आजकल आतंकवाद के संदर्भ में बार-बार इज़राईल का नाम लिया जाता है और उसे एक आतंकवाद के खिलाफ़ एक मज़बूत आदर्श के बतौर प्रस्तुत किया जाता है। इसके समर्थकों को शायद इज़राईल का उदाहरण इसलिए पसन्द आता होगा वहाँ फिलीस्तीनी ईंट का जवाब इज़राईली गोली से दिया जाता है।
मेरे विचार में पहले तो इज़राईल के आदर्श का यह विचार तार्किक रूप से ही ग़लत है क्योंकि इतने लम्बे संघर्ष के बाद भी इज़राईल आतंकवाद को न तो कम करने में सफल हो सका है न ही उसे घेरने में। आतंकवादी घटनाएं बढ़ी हैं और इज़राईल आतंकवाद के नाम से जिसे चिह्नित करता है उसका फिलिस्तीनियों, अरबों, मुसलमानों और शेष दुनिया के बीच लोकप्रिय समर्थन भी घटा नहीं बढ़ा है। दूसरे इज़राईल से भारत से सीखने की बात भारत की आतंकवाद के विरुद्ध अपनी एक जायज़ लड़ाई पर नाजायज़ रंग पोतने जैसी है।
क्यों? इसके लिए ये समझना ज़रूरी है कि आखिर इज़राईल है क्या? और जो आतंकवादी उसकी जान के पीछे पड़े हैं वो क्या हैं?
इज़राईल की भूमि
इज़राईल एक उपाधि थी जो ईश्वर के फ़रिश्ते से युद्ध करने के बाद अब्राहम के पोते याक़ूब को मिली था। आगे चलकर यहूदी जन अपने सपनों के देश को इज़राईल की भूमि नाम से बुलाने लगे।
यहूदी या ज्यू अब्राहम के द्वारा चलाए गए धर्म के मानने वालों का नाम है। इन में से अधिकतर अब्राहम की सीधी संताने हैं। अब्राहम इज़राईल में नहीं रहते थे। वे पूर्व में मेसोपोटेमिया में कहीं से आए थे। ईश्वर ने कनान (तत्कालीन फिलीस्तीन/ इज़राईल) के उस क्षेत्र को अब्राहम की संतानो को देने का वादा अब्राहम से किया था। लेकिन अब्राहम और उनकी संताने लम्बे समय तक यहाँ-वहाँ भटकते रहे। मिस्र के फ़िरौन काल में ग़ुलाम भी रहे जहाँ से अपने सारे जातीय बन्धुओं को मूसा निकाल के लाए इसी देश के ईश्वरीय वादे पर भरोसा कर के। और बहुत सालों तक भटकने के बाद और अमोरी, बाशान, मोआबी आदि लोगों से एक खूनी संघर्ष के बाद यहूदी जन ईश्वरीय वादे वाली ज़मीन पर क़ाबिज़ हुए।
इस सम्पूर्ण क्षेत्र पर दाऊद और सुलेमान के प्रसिद्ध शासन के बाद लगभग १००० ई०पू० से ६०० ई०पू० के बीच में इज़राईल और जूडाह नाम के दो यहूदी देश इस भू-भाग पर क़ायम हुए। बाद में ये यहूदी लोग निरन्तर दूसरी जातियों के राजनैतिक प्रशासन में रहे। पहले असीरी, बेबीलोनी, फिर पारसी, फिर ग्रीक और फिर रोमन; जिन्होने इस भूभाग का नाम बदलकर फिलीस्तीन कर दिया। इन सब में उनके साथ सबसे अच्छा सुलूक पारसियों का ही रहा।
रोमनो के प्रशासन के दौरान ही प्रभु ईसा की लीला इस देश में घटित हुई थी। ईसा स्वयं एक यहूदी थे और उस समय इस देश में यहूदियों की ही बहुतायत थी मगर राज रोमनो का था। इन दोनों के अलावा अन्य कई राष्ट्रीयताएं भी जैसे सुमेरी, असीरी, मिस्री, बेबीलोनी, अमोरी, पारसी, फ़ीनिशी आदि साथ रहती थीं। लगभग उसी समय से बड़ी संख्या में इस भूभाग से यहूदियों का पलायन शुरु हो गया; लगातार चलने वाले युद्ध और अन्य जिन भी वजहों के चलते। फिर भी यहूदियों की एक अच्छी संख्या इस देश में बाद तक बनी रही।
