शुक्रवार, 23 मार्च 2012

ग़रीब की गरिमा



जब वे प्लैटफ़ार्म पर दाख़िल हुए गाड़ी छूटने में तब भी चालीस मिनट थे।। उनके हलके-फुलके सामान के लिए कुली लेने की कोई ज़रूरत ही नहीं थी। दो दिन का कार्यक्रम था- शादी में शामिल होके बस अगले दिन वापसी। ए-वन डब्बा सबसे आख़िर में था। जीवन में पहली बार वे पहले दर्ज़े में सफ़र करने का आनन्द लेने जा रहे थे। अजय अपना वर्ग और अपनी औक़ात जानता है। पर कुछ सौ रुपये के फ़र्क़ से अगर आपका वर्ग बदल सकता है तो अजय एक बारगी यह क़ीमत देने को तैयार हो गया। और वर्गों के पार यह छलांग मार दी। अजय और शांति आराम से अपनी ट्रालियां खींचते हुए गाड़ी के अन्त की ओर चल पड़े। दूर से उन्हे गाड़ी के आख़िर में एक लम्बी मानव श्रंखला दिखाई दी। एक-दूसरे की देह में चपक जाने तक की निकटता वाली श्रंखला, सबसे निचले दर्ज़े में बैठने की जगह पा जाने के लिए लगाई गई लाइन थी। हाथ में और कंधे पर कई आकार और प्रकार के बैग थामे और लटकाए अलग-अलग उम्र के मर्द, बच्चे और औरतें थे। बैठने की जगह या सिर्फ़ खड़े हो जाने की जगह पा जाने के संघर्ष से जिनके चेहरे तनाव से आड़े-तिरछे खिंचे हुए थे। आर पी एफ़ के कुछ सिपाही उनके उस संघर्ष के उग्र और हिंसक होड़ में बदल जाने से रोकने के लिए रह-रह कर अपने डंडे को और गले के सुर को उठा रहे थे। ऐसा नहीं था कि शांति ने पहले ऐसी क़तारें नहीं देखीं थीं। पर पहला दर्ज़ा और जनरल डब्बा इस तरह एक दूसरे से सटा होता है यह देखकर उसे एक अजब से हैरत हुई जिसमें कहीं कोई अपराध भावना भी छिपी हुई थी। कोई पहले दर्ज़े का यात्री सबसे निचले दर्ज़े की ठसाठस तक़लीफ़ों को नज़रअंदाज़ कर सकता था। और जनरल डब्बे में कशमकश करने वाला सवार भावनाओं की किन तंग गलियों से गुज़रता होगा- यह शांति सोचती ही रही। 

पहले दर्ज़े के कम्पार्टमेन्ट में साइड की बर्थ नहीं होतीं। उनकी जगह खिड़कियों से लगा हुआ एक गलियारा होता है और शेष जगह में चार-चार बर्थ के कूपे। कूपे के भीतर बैठने-लेटने के लिए जो बर्थ थीं वो थी टियर और टू टियर से कहीं ज़्यादा चौड़ी थीं। उनके ऊपर बढ़िया गहरे लाल रंग की टेपेस्ट्री लगी थी। बर्थ के तरफ़ तो खिड़की थी और दूसरी तरफ़ छोटा-मोटा सामान रखा जा सकने लायक़ एक फ़ुट चौड़ी साइडटेबल थी। इतना ही नहीं उन के ऊपर सूट टांगने के लिए एक आलमारी भी थी। शांति को उसे देखकर बार-बार किसी लाल मुँह वाले अंग्रेज़ की याद आती रही जिसका सूट टाँगने के लिए उस आलमारी का विधान बनाया गया होगा। कुल मिलाकर चार लोगों के रईस परिवार के सफ़र को सुकूनसाज़ बनाने का पूरा इंतज़ाम था। यहाँ तक कि कोच परिचालक को फ़ौरन तलब करने के लिए हर बर्थ के पास घंटी भी लगी हुई थी। हालांकि कुछ समय मे ही शांति ने समझ लिया कि वो भी अंग्रेज़ो के ज़माने का अवशेष है। तब गोरे साहब के लिए हिन्दुस्तानी अटेंडेंट दौड़ा चला आता होगा- अब वो नहीं आता। या शायद किसी एमपी-एमएलए या किसी बड़े अफ़सर के कोच में उपस्थित होने पर अब भी आता हो। वैसे भी पहले दर्ज़े की रेलयात्रा जिस तरह शांति और अजय के लिए अपवाद थी शायद वे भी पहले दर्ज़े के उस कोच के लिए अपवाद थे। 

