मंगलवार, 26 जुलाई 2011

मकान मालिक




उस दिन इतवार था। जब से शांति ने काम करना शुरू किया है शायद ही कोई इतवार ऐसा गया हो जब उसने सर न धोया हो। जिस तरह के धूल-धक्कड़ से गुज़र कर उसे काम पर जाना पड़ता है उसकी वजह से हफ़्ते में कम से कम एक बार और उसे सर से शहर की गर्द को उतारना पड़ता है। हफ़्ते के उस दिन शांति को इस काम के लिए अलग से समय निकालना पड़ता है। और अगर ऐसा न हो सके तो उसे गीले ही बालों में ट्रैफ़िक के बीच से गुज़रना पड़ता और सारी धुलाई पर धूल पड़ जाती। उस दिन भी शांति बिना किसी हड़बड़ी के बालकनी में खड़े होकर आराम से बाल सुखा रही थी। गीले बालों को पतले गमछे से फटकारते हुए जब वो आधी झुकी हुई थी तभी उसके कानो तक एक ऐसी टक्कर की धमक पहुँची जो अक्सर दुर्घटना के समय जन्म लेती है।

बालों को चेहरे से हटाकर जब शांति ने सड़क पर देखा तो टायरों से चिंघाड़ती हुई एक लम्बी गाड़ी तेज़ी से उसकी आँखों के सामने से ओझल हो गई। शांति को कुछ समझ नहीं आया तो उसने गरदन घुमाकर दूसरी दिशा में देखा तो एक मोटरसाइकल पलटी पड़ी थी और दो लोग भी गिरे पड़े थे। शांति का जी धक से रह गया। फिर उनमें से एक धीरे से उठा और पास पड़े अपने मोबाईल में कुछ करने लगा। पर दूसरे मे कोई हरकत नहीं की। वो वैसे ही पड़ा रहा। शांति से वहाँ खड़ा नहीं रहा गया। वो गमछा वहीं डालकर नीचे की ओर भागी। अजय बाहर के कमरे में बैठकर इतवारी अख़बार चाट रहा था। शांति को इस तरह हड़बड़ाता देख वो भी घबरा गया। वो भी पीछे-पीछे भागा।

जब वो नीचे पहुँचे तो दोनों जन ज़मीन पर अचेत पड़े थे। किसी में कोई हरकत नहीं थी। शांति को थोड़ी हैरानी हुई। आस-पास के कुछ और लोग भी थोड़ी देर में इकट्ठा हो गए। दोनों घायलो के शरीर से रिसकर लाल खू़न सड़क पर इधर-उधर फैल गया था। एक औंधे मुँह गिरा हुआ था और दूसरे का आधा दिख रहा चेहरा उतना ही सामान्य था जितना किसी भी राह चलते आदमी का होता है। शांति ने उनकी देह में किसी भी हरकत को आँखों से टटोलने की कोशिश की पर दोनों का बदन लगभग पत्थर की तरह बेहिस बना रहा। कुछ कहा नहीं जा सकता था कि वे जीवित थे या मर गए थे।  

वो एक ऐसा दुस्स्वप्न था जिससे हर कोई जाग पड़ना चाहता था। उस दुस्वप्न में क़ैद हो चुकी उन घायलों को हाथ लगाने की किसी की हिम्मत नहीं हुई- शांति की भी नहीं। मगर उसने पुलिस को और हस्पताल की आपात सेवाओ को ज़रूर फ़ोन कर दिया। जब तक पुलिस और उनके बाद एम्बुलेन्स आई, तमाशबीनों की कई खेपें आकर जा चुकी थीं। अजय भी लौट गया था और शांति भी। लेकिन ऊपर जाकर भी शांति अपना ध्यान धीरे-धीरे ख़ून से ख़ाली हो रहे उन दो जनों से हटा नहीं सकी। देर तक बालकनी में खड़े होकर उधर ही देखती रही। और जब पुलिस पहुँची तो दुर्घटना की चश्मदीद गवाह शांति उन्हे घटनास्थल पर ही मिल गई। एक ज़िम्मेदार नागरिक का कर्तव्य पूरा करने शांति पुलिस के साथ भी चली गई। हालांकि अजय ने उसे इस पुलिसिया झमेले से बचाने की बहुत कोशिश की। यहाँ तक कि उसने शांति के बदले ख़ुद जाने तक की पेशकश की मगर वो शांति को मंज़ूर नहीं था। अपने नारीत्व को ऐसी अनैतिकताओं के पीछे छिपाना शांति को कभी गवारा नहीं हुआ।

पुलिस को कार को रंग और मौडल बताने से अधिक शांति के पास कुछ था भी नहीं। लेकिन पुलिस वालों में हर काम की अपनी गति और पद्धति होती है जो शांति की तबियत के ज़रा भी अनुकूल नहीं था। अगर मौक़ा इतना संजीदा न होता तो उसने अपनी चिड़चिड़ाहट का दमन न किया होता। और जब इंतज़ार का पानी हद से गुज़रने ही वाला था एक हवलदार ने आकर बताया कि दोनों जनों में से एक को भी बचाया नहीं जा सका। शांति को तो जैसे यक़ीन ही नहीं हुआ क्योंकि उनमें से एक तो दुर्घटना के तुरन्त बाद उठकर अपना मोबाईल देख रहा था। यह सोचकर शांति एक अपराधबोध से ग्रस्त हो गई- उसे ऐसा लगा कि जैसे उसी की चूक से मानवीय जीवन की यह हानि हुई हो। हस्पताल से घर लौटते हुए वो बार-बार अपने आप से सवाल करती रही कि क्या वो उनको बचाने के लिए कुछ और नहीं कर सकती थी?

