सोमवार, 13 जुलाई 2009

एक क्रांतिकारी नैतिकता की उम्मीद

उदय प्रकाश से एक क्रांतिकारी नैतिकता की उम्मीद की जा रही है बल्कि कुछ हद तक उन पर थोपी जा रही है। वे इस नैतिकता के थोपे जाने का विरोध करने के बजाय सामने वालों पर कीचड़ उछाल रहे हैं। हिन्दी साहित्य की दुनिया का जवाब नहीं।


मसला ये है कि उदय प्रकाश गोरखपुर के एक आयोजन में भाजपा के उग्र सांसद योगी आदित्यनाथ के साथ न केवल मंच पर बैठे वरन उनके हाथों सम्मान भी ग्रहण किया। सम्मान, बताया जा रहा है कि उदय जी के दिवंगत भाई के नाम पर है।


उदय जी का सारा साहित्य वामपंथी, प्रगतिशील मूल्यों पर आधारित है। अब यह एक आम परम्परा बन चुकी है कि किसी भी साम्प्रदायिक, जातिवादी ‘आततायी’ संस्था या व्यक्ति के हाथों पुरस्कार को ठोकर मार दी जाय। अच्छी बात है। ऐसा करने वाले सभी कलावन्तों का मैं नमन करता हूँ। हालांकि ये स्वयं एक ऐसा मुकुट बन चुका है जिस के प्रति एक अभिलाषा पाली जा सकती है मुझे पुरस्कार मिला मगर मैंने ठोकर मार दी


मेरा मानना है कि जीवन और साहित्य दो अलग-अलग मामले हैं। उनमें एक साम्य अपेक्षित है पर सहज प्राप्य नहीं। जीवन ठोस और क्रूर है। साहित्य तरल और नरम है। उसमें वह बहुत कुछ व्यक्त हो सकता है जीवन जिस की राह में रोड़े अटका रहा हो। साहित्यकार समाज से हमेशा विद्रोह की मुद्रा में ही रहे यह सम्भव नहीं, वह बहुत सारे समझौते करेगा क्योंकि वह समाज का अंग है। क्रांतिकारी की बात अलग है। वह समझौतापरस्त जीवन को ठोकर मार देता है- मैं नकारता हूँ तुझे- वह एक नए समाज की निर्माण में लग जाता है।


जब तक उनके साहित्य में आपत्तिजनक रंग नहीं घुलने लगे या उनका साहित्य नक़ली और घटिया न हो जाय, हमें शिकायत क्यों होनी चाहिये? और जब होने लगे तो उन्हे बख्शना भी नहीं चाहिये। मैं पिछले दिनों उनकी एक फ़र्जी कविता पर अपनी निराशा व्यक्त कर ही चुका हूँ। इसलिए बहस उनके व्यक्तित्व के बजाय उनके कृतित्व पर होती तो बेहतर था।


दुनिया में आप के अनेको ऐसे उदाहरण मिल जाएंगे जिसमें बड़े-बड़े कलाकार अपने निजी जीवन में हिंसक, बदमिज़ाज, चोर यहाँ तक कि बलात्कारी भी हुए हैं। उदय प्रकाश ने तो ऐसा कुछ भी नहीं किया। समाज में दूसरों के तुलना में अपने सम्मान और पुरस्कारो को लेकर एक विपन्न भाव से ग्रस्त रहना एक कलाकार का मनोगत दोष है।उदय प्रकाश जैसे सफल और मशहूर लेखक का स्वयं को लांछित और उपेक्षित महसूस करना खेदपूर्ण है पर ठीक है।


उदय जी को हम क्रांतिकारी के तौर पर नहीं जानते, साहित्यकार के बतौर पहचानते हैं। न जाने किन कारणों के दबाव में उन्होने योगी आदित्यनाथ से पुरस्कार लेना स्वीकार किया। ग़ैर-साम्प्रदायिक, ग़ैर-जातिवादी होना क्या नैतिकता का सब से बड़ा पैमाना है?


