीन, लेबनान, इराक़, (साउदी) अरब, जोर्डन सब शामिल होना था। क्योंकि सच्चाई ये है कि ये एक ही देश है, एक राष्ट्र है। इन की भाषा, धर्म, संस्कृति, इतिहास, जातीयता सब एक ही है (अल्पसंख्यक ईसाई, यहूदी और शिया मुसलमानों के साथ भी एक धर्म को छोड़कर अन्य बिन्दुओ पर एकता है)। इस वादे के बिना पर अरबों ने ऑटोमन तुर्कियों के खिलाफ़ हथियारबन्द विद्रोह कर दिया और उन्हे १९१७ में शिकस्त भी दे दी।

लेकिन अंग्रे़ज़ो ने उनके साथ किया वादा पूरा नहीं किया। क्योंकि उन्होने एक दूसरा बयाना भी लिया हुआ था। यह बयाना था अमरीका को लड़ाई में खींच लाने के लिए यहूदियों के लिए एक यहूदी देश बनाने का वादा- जो फ़िलीस्तीन की भूमि पर बनाया जाएगा। युद्ध में अलाइड फ़ोर्सेज़ के लिए यहूदियों का समर्थन हासिल करने के लिए ब्रिटेन ने ज़ायोनिस्ट आन्दोलन के एक मुखिया के साथ १९१६ में एक लिखित वादा किया कि वे लड़ाई खतम होने पर फ़िलीस्तीन के भू-भाग पर यहूदियों का देश बनाने के लिए हर सम्भव योगदान देंगे। इसे बैलफ़ॉर घोषणा के नाम से जाना गया।

बंदरबाँट
लड़ाई खत्म होते ही अरब और यहूदी अपने-अपने वादे की याद दिलाने लगे। लेकिन ब्रिटेन और फ़्रांस ने आपस में एक और समझौता-साइक्स पिको अनुबंध किया हुआ था जिसके तहत वे पूरे जीते हुए क्षेत्र को अपने-अपने प्रभाव क्षेत्र में बाँट लेंगे। आज के देश सीरिया और लेबनान फ़्रांसीसी प्रभाव क्षेत्र में गए, इराक़ और जोर्डन ब्रिटिश प्रभाव क्षेत्र में, अरब की मरुभूमि में किसी की प्रभाव डालने की कुव्वत नहीं थी। वो स्वतंत्र ही रही।

मगर फिलीस्तीन को अंतराष्ट्रीय प्रभाव क्षेत्र माना गया। इसके पीछे मूल कारण ब्रिटेन की साँप-छछूँदर की हालत थी जिसमें ब्रिटेन न तो अपने किए हुए वादों को निभा पा रहा था और न उन से निकल पा रहा था। फ़िलीस्तीन को किसी अरब देश का हिस्सा बना देने से समस्या समाप्त हो जाती। पर वे नहीं कर पा रहे थे क्योंकि उन पर यहूदियों का ही नहीं सभी पश्चिमी देशों का दबाव था कि किसी तरह वहाँ एक यहूदी देश की रचना की जाय। यहाँ रचा शब्द महत्वपूर्ण है। इसीलिए इस भू-भाग के लिए लीग ऑफ़ नेशन्स ने १९२३ में ब्रिटेन को एक मैनडेट दे दी जिसे ब्रिटिश मैनडेट ऑफ़ पैलेस्टाईन कहा गया।

इस शासनादेश के तहत ब्रिटेन को फिलीस्तीन के क्षेत्र का प्रशासन सम्हालना था जब तक कि वे स्वयं इस लायक नहीं हो जाते। न जाने इसका क्या अर्थ था। मेरे विचार में इसका अर्थ खास यहूदियों के लिए ही था क्योंकि आज भी फ़िलीस्तीनियों को अपना प्रशासन सम्हालने के योग्य नहीं माना जा रहा है।

इस मैनडेट के क्षेत्र में आज का जोर्डन देश का इलाक़ा भी शामिल था। मगर जब साउद ने हमला करके मक्का और मदीना वाले अरब के हेजाज़ क्षेत्र पर भी क़ब्ज़ा कर लिया तो भागे हुए हाशमी परिवार के एक सदस्य किंग अब्दुल्ला के लिए एक नये देश को उस भू-भाग से काट कर निकाला गया। ये एक नया देश था, इस देश को ट्रान्स-जोर्डन कहा गया क्योंकि यह जोर्डन नदी के पूर्वी सीमा पर स्थित था। बाद में इसका नाम सिर्फ़ जोर्डन हो गया। इसी तरह हाशमी परिवार के दूसरे किंग फ़ैसल के लिए इराक़ नाम के देश की सीमाएं तय कर दी गईं। कम से कम इराक़ के साथ ऐतिहासिकता की ऐसी कोई समस्या नहीं थे।

