बहुत सारे आंकड़ों के बीच सर खपाते हुए शांति ने बजते हुए फ़ोन को देखा। उस पर दस नम्बर का एक आंकड़ा था। एक अनजान आंकड़ा। उसे तवज्जो दे- न दे की दुविधा के बीच शांति ने फ़ोन ले ही लिया।
हलो?
हलो शांति.. मैं रणवीर बोल रहा हूँ..
येस?
अरे भई.. मैं रणवीर सिंह बोल रहा हूँ..
रणवीर सिंह? शांति के ज़ेहन में ये नाम कुलबुलाने लगा। वो तो रणवीर सिंह नाम के एक ही शख़्स को जानती थी। भारतीय क्रांतिकारी दल के नेता रणवीर सिंह! कॉलेज के ज़माने में जो चंद लोग उसके लिए आदर्श हुआ करते थे.. रणवीर भाई का स्थान उनमें कहीं शिखर के नज़दीक़ था।
रणवीर भाई?!
..हाँ.. कैसी हो!
अच्छी हूँ.. आप कैसे हैं रणवीर भाई?
ठीक हूँ.. तुम्हारे शहर में आया था.. सोचा मुलाक़ात करता चलूँ..
रणवीर भाई को उसी शाम लौट जाना था इसलिए शांति ने उन्हे दफ़्तर में ही बुला लिया। उनके आने तक शांति उन्ही के बारे में सोचती रही। उस दौर में समाज में बड़ी उथल-पुथल हो रही थी। रणवीर भाई का दल समाज के आमूल-चूल बदलाव चाहता था और इसके लिए समाज के हाशिए पर पड़े हुए वर्गों की गोलबंदी में यक़ीन रखता था। शहर के मध्यवर्ग में तो उनकी मौजूदगी नाममात्र की थी पर शहर के सारे कॉलेजों के विद्यार्थियों के बीच उनके दल की ज़बरदस्त लोकप्रियता थी। अधिकत कॉलेजों के चुनाव में भारतीय क्रांतिकारी दल के ही प्रत्याशी जीतते थे। और उसका प्रमुख कारण रणवीर भाई थे। उनका व्यक्तित्व ही कुछ ऐसा था कि जो भी एक बार उनसे मिल लेता, प्रभावित हुए बिना नहीं रहता। लम्बा क़द, साँवला रंग, तेजस्वी मुखमुद्रा और अंगारे की तरह चमकती हुई आँखें। उनसे नज़रें मिलाना सूरज से आँखे चार करने से कम नहीं था। और उनसे बात करना जैसे किसी लाइब्रेरी में दाख़िल होना था। सभी क़ायल थे उनकी मेधा के। उनके बारे में मशहूर था कि वे जब चाहें आई ए एस हो जाएं। पर उनकी नैतिक नज़र में उनका निजी हित विराट मानवता के हित के आगे कुछ भी नहीं था। शांति भी उनकी आदर्शवादी राजनीति और सम्मोहक शख़्सियत से बहुत मुतास्सिर रही। उनके दल की सदस्य कभी नहीं बनी पर एक सक्रिय हमदर्द के रूप में जब मौक़ा मिले उनकी गतिविधियों में शामिल होती रही।
रणवीर भाई ने तीन बजे आने को कहा था। शांति कुछ काम पहले निबटाकर और कुछ काम उनसे मुलाक़ात के बाद के लिए छोड़कर तीन बजे से ही उनका इंतज़ार करने लगी। रणवीर भाई वक़्त के बेहद पाबन्द थे। पर जब चार बजे गए तो शांति को लगा कि शायद वे नहीं आएंगे। और शांति अपने आँकड़ों की दुनिया में लौट गई।
हलो शांति!
शांति ने सर उठाकर देखा। पहचान तो लिया कि रणवीर भाई ही थे.. पर काफ़ी बदले हुए से। पहले सी छरहरी काया नहीं थी, पेट निकल आया था।
रणवीर भाई ..मुझे तो लगा आप अब नहीं आयेंगे..
माफ़ करना.. देर हो गई..
आइये! बैठिए!!
गर्मी होने लगी.. थोड़ा पानी पिऊंगा..
जी.. ज़रूर!!
