कानपुर की गाड़ी में बैठते ही कानपुर का स्वाद मिल गया। दूसरे दर्जे के कूपे में चार के बजाय पाँच सहयात्री दिखाई दिये। मैं और तनु साईड की बर्थ पर थे। पाँचवे शख्स के पास आरक्षण नहीं था। वे इस विश्वास से चढ़ बैठे कि टी टी के साथ जुगाड़ बैठा लेंगे। जुगाड़ यह इस प्रदेश के मानस का बेहद प्रिय शब्द है। तमाम जुगाड़ कथाओं के बीच दल के नेता ने अपने मित्रो को यह भी एक कथा-मर्म समझाया कि सरकारी हस्पताल प्रायवेट नर्सिंग होम से कहीं अधिक बेहतर पड़ता है। जितना खर्चा प्रायवेट में करोगे उसका चार आने का भोग सिस्टर आदि को चढ़ा दो फिर देखो कैसी सेवा होती है। दिन में चार बार चादर बदलेगी, सब तरह की दवा मिल जाएगी। भोग और प्रसाद का यह चलन जुगाड़ की परिभाषा के भीतर ही समाहित है।
टी टी ने एक बार घुड़की ज़रूर दी मगर फिर चार्ज वगैरा लगा के मान गया और एक बर्थ एलॉट भी कर दी। सारे रास्ते ठेकेदारों की यह टोली अपने हमसफ़रों की अमनपसन्दगी, और सामान्य शालीनता के प्रति एक बेलौस बेपरवाही बरतते हुए मादरचो बहन्चो करते आए। ये इस प्रदेश की ही विशेषता हो ऐसा नहीं है। क्योंकि पढ़े लिखे सभ्य लोगों को को वेल एडुकेटेड सोसायटी में फ़क्देम-फ़क्यू इत्यादि का जाप करते सुना जा सकता है। इस अर्थ में हम्रे ऊपी के बासियों में एक प्रकार की सार्वभौमिकता भी है।
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कानपुर में गाड़ी चलाना एक अनुभव है। यहाँ का बच्चा-बच्चा जानता है कि जिसने कानपुर में गाड़ी चला ली, वो दुनिया के किसी भी इलाक़े में गाड़ी चला सकता है- लाइसेन्स हो या न हो। मेरा तजुरबा ये है कि लोग इस शहर में गाड़ी चलाते कम हैं सड़क पर मौजूद तमाम गाड़ियों के बीच खाली जगहों में अपना वाहन पेलते अधिक हैं।
लेकिन अगर आप को सचमुच कानपुर में गाड़ी चलाने का अनुभव प्राप्त करना है तो कभी सूरज ढलने के बाद चक्का घुमाइय़े। रात में कई सूरज आप को अंधा बनाने के लिए तैयार नज़र आयेंगे। या तो कानपुर में कोई नहीं जानता कि कार में हेड लाईट की एक सेटिंग का नाम लो बीम भी होता है या वो गहरे तौर पर विश्वास करते हैं कि ड्राईविंग एक युद्ध है और सड़क उनकी रणभूमि। सामने वाले को किसी तरह भी मात करना उनकी युद्ध-नीति का अंग है। जिसकी गाड़ी में जितनी तेज़ लाईट होगी वो सामने वाले को अंधा करके गाड़ी धीमी करने पर मजबूर कर सकेगा और बची हुई जगह में अपनी गाड़ी पेलने में सफल हो सकेगा।
आप सोचेंगे कि ये जुझारू चालक रात में तो हेडलाईट के हथियार से युद्ध करते हैं मगर दिन में? दिन में तो उनका यह अस्त्र बेकार सिद्ध हो जाएगा। बात माकूल है। मगर दिन में वे आँखों की जगह कानों पर हमला करते हैं। दूर से ही कानफोड़ू क़िस्म के भोंपू बजाते हुए वाहन दौड़ाते आते हैं। अपने शहर की रवायतों से अजनबी हो चुका मेरे जैसा आदमी घबरा के किनारे हो जाता है। मगर घिसा हुआ कनपुरिया अंगद की तरह डटा रहता है। इंच भर भी जगह नहीं छोड़ता। जनता का यह उदासीन व्यवहार और चिकना घड़त्व चालक को हतोत्साहित नहीं करता। वह लगा रहता है। उसे आदत पड़ चुकी है। उसे डर है कि हॉर्न न बजाने पर लोग उसे रास्ते का पत्थर मानकर सड़क के परे न धकेल दें। वो अपनी अंगुली हॉर्न से हटाता ही नहीं है।
आम नागरिक इस व्यवहार का वह इतना अभ्यस्त हो चुका है कि सुबह छै बजे चन्दशेखर आज़ाद विश्वविद्यालय में सुबह की टहल का आचमन करके स्वास्थ्य वृद्धि के उद्देश्य से आए मगर गलचौरे में व्यस्त निरीह, निरस्त्र लोगों पर भी वह इस हथियार का अबाध इस्तेमाल करने से बाज नहीं आता। और जड़ानुभूति हो चुके पक्के कानपुरिया कभी उस का कॉलर पकड़ कर सवाल करने का सोचते भी नहीं कि अबे भूतनी के! सुबह-सुबह खाली सड़्क पर काहे कान फोड़ रहा हैं.. हैं?
