सोमवार, 6 जुलाई 2009

एक छिलके में दो गिरियां

मुझे याद हैं वो दिन जब मैं और मेरा दोस्त बादाम के एक छिलके में दो गिरियों जैसे बने रहते। फिर अचानक हम बिछड़ गए। कुछ वक़्त बाद मेरा दोस्त लौटा और मुझ पर इल्ज़ाम धरने लगा कि मैंने उस दौरान कोई क़ासिद भी क्यों न भेजा। मैंने कहा कि जिस हुस्न से मैं महरूम हूँ उस पर किसी क़ासिद की नज़र क्यों पड़े?


न दे मुझे सलाहे ज़ुबानी कह दो मेरे यार से।

क्यूंकि तोबा करूँ ये होगा नहीं ज़ोरे तलवार से॥


देख नहीं सकता कि हो तू ग़ैर से रज़ामन्द।

मैं फिर कहता हूँ कि हो सबका मज़ा बन्द॥


तेरहवीं सदी के शाएर शेख सादी की यह लघुकथा समलैंगिक प्रेम पर आधारित है। गुलिस्तान में संकलित इस लघुकथा के आधार पर भले ये सिद्ध न हो कि शेख सादी लौंडेबाज़ थे मगर ये तो ज़रूर पता चलता है कि उनके काल में भी यह तथाकथित बीमारी मौजूद थी। वेश्यावृत्ति की तरह इसका भी इतिहास बड़ा पुराना है। बाईबिल के पुराने विधान में भी इसका ज़िक्र मिलता है। सोडोम नाम का एक शहर था (इसी के नाम से समलैंगिकता सोडोमी कहलाई), जिसके निवासी सलोनी लड़कियों के बजाय खूबसूरत लड़कों के लिए मचलते थे। बाईबिल घोषणा करती है कि ईश्वर ने उनके शहर पर बिजली गिरा कर उन्हे उनके अपराध की सजा दी।


बावजूद इस के तीनों अब्राहमपंथी धर्मावलम्बियों की परम्पराओं में इस बीमारी की उपस्थिति बनी रही। यहूदियों, योरोपीय ईसाईयों और अरब मुस्लिम और ग़ैर अरब मुस्लिम समाजों में समलैंगिकता अबाध रूप से चलती रही। इस रुझान के लोगों की सूची में तमाम बड़े-बड़े नाम हैं जिसमें लियोनार्दो दा विंची जैसे कलाकार और बाबर जैसे सेनानायक शामिल हैं। मैंने इस ब्लॉग पर पहले भी मीर के शौक़ के बारे में लिखा है-


मीर क्या सादे हैं बीमार हुए जिसके सबब,
उसी अत्तार के लड़के से दवा लेते हैं।


ऐसी लौंडेबाज़ी को धर्म और नैतिकता तब भी नहीं स्वीकारती थी। मगर नसीब वाले थे मीर कि उनके समय इस तरह के रुझान अपराध नहीं थे। अंग्रेज़ो के आने के बाद लॉर्ड मैकाले ने क़ानून बना के इसे अपराध घोषित कर दिया। आज हमारे देश में अदालत के आदेश से यह सम्बन्ध अपराध नहीं रहा। इस कारण से बड़ा हो-हल्ला है। लोग नाराज़ हैं। संस्कृति और परम्परा, धर्म और नैतिकता की दुहाई दे रहे हैं। उनका मानना है कि ये रुझान अप्राकृतिक है इसलिए निन्दनीय है। और समाज के लिए घातक है और इसीलिए आपराधिक है।


एक तर्क यह भी सुनने को मिलता है कि पशु ऐसा नहीं करते! वैसे यह पूरी तरह सच नहीं है कुछ पशु समलैंगिक व्यवहार प्रदर्शित करते पाए गए हैं। एक अन्य तर्क यह भी दिया जाता है कि ये लोग जो समलैंगिक सेक्स की आज़ादी चाहते हैं कल को पशुओं से सेक्स करने की भी इजाज़त माँगेंगे? मैं ऐसे लोगों के तर्कों के आगे ध्वस्त हो जाता हूँ। क्या कोई सचमुच इजाज़त माँग कर यह काम करता है। क्या कल तक इजाज़त न होने पर लोग समलैंगिक सेक्स नहीं कर रहे थे और आज आज़ादी मिल जाने पर मुफ़्तिया माल की तरह टूट पडेंगे?