इस्लाम के जन्म के बाद यह भू-भाग मुसलमानों के राजनैतिक प्रशासन के अन्तर्गत चला गया। इस्लाम के प्रभाव में यहूदियों का एक हिस्सा धर्म परिवर्तन कर के मुसलमान हो गया। मगर शेष यहूदियों, ईसाईयों और मुसलमानों का एक शान्तिपूर्ण सह-अस्तित्व बना रहा। फिर ग्यारहवीं सदी से पन्द्रहवीं सदी के बीच योरोपीय ईसाईयों (फ़्रैंक्स या फ़िरंगियों) ने धर्म-युद्ध के नाम पर इस देश पर लगातार क़ब्ज़े लिए क्रूसेड्स लिए और हज़ारों लोगों का खून बहाया जिनमें यहूदी प्रमुख थे। क्योंकि ईसा के जीवन काल में उन्हे यहूदियों के प्रबल विरोध का सामना करना पड़ा था और जिसके कारण यहूदी सदा के लिए ईसाइयों की नफ़रत के पात्र बन गए थे।
अब्राहम से वादा
अब्राहम को ईश्वर से प्रजापति होने का वरदान मिला था। ईश्वर ने वादा किया था कि यदि वो ईश्वर की भक्ति करे तो वे उसकी सन्तानों को दुनिया की सबसे प्रभावशाली कौ़म बना देंगे। तभी से यहूदी मानते आए हैं कि वे अन्य लोगों से श्रेष्ठ हैं। वे दुनिया में जहाँ भी रहते हैं अपनी एक अलग पहचान और तौर-तरीक़े क़ायम रखते आए हैं। इसके अलावा यहूदी लोग बेहद मेहनती और उद्यमी होते हैं तथा हर क्षेत्र में सफलता के शीर्ष तक जाते हैं। मार्क्स, फ़ाएड, स्पीलबर्ग, आइंसटीन, वुडी एलेन, नोअम चॉम्सकी, ज़ुबीन मेहता, लेनार्ड कोहेन; ये सारे प्रतिभाशाली लोग यहूदी परिवारो में जन्मे।
मगर दुनिया भर में यहूदी जहाँ भी रहे हमेशा एक अल्पसंख्यक के बतौर ही रहे और हर जगह लोगों की घृणा और तिरस्कार का पात्र बनते रहे। मुख्य तौर पर योरोप में ईसाईयों के हाथों। पूरे मध्यकाल में इंगलैंड, फ़्रांस, स्पेन, सिसली, पुर्तगाल, ऑस्ट्रिया सभी देशों में यहूदियों को प्रताड़ित किया जाता रहा और हज़ारों की तादाद में निकाला जाता रहा। मुस्लिम देशों में भी यहूदियों के प्रति कोई विशेष प्रेम नहीं रहा पर ईसाईयों जैसे अत्याचार मुसलमानों ने उन पर नहीं किए। सम्भवत: उनके प्रति यह सार्वभौमिक नफ़रत उनके श्रेष्ठ भाव और आर्थिक-भौतिक सफलता से जन्मी ईर्ष्या से भी उपजती होगी। इस नफ़रत का सबसे बड़ी अभिव्यक्ति हिटलर के जर्मनी में हुई जिस के बारे में सभी जानते हैं।
लेकिन उस से बहुत पहले से ही इस तरह बिखरे हुए यहूदी एक ‘अपने’ देश, जिसका वादा ईश्वर अब्राहम से कर चुके थे, में रहने की कल्पना करते आए थे। और उन्नीसवीं सदी के आखिरी सालों में यहूदियों ने ज़ायोनिस्ट आन्दोलन(ज़ायन यहूदियों के पवित्र शहर जेरूसलेम की एक पहाड़ी का नाम है) के तहत अपने उसे वादे वाले देश में लौटने का फ़ैसला किया। और दुनिया भर में बिखरे यहूदी १८९० के बाद से फिलीस्तीन में आ-आ कर बसने लगे।