और ये मान लेना भी बचकाना ही होगा कि तथाकथित ग़ैर-साम्प्रदायिक, ग़ैर-जातिवादी दुनिया में सफलता की सभी सीढ़ियाँ सुबह-शाम नैतिकता के गंगाजल से धो कर पवित्र रखी जाती हैं। आज कल के अखबारों और टीवी चैनलों के दौर में कौन अपनी चदरिया के कोरी होने का दावा कर सकता है? दिक़्क़त बस इतनी सी है कि उदय प्रकाश स्वयं दूसरों को गाली देते वक़्त इन्ही मापदण्डो का सहारा लेते हैं।


और एक दुख की बात ये भी है कि हम लोग बेहद असहिष्णु हो चुके हैं। किसी भी छोटी सी ग़लती को हम नज़रअंदाज़ करने को तैयार नहीं। मित्रों ने उदय प्रकाश पर जम कर आक्रमण किया मगर शालीन। पर देख रहा हूँ कि उदय जी आक्रमण से तिलमिलाकर अपनी शालीनता का विस्मरण कर बैठे। और उन्होने उलटा आरोप लगाया है कि उन की आलोचना करने वाले सभी लोग साम्प्रदायिक, जातिवादी और न जाने क्या क्या हैं।


इस तरह की होने वाली बहसों के दौरान मुझे ये बोध हुआ है कि आजकल किसी भी व्यक्ति की इज़्ज़त उतारनी हो तो उसे साम्प्रदायिक और जातिवादी की गाली दे दो। अच्छी बात यह है कि ये मूल्य असभ्यता का प्रतीक माने जा रहे हैं। अफ़सोस की बात ये है कि उदय प्रकाश जैसे साहित्य का शिखर कहे जाने वाले व्यक्ति के इस आरोप के मूल में वही असत्य और अश्लील भाव है जिसकी अभिव्यक्ति पहले माचो-बैंचो में होती थी अब ऐसे हो रही है।


9 टिप्‍पणियां:

Arvind Mishra ने कहा…

उदय प्रकाश जी की रचनाये मैंने पढी हैं और पाया है है वे पूरे परिपक्व और क्षमताशील रचनाकार है -अगर उन्होंने खुद के गाम्भीर्य से समझौता कर लिया है तो फिर उन कारणों को तलाशना होगा की एक प्रतिभासंपन्न रचनाकार मौजूदा समाज में कहाँ कमजोर पड़ रहा है और इसकी जिम्मेदारी खुद उसकी है या समाज भी अपने उत्तरदायित्व को समझेगा !
मुझे तो लगता है पुरस्कार लेकर उन्होंने कोई गलत नहीं किया ! कौवों की आदत है कर्कश कलरव करना !

चंद्रमौलेश्वर प्रसाद ने कहा…

साहित्यकार कब से राजनीतिक फ़तवे देने लग गए और किसी पार्टी को साम्प्रदायिक या अन्य कोई लेबल देना का हक़ उन्हें मिल गया। यदि साहित्यिक मुद्दे पर उदयप्रकाशजी जैसे साहित्यकार की खिचाई होती तो बात और थी, पर यहां तो राजनीतिक धरातल पर बात हो रही है- जो शायद साहित्यिक फ़ोरम पर नहीं ही होनी चाहिए थी।

सिद्धार्थ शंकर त्रिपाठी ने कहा…

यह मुद्दा सिरे से ही गलत दिशा में खींचा जा रहा है। वस्तुतः योगी आदित्यनाथ को साम्प्रदायिकता का प्रतीक मानने वाले बुद्धिजीवी बहुत कुछ नज़र‍अन्दाज कर रहे हैं। गोरक्षपीठ की परम्परा में केवल कट्टर हिन्दुत्व को रेखांकित करना भारी भूल है। वामपन्थी राजनीति के खटरागी एक पिटी-पिटायी लकीर पर चलने के आदी हैं। प्रतीकों के दायरे से बाहर आ ही नहीं सकते। योगी की जीवनशैली, आचार व्यवहार और समाज के सभी वर्गों के प्रति उनकी आत्मीयता देखनी हो तो रोज सुबह उनके पास आने वाले फरियादियों और भक्तों की भीड़ देखनी चाहिए। मुझे विश्वास है कि तथाकथित सेकुलरवादी अपनी सोच पर शर्मसार हुए बिना नहीं रह पाएंगे।

