गुरुवार, 28 जून 2007
अछूत कौन थे -७
अध्याय १३ : ब्राह्मण शाकाहारी क्यों बने?
एक समय था जब ब्राह्मण सब से अधिक गोमांसाहारी थे। कर्मकाण्ड के उस युग में शायद ही कोई दिन ऐसा होता हो जब किसी यज्ञ के निमित्त गो वध न होता हो, और जिसमें कोई अब्राह्मण किसी ब्राह्मण को न बुलाता हो। ब्राह्मण के लिए हर दिन गोमांसाहार का दिन था। अपनी गोमांसा लालसा को छिपाने के लिए उसे गूढ़ बनाने का प्रयतन किया जाता था। इस रहस्यमय ठाठ बाट की कुछ जानकारी ऐतरेय ब्राह्मण में देखी जा सकती है। इस प्रकार के यज्ञ में भाग लेने वाले पुरोहितों की संख्या कुल सत्रह होती, और वे स्वाभाविक तौर पर मृत पशु की पूरी की पूरी लाश अपने लिए ही ले लेना चाहते। तो यजमान के घर के सभी सदस्यों से अपेक्षित होता कि वे यज्ञ की एक विधि के अन्तर्गत पशु के मांस पर से अपना अधिकार छोड़ दें।
ऐतरेय ब्राह्मण में जो कुछ कहा गया है उस से दो बातें असंदिग्ध तौर पर स्पष्ट होती हैं। एक तो यह कि बलि के पशु के सारा मांस ब्राह्मण ही ले लेते थे। और दूसरी यह कि पशुओं का वध करने के लिये ब्राह्मण स्वयं कसाई का काम करते थे।
तब फिर इस प्रकार के कसाई, गोमांसाहारियों ने पैंतरा क्यों बदला?
पहले बताया जा चुका है कि अशोक ने कभी गोहत्या के खिलाफ़ कोई का़नून नहीं बनाया। और यदि बनाया भी होता तो ब्राह्मण समुदाय एक बौद्ध सम्राट के का़नून को क्यों मानते? तो क्या मनु ने गोहत्या का निषेध किया था? तो क्या मनु ने कोई का़नून बनाया? मनुस्मृति के अध्याय ५ में खान पान के विषय में श्लोक मिलते हैं;
"बिना जीव को कष्ट पहुँचाये मांस प्राप्त नहीं किया जा सकता और प्राणियों के वध करने से स्वर्ग नहीं मिलता तो मनुष्य को चाहिये कि मांसाहार छोड़ दे।" (५.४८)
तो क्या इसी को मांसाहार के विरुद्ध निषेधाज्ञा माना जाय? मुझे ऐसा मानने में परेशानी है और मैं समझता हूँ कि ये श्लोक ब्राह्मणों के शाकाहारी बन जाने के बाद में जोड़े गये अंश हैं। क्योंकि मनुस्मृति के उसी अध्याय ५ के इस श्लोक के पहले करीब बीस पच्चीस श्लोक में विवरण है कि मांसाहार कैसे किया जाय, उदाहरण स्वरूप;
प्रजापति ने इस जगत को इस प्राण के अन्न रूप में बनाया है, सभी चराचर (जड़ व जीव) इस प्राण का भोजन हैं। (५.२८)
मांस खाने, मद्यपान तथा मैथुन में कोई दोष नहीं। यह प्राणियों का स्वभाव है पर उस से परहेज़ में महाफल है।(५.५६)
ब्राह्मणों द्वारा मंत्रो से पवित्र किया हुआ मांस खाना चाहिये और प्राणों का संकत होने पर अवश्य खाना चाहिये। (५.२७)
ब्रह्मा ने पशुओं को यज्ञो में बलि के लिये रचा है इसलिये यज्ञो में पशु वध को वध नहीं कहा जाता। (५.३९)
एक बार तय हो जाने पर जो मनुष्य (श्राद्ध आदि अवसर पर) मांसाहार नहीं करता वह इक्कीस जन्मो तक पशु योनि में जाता है। (५.३५)
स्पष्ट है कि मनु न मांसाहार का निषेध नहीं किया और गोहत्या का भी कहीं निषेध नहीं किया।
मनु के विधान में पाप कर्म दो प्रकार के हैं;
१) महापातक: ब्रह्म हत्या, मद्यपान, चोरी, गुरुपत्नीगमन ये चार अपराध महापातक हैं।
और २) उपपातक: परस्त्रीगमन, स्वयं को बेचना, गुरु, माँ, बाप की उपेक्षा, पवित्र अग्नि का त्याग, पुत्र के पोषण से इंकार, दूषित मनुष्य से यज्ञ कराना और गोवध।
स्पष्ट है कि मनु की दृष्टि में गोवध मामूली अपराध था। और तभी निन्दनीय था जब गोवध बिना उचित और पर्याप्त कारण के हो। याज्ञवल्क्य ने भी ऐसा ही कहा है।
तो फिर आज के जैसी स्थिति कैसे पैदा हुई? कुछ लोग कहेंगे कि ये गो पूजा उसी अद्वैत दर्शन का परिणाम है जिसकी शिक्षा है कि समस्त विश्व में ब्रह्म व्याप्त है। मगर यह संतोषजनक नहीं है जो वेदांतसूत्र ब्रह्म के एकत्व की बात करते हैं वे यज्ञ के लिये पशु हत्या को वर्जित नहीं करते (२.१.२८)। और अगर ऐसा है भी तो यह आचरण सिर्फ़ गो तक सीमित क्यों सभी पशुओं पर क्यों नहीं लागू होता?
