सुबह जब शांति पौधों को पानी देने के लिए बालकनी पर गई तो सूरज उग रहा था। पानी देते हुए उसने सूरज की तरफ़ एक अनुरागी दृष्टि डाली। सूरज सफ़ेद हो रहा था। ये नज़्ज़ारा शांति को बड़ा अजीब मालूम दिया। सूरज सफ़ेद ही होता है.. पर उगते हुए और डूबते हुए सूरज में लाली देखने की आदत पड़ी हुई है हमको। वैज्ञानिक बताते हैं यह एक दृष्टि भ्रम है जो प्रकाश के परावर्तन के चलते होता है। शांति ने सर उठा कर शेष आकाश की ओर देखा। पूरा आसमान एक अजब सलेटी रंग में पुता पड़ा था। आस-पास के पेड़ उगते सूरज की रौशनी में अच्छे चटख रंगो में खिले होने के बजाय एक धूसर उदासी से लिपटे खड़े थे। धूसर रंग उस धूल में था जो पेड़ और शांति की आँख के बीच ही नहीं, सारे आलम में तैर रही थी। अभी वसन्त में ही आए नए पत्तों और ताज़े खिले फूल के चटख रंगों के खुल कर पसरने की राह उसी धूल ने अवरुद्ध की हुई थी। वही धूल उगते सूरज की लाली को भी लील गई थी, ऐसे कि सूरज नारंगी-लाल न होकर किसी अख़बारी काग़ज़ की तरफ़ निस्तेज और सफ़ेद नज़र आ रहा था। कभी-कभी ऐसा भी होता है, यह सोचकर शांति अपने में वापस लौट गई। बाहर धूल मचलती रही।
तक़रीबन ढाई घंटे बाद जब शांति तैयार होकर दफ़्तर जाने के लिए निकली तो सूरज सर पर चढ़ आया था मगर धूप बहुत ही ख़स्ताहाल थी। धरती पर शांति की बौनी छाया थी ज़रूर पर बेहद क्षीण और महत्वहीन। शांति ने सर उठाकर ऊपर देखा। आकाश में कोई बादल न था पर सब तरफ़ बदली छाई हुई थी। जहाँ तक नज़र जाती थी धूल के नन्हे-नन्हे कण हवा में अठखेलियां करते नज़र आ रहे थे। पहले कभी नहीं देखी इस तरह की धूल? पहले जब कच्ची सड़कें होती थीं तो गर्मी के प्रचण्ड प्रहार से धरती चटकने लगती थी और उसकी सतह के छोटे-छोटे टुकड़े हवा के साथ पूरे वातावरण में उड़ने लगते थे। पर उस धूल की अपनी कोई गति नहीं थी वो हवा के कंधों पर सवार होकर यहाँ-वहाँ भटकती फिरती थी। पर उस दिन न तो प्रचण्ड गर्मी थी तो न ही हवा हुंकारे भर रही थी। ये वो धूल नहीं थी.. तो फिर ये कौन सी धूल थी? कहाँ से आई थी यह धूल? शहर में न तो कच्ची सड़कें थीं, न नंगी पड़ी हुई ऊसर ज़मीन और न ही घास या बेघास के चटियल मैदान.. जिनसे छूटकर धूल इधर-उधर आवारा फिरती।
शहर में भी धूल होती है। पर वो बिलकुल अलग क़िस्म की धूल है.. लम्बी-ऊंची इमारतों की तामीर में लगने वाली सीमेंट-मौरम के ज़र्रों की धूल। पर वो इस क़दर सरकश और आवारा नहीं होती। वो तो बहुत ही चुपचाप और रहस्यमय तरीक़े से रोज़ बरोज़ आसपास के घरों में जा टिकती है और हर सुबह घरों से बाहर बुहार फेंकी जाती है। जो कचरे के डब्बों से होते हुए शहर के बाहर बने कूड़े के टीलों में अपना अन्तिम स्थान पाती है। जहाँ उसके साथी होते हैं प्लास्टिक की थैलियां, पन्नियां, कपड़ों के टैग, कच्ची-पक्की और सड़ी-गली सब्ज़ियां, टूटे हुए कांच के टुकड़े, ठुकराए हुए खिलौने, चिंदी करके फेंके हुए काग़ज़, कीलें, पतरे, लोहा-लंगड़ और कई तरह की धातुओं के टुकड़े। उसके ये सारे साथी उस धूल को इस क़दर जकड़ कर रखते हैं कि धूल वहाँ से कहीं जाने नहीं पाती। वहाँ से अगर कुछ उठता है तो उन सब की समवेत गंध, जिसका सामना करने की ताब किसी सामान्य मनुष्य में नहीं होती। फिर भी कुछ दिलेर नाक पर पट्टी बांधे, और कुछ तो बिना किसी पट्टी के भी उन ठुकराई हुई बेकार चीज़ों के ढेरों में अपने काम की चीज़ें खोजा करते हैं।