इस बन्दरबाँट में सिर्फ़ साउद ने अपनी सीमाएं अपने प्रभाव से तय की और अपने देश का पुराना नाम अरबिया बदल कर साउदी अरबिया कर दिया। फ़्रांस ने अपने प्रभाव क्षेत्र को सीरिया और लेबनान में विभाजित कर दिया जिन्हे फ़्रांस के प्रभाव से निकलने में और पचीस साल लगे। लेबनान में पुरातन समय से यहूदी-ईसाई और मुसलमान रहते आए हैं, जैसे पुरातन फ़िलीस्तीन में रहते आए थे। मगर अन्तराष्ट्रीय राजनीति, और योरोप में यहूदियों के प्रति गहरी पैठी नफ़रत, अंग्रेज़ो के मुक्त-हस्त वादों और उस के बाद की बन्दरबाँट ने इस ज़मीन पर एक नए खूनी इतिहास का आगाज़ कर दिया।

ओह जेरूसलेम
१९२२-२३ के बाद से ही फ़िलीस्तीन में अरबों और यहूदियों के बीच संघर्ष शुरु हो गए। आने वाले विस्थापितों की अविरल धारा से अरबों के अन्दर एक असुरक्षा घर करती जा रही थी। मामला सिर्फ़ एक साथ रहने में आ रही परेशानियों का नहीं था। यहूदियों और ईसाईयों के अलावा मुसलमान भी जेरूसलेम को पवित्र नगरी मानते हैं। उनका विश्वास है अल-अक्सा मस्जिद की एक दीवार पर चढ़कर ही मुहम्मद साहब अपने उड़ने वाले सफ़ैद घोड़े बुराक़ पर बैठ कर जन्नत की ओर चले गए थे। उस दीवार को वे बुराक़ दीवार कहते हैं। जेरूसलेम की पवित्रता का एक ओर कारण यह भी है कि मक्का की ओर मुख करके नमाज़ पढ़ने के पहले मुहम्मद साहब ने जेरूसलेम की ओर मुख कर के नमाज़ पढ़ने का आदेश दिया था। इन्ही कारणों से मुसलमानों के मन में मक्का और मदीना के बाद जेरूसलेम दुनिया के तीसरी सबसे पवित्र जगह है।

जेरूसलेम स्थित अल अक्सा मस्जिद की उसी पश्चिमी दीवार/बुराक़ दीवार पर यहूदियों का दावा रहा है कि वो उनकी प्राचीन मन्दिर की दीवार है जिसे सबसे पहले सुलेमान ने बनाया था। और जिसे आखिरी बार ७० ई०पू० में रोमन्स ने तोड़ दिया था। यहूदियों में उस प्राचीन मन्दिर के टूटे जाने पर रोने की आनुष्ठानिक परिपाटी है इसीलिए इसे वेलिंग वाल(रोने वाली दीवार) भी कहते है। इसी दोहरे दावे के चलते १९२९ में यहाँ एक बड़ा दंगा हुआ जिसमें १२९ यहूदी मारे गए और १२२ अरब भी हलाक हो गए। लेकिन इस दंगे से हतोत्साहित होकर आने वाले यहूदी विस्थापितों की संख्या में कोई कमी नहीं आई। बल्कि १९३३ में जर्मनी में कट्टर यहूदी विरोधी हिटलर के सत्ता में आ जाने के बाद उस में और इज़ाफ़ा हो गया। १९३५ में लगभग साठ हज़ार यहूदी फ़िलीस्तीन में आ पहुँचे।

अरबों का विद्रोह
विस्थापितों के इस सैलाब से घबराकर फ़िलीस्तीनी अरबों ने ब्रिटिश प्रशासन के खिलाफ़ आम हड़ताल कर दी क्योंकि वे ही ये सब प्रायोजित कर रहे थे। इस हड़ताल के दौरान यहूदियों की जान-माल की भी क्षति हुई। अरबों के इस विद्रोह के फल स्वरूप एक पील कमीशन बैठाया गया जिसने १९३७ में समस्या को हल के परे बताया और सिफ़ारिश की कि फ़िलीस्तीन को दो हिस्सों में बाँट दिया जाय।

ये स्थिति हमें बहुत कुछ हिन्दुस्तान के विभाजन जैसी मालूम दे सकती है। है भी। बस फ़र्क़ इतना है कि यहाँ पर दूसरे पक्ष की विवादित भूभाग पर रिहाइश कुछ सालों ही पुरानी था और साथ में था ढाई हज़ार साले पहले किन्ही यहूदियों के रहने के प्रमाणों के आधार पर उस ज़मीन पर अधिकार का दावा?