क्या इन का सोचना यह है कि हर व्यक्ति के भीतर समलैंगिक सेक्स की ऐसी भयानक चाह है कि अपराध का डर हटते ही समाज में प्रेम का स्वरूप धराशायी हो जाएगा? बाबा रामदेव कहते हैं कि आदमी आदमी पर चढ़ने लगेगा तो बच्चे कैसे पैदा होंगे? यएनी बाबा मानते हैं कि लोग डण्डे के डर से मन मार के बैठे हैं? हास्यास्पद है ये सोच!


क्या आप ने ऐसे व्यक्ति नहीं देखे जो नर के शरीर में क़ैद नारी हैं और ऐसे भी जो नारी के शरीर में क़ैद नर हैं? ज़रूर देखें होंगे। पर मैं इस से अलग जा के एक और बात कहना चाहता हूँ- नर और नारी के चरित्र की यह श्रेणियां ही ग़लत हैं। यह वास्तविक नहीं कल्पित हैं। मानवीय गुण-दोषों की ये शुद्ध परिभाषाएं है। मगर वास्तविकता में कोई तत्व शुद्ध नहीं मिलता। शुद्ध तत्व प्रयोगशालाओं में अशुद्ध तत्वों से अलग कर के पाए जाते हैं। मेरी नज़र में तो ग़लत ये है कि नर-नारी के एक कल्पना की गई छवि के आधार पर लोगों के बारे में कोई फ़ैसला करे। फ़ैसला करे तो करे ये तो हद ही है कि फिर उन्हे आपराधिक घोषित करे? अब आप बताइये कौन प्राकृतिक है?


यह ठीक है कि मनुष्य के शरीर में यौन अंग प्रजनन के उद्देश्य से उपजे हैं। और यह बात भी तार्किक लगती है कि जो चीज़ जिस उद्देश्य के लिए बनाई गई हो वो उसी उद्देश्य के लिए प्रयोग की जाय। मगर प्रकृति ऐसा नहीं करती। प्रजनन के लिए एक शुक्राणु ही चाहिये होता है मगर प्रकृति उन्हे करोड़ो के संख्या में पैदा करती है। बबून के समूह में एक बंदर ही प्रजनन करता है मगर प्रकृति प्रजननांग सभी नर बंदरो को प्रदान करती है। पूछा जाना चाहिये कि प्रकृति हर चीज़ नाप-तौल के क्यों नहीं करती? और उद्देश्य के तर्क से घायल ये सारे लोग क्या अपना सारा यौनाचार प्रजनन के उद्देश्य से ही करते हैं?


समलैंगिकता प्रकृति के विरुद्ध है। चलिए माना। पर मनुष्य के जीवन में क्या और कुछ भी नहीं जो प्रकृति के विरुद्ध है? पका हुआ भोजन भी प्रकृति के विरुद्ध है। समलैंगिकता का विरोध करने वाले क्या मिर्च-मसाले छोड़ कर कच्चा भोजन खाना शुरु कर सकेंगे? ईंट-गारे की इमारतें, मोटरकार, और पैसा-रुपया भी तो प्रकृति के विरुद्ध है। और तो और कपड़े भी प्रकृति के विरुद्ध है। पश्चिम में एक ऐसा आन्दोलन है जो प्राकृतिक होने की ज़िद में ऐसे समुदाय बना के रहते हैं जिसमें कपड़ों का कोई इस्तेमाल नहीं। क्या समलैंगिकता के विरोधी कपड़े उतार के नंगे रहना पसन्द करेंगे क्योंकि ईश्वर ने हमें कपड़े पहना के नहीं भेजा?


और सबसे बड़ा प्रकृति का विरोधी तो धर्म है। प्रकृति तो किसी धर्म को नहीं मानती। वो न तो गाय खाने से मना करती है न सूअर खाने से। प्राणी जगत में तो हर जन्तु स्वतंत्र है उस पर कोई बन्दिश नहीं। और इस तर्क से तो मनुष्य पर इस तरह की बन्दिशें लगाने वाला धर्म आप ही अप्राकृतिक है। और समलैंगिको का अपने स्वभावाविक आकर्षण के प्रति जवाबदारी बरतना प्राकृतिक।


मैं मानता हूँ कि नैतिकता समाज को स्वस्थ रखने का एक बेहतर आचरण है। पर नैतिकता स्थिर तो नहीं रहती। देश-काल-परिस्थिति के सापेक्ष है। निरन्तर बदलती है।और धार्मिक दृष्टि से तो समलैंगिकता अभी भी अनैतिक है न! उसे अवैध बनाकर समलैंगिकों को निशाना क्यों बनाना चाहता है धार्मिक नेतृत्व? कहीं ये चोर की दाढ़ी में तिनके वाली बात तो नहीं?