ज़ायोनिस्ट आन्दोलन ने अर्जेन्टीना के एक हिस्से में भी अपना देश बनाने की बात पर विचार किया। लेकिन फ़ैसला फिलीस्तीन के पक्ष में हुआ क्योंकि जेरूसलेम से पुराना जुड़ाव था और फिलीस्तीन में बसना उन्हे अपेक्षाकृत अधिक आसान लगा क्योंकि अधिकतर इलाक़ा मरुभूमि है और जनसंख्या भी विरल है। हो सकता है कि तीसरा कारण यह भी रहा हो कि ऐतिहासिक रूप से मुसलमानों से उनके रिश्ते कभी वैसे कटु नहीं रहे जैसे कि ईसाईयों के साथ।
यहूदी और मुसलमान
इस्लाम के जन्म से पहले से अरब देशों में यहूदी लोग रहते आए थे। विशेषकर मदीना में उनकी एक बड़ी आबादी का उल्लेख आता है। मुहम्मद को मदीना में शरण देने वालों में यहूदी भी थे। बाद में यहूदी समुदाय और मुहम्मद के समर्थकों के बीच समझौता टूटा और उनके बीच युद्ध की स्थिति भी बनी जिसमें कुछ यहूदी मारे भी गए। बाद में जब खलीफ़ा उमर ने अरब में एक क़ौम के मुहम्मद साहब के क़ौल को लागू किया तो कुछ यहूदी अपना धर्म बदल कर मुसलमान हो गए और शेष को अरब छोड़कर जाना पड़ा। आगे चलकर मुसलमानों ने फिलीस्तीन पर भी राजनैतिक अधिकार कर लिया। और उनके शासन में फिलीस्तीन में यहूदी, ईसाई और मुसलमान अमन-चैन से रहे। अन्दलूसिया (आधुनिक स्पेन) के मुस्लिम शासन काल में यहूदियों को समाज में काफ़ी सम्मानित स्थान प्राप्त थे।
ईसाईयों द्वारा अपने पवित्र धर्म स्थलों को अपने प्रशासन में लेने के लिए बारहवीं से पन्द्रहवीं सदी तक चलाए गए धर्म युद्ध(क्रूसेड्स) के लम्बे दौर में भी उनके बीच कभी झगड़ा हुआ हो ऐसा नहीं पाया जाता। बल्कि क्रूसेड्स के दौरान वे ईसाईयों के हाथों उनका क़त्ले आम हुआ। ईसाईयों से उनका कोई जातीय रिश्ता नहीं रहा मगर अरब मुसलमान तो उनके चचेरे भाई हैं।
बाइबिल के पुराने विधान में कथा है कि अब्राहम के जब लम्बे समय तक कोई सन्तान न हुई तो उसने अपनी पत्नी सारा की अनुमति से उसकी दासी हैगर के साथ संसर्ग किया। सारा को लगा कि बड़ा बेटा होने के नाते उत्तराधिकार इस्माईल का होगा इसलिए उसने षड्यंत्र करके (इस्माईल से) गर्भवती हैगर को मरुभूमि में निष्कासित करवा दिया जहाँ उसने इस्माईल को जन्म दिया। बाद में ईश्वर के चमत्कार से अब्राहम को उसकी वैध पत्नी सारा से भी एक सन्तान हुई- इसाक। आगे चलकर अब्राहम के छोटे बेटे इसाक के वंशज यहूदी के तौर पर जाने गए। और बड़े बेटे इस्माईल की सन्तानें अरब राष्ट्र के रूप में, जो कालान्तर में सब मुसलमान हो गए।
अब्राहम यहूदियों के लिए तो परम पूज्य प्रजापति हैं ही इस्लाम में भी उन्हे पैग़म्बर का दरजा हासिल है।
इन तथ्यों से आप जो भी नतीजे निकालें, मेरे दो निष्कर्ष हैं..