अरबों का विद्रोह यूँ ही दो साल और १९३९ तक चलता रहा। जिसको दबाने के लिए ब्रिटिश प्रशासन ने कड़े क़दम उठाये। विद्रोहियों को मौत की सज़ा सुनाई गई, उन्हे बिना मुक़दमे जेल में बन्द रखा गया, उनके घरों को नष्ट कर दिया गया। उल्लेखनीय है कि बाद में बनने वाली इज़राईल राज्य ने अरबों का दमन करने के लिए इन्ही तरीक़ों को अपनाया।

इसी दौरान यहूदियों ने भी अपनी रक्षा के लिए ‘हगनह’ नाम का एक सैनिक संगठन का बनाया जिसका काम अपनी सुरक्षा करना और अरबों के दमन में ब्रिटिश पुलिस का सहयोग करना। १९३९ में जब यह विद्रोह शान्त हुआ तो लगभग ५००० अरब मारे जा चुके थे और ४०० यहूदी और २०० अंग्रेज़ भी। बावजूद इसके वो अरबों का दमन करने में असफल रहे जो आज भी इज़राईल का मुक़ाबला कर रहे हैं। दमन की नीति का समर्थन करने वाले कृपया ध्यान दें।

उसके बाद दूसरा विश्वयुद्ध आरम्भ हो गया। दूसरे विश्व युद्ध में जर्मनी द्वारा यहूदियों के साथ किए गए होलोकास्ट में लाखों यहूदियों ने अपने प्राण खोये और लाखों को जानवरों से भी बदतर हालत में क़ैद करके रखा गया। आम आकलन है कि मारे जाने वाले यहूदियों की संख्या साठ लाख तक थी।

रचना एक नए देश की
६ साल तक चले युद्ध के चलते ब्रिटेन के हौसले पस्त हो चुके थे और वे दुनिया भर में फैली अपनी साम्राज्यवाद की दुकान समेटने का मन बना चुके थे। फ़िलीस्तीन की समस्या से भी वो किसी तरह खूँटा तुड़ाकर भाग जाना चाहते थे। लेकिन सताए हुए यहूदियों के जहाज पर जहाज चले आ रहे थे फ़िलीस्तीन की धरती पर शरण पाने के लिए। अरब इस पूरी प्रक्रिया का भविष्य देख कर और भी अधिक भयानक असुरक्षा से ग्रस्त होते जा रहे थे। ब्रिटेन ने समस्या को संयुक्त राष्ट्र के पाले में सरका कर अपने जाने की तारीख की घोषणा कर दी।

संयुक्त राष्ट्र ने नवम्बर १९४७ में एक प्रस्ताव के तहत फ़िलीस्तीन की भूमि के दो टुकड़े कर देने को मंज़ूरी दे दी। इस प्रस्ताव को ३३ के मुक़ाबले १३ मतों से पारित किया गया। ब्रिटेन ने अब्स्टेन किया। ३३ और १३ की संख्या को ध्यान से देखने पर इस बहुमत का राज़ खुल जाएगा। प्रस्ताव के समर्थन में मत देने वाले ३३ देशों में योरोप और अमरीका महाद्वीप के देश शामिल थे। और प्रस्ताव का विरोध करने वाले देश थे- साउदी अरब, सीरिया, लेबनान, येमन, तुर्की, इराक़, ईरान, अफ़्ग़ानिस्तान, पाकिस्तान, भारत, मिस्र, ग्रीस और क्यूबा।
वे सभी देश जो इस बँटवारे से ज़रा भी सम्बन्धित थे उन्होने इस के विरोध में मत डाला मगर वे सभी देश जिनका फ़िलीस्तीन और मुसलमानों से दूर-दूर तक नाता नहीं था, उन्होने समर्थन में। इसका क्या अर्थ है? क्या वे देश अपने देशों के यहूदियों की समस्या से हाथ धोना चाहते थे और इसीलिए एक यहूदी देश की कृत्रिम रचना में धक्का लगा रहे थे?