रात भर का सफ़र था। अटेंडेंट कम्बल-चादर आके दे गया। बाहर हलकी ठण्ड थी। मगर डब्बे के भीतर उससे भी ज़्यादा ठण्ड थी। इसके बावजूद शांति के सहयात्री बार-बार शिकायत करते रहे- "ठण्डा नहीं हो रहा.. पसीना आ रहा है.. और बढ़ाओ.. !" शांति हैरत से उन्हे देखती ही रह गई। क्या रहस्य था उनकी गर्मी का? बुरी तरह कुड़कुड़ाए बिना क्या उनका पैसा वसूल नहीं होने वाला था? वो कुछ कहना चाहती थी पर अजय ने उसका हाथ दबा दिया। 

रात को शांति की जब नींद खुली तो गाड़ी खड़ी हुई थी। कोई स्टेशन आया था। पांच बज रहे थे। शांति चाय की तलाश में उठकर बाहर तक गई। दरवाज़ा खोलते-खोलते ही चायवालों की आवाज़ आनी शुरु हो गई। बाहर झांक कर देखा तो उसके डब्बे के सामने कोई नहीं था। सारे चायवाले जनरल डब्बे की खिड़कियों के आगे मंडला रहे थे। मगर वे सारे जनरल डब्बे के दरवाज़े पर लगी भीड़ से बुरी तरह आच्छादित थे। चढ़ने वालों के बीच गज़ब की जद्दोजहद चल रही थी। वहाँ कोई पुलिस वाला भी नहीं था। डब्बे में दाख़िल होने के लिए धक्कामुक्की ही एकमात्र योग्यता साबित हो रही थी। और अपनी योग्यता का परिचय देने में कोई किसी से पीछे नहीं रहना चाहता था। गाड़ी धीरे-धीरे सरकने लगी। शांति को उस प्रभात वेला में चाय मिलने की उम्मीद ख़तम होती नज़र आनी चाहिये थी। पर उसे उस भीड़ में अधिकतर की अपने गंतव्य में पहुँच पाने की उम्मीद डूबती नज़र आई। भीड़ के एकदम अंत के एक अधेड़ दम्पति ऊहापोह में पहले दर्ज़े के दरवाज़े की ओर चले आए। मगर कोच के ज़ीने पर पैर रखने का साहस नहीं जुटा पा रहे थे। न जाने किस ख़्याल में शांति दरवाज़े से पीछे हट गई। शांति के इस मुद्रा को उन्होने एक इशारा समझा और चढ़ गए। और डब्बे  के एक कोने में अनाधिकार भाव से खड़े हो गए और किसी अनजान शिकायतकर्ता से बुदबुदाकर कहने लगे- आगे उतर जाएंगे। शांति वहाँ खड़े होने भर में असहज अनुभव करने लगी। वो अपनी बर्थ पर लौट गई और लेट गई। उसे नींद नहीं आई। थोड़ी देर में कुछ आवाज़े आईं। उठकर बाहर गई तो पता चला कि उस दमपति को अटेंडेंट ने लगभग धकेल कर गाड़ी के भीतर चलता कर दिया। किसी और कोच की तरफ़। 

