थैंक्यू लॉर्ड फ़ॉर द फ़ूड वी ईट, थैंक्यू लॉर्ड फ़ॉर द लवली ट्रीट। ये एक प्रेयर है जो एक बुड्ढा खाना खाने के पहले करता है और अपने सामने बैठे दूसरे बुड्ढे को अपनी उच्च शिक्षा और उच्चतर संस्कार से चकित कर देता है। ये शिक्षा और संस्कार उसकी पोती को एक मोबाइल फोन सेवा के मार्फ़त गाँव में बैठे-बैठे ‘मुफ़्त’ (?) प्राप्त हो रहे है।
यह एक विज्ञापन का हिस्सा है और इसी श्रंखला के पहले विज्ञापन में हम देखते हैं कि अभिषेक बच्चन के स्कूल में एक गाँववालेऔर उसकी बेटी को वापस कर दिया जाता है क्योंकि स्कूल की छात्र-क्षमता पूरी हो चुकी है। अभिषेक बाबा, जो शायद एक ‘फ़ादर’ की पोशाक में है, को एक ‘आईडिया’ आता है कि गाँव वालो को फोन के ज़रिये शिक्षा दी जाय! और उसके बाद आप देखते हैं उसका तुरन्त क्रियान्वन:
१) बच्चे एक फोन के आगे बैठ कर ई फ़ोर एलीफ़ैंट बोलना सीख गए हैं..
२) गाँव में आए एक अजनबी को पता बताने के लिए एक बच्चा अंग्रेज़ी में जवाब देता है..
३) और तीसरे में गाँव की एक बच्ची अपने बूढ़े दादा जी को खाना खाने के पहले अंग्रेज़ी में प्रेयर प्रार्थना करने की सभ्यता सिखा देती है..
आजकल ये विज्ञापन हर चैनल पर दिखाई दे रहा है। मुझे इस से कुछ शिकायतें है। पहली तो ये कि यह विज्ञापन शिक्षा को सिर्फ़ अंग्रेज़ी के ज्ञान तक ही सीमित कर देता है। यह एक लोकप्रिय भ्रांति है जो समाज में पहले से मौजूद है और यह विज्ञापन उसी भ्रांति को और प्रगाढ़ करता है। बावजूद इस स्वीकृति के कि आज की तारीख में आप हिन्दी भाषा के सहारे ज्ञानार्जन करने की ज़िद में बहुत पीछे छूट सकते हैं। हिन्दी और अन्य देशज भाषाओं की ये जो सीमाएं हैं वो इन भाषा की कम और उनकी उपेक्षा से उपजी हुई मुश्किलों के चलते ज़्यादा हैं।
दूसरी यह कि यह विज्ञापन मुझे याद दिलाता है कि हम एक तरह के सांस्कृतिक साम्राज्यवाद के शिकार हैं। जो विविधता को मार रहा है, हर स्तर पर। दुनिया भर में प्रार्थना करने के विविध तरीक़े रहे हैं। सरस्वती शिशु मन्दिर में सिखाए जाने वाला भोजन मंत्र और कुछ भी शुरु करने से पहले मुसलमानो द्वारा कहे जाने वाला बिस्मिल्लाह भी उसी प्रार्थना के स्वरूप रहे हैं। दुख की बात ये है कि ये दोनों ही अब एक खास साम्प्रदायिक रंग से सीमित हो गए हैं। बिस्मिल्लाह का हाल तो ये है कि उस की परम्परा के प्रति निष्ठा निभाने वाला पाकिस्तानी क्रिकेटर इन्ज़माम उल हक़ कुछ भी बोलने के पहले यह मंत्र बोलने की वजह से बराबर उपहास का पात्र बनता रहा।
मगर देखिये यहाँ वही बात अंग्रेज़ी में बोल दिये जाने भर से प्रगतिशील और शिक्षित होने का प्रतीक बन जाती है। क्या ये कॉलोनियल मानसिकता नहीं है? राम-राम और सलाम अलैकुम करने वालों को बैकवर्ड मानने वाले इस देश के तमाम सुशिक्षित समुदाय के तमाम लोग अनजाने में विस्मय बोध के रूप में ‘जीसस क्राइस्ट!’ को और क्षोभ की अभिव्यक्ति के तौर पर ‘फ़ॉर क्राइस्ट्स सेक’ को बोलने में ज़रा भी शर्म महसूस नहीं करते, भले ही वो घोषित रूप से नास्तिक हों। क्यों? ये धर्म का मामला नहीं सांस्कृतिक मामला है। मुझे निजी तौर पर जीसस से कोई परेशानी नहीं बल्कि उन पर मेरी बड़ी श्रद्धा है। पर इस औपनिवेषिक मानस पर आपत्ति है जो अंग्रेज़ी भाषा को ही शिक्षा का पर्याय मान चुका है।
क्या पैंट-शर्ट पहन कर अंग्रेज़ी बोलना प्रगतिशीलता की और धोती या पैजामा पहनते रहना पिछड़ेपन की पहचान है? मैं पिछड़ेपन का समर्थक नहीं हूँ और न ही धोती और पगड़ी पहनते रहने का। लेकिन उस के त्याग भर से ही प्रगति के पावन आगमन की कल्पना कर लेने के चिन्तन से ज़रूर असहमत हूँ। मेरा मानना है कि भाषा या पोशाक बदलने भर से कोई प्रगतिशील नहीं होता और पुराने पोशाक पहनते जाने से ही कोई पिछड़ा नहीं बना रहता।
आखिरी बात ये कि इस विज्ञापन के द्वारा हम सब से यह परोक्ष रूप से स्वीकार कराया जा रहा है कि गाँव में किसी भी तरह की नियोजित शिक्षा असम्भव है। और अगर फोन के आगे बीस बच्चों को बैठ के ए बी सी डी कहलवा दिया जाय तो आप रोमांचित हो कर कह उठिये.. “व्हाट एन आइडिया सर जी!”
