नया करने वाला हर व्यक्ति किसी आदर्श व्यक्तित्व का स्वामी, किसी उच्च चेतना और नैतिकता का वाहक नहीं होता। वे तो बस अपने ज़रिये अपने समय को बेलाग-बेलौस अभिव्यक्त कर रहे होते हैं। पुराने ढाँचे में नए की अभिव्यक्ति सहज सरल रूप से ही हो जाय यह हमेशा सम्भव नहीं होता। नया अक्सर वह पुराने ढाँचे को ढहा कर, उस की बाँस-बल्लियां हिला कर ही पैदा होता है। और इसीलिए वह अवैध और अनैतिक बताया जाता है। सोशल नेटवर्क में भी मूल सवाल यही है- मार्क ज़करबर्ग क्या एक अपराधी है? क्या उसने झूठ बोला है, चोरी की है, धोखा दिया है?
हाँ यह ठीक है कि मार्क 'दिए गए' मानकों पर अपराधी नज़र आता है लेकिन अगर वह समाज की स्थापित नैतिकता के अनुसार ही चलने लगता तो शायद कभी भी फ़ेसबुक को वो शकल नहीं दे पाता जो आज है। उसने व्यक्तियों और दिये गए विधान के बदले, अपने और अपने आविष्कार के प्रति निष्ठावान होने का चुनाव किया; जो अमानवीय नज़र आता है पर हर आविष्कारी की मौलिक पहचान होता है।आविष्कार मानवता के हित में, प्रगति के हित में होते हैं जबकि नैतिकता सिर्फ़ व्यवस्था को बनाए रखने के हित में।
समाज में तमाम ज़रूरते, पहले से तैयार तंत्रों की सीमाओं से परे होती हैं। व्यवस्था के पहले से तैयार ढाँचा उस ज़रूरत को पूरा कर पाने में असमर्थ होता है। और व्यवस्था ने उस ज़रूरत का इष्टतम इस्तेमाल करने के लिए और अपने हितों की रक्षा के लिए ऐसे क़ानून बना लिए होते हैं कि किसी भी और तरीक़े से उसकी पूर्ति अवैध कहलाई जाये। जैसे क़ानूनी तौर पर किसी भी किताब को फोटोकौपी करना अपराध है, किसी भी डीवीडी को क़िराये पर देना अपराध है। इन्टरनेट से संगीत डाउनलोड करना अपराध है, फ़िल्में शेअर करना अपराध है।
लेकिन चौतरफ़ा हो रहे बदलावों की समसामयिकता या कहें कि ऐतिहासिक परिस्थितियां ऐसी पकती हैं कि ई-मेल, नैपस्टर, बिट-टौरेन्ट, यू-ट्यूब, और फ़ेसबुक जैसे आविष्कार होते हैं। इन्हे आविष्कार करने वाले सामान्य व्यक्ति नहीं थे लेकिन उन्हे किसी महान मेधा के मालिक समझना भी भूल होगी। उन्होने बस समय की गति को पहचाना और अपने आप को उसमें बहने दिया। अगर वो उन आविष्कार को अंजाम नहीं देते तो छह-आठ महीनों में ही कोई और नौजवान वैसे या उस जैसे किसी और आविष्कार को पेश कर देता।
सोशल नेटवर्क की सबसे सफल बात यही है कि वह तमाम गहरी बातों को बिना बहुत गम्भीर हुए, एक ज़बरदस्त गति और दिलचस्पी बनाए रखते हुए कह ले जाती है। फ़िल्म का आख़िरी दृश्य मार्क ज़करबर्ग की विडम्बना को एक छवि में समेट लेता है- अपने ही द्वारा आविष्कृत फ़ेसबुक में मार्क अपनी भूतपूर्व प्रेमिका से दोस्ती की स्वीकृति का इन्तज़ार करता हुआ उतना ही निरीह है जितना कि कोई भी दूसरा टीनेजर होगा।
6 टिप्पणियां:
सामाजिकता एक नया व्यसन है, लत लगेगी, छूटेगी भी।
सच बात तो ये है के फेसबुक के अविष्कारक पर भी ये इल्जाम है के उन्होंने ये कांसेप्ट किसी इंडियन से चुराया है......ये ओर बात है के इसमें कितना सच है .कितना नहीं......आपसे सहमत हूँ ...
मैंने तो फ़िल्म रिलीज़ के दूसरे ही दिन देख ली थी. बिना जजमेंटल हुए तेज गति से बढ़ते रहना वास्तव में इस फ़िल्म की सबसे बड़ी खूबी है.
"लेकिन चौतरफ़ा हो रहे बदलावों की समसामयिकता या कहें कि ऐतिहासिक परिस्थितियां ऐसी पकती हैं कि ई-मेल, नैपस्टर, बिट-टौरेन्ट, यू-ट्यूब, और फ़ेसबुक जैसे आविष्कार होते हैं। इन्हे आविष्कार करने वाले सामान्य व्यक्ति नहीं थे लेकिन उन्हे किसी महान मेधा के मालिक समझना भी भूल होगी। उन्होने बस समय की गति को पहचाना और अपने आप को उसमें बहने दिया। अगर वो उन आविष्कार को अंजाम नहीं देते तो छह-आठ महीनों में ही कोई और नौजवान वैसे या उस जैसे किसी और आविष्कार को पेश कर देता।"
ये अरुंधती वाली पोस्ट पर चली बहस (जिसमें आपका स्वर मुझे कुछ-कुछ इंडीविज्युअलिस्ट प्रतीत हुआ था) के बाद आया पैराडाइम शिफ्ट है? या आपके मूल आग्रहों (जो वामपंथ से बहुत अलग नहीं है) की बानगी?
बक रहा हूँ जुनूं मे क्या-क्या कुछ
कुछ न समझे ख़ुदा करे कोई।
जब भी रूमानी ग़ज़ल हमने कही
हो गया बीवी से घर में मा'रका
उसने पूछा, 'कलमुंही ये कौन है?'
कोई बतलाओ कि हम बतलायें क्या
यहाँ मेरी स्थिति भी इस शायर की बीवी जैसी हो गई है. न शायरी समझने की सलाहियत और न अरबी-फ़ारसी का ज्ञान, उस पर चचा ग़ालिब का ये शे'र. कोई बतलाओ कि हम बतलायें क्या?
डेविड फिन्चर बहुत अच्छे निर्देशक हैं| फाईट क्लब, सेवेन, क्यूरियस केस ऑफ़ बेंजामिन बटन उनकी निर्देशित कुछ फिल्मों में से है| माफ़ करना, आपकी पोस्ट मार्क [फेसबुक फाउंडर] के बारे में है, लेकिन अगर फिल्म के बारे में है तो मुझे ये बताने की बड़ी खुजली सी हुई कि मैं इसके निर्देशक डेविड फिन्चर का बहुत बड़ा फैन हूँ|
एक टिप्पणी भेजें