अरबों ने इस तक़्सीम को मानने से बिलकुल इन्कार कर दिया। लेकिन उन्हे नहीं पता था कि अगला क्या क़दम उठाया जाय। क्योंकि १९३६-१९३९ के अरब विद्रोह के समय उनके राजनैतिक नेतृत्व का सफ़ाया हो चुका था और हथियार भी उनसे छीने जा चुके थे। वे असमंजस में पड़े रहे। अरबों की तरफ़ से जवाब दूसरे अरब देशों ने दिया। मिस्र, सीरिया आदि ने धमकी दी कि वो किसी यहूदी देश को अस्तित्व में नहीं आने देंगे।

दूसरी तरफ़ यहूदी नेतृत्व पूरी तैयारी कर चुका था और उसके पास एक वैकल्पिक सरकार, हथियारबन्द दस्ते, योजनाएं सब कुछ तैयार था। ब्रिटिश प्रशासन की आखिरी तारीख १५ अगस्त १९४८ घोषित हो चुकी थी। इस के काफ़ी पहले १४ मई को एक स्वतंत्र यहूदी देश की घोषणा कर दी गई जिसका नाम इज़राईल रखा गया।
अभी कहानी और है..

16 टिप्‍पणियां:

विजय गौड़ ने कहा…

शायद आज पहली बार ही आपके ब्लाग पर आना हुआ है. इतिहास पर आपका काम देखा. अभी सरसरी निगाह ही डाल पा रहा हू, समय आभाव के कारण लेकिन पसंद आ रहा है लेख. अभी फ़ेवरेट बना दिया ब्लाग को बाद में पढूंगा विस्तार से. लेकिन इस बात के लिये तो आप बधाई के पात्र है ही कि इतिहास को लेकर इतने विस्तार से काम कर रहे हैं.

vipinkizindagi ने कहा…

इतिहास पर आपका लेख पसंद आया

Ashok Pandey ने कहा…

ज्ञानवर्धक पोस्‍ट। सचमुच आप अपने ब्‍लॉग-लेखों को बहुत गंभीरता से लिखते हैं।

मीनाक्षी ने कहा…

सरल और रोचक तरीके से इतिहास लिखने में आप कुशल है..फिलीस्तीनी सालों से दोस्त रहे, उनके लिए मन में सॉफ़्ट कॉर्नर होना स्वाभाविक है लेकिन दूसरी तरफ यहूदियों का सोच कर मन बेचैन हो जाता है कि वे लोग कहाँ जाएँ? इस समस्या का हल क्या है ?

मसिजीवी ने कहा…

प्रभावशाली तरीके से लिख रहे हैं। रम कर पढ़ा गया।



अगर इन सब तथ्‍यों के स्रोत भी रहते तो किसी भी पाठ्यपुस्‍तक से ज्यादा काम की सामग्री तैयार पड़ी है। जारी रहें।

Pratyaksha ने कहा…

ओ जेरुसलम और एक्सोडस पढ़ कर दिमाग खासा विचलित हुआ था ..स्थिति अब भी वैसी ही है..आपने अच्छे तरीके से कनसाईज़ किया है ..

सिद्धार्थ शंकर त्रिपाठी ने कहा…

एक ज्ञानवर्द्धक और सारगर्भित पोस्ट के लिए साधुवाद। यह हिन्दी ब्लॉग जगत की एक अनुपम उपलब्धि है। जारी रखें।

ghughutibasuti ने कहा…

दोनों लेख पढ़े, पसन्द भी आए किन्तु कहीं तो थोड़ा सा आपका रुझान इन दो लड़ते हुए असहमत दलों में से एक की ओर है। यह स्वाभाविक भी है, क्योंकि चाहे कोई भी हो, इतिहासकार ही क्यों नहीं, वह कभी भी पूर्णतया समदर्शी नहीं हो सकता, क्योंकि वह सबसे पहले एक मनुष्य है। आगे के लेखों की प्रतीक्षा रहेगी। एक बात और, सारे मुसलमान राष्ट्रों के साथ केवल क्यूबा और भारत ही दो गैर मुसलमान देश थे जिन्होंने प्रस्ताव का विरोध किया? क्यों? क्या यह समाजवाद/साम्यवाद की ओर के रुझान के कारण था, मुसलमानों से संवेदना, स्नेह, तुष्टीकरण या भारत के मामले में केवल नेहरू का रुझान या कोई अन्य कारण भी थे? भारत तो तभी दंगों से उभर रहा था, फिर क्या वह एक अन्य भूमि का विभाजन नहीं चाहता था जबकि अपना विभाजन कर करोड़ों को बेघरबार, बेइज्जत, दिवंगत बना चुका था? यदि आप भारत के रुख के बारे में भी बताएँ तो बहुत अच्छा रहेगा।
जहाँ इस लेख को पढ़ने से यह लगता है कि यहूदी बहुत पहले छोड़ी अपनी भूमि पर वापिस आकर वहाँ अस्थिरता पैदा कर रहे थे, वहीं हमारे देश का एक बहुत बड़ा तबका बांग्लादेशियों, के प्रति काफी निश्चिन्त है, जो भारत के भिन्न राज्यों में जबरन घुसकर वहाँ की जनसंख्या में भयंकर बदलाव ला रहे हैं। वहाँ की न जाने कबसे वहाँ रह रही जनसंख्या का धर्म, जाति, भाषा, संस्कृति सब अलग होने पर भी हमारी सरकार वहाँ एक नए धर्म, जाति, भाषा, संस्कृति को पनपने ही नहीं दे रही अपितु वहाँ की स्थानीय जनसंख्या को अल्पसंख्यक भी बनने दे रही है। क्या भारत को किसी अस्थिरता का भय नहीं है?
ये प्रश्न शायद सीधे जुड़े हुए नहीं लगते, परन्तु मुझे बहुत कम जानकारी है व मैं अधिक जानना चाहती हूँ। आपके लेख से यह विश्वास जागा कि आप शायद इन प्रश्नों का भी उत्तर दे सकें। यदि अन्यथा लगे तो ध्यान न दें व जाने दीजिये।
धन्यवाद सहित,
घुघूती बासूती

