गुरुवार, 29 जनवरी 2009

खालिस मुम्बईया पावभाजी

जी देख ली स्लमडॉग मिलयनेयर। बड़ी चर्चा है फ़िल्म की। देखने के पहले ही तमाम हू-हा सुना। कुछ लोगों ने कुछ कहा। कुछ ने मेरी तरफ़ भी किसी बयान की उम्मीद से तरेरा। पर मैं चुप रहा। आज बोलने को तैयार हूँ।

कैसी लगी? मुझे अच्छी नहीं लगी! ह्म्म.. मतलब मैं अमिताभ बच्चन के बात से सहमत हूँ? नहीं! उन्होने क्या लिखा.. लोगों ने क्या समझा.. उस डिबेट से मैं दूर रहना चाहता हूँ। निजी तौर पर इस फ़िल्म में मुझे कोई मनोरंजक तत्व नहीं मिला बावजूद इसके कि यह फ़िल्म भारत की जटिल सच्चाईयों को सफलता से दो घण्टे में क़ैद कर लेती है।

कुछ इस तरह कि जो भारत को दूर से देख रहे हैं वो अश-अश कर उठते हैं। वैसे ही जैसे मैं औरे मेरे जैसे वर्ल्ड सिनेमा के दूसरे विद्यार्थी योरोपीय, चीनी, ईरानी, वियतनामी और ब्राजीली सिनेमा में देखी गई सच्चाई के आगे धराशायी हो जाते हैं। हमारे लिए वो हमारे मानस में एक अद्भुत रस का संचार करती हैं। मगर क्या मारिया फ़ुल ऑफ़ ग्रेस क्या कोलम्बियाई लोगों के लिए भी एक रोंगटे खड़े कर देने वाली फ़िल्म होगी?

स्लमडॉग फ़िल्म मुझे अच्छी नहीं लगी क्यों कि मेरे लिए उसमें ऐसा कुछ भी नहीं था जिसे देखकर मैं कह उठता अद्भुत! फिर मुझे फ़िल्म की सरपट गति और भन्नाता हुआ संगीत भी पसन्द नहीं आया। दो गाने ज़रूर अच्छे हैं मगर वो भी रहमान का बेस्ट वर्क नहीं है। ये दीग़र बात है कि उसके लिए रहमान साहब को आस्कर से नामांकित किया गया है।

मेरे दूसरे कई दोस्तों को भी फ़िल्म पसन्द नहीं आई लेकिन हमारी राय बुरी तरह माइनॉरिटी में है। दुनिया भर के लोग इस फ़िल्म को महान फ़िल्म बता रहे हैं। IMDB पर उसका स्कोर ८.७/१० और rotten tomatoes पर उसका स्कोर ९४% है। आखिर ऐसा क्या है इस फ़िल्म में जिस पर विदेशी जनता इस तरह फ़िदा हो गई है? फ़िल्म के डाइरेक्टर डैनी बॉय्ल का कहना है कि उनकी फ़िल्म सत्या, दीवार, कम्पनी और ब्लैक फ़्राईडे से प्रभावित है । यानी उनमें दिखाई गई भारत की सच्चाई से।

तो स्लमडॉग का सच क्या है? उसमें भारत की कैसी छवि दिखाई गई है? मैंने ग़ौर से देखा तो पाया कि भारत जिन चीज़ों के लिए जाना जाता है वो सब कुछ है इस फ़िल्म में- पुलिस लॉकप में पिटाई और यातना, अमीर वर्ग का ग़रीब वर्ग की मक़्क़ारी पर गहरा भरोसा, गन्दगी, हगते हुए लोग, गन्द में नहाए हुए लोग फिर भी जीवन के प्रति उत्साहित लोग, हिन्दू-मुस्लिम दंगे, भिखारी, भिखारियों के गैंग, क्रिकेट, फ़िल्म स्टार्स और उनके प्रति दीवानगी, प्रेमियों का मिलना, बिछुड़ना और फिर मिलना, बचपन का प्यार, भाईयों का प्यार और झगड़ा, भाई की भाई से गद्दारी, भाई का भाई के लिए बलिदान, ट्रेन, प्लेटफ़ॉर्म, रोटी, रोटी की चोरी, ताजमहल, इतिहास और इतिहास का मिथक, माफ़िया, रण्डिया, खून, बच्चे, बच्चों के प्रति हिंसा, गालियाँ, टीवी, कौन बनेगा करोड़पति, अमिताभ बच्चन, कॉल सेन्टर, क्न्स्ट्रक्षन बूम और ऑपेरा।

ऑपेरा? वो शायद डाइरेक्टर का अपना कुछ ऑबसेशन होगा। बस एक ऑपेरा को छोड़कर बाक़ी सारे विषय भारत को परिभाषित करते हैं। फ़िल्म में जो कुछ दिखाया गया वो सच भले न हो पर वो भारत के तथाकथित सच से बहुत दूर भी नहीं हैं। मगर उनको पेश करने का अन्दाज़ खालिस मुम्बईया पावभाजी वाला है। जिनको रहमान के फ़र्राटेदार संगीत के तड़के के साथ परोसा गया है।

विदेशी जनता के लिए इतने सारे तत्वों का एक साथ होना एक नया अनुभव है और शायद फ़िल्म की इतनी बड़ी सफलता की वजह है। पर तत्वों का यही मसालेदार तमाशा मेरे लिए मनोरंजक न बन सका। वैसे भी मुझे कभी पावभाजी पसन्द नहीं आई।

2 टिप्‍पणियां:

लावण्यम्` ~ अन्तर्मन्` ने कहा…

"पाव -भाजी " हम भी एकदम लज़ीज़ बनाते हैँ पर हमारी सब से क पसँदीदा डीश है और ये फिल्म हमेँ भी पसँद नहीँ आई ..
& do see my post -
http://www.lavanyashah.com/2009/01/blog-post_22.html

[पिछले दिनोँ ये फिल्म देखी और उस पर कई प्रतिक्रियाएँ भी पढीँ - अमरीका मेँ जब बास्केट बोल का खेल हो और गेँद नेट मेँ निशाने से पार हो जाये उसे कहते हैँ " स्लैम डँक़ " यही किया है इस फिल्म स्लम डोग ने और अमरीकी आदत हमेशा "अँडर डोग " माने जो सर्वथा माइनस लिये हो उसके पक्ष मेँ सहानूभुति जताने मेँ अव्वल है सो, ये "अँडर डोग " बालक की गाथा भी विजयी हुई बोक्स ओफिस पर "वर्ड ओफ माउथ " माने एकदूसरे के कहने से सर्वाधिक लोकप्रियता प्राप्त करने मेँ सफल हुई है - "गोल्डन ग्लोब विजेता रहमान को लोग पहचानने लगे हैँ ..और स्लेम डँक़ - अँडर डोग मीलीयेनर"]

- लावण्या

इरशाद अली ने कहा…

गुरुजी आदमी है आप

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