जिस व्यक्ति के नेतृत्व पर वहाँ की जनता ने लगातार बीसियों साल से विश्वास किया हो और लगातार सांसद बनाकर भेंजती रही हो उसे ये तथाकथित उल्टेहाथ के बुद्धिजीवी त्याज्य और अस्पृश्य बनाने की कोशिश करके स्वयं हास्यास्पद बन रहे हैं।

azdak ने कहा…

वाजिब है भाई वाजिब है.

अजित वडनेरकर ने कहा…

सहमत हूं। हमने भी यही कहा कि योगी के हाथों पुरस्कार पाने से उदयजी-कबाड़खाना वाला प्रसंग नहीं जन्मा बल्कि उदयजी की अप्रत्याशित तीखी प्रतिक्रिया से जन्मा। वह शालीन नहीं थी।

बाकी रही बात पुरस्कार की तो उससे कहीं ज्यादा ज़रूरी एक संबंधी होने के नाते वहां जाना उनके लिए कितना ज़रूरी रहा होगा, इसे समझा जा सकता है। साहित्यकार का भी घर-परिवार होता है।

अजित वडनेरकर ने कहा…

माचो-बैंचो की भी खूब कही:)

दिनेशराय द्विवेदी ने कहा…

अजित जी की बात सही है।

Unknown ने कहा…

1) "...उदय जी का सारा साहित्य वामपंथी, प्रगतिशील मूल्यों पर आधारित है..." क्या कहने। प्रगतिशीलता का पैमाना क्या है और किसने तय किया? और ऐसी "ढोंगी" प्रगतिशीलता को ही ठोकर मारने वाला क्या कहा जायेगा?
2) "…अब यह एक आम परम्परा बन चुकी है कि किसी भी साम्प्रदायिक, जातिवादी ‘आततायी’ संस्था या व्यक्ति के हाथों पुरस्कार को ठोकर मार दी जाय…"/ यानी पुरस्कार सिर्फ़ वामपंथी या कांग्रेसी विचारधारा के मंच से ही लिये जा सकते हैं, भले ही उनके हाथ कितने भी खून से सने हों।

बोधिसत्व ने कहा…

अभय भाई
आपकी दोहरे जीवन की बात हजम नहीं हुई। यह कैसे हो सकता है कि कोई प्रगतिशील लेखक लिखे कुछ जिए कुछ। फिलहाल हिंदू वाहिनी के योद्धा और खुलेआम खुद को मुसलमान संहारक कहलाने वाले योगी आदित्यनाथ जैसों के साथ किसी मान्य लेखक का कैसा भी सामाजिक मेल मिलाप एक सहज घटना नहीं है। भारतीय समाज में या तो शुद्ध डाकू पूज्य है यै शुद्ध संन्यासी। योगी आदित्य नाथ अपने इलाके में अपनी शुद्ध मुसलमान उन्मूलक उन्मादी क्रिया कलापों के कारण ही जाना और पूजा जाता है। हिंदी समाज में डबलरोल की परम्परा को अभी तक तो को कोई मंजूरी नहीं मिलती दिख रही है। उदय जी ने यदि पारिवारिक आयोजन में भी योगी जैसों के साथ यह सहभागिता बनाई है और इसके पीछे उनकी कोई आत्मिक मजबूरी है तो भी यह घटना स्वागत योग्य नहीं अपितु निंदनीय है। क्योंकि हिंदी को उदय प्रकाश से यह उम्मीद नहीं थी। उदय जी से यह पूछा ही जाना चाहिए जाना चाहिए कि तय करो किस ओर हो तुम। आदमी के साथ हो या कि आदमखोर हो तुम।

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