१) ईश्वर ने अब्राहम को किया अपना वादा १००० ई०पू० से ६०० ई०पू० तक निभाया। उसके बाद यहूदियों ने उस राज्य को अपने हाथ से निकल जाने दिया। २५०० साल बाद वो फिलीस्तीन के भू-भाग पर अपने यहूदी राष्ट्र के दावे की वैधता के रूप में बस वही एक ईश्वरीय वादा पेश करते हैं।
२) यहूदी दुनिया भर में नापसन्द किए जाते रहे। मगर मध्यकाल में ईसाई राज्यों ने उन पर जिस तरह के सतत अत्याचार किए हैं, उनके आगे मुसलमान राज्यों द्वारा यहूदियों पर लगाए गए जिज़िया कर जैसे भेदभाव कहीं नहीं ठहरते।
अगली कड़ी में आगे की कहानी..
17 टिप्पणियां:
"मुहम्मद को मदीना में शरण देने वालों में यहूदी भी थे। बाद में जब मुहम्मद साहब ने फ़ैसला लिया कि अरब में सिर्फ़ एक क़ौम होगी तो या तो यहूदी अपना धर्म बदल कर मुसलमान हो गए या अरब छोड़कर चले गए।"
इस बात को हजम करने के लिये 10-15 हाजमोला खाईं, फिर भी हजम नहीं हुई
क्योंकि ऐसा ही लगता रहा की धर्म के नाम पर किसी को अपनी जन्मभूमी, कर्मभूमी छोड़ कर जाने पर मजबूर करना अत्याचार ही है। या नहीं है?
अगर नहीं है तो फिर बाल ठाकरे को कैसे दोष दे कि उन्होंने फैसला लिया है कि मुंबई में सिर्फ मराठी कौम के लोग रहेंगे?
सोच के जरूर बताइयेगा सर जी
अभय जी आप के विगत सात आलेख एक साथ पढ़े हैं। सभी से सहमत हूँ। आप अपने चिट्ठालेखन पर बहुत श्रम करते हैं।
जीवनपुर जी,
आप के सवाल के लिए मेरा जवाब है- है!
और आप की टिप्पणी के बाद मैंने पुनः देखा तो पाया कि एक ऐसे अत्याचार का उल्लेख आता भी है जिसमें कुछ यहूदी मारे गए.. पर मैं ने यह लेख किसी के बचाव में नहीं लिखा है.. कुछ तथ्य बटोर के यहाँ डाल दिए हैं.. आप अपने निष्कर्ष निकालने के लिए स्वतंत्र हैं..
(लेख की सूचना का सम्पादन कर रहा हूँ)
kafi jankari bhara lekah hai aapka par ye to itihas hua abhi to israel musalman deshon ke beech rahkar bhi khad hai aur pragati kar raha hai.
आपके पिछले कुछ लेख ध्यान से पढ़े. आपके लेखन में शक्ति है, सोच में परिपक्वता है लेकिन अंततः निष्कर्ष यही पाया कि आपके विचार उसी कपटी मार्क्सवादी विचारधारा से उपजे हैं जो अपने आप को सही साबित करने के लिए झूठ और फरेब का सहारा लेना ग़लत नहीं समझती. ये तो लेनिनवाद का घोषित सिद्धांत है.