प्रकृति का नियम है जहाँ पानी रोका जाय वहाँ दबाव सबसे तेज़ होता है। साथ ही मैंने अक्सर महसूस किया है कि धर्म और यौनाचार एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। तंत्र कहता है कि दोनों एक ही ऊर्जा का उपयोग करते हैं। शायद इसीलिए दोनों में ऐसा ज़बरदस्त विरोध है। पर वो दूसरी बहस है।


अंत में इतना ही कहूँगा कि मनुष्य का स्वभाव, सामाजिक और धार्मिक नैतिकता से कहीं जटिल है और प्रकृति के अनन्त भाव मनुष्य के सामाजिक परिपाटियों से कहीं विराट है।


क्या आप जानते हैं कि किशोर डॉल्फ़िन्स वयस्कता पाने के पहले अन्य प्रजातियों के जन्तुओं के साथ यौनाचार के प्रयोग करते हैं?

9 टिप्‍पणियां:

नीरज गोस्वामी ने कहा…

अभय जी आपके विचारों से चाहे कोई सहमत हो न हो लेकिन आपकी लेखन शैली के सब कायल हैं.अपने विचारों को इतनी स्पष्ट तरह से व्यक्त करना आसान काम नहीं. ओशो की वाणी में ही ये साफ़ गोई हुआ करती थी...बहुत सार्थक लेख...
नीरज

अफ़लातून ने कहा…

क्या ठोस प्रस्तुति है । लौंडा-नाच देखना जैसे लालू से जुड़ा तिनका है ।

के सी ने कहा…

फिराक़ साहब के बारे में सुना था कि एक छात्रा सीढीयाँ चढ़ के तेजी से ऊपर की ओर जा रही थी कि सामने फिराक़ आ पड़े वह लड़की किसी लड़के के पीछे थी, कहते हैं तब उन्होंने उसे रोक कर कहा था "तुम जिस की फिराक़ में हो फिराक़ उसकी फिराक में हैं" किस्से तो और भी बहुत है पर किस्सा कहने का जो अंदाज आपका है उसी को सलाम है .

डॉ .अनुराग ने कहा…

इधर कुछ दिनों से अनेक तर्क सामने आ रहे है .एक तर्क लोग खुजराहो का भी देते है....पर क्या खुजराहो हमारी सभ्यता के यौन व्यवहार की नियमावली है जो दिखायेगी उसे मानना पड़ेगा ..उसमे तो एक स्त्री को अनेक पुरुषों के साथ ओर एक पुरुष को अनेक स्त्रियों के साथ मैथुन रत दिखाया है....फिर ?पशु के साथ ?
प्रकति ने हर अंग की व्यवस्था की है ..यदि आप फेफडो से जिगर का काम लेगे तो ?जाहिर है ये प्रकति के नियम है स्वस्थ शरीर को रखने के ......जिसमे एक स्वस्थ यौनाचार भी है......
माना की मनुष्य ने प्रकति के कई नियमो को तोडा है जाहिर है आप एक गलत कृत्य को सही साबित करने के लिए दूसरे गलत कृत्यों का सहारा नहीं लेंगे ...ये मनुष्य का यौन व्यवहार में नयी उत्तेजना खोजने का परिणाम ही है की हमने कई ऐसे यौन जनित रोगों की उत्पत्ति की है जो आने वाली पीडियों के लिए मुश्किल पैदा करेगे ..
मानवो के समूह ने समाज की रचना की .उसके कई नियम बने जिसमे एक परिवार ,एक पत्नी ....शादी से पहले एक उम्र तक पहुंचना आदि है .जाहिर है समाज की भलाई के लिए कुछ अनुशासन ओर नियम भी है ..एक स्वस्थ समाज के लिए स्वस्थ आचरण भी जरूरी है ....यदि जनसँख्या में कुछ प्रतिशत व्यक्ति किसी भी कारणवश दूसरे यौनिक व्योव्हार की तरफ उन्मुख होते है ...तो दुर्भाग्य से उनके इस यौनिक व्योव्हार से समाज में कुछ यौन जनित रोग फैलने का खतरा ज्यादा रहता है ....
हाँ यदि आप कहे की उनके कुछ मूल अधिकारों की रक्षा की जाए जैसे की बैंक में अकाउंट ,नौकरी ,मकान मिलना तो उनकी मांग जायज है ...पर इस निर्णय पर सामाज के हर तबके की राय ओर एक बहस की आवश्यकता है .....
कुछ निर्णय समाज के हित में लेने होते है वहां व्यक्ति या किसी समूह की इच्छा सर्वोपरि नहीं होती खास तौर से जब वो मुख्या धारा के विपरीत हो ...सोचिये कल को लोग विवाह जैसी सरंचना को नकार कर उसके बगैर रहने की मांग मांगे तो बच्चो का भविष्य क्या होगा ...ये एक समूह की मनोवार्तियो का सचाई से भागने का गैर वाजिब तार्किक सामूहिक प्रयास है ...