 क़ानूनन ग़लती उस दम्पति की थी। वे पहले दर्ज़े में चढ़ने के अधिकारी नहीं थे। पर क्या इस ग़लती में सरकार की कोई नैतिक ज़िम्मेदारी नहीं थी? आम आदमी न तो ऊँचे दर्ज़े का किराया वहन कर सकता है और न ही अपनी यात्राओं को पहले से योजनाबद्ध कर सकने का नियंत्रण अपने जीवन पर रखता है- तो क्या सरकार उसे जनरल दर्ज़े में मुर्ग़ियों की तरह भरने के लिए अभिशप्त बनाए रखेगी। अभी तो उनजानवरों के 'एनीमल राइट्स' की बातें उठने लगीं हैं। जनरल डब्बे में सफ़र करने वाले आदमी के 'ह्यूमन राइट्स' का कोई मसला बनता है क्या? या उसे अपनी गरिमा के साथ सफ़र करने का कोई हक़ नहीं? या तो वो एक लम्बी लड़ाई के बाद आलू-प्याज़ की तरह जनरल डब्बे की बोरी में बंद हो जाए- जहाँ पेशाब करने के बाथरूम तक सफ़र भी एक बड़ा संघर्ष है- और या फिर किसी ऊँचे दर्ज़े के अटेंडेंट के हाथों अपने सम्मान का सौदा करे। और न जाने क्यों शांति को यक़ीन है कि ये सिर्फ़ सरकार के पास पैसों की तंगी और रेलवे के ठसाठस भरे टाइमटेबल का मसला नहीं है। इस हालात के पीछे काली खाल में गोरी आत्मा वाले शासक वर्ग की आम आदमी के प्रति एक गहरी उदासीनता और उपेक्षा की भावना है।  

*** 

(20 फ़रवरी को दैनिक भास्कर में छपी) 

5 टिप्‍पणियां:

सिद्धार्थ शंकर त्रिपाठी ने कहा…

गरिमा की मीनार गरीबी के गढ्ढे में नहीं खड़ी होती। इसको तो अमीरी का चबूतरा ही खड़ा रख सकता है। सरकारी नीतियाँ तो इसी की तस्दीक करती हैं। उच्च श्रेणी वालों से अधिक दाम वसूलकर उसी गाड़ी में गरीबों के लिए भी एक-दो डिब्बा जोड़ दिया यही क्या कम है? अब गरिमा के लिए तो दाम देना पड़ता है, भगवान ने उसी दिन उनकी गरिमा गिरा दी जिसदिन किसी गरीब घर में पैदा कर दिया।

बहुत कड़वा सच है यह... उफ़्फ़्‌। :(

श्री राजीव ने कहा…

YAH GARIBON DVARA APNE AAP KO GARIB SAMAJHANE KA NATIJA HAI. HUM SANGHARSH KE BADLE APANE KO YAH SAMJHHANE MEN LAGE HAIn KI HUM GARIB HAIN AUR HAMRi KISMAT YAHIN HAI. KISMAT BANANE KE LIYE SANGHARSH KARNA SIKHEN.

श्री राजीव ने कहा…

YAH HAMRE IS SONCH KA NATIZA HAI KI HUM GARIB HAIN AUR HAMARI KISMAT YAHIN HAI. KISMAT BADALANE KE LIYE SANGHARSH KAREN APANE LIYE

विमल कुमार शुक्ल 'विमल' ने कहा…

siddhharth shankar ji kya sarkar garibom se itna bhi paisa nahi vasool karti ki usme paryapt dibbe jod diye jayem . kya garibom ke liye ek aadh dibbe jodkar sarkar ne koi ahsaan kar diya. sorry tripathi ji magar mujhe aapki samajh par taras aataa hai.

Sani (Sandeep) Singh Chandel ने कहा…

Acchi prastuti, Hamne bhi Genral Dibbe me safar kiya hai, Itna kast jhela hai ki kya batayen ( ye kast to safar karne vala hi jaan sakta hai), Hamari durgati ho gayi thi Delhi se Kanpur tak Khade hokar aaye the us rat, Naa neend aa rahi thi naa hi aaram mil raha tha. Bhagwan bachaye aisi yatrao se.

Sandeep Singh, Allahabad

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