बहुत विस्तार से लिखा है आपने विविध विषयों पर. परन्तु इन लेखों में मार्क्सवादी इतिहासकारों के रचे हुए प्रपंच साफ़ दिखाई देते हैं. दरअसल आप जिस भी मुद्दे पर बात करते हैं मुझे कहीं न कहीं रोमिला थापर, आर एस शर्मा, बिपन चंद्र, के एम् श्रीमाली, डी एन झा, गार्गी चक्रबर्ती, डी डी कोशाम्बी आदि घोषित पार्टी लाइन इतिहासकारों का दर्शन नजर आता है.
आजादी के बाद से ही शिक्षा के सभी बड़े केन्द्रों पर इन वामपंथियों का कब्जा रहा है. एक से अधिक पीढियां इन मक्कारों के बुने शब्द-जाल में आसानी से फंसती रही हैं.
कैसा अजीब लगता है. हिन्दुओं की हिंसावादी प्रवृत्ति पर गहनतन शोध करते करते आप को अचानक इस्लामिक आतंकवादियों की रक्षार्थ उतरना पड़ता है. बंधी बंधी लाइन पर सोचते सोचते कोई कैसे उपहास का पात्र बन सकता है आपके पिछले लेख इसका अच्छा उदाहरण हैं.
आपने इतिहास के महत्वपूर्ण अध्याय से परिचित कराया ..आभार !दरअसल ये सारी लडाई -धर्म युद्ध बहाना है -मूल में तो वही कबीलाई जैवीय लडाई -जर जोरू जमीन की है .
itihaas ko itno rochak pehli baar dekh raha,padhna shuru kiya to ant tak padhana pad gaya.badhai achhe aur gyanwardhak lekh ki
सम्पादित लेख बहुत जंच रहा है सर जी। अब इसमें मुझे कोई असंगत बात नहीं दिख रही।
बदलाव के लिये धन्यवाद।
आपने काफी मेहनत कर जानकारी दी है, साधूवाद.
भाई घोस्ट बस्टर
आप किसे अधिक वरीयता देते हैं? अपने बने बनाए निष्कर्षों को या तथ्यों को? मैंने जो भी बातें कही तथ्य और तर्क के आधार पर कहीं। यदि आप को ग़लत लगती हैं तो आप मुझे तथ्य या तर्क से ग़लत सिद्ध करें.. लेकिन आप तो मेरे ऊपर निर्णय सुना रहे हैं!
आप को ऐसा क्यों लगा कि मैं इस्लामिक आतंकवादियों की रक्षार्थ उतरा? मैंने अपने लेख आतंकवाद का विरोध करते हुए और आम मुसलमानो के बचाव में लिखा था..कहीं आप ये तो नहीं मानते हैं कि हर मुसलमान आतंकवादी होता है? क्योंकि यदि ऐसा है तो इस संवाद का कोई अर्थ नहीं!
जिन इतिहासकारों का नाम आप ने लिया.. मैंने इनमें से कुछ को पढ़ा है. कुछ को नहीं पढ़ा.. वैसे मैं इन पर आँखें मूँद कर भरोसा करता हूँ ऐसा कहना ग़लत है.. फिर भी ये सभी सम्मानित इतिहासकार हैं। आप की इनमें आस्था नहीं, ठीक है। मगर यदि आप इन्हे प्रपंची मानते हैं तो आप किन इतिहासकारों पर विश्चास करते हैं?
सादर
घोस्टबस्टर बाबू से सादर निवेदन है मुझे भी बता दें किन-किन इतिहासकारों को पढ़ा जाये, और वह इतिहास ही हो, पुराण व महाकाव्य नहीं.
भाई घोस्ट बस्टर जी के पोस्ट और टिप्पणियां मैं पढ़ते रहा हूं। उनके विचारों में मेरी पूरी श्रद्धा है। लेकिन मेरा मानना है कि सत्य को देखने व समझने के किसी भी नजरिये को पूरी तरह खारिज कर देना एक तरह का वैचारिक चरमपंथ है। मार्क्सवाद के नाम पर दुनिया भर में बहुत पाखंड हुए हैं, जो अभी भी जारी है, लेकिन इसका मतलब यह नहीं कि पूरी दृष्टि ही गलत है। आखिर अपने देश के किन-किन इतिहासकारों को पढा जाए, यह जानने को मैं भी उत्सुक हूं।
जी हाँ अभय भाई, आप सही हैं. मुझे तथ्यों और तर्कों पर ही अपनी बात रखनी चाहिए. चलिए आगे प्रयास करता हूँ. एक दो दिन में कुछ पोस्ट करूंगा.