13 टिप्पणियां:
हमेशा की तरह बेहतरीन पोस्ट, लेकिन खबरदार रहियेगा, कहीं दिल्ली की "महारानी" नाराज़ न हो जायें आपसे, कारण तो आपको मालूम ही है…
आज चौक कर रुक गए कि ऐसी ही घटना कल यहाँ भी हुई कि पड़ोसन अपने बेटे की बुरी संगत का ज़िक्र करते हुए हिन्दी में गाली देने को जहाँ बुरा बता रही थी वहीं अंग्रेज़ी में गाली देने को साधारण बात कह रही थीं.
आज के समय की यही सच्चाई है लेकिन कहीं कहीं जब अपनी भाषा में आदर सत्कार करते हुए बच्चे दिखते हैं तो मन खुशी से भर जाता है.
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सो..सम वन पोस्टिंग इट आफ़्टर आल
“व्हाट एन आइडिया सर जी!”
अभी तो सब अपने अपने
मोबाइल नम्बर से पहचाने जायेंगे,
हू सेज़ वी आर नाट रिच इन बैंकरप्टेड आडियाज़, सर जी ?
बिल्कुल सही आकलन है।
मेरे कुछ अस्फुट विचारों के लिए यहाँ जगह है।
कलकत्ता के फ़ोर्ट विलियम कॉलेज में अग्रेज़ों ने खडी बोली में देशी - विदेशी साहित्य के अनुवाद के लिए दो लोगों को नियुक्त किया। एक थे मीर अम्मन और दूसरे संभवतः लल्लू लाल जी थे। मीर अम्मन का काम था फ़ारसी लिपि में खडी बोली को कलमबंद करना और लल्लू लाल जी का काम था उसी खडी बोली को देवनागरी लिपि में कलम बंद करना....
एक ही भाषा की दो लिपियाँ बनवा कर अँग्रेज़ों ने उसे हिन्दू और मुस्लमानों को भेंट कर दिया... ताकि जब जब ये दोनों समुदाय आपस में लडें तो धर्मनिरपेक्षता के नाम पर अँग्रेज़ी और पश्चमी संस्कृति ही दोनों के मिलने का कारण बने।
हिन्दी और उर्दू दो अलग अलग भाषाएँ कतई नहीं हैं । पर हम बाध्य हैं उसे दो अलग भाषा मानने पर...इसी से सोच सकते हैं कि हम भीतर भी कहीं अलग अलग हैं..... धर्मनिर्पेक्ष होने के बावजूद ।
भाषा, पोशाक, शिक्षा आदि को सांप्रदाय से जोडने के कारण ही इंग्लिश कांवेंट को लाभ मिलता है।
जबकि इतिहास तो यह है कि राजा राममोहन राय ने पटना के शम्सुलहोदा मदरसा में भी शिक्षा ग्रहण की थी ।
मुझे एक बात और याद आ रही है इसी दौरान - फ़िल्म "उपकार" में जब नायिका आशा पारेख एक देहाती किसान को थैंक्यू बोलती हैं तो वह देहाती किसान पलट कर मेंशन नॉट कहता है.... इससे नायिका को उससे प्रेम हो जाता है कि एक देहाती किसान को अँग्रेज़ी आती है मतलब वह पढा लिखा है।
और अंत में - मैंने मनोज कुमार की उस अदा को कई लडकियों पर आज़माया पर कोई फ़ायदा नहीं हुआ। अब समझ में आता है कि हमारी वे लडकियाँ फ़िल्मी नायिकाओं से ज़्यादा समझदार थी।
गधापन इसी को कहते हैं। स्थिति बहुत गंभीर तब भी नहीं है। हिन्दी वालों का भदेस, खुरदुरापन कई लोगों को भाता भी है :)
आधुनिकता में गदहप्पन का प्रर्दशन है यह विज्ञापन
एक बात और भूल गए...देश को केवल मिशनरी ही शिक्षीत कर रही है/कर सकती है. जय हो अभीषेक फादर की.
