सोमवार, 24 अगस्त 2009

कूद जाऊँ क्या?

मैं बनारस की ट्रेन बुन्देलखण्ड एक्सप्रेस में सवार था। खिड़की के बगल वाली सीट थी। ट्रेन लगभग खाली थी। आराम से सामने की सीट पर पैर टिकाकर अधलेटे होने में मन अवचेतन में विचरने लगा। बाहर के खेत-मेंड़, पेड़-पंछी देखते-देखते अचानक मन में विचार आया कि चश्मा निकाल कर बाहर फेंक दूँ। फिर सोचा कि बैग से कैमरा निकाल कर बाहर फेंक दूँ। जेब से मोबाइल निकाल कर उसे भी खिड़की के बाहर उछाल दूँ।

ऐसे विचारों के पीछे मेरे पास कोई कारण कोई तर्क नहीं था। मैं न तो क्षुब्ध, न क्रुद्ध और न अवसादग्रस्त। न किसी से झगड़ा न कोई मेरे ऊपर कोई ज़ोर-ज़बरदस्ती। फिर भी मन अजीब दिशा में ठेल रहा था। मैं मनमानी करने वाला आदमी नहीं हूँ। इच्छाओं का दास तो बिलकुल नहीं। मन पर, विचारों पर तक कठोर नियंत्रण रखने वाला आदमी हूँ। मगर मन अभी स्वतन्त्र था। मेरी उस पर कोई रोक न थी। वो कह रहा था- चश्मा, मोबाइल, और कैमरा खिड़की के बाहर फेंक दूँ। न जाने क्यों?

कुछ दिन बाद बनारस में दरभंगा घाट के एक ऊँचे चबूतरे पर बैठ कर मन में आने लगा कि वहाँ से सीधे नीचे गंगा में कूद जाऊँ। बनारस आकर मैं आनन्द में हूँ। जीवन का अन्त करने का मेरा कोई विचार नहीं है। ऐसी प्रेरणा मुझे पहले भी हुई है। गंगटोक में एक बार सीधी घाटी में झाँकते एक मकान के छोर पर खड़े होकर जब मैंने अपने तलवों से लेकर घुटनों तक एक भयावह झुरझुरी और मस्तक तक दौड़ते खून को महसूस किया तो मैंने जाना कि मेरा शरीर ऊपर से नीचे तक अज्ञात में कूदने की भौतिक तैयारी कर चुका है।

इस अन्तः प्रेरणा के सम्बन्ध में मेरा एक विचार है। मेरा सोचना है कि यह एक स्वाभाविक प्रवृत्ति है। हर किसी को ऊँचाई पर जाकर डर लगता है। क्योंकि हर एक के भीतर ऊँचाई पर जाकर नीचे छलांग लगाने की प्रेरणा जागती है। सिर्फ़ उसे डर नहीं लगता जो या तो छलांग लगा-लगा कर अज्ञात के डर के पार हो गया है या फिर उसे जो अपनी प्रवृत्तियों के पार हो गया है।

मल्लाहों के बच्चे इस प्रेरणा को सुनते हैं और छलांग लगा कर नदी को अपना दोस्त बना लेते हैं। हम जो छलांग नहीं लगाते, सारी उमर किनारे बैठकर इस अन्तः प्रेरणा को सुनते हैं और सुन-सुन कर डरते हैं। डर कर किनारे से थोड़ा और दूर हो जाते हैं।

अज्ञात में छलांग की प्रेरणा उठना हमारी स्वाभाविक वृत्ति है- यह सोचकर मैं घाट के चबूतरे से उठ गया। पास ही एक कुत्ता सो रहा था। मन में आया कि उसे एक लात लगाऊँ। पर मैंने अपने को रोक लिया। क्या आप जानते हैं कि मेरे भीतर कुत्तों का कितना डर है?

