शुक्रवार, 24 जनवरी 2014

बदलाव का संकट

दिल्ली में वैकल्पिक व्यवस्था चाहने वाले एक दल के नेता और कार्यकर्ता विकल्प की लड़ाई से बहककर नस्लविरोधी और स्त्रीविरोधी व्यवहार में पतित हो जाते हैं। बीरभूम में एक पंचायत बारह लोगों को एक स्त्री के साथ सामूहिक बलात्कार का आदेश देती है। 

क्या कारण है कि बड़ी-बड़ी बातें करने वाले दल अपने दल के नेताओं और कार्यकर्ताओं में संवैधानिक मूल्यों के प्रति कोई आस्था न पैदा कर सके? शीर्ष संवैधानिक पद पर बैठे राष्ट्रपति के अपने ज़िले में ऐसी जघन्यता पलती रही? 

क्या इसका कारण यह है कि हमारे लोग संविधान का सम्मान तो करते हैं पर इसमें निहित मूल्य और आदर्श, उनके अपने मूल्य और आदर्श नहीं हैं? क्या यह सच नहीं है कि बहुसंख्यक समाज आज भी स्त्री को हीन समझता है? क्या न्याय और दण्ड की जैसी व्यवस्था हमारे संविधान ने की है, सामाजिक कल्पना में भी वैसी ही न्याय और दण्ड की व्यवस्था है?

मेरा विचार है कि हमारा संविधान तो एकता, समानता और न्याय के प्रगतिशील मूल्यों पर आधारित है जबकि भारतीय समाज में कई स्तरों पर पिछड़ापन और पतनशीलता नज़र आती है।

मगर ये हुआ कैसे? यदि हमारा संविधान हमारे ही समाज का प्रतिनिधित्व नहीं करता तो किस समाज का करता है? तो क्या सच ये है कि हमारा समाज उन प्रगतिशील मूल्यों को ढो रहा है जिन पर दिल से उसकी आस्था नहीं है?

अगर सचमुच ऐसा है तो ये एक बड़े संकट की और इशारा है- जिसमें संवैधानिक व्यवस्था में क़ानून बनाकर बदलाव तो कर दिए गए मगर सामाजिक बदलाव का पक्ष पूरी तरह उपेक्षित रहा!

तब फिर क़ानून बनाकर, लोगों को अपराधी घोषित करके, उन्हे दण्डित करके क्या हासिल होगा? आधा देश स्त्रीविरोधी, जातिवादी, साम्प्रदायिक, और न जाने किस-किस अपराध का भागीदार हो सकता है।

क्या दण्ड का डर ही बदलाव की बुनियादी शर्त है? असली बदलाव कैसे होता है? भीतर से या बाहर से? मेरी समझ में बाहर से केवल हिंसा हो सकती है, विकासमान परिवर्तन केवल भीतर से ही मुमकिन है।


***

4 टिप्‍पणियां:

प्रवीण पाण्डेय ने कहा…

राजनीति स्थितियों के आनुपातिक चित्रण में वक्रता लाने का खेल हो चली है, तभी हमारा विश्वास जा रहा है। यह वक्रता उजागर करनी होगी, यह कुटिलता सबको समझनी होगी।

सोनू ने कहा…

मुझे डर लगता है कि बीरभूम के अंदर की उस पंचायत के उस ग़लत काम के बहाने, पूरे देश में पंचायतों के पर काटे जाने के लिए शोर मचेगा।

अनूप शुक्ल ने कहा…

क्या दण्ड का डर ही बदलाव की बुनियादी शर्त है?

Ashok Pandey ने कहा…

भारतीय दंड विधान की धारा 510 कहती है : Whoever, in a state of intoxication, appears in any public place, or in any place which it is a trespass in him to enter, and there conducts himself in such a manner as to cause annoyance to any person, shall be punished with simple imprisonment for a term which may extend to twenty-four hours, or with fine which may extend to ten rupees, or with both. मतलब 12 रुपए की देसी शराब पीकर कोई बदमाश सरेआम किसी की लाख टके की इज्जत उतारने के बाद अधिक से अधिक 10 रुपए की फाइन भरकर आराम से चलता बनेगा।

यही है हमारे संविधान की न्याय और दंड की व्यवस्था। इस व्यवस्था के तहत बेहतर और प्रगतिशील समाज की उम्मीद पालकर हम खुद और दूसरों को भ्रम में रख रहे हैं।

मुझे कानून की बहुत समझ नहीं है। लेकिन अपनी छोटी समझ के मुताबिक मुझे अपने देश में यदि सबसे अधिक पुरातनपंथ कहीं नजर आता है तो वह न्याय व्यवस्था में। शायद धर्म से भी अधिक। आजादी के बाद देश के भाग्य विधाताओं ने सपना देखा—दिखाया समाजवादी ढांचे के समाज का, लेकिन शासन व न्याय की व्यवस्था उपनिवेशवादी ढांचे के बाहर नहीं निकल सकी। उपनिवेशवादी न्याय व्यवस्था में उपनिवेशवाद की जरूरतों के मुताबिक आदमी की डिग्निटी से ज्यादा प्रापर्टी की हिफाजत पर जोर दिया गया था। आज भी हम उसी लकीर के फकीर बने हुए हैं। 2014 में भी 1860 के Indian Penal Code के तहत ही न्याय मिलता है।

मन कर रहा है जोर से हंसूं। दिल कह रहा है जोर से रोऊं। खुद पर? आप पर? समाज पर? देश पर? ....पता नहीं।

Related Posts Plugin for WordPress, Blogger...