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एक अन्य अनुभव में यह पाया गया कि बड़े चौराहे पर नवनिर्मित पैदल पार पथ का इस्तेमाल करने में किसी पथिक की श्रद्धा नहीं है। परेड, शिवाले और मेस्टन रोड के आने जाने वाले बड़े चौराहे के हरे लाल सिगनल और चौराहे के केन्द्र में स्थापित ट्रैफ़िक हवलदार की किसी भी चेष्टा को पूरी तरह नगण्य़ मानते हुए इधर से उधर, और उधर से इधर होते रहते हैं। अनुभूति जड़ हो चुके पक्के कानपुरिया जानते हैं कि अगर वे अपने वाहन पर आसीन नहीं होते तो वे स्वयं भी अपने इस गऊवत व्यवहार के सामने बाक़ी दुनिया को झुकाए रखते। और गऊ हमारा श्रद्धेय प्राणी है जिसे क़तई भी कोई पुरातन कालीन न समझे.. आज कल गऊ पट्टी के ह्र्दय प्रदेस ऊपी में गऊ प्लास्टिक खाती है, इस से अधिक आधुनिकता का प्रमाण आप को और क्या चाहिये?
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यहाँ नवाबगंज में तमाम तरह के पेड़ लगे हैं नए-पुराने। बरगद, पीपल, आम, इमली, पकड़िया, और नीम जैसे सर्वव्याप्त वृक्षों के अलावा सहजन, अमलतास, गुलमोहर, गूलर, जंगलजलेबी, बालमखीरा, सुबबूल आदि भी लगे हैं। नए रोपे गए वृक्षों में कदम्ब कई जगह लगा है चूंकि वह जल्दी बढ़ने वाला पेड़ है। कदम्ब से पुराने वृक्षों में कसोड नाम का एक वृक्ष भी बहुतायत में लगा हुआ है। कई गलियों के तो पूरे के पूरे किनारे इसी कसोड के द्वारा आच्छादित हैं।
मुझे जिज्ञासा हुई कि कसोड नाम तो प्रदीप क्रिशन ने अपनी किताब ट्रीज़ ऑफ़ डेल्ही में दिया है। न जाने किस इलाक़े में यह नाम चलता हो। अपने कानपुर का क्या नाम है यह सोचते हुए मैं एक प्लास्टिक के पैकेट में आठ रुपये का पचास ग्राम धनिया झुलाते हुए चला जा रहा था। एक बंगले के सामने लगे कसोड के नीचे एक प्रौढ़ सज्जन एक ऐसी बेपरवाही और सहजता से पूरे चित्र में मौजूद थे जैसे कि कोई सिर्फ़ अपने घर के आगे ही हो सकता है। यह जानकर कि महाशय और इस पेड़ का साथ कई बरसों का लगता है, मैंने उन से पूछ डाला तपाक से – इस पेड़ का नाम क्या है। वो पहले तो अचकचाए फिर पेड़ की तरफ़ एक औचक दृष्टि उछाली और सर हिला दिया। इस का नाम तो नहीं मालूम। अपनी अज्ञानता में वो असहज न हो जायं मैंने कहा कि पीले फूल आते हैं न इसमें?