Vinay ने कहा…

कामयाब

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चर्चा । Discuss INDIA

ghughutibasuti ने कहा…

अभय, जब कोई बात तर्क सहित कही जाए तो असहमत होने का प्रश्न ही नहीं है। आपका लेख तर्कसंगत है। समलैंगिक व्यक्ति कैसे रहना चाहता है यह उसका निजी मामला है। जब तक कोई अपने व्यवहार से किसी अन्य को जानबूझकर कष्ट नहीं देता किसी को दखल नहीं करना चाहिए। यह नियम प्रत्येक पर लागू होता है, चाहे किसी की जीवन पद्यति हमारे अनुकूल हो या प्रतिकूल।
घुघूती बासूती

Farid Khan ने कहा…

बहुत सही लिखा है आपने।
सेक्स का आनन्द सबका निजि मामला है, इस आनन्द के अनुभव की आज़ादी सबको होनी चाहिए।

Unknown ने कहा…

bahut sahi kaha aap ne, apne ghar main koi kaun sa achar khaye , is se kisi ko kya pareshani hogi.

http://www.bhaskar.com/2009/07/08/0907081444_bhaskar_editorial.html

अभय तिवारी ने कहा…

डॉक्टर अनुराग @

आप की टिप्पणी ने मेरी एकांगी पोस्ट का दूसरा पक्ष उजागर कर दिया। मैं आप की राय का सम्मान करता हूँ। मेरा कहना यह नहीं है कि ग़लत को ग़लत से सही सिद्ध कर दिया जाय। मेरी आपत्ति उन्हे अपराधी बनाने से है। अपराधी को सज़ा होती है और बीमार का उपचार।

अगर उन्हे एड्स से बचाना है तो पहले उन्हे सज़ा के डर से मुक्त करना होगा ताकि वे स्वतंत्र हो कर अस्पताल आ सकें। चरस बेचना अपराध है (पीना नहीं) मगर चरस बेचने और पीने वाले खत्म हो गए क्या? (पीने वाले पकड़े जाते हैं अगर १० ग्राम से ज़्याद हो पास में) सिगरेट बेचना अपराध नहीं तो क्या पूरा समाज स्मोकर हो गया। नई पीढ़ी तो बिलकुल स्मोकिंग के खिलाफ़ है।

और समलैंगिक लोगों को अपराध के दायरे से बाहर करने का अर्थ यह नहीं है कि समाज में लोग बच्चे पैदा करने बंद कर देंगे। समलैंगिकता का हज़ारों सालों का इतिहास है, अपराध तो यह हाल में हुआ है। यदि आप का डर वास्तविक होता तो हम यहाँ होते ही नहीं।

बहुसंख्यक या मुख्यधारा का चलन हमेशा सर्वमान्य होना चाहिये यह भी सोचना ठीक नहीं है। एक पैर वाले लोग अल्पसंख्यक है तो क्या उन्हे दो पैरों पर चलने पर मजबूर किया जाना चाहिये?

और बीमार और विकलांग के तर्क सिर्फ़ तर्क के लिए हैं ये न समझा जाय कि मैं समलैंगिकता को बीमारी या विकलांगता के बराबर रख रहा हूँ।

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