कहते है, विचार आते ही लिख दो वरना कोई और आपसे पहले लिख सकता है :) सही कहा है :)
जिस तरह से आपने तर्क रखे है ....काफ़ी हद तक ठीक है....कुछ लोग इस बात पर भी आपति उठा रहे है की किसी father को क्यों दखा रहे है ?दूसरे किसी को क्यों नही ?लेकिन एक बात तो है...इन सब के बावजूद कही न कही उन लोगो के दिमाग में भी उस गाँव का भी ख्याल आ जाता है ....जिन्होंने कभी इस के बारे में सोचा भी नही..... बेफालतू के सडे गले बाकि विज्ञापनों से थोड़ा बेहतर है...हाँ आपकी अंग्रेजी ज्ञान वाली बात से सौ फीसदी सहमत हूँ....
बहुत बढ़िया लिखा है आपने..
आप अगर अविनास दास जी(मोहल्ला वाले) के पिताजी से कभी मिले होंगे तो आपने पाया होगा की वो बिलकुल देहाती जैसी वेशभूषा में रहते हैं मगर उनकी अंग्रेजी अच्छे अच्छों के कान काट सकती है.. :)
आज इस विज्ञापन को देखा। तब इस लेख को दुबारा पढ़ा। ये दोनों बातें:
१.विज्ञापन शिक्षा को सिर्फ़ अंग्रेज़ी के ज्ञान तक ही सीमित कर देता है।
२.हम एक तरह के सांस्कृतिक साम्राज्यवाद के शिकार हैं। जो विविधता को मार रहा है, हर स्तर पर।
सही लगती हैं। अच्छा लेख लिखा। बधाई।
hum sab yeh jante huye bhi wahi karte hai jo aapne bataya hai...wastav me hum sab wiwashata ke shikar hai
hum sab yeh jante huye bhi wahi karte hai jo aapne bataya hai...wastav me hum sab wiwashata ke shikar hai
Bhaiye! aakhir angrezi ka itna virodh kyun? Mein nahi kehta ki hindi yaa urdu angezee se kisi bhi muamle mein kam hai. Lekin abhi kuchh dinon se (I am a new blog reader) har hindi-bhasi blogger angrezee ke pichhe luthth ke pil padaa hai. Aur agar uss AD ki baat karen (I havent seen it, but got an overall idea the way you have described it), woh kis section ko target kar rahaa hai? aapko aisa lgtaa hai ki a non-english-speaking section uss AD se influence hoga? agar huaa to AD banaane waale ki mehnat rang laayee.
Angrezi ki aihmiyat kisi bhi haalat mein kam nahi ho sakti. Aur bhaiye, AD to bante hin hain logon kaa dhyaan aakarshit karne ko, agar overall AD interesting bantaa hai English ke prayer se to AD banaane waale jarur banaayege. Agar gramin warg english ke do-char shabd bolne ki koshish karta hai to mera maan-naa hai ki yeh ek pragtisheeltaa ki nishaani hai. Arre bhai, hindi aapki-meri maatri-bhasa hai, uska prayog karke aap "i have learned something new" nahi dikhaa sakte.
Ek baat aur, agar yeh AD french words ko use karke banaa hotaa to aapki pratikriyaa kyaa hoti?
Hum kisi videshi ko hindi bolte dekh kar unki taarif karte nahi thak-te, fir agar hum unki bhaasa bolen to hamaara appreciation kyun naa ho?
Rahi baat "Colonial mentality" ki uske liye hum sab zimmedaar hai, ek hudd tak aap bhi aur mein bhi, isiliye hum sab, pseudo-intellectual (people like me) aur intellectual (aap jaise log) ki koshish yeh honi chaahiye ki angrezee ke importance ko kam kiye bagair hindi ki jarurat aur iske importance ko samjhe. Aakhir Hindi itni sasakt bhasha hai ki iska importance hum bina English “bashing” ke bagair bhi kar sakte hai.
Kuchh galat yaa jyaadaa bol gayaa to “kahaa-sunaa maaf” aur ek baar fir se "dostanaa takaza"(friendly reminder), mujhe Sarpat dekhni hai, kaise hoga?
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