हाँ- पीले। बहुत पुराना पेड़ है। यहाँ जगह-जगह लगा है। तमाम लोगों ने कटवा दिया है। हमारा वैसेई बना है।
मैंने सर हिलाया कि जी यहाँ बहुत लगा है। और चलने लगा।
सड़क के पार उनके पड़ोसी बाहर खाट डाले पड़े थे। मेरे वाले महाशय ने उनसे पूछा कि नाम क्या है इस का। अधलेटे पड़ोसी ने सर प्रश्नवाचक मुद्रा में सर उचकाया।
रुकिये उनको पता है शायद।
मैं उनके पीछे-पीछे सड़क के पार गया। सवाल के जवाब में उन्होने सर नकारात्मक हिला दिया। और मेरी तरफ़ एक निगाह फेंकी जिस से मुझे समझ आया कि वो मेरे सवाल से ज़्यादा इस बात से दिलचस्पी रखते थे कि मैं कौन चीज़ हूँ जो ऐसे सड़क चलते पेड़ो का नाम-धाम पूछ रहा हूँ? इस के पहले कि वो मेरी कोई इन्क्वारी करते मैंने खिसक लेने में अपनी भलाई समझी क्योंकि उन्हे ये समझाना कि मैं इतना खलिहर हूँ कि मेरी दिलचस्पी काम धन्धे की दुनियादारी में नहीं.. बेफ़ालतू की ऐसी जानकारी इकट्ठी करने में है जो उन निम्न वर्ग के लोगों के पास ही बची है जो प्रकृति के साथ रहने के लिए अभी भी मजबूर हैं। बंगले में बन्द लोगों को अपने सामने खड़े पेड़ का नाम भी नहीं मालूम रहता और न वे मालूम करने की कोई कोशिश करते हैं। वैसे मेरे वाले महाशय ने ये ज़रूर वादा किया कि वन विभाग के लोग आते-जाते रहते हैं उन से पूछ कर वो हमें बतायेंगे। अब वो हमें कैसे बतायेंगे इस सवाल में आप अपनी मूँड़ी मत घुसाइये। हम ऊ पी के बासियों की ये एक और निर्मल निराली अदा है। कहीं तो मिलोगे कभी तो मिलोगे तो बता देंगे नाम।
आगे मेरी थेरम को इति सिद्धम करते हुए सासेज ट्री के नीचे मौसम्मी का ठेला लगाए बालक ने दूसरी ओर देखते हुए कहा- बालम खीरा। मेरा सवाल वही था कि इस पेड़ का नाम क्या है। मैं उस के ज़रिये एक पीछे की दुनिया में झांकना चाह रहा था और वो मुझ से पार एक आगे की दुनिया में कुछ तलाश रहा था।
17 टिप्पणियां:
बहुत रोचक विवरण हैं बंधु। वैसे इस तरह की बेलौस जिंदगी प्राय हर उस शहर में देखने मिल जायेगी जहां आम जीवन में, बोलचाल में बैंचो...माचो की संज्ञा सर्वनाम अक्सर आते रहते हैं।
बहुत उम्दा पोस्ट।
जय हो! रातै बतियाये और सुबह ठेल दिये कनपुरिया पोस्ट!
मेरी श्रीमती जी हैरान थीं कि लैप टॉप के उपर नजर गड़ाए मैं ही ही, हे हे , हा हा, हु हु क्यों कर रहा हूँ?
मज़बूरन बताना पड़ा। बहुत दिनों के बाद इस तरह हँसा हूँ। मान गए वस्ताद !
मेरा एक दढ़ियल कनपुरिया दोस्त हुआ करता था, उसकी याद दिला दी आप ने। चन्द्र टरै सूरज टरै .. की तर्ज़ पर उसने कभी दाढ़ी नहीं कटाई। न जाने कहाँ है वह आज कल? आप दढ़ियल तो नहीं ?
आपकी थ्योरी को हेंस प्रूव्ड उ पी के तमाम शहरो ने पहले ही कर दिया है .हर सुबह से उ पी के एक शहर में चलते गाडी चलते हम भी इन्ही मधुर शब्दों से अक्सर दो चार होते है ...पोश एरिया में भी भैंसे .अक्सर समूह में गीत गाती नजर आती है ..कभी कभी सांड भी सड़क पे आपस में कबड्डी खेल कड़ी धूप में लोगो का मन बहलाव कर लिया करते है....बाकी ऐसा सुनने में आया है की उ पी पे बिजली का बड़ा कर्ज है ..ओर सरकार पे पैसा नहीं......पैसा नहीं ? अभी तो कही लगा है....