23 टिप्‍पणियां:

दिनेशराय द्विवेदी ने कहा…

अज्ञात में लगाई गई छलांगों से ही तो मानव का ज्ञान बढ़ा है।

L.Goswami ने कहा…

जब मेरे साथ ऐसा होता है, मैं समझती हूँ मैं मनोरोगी तो नही हो रही हूँ :-)

अजय कुमार झा ने कहा…

आपने सच कहा...ऐसा सबके साथ होता है...और अपने अपने अनुभव भी....मगर इस तरह से इस बात को ..सब कह नहीं पाते..

Udan Tashtari ने कहा…

ऊँचाई से छलांग लगाने का भय तो ऊँचाई को विचार मन में लाने से ही लगने लगता है.जाने क्यूँ?

PD ने कहा…

अभय भैया.. ऐसा विचार हमको भी भी यदा-कदा आते ही रहते हैं.. सो उस पर चर्चा नहीं करेंगे..
हां अगली बार जब कभी चस्मा, मोबाईल, कैमरा इत्यादी फेंकने का मन करे तो एक बार हमको भी जरूर याद कर लिजियेगा.. हम आपको वहीं नीचे खड़े मिलेंगे उसे लपकने के लिये.. :)

योगेन्द्र सिंह शेखावत ने कहा…

बहुत बढ़िया | ज्ञान की ऊलटी बहुत से ब्लोग्स पर है, लेकिन ऐसा सादा सौम्य लेख लिखना सबके बस की बात नहीं | आपके लेखों में रजनीशी फ्लेवर महसूस होता है, आज वाला लेख उसके काफी करीब पहुँच गया है | उनकी एक किताब का नाम भी "अज्ञात की ओर" है |.......... इसके अलावा ये कि मैं भी PD सहमत हूँ की अगली बार चश्मा या केमरा फेंकने से पहले अभय सर जी हमें सुचना दे देना |

डॉ .अनुराग ने कहा…

बाकी सब विचार ठीक है कुत्तो को लात लगाना थोडा हिंसक विचार है..

Gyan Dutt Pandey ने कहा…

कूद जाऊँ क्या?
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नो नो! नॉट एट ऑल!

Ghost Buster ने कहा…

मैं आपकी इस पोस्ट पर आपके परिवारीजनों की टिप्पणियां देखने के लिये उत्सुक हूं. (मगर इसे अनुरोध या मांग ना समझा जाये)

चंद्रमौलेश्वर प्रसाद ने कहा…

नो नो! नॉट एट ऑल

हम सहमत है। क्या यह सुईसैडल टेंडेंसी है। होमियोपेथी में आरम मेट रिकमेंड करते हैं:)

गिरिजेश राव, Girijesh Rao ने कहा…

कूदो या न कूदो, च्वायस व्यक्तिगत है।
लेकिन लिखते अवश्य रहिएगा, यह जनता की च्वायस है। (हमरे उपी के वासी जैसे कुछ की आशा में आया था लेकिन यहाँ तो अलग ही माजरा मिला, सो बड़बड़ा रहा हूँ। अन्यथा न लें)

ज्ञान का कूदने से कोई सम्बन्ध नहीं है। ऐसा होता तो सारे बन्दर ज्ञानी कहाते।

कुत्ते को ऐसे ही लात मारने की इच्छा का सम्बन्ध 'दिमागी कुकरौछी' से है। यह प्राय: हर निठल्ले के मन की खोह में अंगड़ाइयाँ लेती रहती है। इसका इलाज है कि व्यस्त रहिए, चाहे उसके लिए आँगन में बाँस गाड़ कर चढ़्ने उतरने की अनवरत क्रिया ही क्यों न करनी पड़े।

हाँ, यह पोस्ट घरवालों को न दिखाइएगा। स्वस्थ व्यक्ति के लिए मानसिक रुग्णालय बहुत यातनाकारी होता है।

Rajesh Srivastavaa ने कहा…

ऐसा इन्क़लाबी सोच "मोबाइल, चश्मा इत्यादि फेकने " लाने के लिए क्या खाते हो भैय्ये? हम भी कई बार सोचे की (अब क में हर्शिकार नाही डाल पाए, thanks to Google tool) VPN tag और blackberry Lake Ontario में डाले आयें. लेकिन साला डर गए!