मेरे विचार से ये ब्राह्मणों के चातुर्य का एक अंग है कि वे गोमांसाहारी न रहकर गो पूजक बन गए। इस रहस्य का मूल बौद्ध-ब्राह्मण संघर्ष में छिपा है। उन के बीच तू डाल डाल मैं पात पात की होड़ भारतीय इतिहास की निर्णायक घटना है। दुर्भाग्य से इतिहासकारों ने इसे ज़्यादा महत्व नहीं दिया है। वे आम तौर पर इस तथ्य से अपरिचित होते हैं कि लगभग ४०० साल तक बौद्ध और ब्राह्मण एक दूसरे से बाजी मार ले जाने के लिए संघर्ष करते रहे।
एक समय था जब अधिकांश भारतवासी बौद्ध थे। और बौद्ध धर्म ने ब्राह्मणवाद पर ऐसे आक्रमण किए जो पहले किसी ने नहीं किए। बौद्ध धर्म के विस्तार के कारण ब्राह्मणों का प्रभुत्व न दरबार में रहा न जनता में। वे इस पराजय से पीड़ित थे और अपनी प्रतिष्ठा पुनः प्राप्त करने के प्रयत्नशील थे।
इसका एक ही उपाय था कि वे बौद्धों के जीवनदर्शन को अपनायें और उनसे भी चार कदम आगे बढ़ जायें। बुद्ध के परिनिर्वाण के बाद बौद्धों ने बुद्ध की मूर्तियां और स्तूप बनाने शुरु किये। ब्राह्मणों ने उनका अनुकरण किया। उन्होने शिव, विष्णु, राम, कृष्ण आदि की मूर्तियां स्थापित करके उनके मंदिर बनाए। मकसद इतना ही था कि बुद्ध मूर्ति पूजा से प्रभावित जनता को अपनी ओर आकर्षित करें। जिन मंदिरों और मूर्तियों का हिन्दू धर्म में कोई स्थान न था उनके लिए स्थान बना।
गोवध के बारे में बौद्धों की आपत्ति का जनता पर प्रभाव पड़ने के दो कारण थे कि एक तो वे लोग कृषि प्रधान थे और दूसरे गो बहुत उपयोगी थे। और उसी वजह से ब्राह्मण गोघातक समझे जाकर घृणा के पात्र बन गए थे।
गोमांसाहार छोड़ कर ब्राह्मणों का उद्देश्य बौद्ध भिक्षुओं से उनकी श्रेष्ठता छीन लेना ही था। और बिना शाकाहारे बने वह पुनः उस स्थान को प्राप्त नहीं पर सकता था जो बौद्धों के आने के बाद उसके पैर के नीचे से खिसक गया था। इसीलिए ब्राह्मण बौद्ध भिक्षुओं से भी एक कदम आगे जा कर शाकाहारी बन गए। यह एक कुटिल चाल थी क्योंकि बौद्ध शाकाहारी नहीं थे। हो सकता है कि ये जानकर कुछ लोग आश्चर्य करें पर यह सच है। बौद्ध त्रिकोटी परिशुद्ध मांस खा सकते थे।यानी ऐसे पशु को जिसे उनके लिए मारा गया ऐसा देखा न हो, सुना न हो और न ही कोई अन्य संदेह हो। इसके अलावा वे दो अन्य प्रकार का मांस और खा सकते थे- ऐसे पशु का जिसकी स्वाभाविक मृत्यु हुई हो या जिसे किसी अन्य वन्य पशु पक्षी ने मार दिया हो।