बच्चा-बच्चा जानता है कि जिसने कानपुर में गाड़ी चला ली, वो दुनिया के किसी भी इलाक़े में गाड़ी चला सकता है
एकदम दुरुस्त। बीते क़रीब तीस बरसों में हमने इस मुण्डनगरी को बदलते देखा है। पहली बार जब स्कूटर चलाया था, तब से हमने भी यही धारणा बना ली थी।
दिलचस्प पोस्ट...
मजा आ गया. सुबह ही पढ़ लिया था लेकिन टिपिया नहीं सका. बिजली गुल हो गयी थी. आज दुपहर उरई के जन्मे, कानपूर में पढ़े एक मित्र चतुर्वेदी की खिंचाई करने के लिए मसाला मिल गया था. आभार. यह जो जंगली जलेबी बोल रहे हैं, समझ में तो आ गया, लेकिन लगता है यह विदेशी है क्योंकि जहाँ जहाँ अंग्रेज रहे, वहीँ हमने इस पेड़ को पाया.
25 वर्ष पहले कुछ दिन कानपुर में गुजारने को मिले थे। वे स्मृतियाँ अब धुंधला गई हैं। पर विवरण से लगता है कुछ वैसा ही है और भीड़ व कचरा बढ़ा ही होगा।
अरे सर एक कनपुरिया वाहन चालक योग्यता आप बताने से रह गए। डिवाइडर वाली सड़क पर भी उल्टा गाड़ी पेलने वाली औ अधिकार में कोई कमी नहीं होती। साल भर से ज्यादा हम भी कानपुर के बेनाझाबर में थे ना ..
हूँ !
ए ऊपी की कानपुरी कथा मस्त है....
का बात है..अपना बहुते रेल यात्रा इहे इस्टाईल में हुआ है..एकदम झकास..मजा आ गया..शैली में सजीवता देखने लायक रही..बहुत बढिया..
कानपुर के ट्रेफ़िक का हाल पढ़ कर लग रहा है कि आप बम्बई का ही किस्सा ब्यां कर रहे हैं, कानपुर भी इतना महंगा है कि पचास ग्राम धनिया आठ रुपये का? बाप रे हम तो सोचे थे बम्बई ही महंगा है। आप ने जितने पेड़ों के नाम लिए, उनके कम से कम एक एक फ़ोटो लगा देते तो समझ में आता कि किन पेड़ों की बात हो रही है,
आप कानपुर पहुंच गये हैं तो आशा है कि माता जी की कोई नयी ताजी कविता सुनवायेगें।
कनपुरिये वो भी नवाबगंजी..
करेला ऊपर से नीम चढा
वहीँ पर हमारा भी रहा कभी बसेरा ...
कानपुर में आदरणीय फ़ुरसतिया जी ने एक व्यस्त चौराहे पर अपने रणकौशल के जलवे दिखाये थे और हम सहमकर एक कोने में ठंसे, दोनों हाथों से डैशबोर्ड को थामे और "अब के राखि लेहु भगवान" का जाप कर रहे थे|
वैसे बेफालतू और फालतू का अर्थ स्पष्ट किया जाए क्योंकि हम अब तक केवल फालतू ही बात करते आये हैं, अब बेफालतू पर भी ध्यान दिया जाएगा, ;-)
कानपुर पर कुछ नहीं कहना, अलबत्ता कार्ड के लिए एक आइडिया है- नाम और नाम के नीचे- सिर्फ फिल्मकार नहीं हूं मैं (बतर्ज अथ संयम व्यथा के अग्रभाग में दद्दा के अधोभाग से आई आवाज के)
Abhay ji! mujhe Sarpat dekhni hai. Yeh Kahin online hai?
Dhanyabad!
-Rajesh Srivastava
आपके सरस सजीव वर्णन ने तो हमें विवश कर दिया की शब्दों के पीछे पीछे मुग्ध भाव से चुपचाप चलते जायं,दायें बाएँ हुए नहीं की आनंद रस में बाधा पडी ....
बहुत बहुत लाजवाब विवरण है....आभार आपका...
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