अपना बयान दर्ज़ करवा कर शांति घर तो आ गई मगर उसका मन मरने वालों के साथ ही बना रहा। अगले दो-तीन दिन तक रह-रहकर वो दुर्घटना के दुस्स्वप्न में लौट जाती रही। फिर चौथे रोज़ दफ्तर से घर लौटते हुए उसे खाकी वर्दी में एक पहचानी सूरत अपनी इमारत की सीढ़ियों में दिखाई दी। ये व्यक्ति स्थानीय थाने का वही हवलदार था जिसने शांति का बयान दर्ज़ किया था। उससे मालूम हुआ कि कई दिन तक मरने वालों के सम्बन्धियों का कुछ पता नहीं चला। उनके मोबाईल में अधिकतर नम्बर दिल्ली और मुम्बई के थे। और वे सारे नम्बर उसके कामकाजी सम्पर्क थे और उनमें से एक भी न तो उसके घर-परिवार के बारे में कुछ जानता था और न ही उनके अन्तिम संस्कार में कोई दिलचस्पी रखता था। बहुत नम्बर आज़माने के बाद एक स्थानीय नम्बर मिला। और संयोग से वो उसके घरवालों का ही ऩम्बर था। हवलदार उन्ही से मिलने आया था क्योंकि वे शांति की ही इमारत में रहते हैं। यह जानकर शांति को बड़ा झटका लगा।

उसी शाम को शांति उन अभागे माँ-बाप से मिलने गई जिनके बेटे की लाश चार दिन लावारिस पड़ी रही और उन्हे कुछ ख़बर नहीं हुई। और जब ख़बर हुई वो सनाके में थे। इकलौता बेटा था। उसी के पराक्रम और उद्यम का नतीजा था कि वे एक खुले, हवादार, बड़े घर में रह रहे थे वरना उन्होने तो अपना पूरा जीवन संकरी झोपड़ियों में गुज़ारा था। पर उनका बेटा बड़े सपने देखता था। करोड़पति होने की क़सम खाई थी और उसी क़सम के लिए अभी तक शादी नहीं की थी। रियल स्टेट के धंधे में काफ़ी पैसा बनाया था उसने। दिल्ली और मुम्बई में कई फ़्लैट्स खरीद छोड़े थे जिनसे ख़ूब किराया मिलता था। पर कुछ खर्चा नहीं करता था। न गाड़ी थी न बंगला, खोली में रहता था और कम से कम में काम चलाता था। सब जोड़ रहा था करोड़पति होने के लिए- यह बताते-बताते उसकी माँ पछाड़े मार कर रोने लगी। शांति के पास दुर्गेश राय की माँ को दिलासा देने के लिए शब्द नहीं थे। हाँ, उसका नाम दुर्गेश राय था।
         
बाद में घर लौटकर उसे याद आया कि एक व्यक्ति की पहचान तब भी नहीं हुई थी और वो, मनुष्यता की इस भीड़ में अनन्त भागदौड़ के बाद एक लावारिस और बेनाम लाश के रूप में मुर्दाघर में पड़ा हुआ था। यह कैसा जीवन था जिसमें न जीने का कोई सुख था और न मरने की कोई गरिमा?


***

(इस इतवार दैनिक भास्कर में शाया हुई)                                            


5 टिप्‍पणियां:

Dr (Miss) Sharad Singh ने कहा…

मन को उद्वेलित करती बेहतरीन कहानी...

दीपक बाबा ने कहा…

@ यह कैसा जीवन था जिसमें न जीने का कोई सुख था और न मरने की कोई गरिमा?

क्या माहान भारत देश के बहुसंख्यक इंसानों कि कहानी तो नहीं.

पढ़ने के बाद मन का चैन-ओ-अमन छूट जाता है एक बार तो.

प्रवीण पाण्डेय ने कहा…

यह कहानी हजारों लोगों की है देश में, जीवन तो नहीं पर कम से कम मृत्यु तो गरिमामयी हो।

मीनाक्षी ने कहा…

ऐसे किस्से मन को बेचैन कर देते हैं...अपने देश में इंसान की क्या कीमत है !!!!

सोनू उपाध्‍याय ने कहा…

कहानी अच्‍छी है बधाइयां.. पर एक पाठक के नजरिये से कुछ खटक रहा है अन्‍यथा न लें.. ऐसा लग रहा है इतने अच्‍छे प्‍लॉट को आपने बहुत जल्‍दी बाजी में समेट दिया है.. कम से कम एक चरित्र को तो पूरी तरह खडा करना चाहिए था. पढने के दौरान ऐसा भी महसूस होता है मानों कोई खबर पढ रहे हैं या फिर एक सपाट किस्‍सा..बहरहाल प्‍लाट बहुत अच्‍छा है थोडी मरम्‍मत और की जानी थी.. किंतु ऐसे समय के चित्र को खींचती यह बढिया कहानी है.. पुन: बधाइयां..

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