तो इस प्रकार के शुद्ध किए हुए मांस खाने वाले बौद्धों से मुकाबले के लिए मांसाहारी ब्राह्मणों को मांस छोड़ने की क्या आवश्यक्ता थी। थी, क्योंकि वे जनता की दृष्टि में बौद्धों के साथ एक समान तल पर खड़े नहीं होना चाहते थे। यह अति को प्रचण्ड से पराजित करने की नीति है। यह वह युद्ध नीति है जिसका उपयोग वामपंथियों को हटाने के लिए सभी दक्षिणपंथी करते हैं।
एक और प्रमाण है कि उन्होने ऐसा बौद्धों को परास्त करने के लिए ही किया। यह वह स्थिति बनी जब गोवध महापातक बन गया। भण्डारकर जी लिखते हैं कि, "हमारे पास एक ताम्र पत्र है जो कि गुप्त राजवंश के स्कंदगुप्त के राज्यकाल का है। यह एक दान पात्र है जिसके अंतिम श्लोक में लिखा है : जो भी इस प्रदत्तदान में हस्तक्षेप करेगा वह गो हत्या, गुरुहत्या, या ब्राह्मण हत्या जैसे पाप का भागी होगा।" हमने ऊपर देखा है कि मनु ने गोवध को उपपातक माना है। मगर स्कन्द गुप्त के काल (४१२ ईसवी) तक आते आते महापातक बन गया।
हमारा विश्लेषण है कि बौद्ध भिक्षुओ पर अपनी श्रेष्ठता सिद्ध करने के लिए ब्राह्मणों के लिए यह अनिवार्य हो गया था कि वे वैदिक धर्म के एक अंश से अपना पीछा छुड़ा लें। यह एक साधन था जिसे ब्राह्मणों ने अपनी खोई हुई प्रतिष्ठा को पाने के लिए उपयोग किया।
अध्याय १४: गोमांस भक्षण से छितरे व्यक्ति अछूत कैसे बने?
जब ब्राह्मणों तथा अब्राह्मणों ने गोमांस त्याग दिया तो एक नई स्थिति पैदा हो गई। जिसमें सिर्फ़ छितरे लोग ही गोमांस भक्षण कर रहे थे। यदि गोमांसाहार मात्र व्यक्तिगत अरुचि अरुचि का प्रश्न होता तो गोमांस खाने और न खाने वालों के बीच कोई दीवार न खडी होती मगर मांसाहार एक लौकिक बात न रहकर धर्म का प्रश्न बन गया था।
ब्राह्मणों ने जीवित और मृत गो में भेद करने की किसी प्रकार की आवश्यक्ता नहीं समझी। गो पवित्र थी चाहे मृत या जीवित। यदि कोई गो को पवित्र न माने और तो वह पाप का भागी होगा। तो छितरे लोग जिन्होने गोमांसाहार जारी रखा, पाप के भागी हुए और अछूत बन गए।
इस मत पर कुछ आपत्तियां हो सकती हैं। पहली तो यह कि इस बात का क्या प्रमाण है कि छितरे लोग गोमांस खाते थे?