Pramendra Pratap Singh ने कहा…

यह पोस्‍ट पढ़ने ही नही संग्रह योग्‍य भी है

Anita kumar ने कहा…

very enjoyable post, waiting to see your replies to Ghughuti ji's queries

drdhabhai ने कहा…

बहुत ही शानदार पोस्ट है,पर आप ही के अनुसार मोहम्मद ने दो ही रास्ते छोङे यहूदियों के लिए या तो मुसलमान बने या अपनी धरती छोङ दें,और वे सदियों तक अपने यरूशलम लौटने की कसमें खाते रहें.सदियों बाद जब वे फिर अपनी धरती पर लौटे हैं तो वे उस धरती पर पराये कैसे हो सकते हैं,मित्र इतिहास मैं सैंकङों साल नहीं हजारों साल भी मायने नहीं रखते हैं ये साबित कर दिखाया है यहूदियों ने

दिनेशराय द्विवेदी ने कहा…

बहुत अच्छा संवाद हो रहा है आप के ब्लाग पर। लोग भले ही आप से सहमत नहीं हों पर एक दूसरे की बात को पढ़ तो रहे ही हैं। एकदम तो कोई सहमत हो नहीं सकता। वह विचार करता है। कभी तो सही राह मिलेगी। इस वाद प्रतिवाद की अन्तर्क्रिया से ही संवाद स्थापित होगा। आप को बहुत बहुत बधाई ज्वलंत मुद्दों की ऐतिहासिक जानकारी देने के लिए।

बेनामी ने कहा…

जम्मू की हिंसा पर क्या विचार हैं.

Farid Khan ने कहा…

"वे सभी देश जो इस बँटवारे से ज़रा भी सम्बन्धित थे उन्होने इस के विरोध में मत डाला मगर वे सभी देश जिनका फ़िलीस्तीन और मुसलमानों से दूर-दूर तक नाता नहीं था, उन्होने समर्थन में। इसका क्या अर्थ है? क्या वे देश अपने देशों के यहूदियों की समस्या से हाथ धोना चाहते थे और इसीलिए एक यहूदी देश की कृत्रिम रचना में धक्का लगा रहे थे?"

बहुत प्रासंगिक प्रश्न हैं ये ।

Asha Joglekar ने कहा…

Ehks blog par pehali bar aayee. Iske Flistine aur Yahudi vivad par kafi achcha prakash dala hai aapne.
Jis hitler ke daman chakr ki sara wishw aur Israel ninda karate nahi thakte Israel wahi Flistinion ke sath karraha hai. Ek bat aur ki yadi mistr aur anya arab desh Flistinion ko mile hue Bhoo bhag me rah kar apni janta ko ek desh dekar tarakki ka rasta apnane ko kahate to aaj sthiti kuch air hoti abhito na ghar ka na ghatka wali sthiti men jee rahe hain filistini. kyun ki anya jin arab deshon me we rahate hain wahan unki sthiti refugees ki tarah hi hoti hai

Yogendra Singh Shekhawat ने कहा…

इससे पहले, इस मसले पर इतनी सिधी और सरल भाषा में इतनी जानकारी मुझे पहले अन्यत्र कहीं नहीं मिली थी । आपका बहुत-बहुत धन्यवाद ।

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