भाइयों इन चिठ्ठों पर आकर मेरा ज्ञान लगातार बढ़ रहा है। अभय जी का आभार।
घोस्ट बस्टर (ओझा-सोखा?)जी ने जिन इतिहासकारों का नाम लिया है उनके मार्क्सवादी रुझान के बारे में मैने भी पढ़ा था। लेकिन मध्यमार्गी या दक्षिणपंथी इतिहासवेत्ताओं के बारे में कोई लिंक नही पा सका हूँ। इनके मार्गदर्शन की प्रतीक्षा मुझे भी है।
अभय भाई, बहुत उम्दा पोस्ट. आपने जितनी मेहनत की है वह दुर्लभ है. वामपंथ ने दुनिया को शोषण से मुक्त कराने की दिशा दी. इन बददिमाग लोगों को तो अपने माँ-बाप का स्नेह याद नहीं रहता, फ़िर ये मार्क्सवाद से मिली ' गरीबों को अधिकारों के लिए संघर्ष और काम के घंटे' जैसी बहुमूल्य चीजों का कैसे आदर करेंगे? मैं सिर्फ इतना ही कहूंगा- 'विचार अपनी चाल से चलता है...'
अभी अभी इस लेख को पूरा पढ़ा। अच्छा लगा। यह बड़ी खुशी और सुकून की बात है ब्लागिंग जैसे हड़बड़िया अभिव्यक्ति के माध्यम का उपयोग करते हुये भी आप इत्ते धीरज के साथ अपनी बात रखने का हौसला बनाये हुये हैं। आगे की कड़ियों का इंतजार है।
लेख तो तथ्यपूर्ण है. काश निष्कर्षों के बारे में भी ऐसा कह पाता.
१) ईश्वर ने अब्राहम को किया अपना वादा १००० ई०पू० से ६०० ई०पू० तक निभाया। उसके बाद यहूदियों ने उस राज्य को अपने हाथ से निकल जाने दिया।
इश्वर के क्रियाकलाप की काफी अंदरूनी जानकारी का खुलासा करने का धन्यवाद
२)...ईसाई राज्यों ने उन पर जिस तरह के सतत अत्याचार किए हैं, उनके आगे मुसलमान राज्यों द्वारा यहूदियों पर लगाए गए जिज़िया कर जैसे भेदभाव कहीं नहीं ठहरते।
एक तरफ़ आपने कहा, "जब खलीफ़ा उमर ने अरब में एक क़ौम के मुहम्मद साहब के क़ौल को लागू किया तो कुछ यहूदी अपना धर्म बदल कर मुसलमान हो गए और शेष को अरब छोड़कर जाना पड़ा।" और दूसरी तरफ़ आप कह रहे हैं, "ईसाईयों जैसे अत्याचार मुसलमानों ने उन पर नहीं किए।" अब क्या अत्याचारों में भी समुदायों को सरीकत करनी पड़ेगी कि ईसाइयों ने ज्यादा यहूदी मारे इसलिए हम और मारने को जायज़ ठहराएंगे? सच यह है घृणा और हत्याएं ग़लत हैं किसी ने भी कभी भी किसी भी समुदाय के ख़िलाफ़ की हों. रोमाओं और काफिरों की तरह ही यहूदियों को भी हमेशा प्रताडित किया गया है और अब अपने देश और समुदाय को आतंकवादी हत्यारों से बचाने का उनको भी उतना ही हक है जितना किसी भी अन्य स्वतंत्र देश को है. Live and let live.
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