फिर कौन सी धूल थी ये? इसी सोच को लिए-लिए शांति दफ़्तर पहुँची। जब उसने हेलमेट उतार कर हाथ में लिया तो देखा कि उस पर धूल की पतली सी परत आरामफ़र्मा है। शांति ने हौले से अपनी उंगली को हेलमेट पर फिराया तो उसकी इस हरकत के निशान को अंकित होते हुए देखा और फिर हेलमेट को स्कूटर पर ही टांगकर दफ़्तर में दाख़िल हो गई। दफ़्तर में एसी चल रहा था और सामान्य सरगर्मी थी। लोग दुनिया जहान की जो बातें कर रहे थे उनमें धूल भी एक चर्चा का मुद्दा थी। लेकिन जब दफ़्तर बंद हुआ तो हालात संगीन हो चले थे।
शाम होते-होते तक धूल ने आदमी की बनाई दुनिया की ऊँचाई से दूर ऊपर कहीं तैरना छोड़कर वापस धरती की ओर धावा बोल दिया। हवाएं उसका साथ दे रही थीं। एक-दूसरे से सटकर चलने वाली मछलियों और पंछियों के समूह की तरह धूल बड़े वेग से दिशाओं को झकझोरने लगीं। चलना तो दूर उस आँधी में खड़े रहना भी मुश्किल था, आँखें बंद हुई जाती थीं। सवारियों के लिए सड़कों पर चलना असम्भव हो गया। पहले रेंगने की गति पर आया ट्रैफ़िक एक पल में आकर एकदम ठप पड़ गया। पूरे शहर में समय जैसे ठहर गया। पर हवाओं पर सवार धूल अंधड़ बनकर चलती रही।
एक बहुत लम्बे अंतराल के बाद शांति घर पहुँची। जैसे-जैसे शांति घर के भीतर क़दम रखती गई फ़र्श पर जमी धूल की परत पर अपने जूतों के निशान छोड़ती गई। सारा घर धूल से अटा पड़ा था। अजय, पाखी, अचरज डाइनिंग टेबल पर सन्न से बैठे थे। फोन सेवाएं ठप पड़ चुकी थी और पिछले कई घंटो से उनका शांति से सम्पर्क टूटा हुआ था। सासू माँ भी वहीं बैठी थीं- केबल भी बंद था। उस समय सफ़ाई करने का माद्दा नहीं था शांति में। वो सिर्फ़ नहाना चाहती थी। पर न जाने क्यों पानी नहीं आ रहा था। धूल से काली हो गई शांति का बदन एक उतनी ही किरकिरी चिड़चिड़ाहट से दरकने लगा। किसी तरह उसने अपने पर क़ाबू पाया और रखे हुए आधी बाल्टी पानी से अपने हाथ-पैर धो लिए। भूख मर चुकी थी पर पाखी और अजय के कहने पर उसने थोड़ा सा खाना अपनी प्लेट पर डाल लिया। निवाला मुँह में डालते ही उसे खाने का नहीं धूल का स्वाद आया। शांति ने वैसे ही प्लेट रख दी। और नहीं खाया फिर भी ज़बान पर धूल का स्वाद बैठा ही रहा।
बाहर अंधड़ जारी था। घर में धूल बढ़ती ही जा रही थी। मेज़, कुर्सी, परदे, सब कुछ धूल से सन चुका था। शांति इतना थक चुकी थी कि बस बिस्तर पर गिर कर सो जाना चाहती थी पर बिस्तर, धूल के बिस्तर में बदल गया था। उस पर सोना नामुमकिन था। शांति ने चादर बदलने के लिए अलमारी खोली। तभी लाइट चली गई। अलमारी के भीतर शांति का हाथ जहाँ भी पड़ा वहाँ धूल मौजूद थी। किसी तरह शांति ने एक चादर बिस्तर पर डाल दी। और दूसरी दरवाज़े की झिरी पर तोप दी। उसके बाद भी धूल अदेखे-अनजाने छेदों से निकल-निकल कर शांति पर और कमरे की हर चीज़ पर बैठती ही रही। जैसे धूल को कोई ईश्वरीय वरदान था और वो उसी वरदान का दीर्घप्रतीक्षित प्रतिशोध ले रही थी।
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2 टिप्पणियां:
धूल के माध्यम से पर्यावरण की तरफ सचेत करती कथा ...शांति के मन में धूल रूपी अवसाद भरा था ...
अभय जी, आपका लिखा पढकर अपने हिन्दी के अध्यापक की याद आ जाती है। छोटे छोटे सुन्दर वाक्य जिनमें जरूरत से अधिक एक शब्द भी नहीं होता। ११वीं कक्षा में हमारे अध्यापक ने सबसे पहले वाक्य विन्यास के बारे में ही बताया था।
आपकी कहानी का अब तो इन्तजार बना रहता है।
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