इसका जवाब यह है कि जिस समय बसे हुए लोग और छितरे लोग दोनों गोमांसाहारी थे तो तो एक परिपाटी चल निकली जिसके तहत बसे हुए लोग गो का ताज़ा मांस खाते और छितरे लोग मृत गाय का। मरी हुई गो पर छितरे हुए लोगों का अधिकार होता था। महाराष्ट्र के महारों से सम्बन्धित इस साक्ष्य की चर्चा पहले भी की जा चुकी है। महाराष्ट्र के गाँवों में हिन्दू लोगों को एक समझौते के तहत अपने मृत पशुओं महारों को सौंपना पड़ता है। कहते हैं कि बीदर के मुस्लिम राजा ने ऐसे ५२ अधिकार उन्हे दे दिये। ऐसी कोई और वजह नहीं लगती कि बीदर के राजा अचानक ये अधिकार महारों को दे दे सिवाय इसके कि ये अधिकार उनके पास पहले से चले आ रहे थे जिन्हे उन्हे दुबारा पक्का कर दिया गया।
बसे हुए लोग धनी थे। उनकी जीविका के लिए खेती और पशुपालन थे। मगर छितरे हुए लोग निर्धन थे और उनकी जीविका के साधन भी न थे। इस तरह का प्रबन्ध स्वाभाविक लगता है जिसमें छितरे हुए लोगों ने बसे हुए लोगों की पहरेदारी के बदले मृत जानवरों पर अधिकार की मज़दूरी स्वीकार की। और ऐसा सम्पूर्ण भारत में हुआ होगा।
दूसरी आपत्ति यह कि जब ब्राह्मणों और अब्राह्मणों ने गोमांस छोड़ा तो छितरे लोगों ने भी क्यों न छोड़ दिया?
यह सवाल प्रासंगिक है मगर गुप्त काल में गोवध के खिलाफ़ जो कानून आया वह छितरे लोगों पर इस लिए लागू नहीं हो सकता था क्योंकि वे मृत गो का मांस खाते थे। और उनका आचरण गोवध निषेध के विरुद्ध नहीं पड़ता था। और अहिंसा के विरुद्ध भी नहीं। तो छितरे लोगों का यह व्यवहार न नियम के विरुद्ध हुआ न सिद्धान्त के।
और तीसरी, यह कि इन छितरे लोगों ने ब्राह्मणों का अनुकरण क्यों न किया? उन्हे गोमांस खाने से रोका भी तो जा सकता था, अगर ऐसा हुआ होता तो अस्पृश्यता का जन्म ही न होता?
इस प्रश्न के जवाब के दो पहलू हैं। पहला तो यह कि नकल करना उनके लिए अत्यन्त मँहगा सौदा था। मृत गो का मांस उनका जीवनाधार था। इसके बिना वे भूखे मर जाते। दूसरा यह कि मृत गायों का ढोना जो पहले एक अधिकार था बाद में एक कर्तव्य में बदल गया(सुधार आन्दोलन के बाद महार मृत गो उठाने से मना करते हैं पर हिन्दू उन्हे मजबूर करते हैं)। तो जब मृत गो को उठाने से कोई मुक्ति नहीं थी इसलिये उस मृत पशु के जानवर को खाने के लिए इस्तेमाल करने से उन्हे ऐतराज़ न था जैसा वे पहले करते ही थे।
तो इन आपत्तियों से हमारे सिद्धान्त पर कोई आँच नहीं आती।
जारी.. अगली दफ़े आखिरी कड़ी
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7 टिप्पणियां:
क्या यह सब सच है...पहली बार पढा...
शानू
तो क्या हिन्दू धर्म में मूर्ति पूजा नहीं है?
बौध्दों के बढ़ते असर के कारण मूर्ति पूजा शुरु हुई ?
इसका मतलब है कि आर्य समाजी दयानंद सरस्वती और ब्रह्म समाजी राजा राम मोहन राय का आंदोलन सही ... उन्हों ने भी तो मूर्ति पूजा का विरोध किया हुआ है.
चाहे ये सब अनुमान की श्रेणी में ही क्यों न आएँ पर इस सबने कम से कम हमें इस महत्वपूर्ण विषय को सोचने और समझने का अवसर तो
दिया । धन्यवाद ।
घुघूती बासूती
निहायत दिलचस्प पर्यवेक्षण..
isme ek turti hai kya apke pass sanskrit me yeh sab hai agar hai to uplabhad karwane
meri id pmehar78@gmail,com par dene ki kirpa karen
inke sanskrit sholoko ko b likhe
me apka abhari rahunga
apki is post ke karan kuch musilmo se badi behas ho rahi hai
unhone isko yahan se copy pest kar ke apne page me daal rakha hai
isliye bhi yahan un sanskrit ke sholoko ki manag kar raha hun
संबंधित श्लोकों को देखने के लिए इस साइट का सहारा लें..
http://www.hindubooks.org/scriptures/manusmriti/ch5/ch5_41_50.htm
कुछ गड़बड़ नहीं है.. अगर शंका हो तो एक मनु स्मृति खरीद लें.. आजकल तो स्टेशन पर भी मिलती है..
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