Arvind Mishra ने कहा…

मुझे लगता है आपको किसी योग्य मनोस्चिकित्सक को दिखाना चाहिए -इसके पहले की इश्वर न आकरे की ऐसी नौबत ही न आये 1

अनिल कान्त ने कहा…

बहुत कुछ ऐसा मेरे साथ होता है :)

आभा ने कहा…

मन के भीतर की आवाज सुनाती हुई अच्छी पोस्ट...

Pramendra Pratap Singh ने कहा…

मन का क्‍या है घोड़े के समान दौड़ता रहता है

Unknown ने कहा…

ati sunder

बेनामी ने कहा…

ati sunder

pankaj srivastava ने कहा…

वैसे तो अभय,तु्म्हारी पोस्ट पर कमेंट नहीं करता, पर आज रुका नहीं जा रहा....भइया ऐसा है कि बनारस ससुरी जगह ही ऐसी है कि कूद कै बूड़ जाये कै मन होत है...हमसे पूछौ...हमार तो ससुरार है ससुर... .यानी फिकर नॉट..तुम्हारा दिमाग दुरुस्त है। जो गड़बड़ी है वो दरभंगा घाट की सीढ़यों में लुके प्रेतों की है।

आनंद ने कहा…

ऐसा कब से हो रहा है? रोज होता है या कभी-कभार? -;


खैर, अपना किस्‍सा सुनाता हूँ। दस बारह साल पहले की बात है। मैं जबलपुर में आधारताल से मालवीय चौक रोज साइकिल से जाता था।
रास्‍ते में ट्रैफ़‍िक धीमा रहता था। जब भी पीछे से कोई ट्रक पार होता, तो पिछला टायर देखते समय यह विचार आता कि यदि इसके नीचे सिर आ जाए तो कैसे फटेगा। कहीं से पढ़ रखा था कि एक्‍सीडेंट के बाद सिर तरबूज जैसा फट जाता है। कई बार विचार आया कि ऐसे टायरों के नीचे अपना सिर दे दूँ और देखूँ कि कैसी आवाज़ होती है, तरबूज जैसा फटता हुआ सिर कैसा लगता है। अच्‍छा हुआ कि मैंने इसे आजमाने की कोशिश नहीं की, वरना आप यह टिप्‍पणी नहीं पढ़ रहे होते।

अपना यह नेक ख्‍याल मैंने पहले कहीं जाहिर नहीं किया। आज आपको पढ़ा तो लगा कि चलो मेरे अलावा दुनिया में और लोग भी हैं।

- आनंद

रंजना ने कहा…

अद्भुद !!! अद्भुत !!! वाह !!!

क्या कहूँ कुछ भी नहीं सूझ रहा....बस यही कहूँगी लाजवाब !!!

मानव मन के अज्ञात में बसे भावों को आपने कितनी आसानी से शब्दों में बाँधा और प्रभावी रूप से अभिव्यक्त कर दिया..बस विस्मित हूँ....

ऐसे विचार तो मेरे भी मन में आया करते हैं और मैं गंभीरता से सोच रही थी कि किसी चिकित्सक से परामर्श लूँ,कि कहीं यह कोई गंभीर रोग तो नहीं...

Farid Khan ने कहा…

अद्भुत लेख है। इसी अज्ञात को पाने के लिए शायद महावीर जैन ने सारे वस्त्र त्याग दिये होंगे। मैं भी अपने भीतर इतनी हिम्मत जुटाने की कोशिश कर रहा हूँ कि अपने सारे रुपए पैसे हवा में उड़ा दूँ।

Pratik Pandey ने कहा…

बढ़िया लेख है... मैंने कहीं सुना था कि ज़्यादातर स्काई डाइवर्स के मुताबिक़ वे हर बार कूदने से पहले उसी तरह की सिहरन और रोमांच महसूस करते हैं। वैसे, इसे "अज्ञात का भय" कहने की बजाय "अज्ञात का रोमांच" कहना ठीक रहेगा? क्योंकि मेरे ख़्याल से उस वक़्त भय जैसा बोझ नहीं होता चित्त पर... बस एक सिहरन... न कोई सोच, न ख़याल।

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