रणवीर भाई की बाल-दाढ़ी भी काफ़ी पक गई थे। दाढ़ी उस दौर में भी होती थी पर कपड़ों की उन्होने कभी परवाह नहीं की। वे अक्सर एक ही जोड़ी पैंट-कमीज़ हफ़्तों डाँटे रहते- वैसी ही गुंजली और मैली। पर उससे उनकी कशिश पर कुछ फ़र्क़ न पड़ता। एक चमक थी तब जो हर देखने वाली को चौंधियाए रहती। शांति ने देखा कि उनके कपड़े धुले और इस्त्री किए हुए थे पर चेहरे की चमक लापता थी। शांति ने डरते-डरते उनकी आँखों की सिम्त नज़र फेरी - वहाँ एक अजब सी धुंधली हताशा और उदासी डेरा डाले थी। ये क्या हो गया रणवीर भाई को? वो आदमी कहाँ है जिसकी आँखों मे देखने से लोग झुलस जाते थे? शांति उनसे पूछना तो बहुत कुछ चाहती थी- आदर्श, व्यवस्था और विप्लव की बाबत -पर न जाने क्यों साहस न कर सकी। जैसे किसी के घाव की ओर देखने से झिझकते हैं लोग..
कितने सालों बाद देख रही हूँ आप को..
एक ज़माना बीत गया..
आपने शादी नहीं की.. ?
की तो.. आठ साल हो गए..
अच्छा? किससे? मै जानती हूँ उन्हे?
नहीं आप नहीं जानती.. उनका नाम शैला है..
क्या करती हैं शैला जी?
आजकल बहुत बीमार रहती हैं..
क्या हुआ उन्हे..
एक नहीं तमाम बीमारियां है.. पिछले आठ साल में कम से कम तीन साल तो उन्होने अस्पताल के बिस्तर पर बिताए हैं..
अरे!!
.. क्या करें..!?
तो कैसे मैनेज करते हैं आप..
आसान नहीं है.. कुछ दोस्त हैं जो मदद करते हैं.. आप तो जानती हैं बाज़ारीकरण के इस दौर में स्वास्थ्य में कमोडिटी बन चुका है.. और मुफ़लिस को सेहत भी नसीब नहीं..
ये कहते हुए रणवीर भाई की आँखें और मुरझा गईं। उन्हे इस हालत में देखकर शांति के भीतर कुछ बिलखने सा लगा। देर तक मद्धम सुरों में बात करने और दफ़्तर बंद होने के बाद ही शांति और रणवीर भाई वहाँ से निकले। शांति उन्हे स्टेशन तक छोड़ने गई। और जाने से पहले उनके हाथ में एक चेक थमा दिया- शैला जी के इलाज के लिए। रणवीर भाई ने चेक पर एक निगाह डाली और एक खिसयायी मुस्कराहट के साथ उसे जेब में सरका लिया। लौटते हुए शांति ने सोचा कि जिस आसानी से उसने शैला जी के इलाज के लिए इम्दाद दे दी.. क्या उसी आसानी से रणवीर भाई का भी इलाज मुमकिन है? जिस रोग ने उनकी आँखों की चमक और चेहरे का तेज हर लिया, उसका क्या? एक क्रांतिकारी का सबसे आकर्षक पहलू होता है जीवन के प्रति उसका सघन और उदात्त नज़रिया। उसके ढह जाने के बाद रणवीर भाई निहायत खोखले नज़र आए थे शांति को।
घर लौटने के बाद भी रणवीर भाई उसके साथ ही बने रहे.. ढेरों तकलीफ़ देने वाल सवाल छटपटाते रहे उसके भीतर.. रणवीर भाई ऐसे क्यों हो गए? ये उनकी राजनीति का दोष था या उनकी कोई व्यक्तिगत कमज़ोरी थी? या हर आदर्शवादी विद्रोही की यही नियति होती है? क्यों हमारे समाज में आदर्शों पर चलने वाली डगर इतनी कांटो भरी और कठोर होती है..? क्या आम आदमी का जीवन जीते हुए गहरा सामाजिक बदलाव करना मुमकिन है ही नहीं? क्यों यौवन के कुछ वर्षों के बाद आदर्शों की डगर चलना नामुमकिन हो जाता है.. या फिर आदर्श सिर्फ़ यौवन का ही शग़ल है?
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(इस इतवार दैनिक भास्कर में प्रकाशित हुई)
2 टिप्पणियां:
विचारों को झकझोरती बहुत सुंदर कहानी...आभार
यह बरसों का नहीं, अरसों का सच है। मुझे लगता है कि भावनाओं को विचारों की कार्बनिक/सजीव जटिलता तक नहीं पहुंचाया जाता तो कोई भी क्रांतिकारी जनता की स्वीकृति नहीं हासिल कर पाता। पानी में तेल की तरह तैरता रहता है। लोग उससे सहानुभूति तो करते हैं, अपना नहीं मानते।
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